________________
जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
होती है, जगत् में जो समस्त क्रियाएं हो रहीं है उनमें उसका कर्तृत्व नहीं है । इस अव्यावहारिक एवं भ्रामक सिद्धान्त को मानने वाले महावीर के मत में पुरुषार्थहीन होकर हिंसा से बंधकर आरम्भयुक्त होकर घोर अंधकार में चले जाते हैं। इस सिद्धान्त को मानने पर व्यक्ति के जीवन में किसी कार्य का कोई स्थान नहीं रहेगा क्योंकि आत्मा हर स्थिति में अकारक है । पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, विविध गतिरूप संसार इन सब का अस्तित्व शून्य हो जाएगा । अतः आत्मा को एकान्त रूप कूटस्थ नित्य मानना असंगत है और जैन दृष्टि से सभी पदार्थ को किसी अपेक्षा से नित्य और किसी अपेक्षा से अनित्य मानना ही संगत है।
xxii
शोध का षष्ठ अध्याय नियतिवाद है । इसमें सर्वप्रथम ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में नियति के स्वरूप को दर्शाया गया । भारतीय दार्शनिक इतिहास में जब से संस्कृति में धर्म का अवतरण हुआ है तभी से नियतिवादी अवधारणा अस्तित्व में है। इतिहासकारों के मत में गोशाल मंखलिपुत्त ने आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना की जो नियतिवाद सम्बन्धी सिद्धान्तों पर आधारित संघ था । यद्यपि इनके पूर्व भी आजीवक साधुओं का अस्तित्व प्रमाणित होता है। दूसरे बिन्दु में 'मंखली' और 'आजीवक' शब्द की सामान्य चर्चा की गई । तत्पश्चात् जैन आगमों के आधार पर नियतिवाद का प्रतिपादन किया गया। अन्य मतों की अपेक्षा नियतिवाद का आगमों में विस्तार से विवेचन प्राप्त होता है
। इस सिद्धान्त के अनुसार समस्त चराचर जगत् के सारे क्रियाकलाप, नियति नामक ब्रह्मांडीय शक्ति के अधीन हैं एवं पुरुषार्थ, कर्म, वीर्य जैसी कोई वस्तु
1
नहीं है । नियति के कारण ही व्यक्ति विभिन्न पर्यायों को प्राप्त होता है । अगले बिंदु में जैन और बौद्ध परम्परा में आजीवक आचार का तुलनात्मक दृष्टि से विश्लेषण किया गया ।
जैन और बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर आजीवक चर्या बताने के पश्चात् गोशाल के कुछ अन्य सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया। इसके बाद वैदिक परम्परा में वर्णित कुछ नियति सम्बन्धी अवधारणाओं के तथ्यों को संक्षेप में रखा गया। अन्त में नियतिवाद पर जैन दृष्टि से समीक्षा की गई। नियति सिद्धान्त को मानने वाले महावीर के मत में मिथ्यादृष्टि अनार्य हैं, जिनकी मुक्ति असंभव है । यद्यपि जैन दर्शन में भी किन्ही अर्थों में नियति सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है जैसे कर्मों का एक भेद है - निकाचित कर्म जिसे बिना