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ज्ञानानन्द श्रावकाचार |
स्थंभवत अचल है । अर नासाग्र दृष्ट घरचा है । अत्यंत संसार उदासीन है । अपना खरूपसं अत्यंत लीन है ईहां आत्मक सुखके वास्तै राज लक्ष्मीने वो वोदा तृणकी नाई क्षोड़ि है । सो अपनी याकै काई गिनती छै । अर कैई कहता हुवा रे भाई आपनी गिनती तौ नाहीं सो सत्य परंतु यह परम दयाल है महा उपकारी है, तारन तरन समर्थ है । तासूं ध्यान खुलै अपनौ भी कार्य सिद्ध करसी । बहुरि कैई ऐसा कहता हुवा देखौ माई मुन्याकी क्रान्ति अर देखो भाई मुन्याका अतिशय अर मुन्याकौ साहसू क्रांति कर तौ दशौ दिशा उद्योत कीनी है अरु अतिशयका प्रभाव करि मारगकै सिंघ हस्ती व्याघ्र, रीछ, चीता, मृग इत्यादिक जनावर वैरभाव छोड़ि मुन्यांनै नमस्कार करि निकट बैठा है । अरु मुन्याकौ साहस ऐसा है सो ऐसा क्रूर जनावर ताकी भय थकी निर्मै हुवा है उद्यान विषै तिष्ठै है ।
अर ध्यानसूं क्षिन मात्र भी नाहीं चलै है । अर क्रूर जनावरनै अपूरामोह लिया है । सो यह बात न्याय ही है जैसा निमित्त मिलै तैसा ही कार्य उपभै । सो मुन्याकी शांतिता देख क्रूर जना - वर भी शांतिताकुं प्राप्त हुवा है । रे भाई या मुन्याका साहसपनौ अद्भुत है । कोई जाने ध्यान खुलै कै ना भी खुलै । तीसूं ऐटाही सूं नमस्कार कर घरां चालौ फेर आवलौ । और कोई ऐसे कहता हुवा रे भाई अवै कोई उतावलौ होहु क्षो श्री गुरूकी वानी सोई हुवौ अमृत तीका पिया विना घर जावा मै कांई सिद्ध है । धाने घर आक्षौ लागे है म्हांने तो लागे नाहीं म्हानै तौ मुन्याका दशन उत्कृष्ट प्रिय लागे है । अर मुन्याका ध्यान अब खुलती ।