________________
भूमिका
xxiii
भोगे क्षीण नहीं किया जा सकता। अतः यह व्यक्ति की नियति ही है कि उसे निकाचित कर्मों को भोगना ही पड़ता है। वहीं दूसरी तरफ जैन दर्शन में वीर्य, पुरुषार्थ, कर्म आदि का बहुत महत्त्व भी प्रतिपादित हुआ है। यहाँ व्यक्ति के कर्म और कर्मफल को व्यक्ति के स्वयं के अनुसार निर्धारित माना है, नियति के अधीन नहीं।
सप्तम अध्याय महावीरकालीन अन्य मतवाद से सम्बद्ध है। इसमें 600 ई.पू. में प्रचलित विभिन्न वादों का उल्लेख है। इस अध्याय के अन्तर्गत सर्वप्रथम विभिन्न मतवादों की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न विद्वानों के विचारों को स्पष्ट किया गया तथा जैन आगम में भिन्न-भिन्न मतवादों का उल्लेख क्यों हुआ वह भी बताया गया। श्रमणों के 40 से भी अधिक सम्प्रदाय महावीरयुग में अस्तित्व में थे, उनमें से मुख्य पांच-निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, परिव्राजक और आजीवक थे। यहां निर्ग्रन्थ, तापस, और परिव्राजक की साधना-पद्धति का सामान्य उल्लेख किया गया। शाक्य और आजीविक की साधनाचर्या का शोध के अन्य अध्यायों में स्वतन्त्र रूप से विवेचन किया गया। अगले बिन्दु में जैन आगमों में वर्णित विभिन्न प्रकार के श्रमणों यथा-कान्दर्पिक, कौकुचिक, मौखरिक, गीतरतिप्रिय, नर्तनशील आदि का उल्लेख किया गया। भगवती में देवगति में उत्पन्न होने योग्य दस प्रकार के साधकों, जिसमें दर्शनभ्रष्ट स्वतीर्थिक (निहव) का भी उल्लेख हुआ है, का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया।
अगले बिन्दु में चार समवसरण अवधारणा-क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद का वर्णन किया गया। महावीर क्रियावादी थे। इसके लिए अनेक जैन आगमिक प्रमाणों को प्रस्तुत किया गया।
__महावीर युग में भी सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी विविध मत जगत में प्रचलित थे। इनमें मुख्यतः छः प्रकार की मान्यताएँ, जिनमें-देवकृत सृष्टि, ब्रह्माकृत सृष्टि, ईश्वरकृत सृष्टि, प्रधानकृत सृष्टि, स्वयंभू अथवा विष्णुकृत सृष्टि, अण्डकृत सृष्टि आदि प्रचलन में थी, का संक्षिप्त विवरण आगमों के आधार पर किया गया। इसके अतिरिक्त जैन आगमों में आगत कर्मोपचय अर्थात् कर्म का उपचय या आदान किस माध्यम से अथवा किस क्रिया से अधिक तीव्र होता है, का तथा अवतारवाद का विवेचन किया गया।