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भूमिका
xxi
का अस्तित्व कुछ काल तक ही रहता है । क्षणिकवाद के अन्तर्गत जो बौद्ध दर्शन निहित है, वह निरपेक्षता एवं शाश्वतवाद का निःसंदेह खण्डन है ।
जैनागमों में बौद्धों की क्षणभंगी पंचस्कन्धवाद एवं चातुर्धातुकवाद मान्यता का निरूपण मिलता है। बौद्धों के अनुसार पंचस्कन्ध-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान है तथा ये पंचखंध क्षणयोगी हैं । वे स्कन्धों से अन्य या अनन्य आत्मा को नहीं मानते तथा सहेतुक ( कारण से उत्पन्न) और अहेतुक (बिना कारण से उत्पन्न ) आत्मा को भी नहीं मानते ।
अध्याय के अन्त में क्षणभंगी पंचस्कन्धवाद एवं चातुर्धातुकवाद सिद्धान्त का जैन आगम सम्मत निराकरण किया गया। बौद्धों के क्षणिकवाद के अनुसार न केवल आत्मा अपितु चराचर जगत् की सब वस्तुएं और क्रियाएं क्षणिक हैं । अतः क्रिया भी क्षणिक एवं आत्मा भी क्षणिक है तब तो व्यक्ति का हर पुरुषार्थ निरर्थक होगा यहां तक कि निर्वाण प्राप्ति हेतु अष्टांगिक मार्ग का साधना उपक्रम भी व्यर्थ ही होगा। क्योंकि कर्मफल भी क्षणिक होगा। इस प्रकार क्षणभंगवाद-निरूपित वस्तु का सर्वथा अभाव कदापि संगत नहीं है। अतएव जैनदृष्टि से वस्तु का पर्याय ( अवस्था ) परिवर्तनशील होता है। इस अपेक्षा से वह अनित्य है । ऐसा मानना ही उचित है।
पंचम अध्याय सांख्यमत से सम्बन्धित है । इस अध्याय के अन्तर्गत सर्वप्रथम जैन आगमों में सांख्यमत का प्रतिपादन अकारकवाद एवं आत्मषष्ठवाद के अन्तर्गत किया गया। महावीर के समय ऐसे मत का उल्लेख मिलता है, जो आत्मा को तो स्वीकार करते हैं किन्तु उसका कर्तृत्व नहीं मानते । महावीर के समय षष्टितंत्र में पारंगत परिव्राजक तथा परिव्राजिकाओं की एक विकसित परम्परा प्राप्त होती है जो उस युग के सांख्य दर्शन, उसके सिद्धान्त और सांख्य श्रमणों की विहार चर्या एवं वेशभूषा, आदि के बारे में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध कराती है। अगले बिंदु में सांख्यमत ( षष्टितंत्र) की धारा (परिव्राजक परम्परा) के अन्तर्गत 600 ई.पू. के षष्टितंत्र शास्त्र में पारंगत परिव्राजक तथा परिव्राजिकाओं की विहारचर्या, साधना पद्धति, वेशभूषा उनके सिद्धान्तों की विस्तृत विवेचना की गई ।
अध्याय के अंत में जैन दृष्टि सम्मत सांख्यमत (अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद) की समीक्षा की गई - सब कुछ करने करवाने पर भी आत्मा अकर्ता