Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पुत्र भी उत्पन्न हुए थे (हरिवंशपुराण ३५/१ से २६)। इस प्रकार इस हुण्डावसपिणी में कूर्मोन्नत योनि में अन्य जन भी उत्पन्न हुए हैं। इतनी विशेषता जाननी चाहिए।
(५) पृ. २६६ पर तृतीय शंका-समाधान में यह कहा गया है कि उस पाहार से उत्पन्न हुई शक्ति का बाद में उत्पन्न हुए जीवों के उत्पन्न है. म समान में ही ग्रहो जाता है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि एक निगादशरीरस्थ सभी जीव साथ-साथ उत्पन्न नहीं होते, किन्तु क्रम में भी उत्पन्न होते हैं (धवल १४ पृ. २२७, २२६, ४८४ आदि) तथापि वे उपचार से एक साथ उत्पन्न हुए ही कहलाते हैं। तथा पूर्व में उत्पन्न जीवों की शक्ति को ( उसी निगोद शरीर में) बाद में उत्पन्न होने वाले जीव अपनी उत्पत्ति के प्रथम समय में ही ग्रहण कर लेते हैं। इसीलिए एक ही निमोद शरीर में पूर्वोत्पन्न तथा पश्चात् उत्पन्न जीत्र एक साथ ही पर्याप्त हो जाते हैं, इत्यादि । शेष सब सुगम है।
(६) पृष्ठ ३२३ पर अन्तिम शंका का समाधान अपूर्ण है। अतः विस्तार सहित पूरा समाधान मूल ध. १४/३१८ से लिया जाता है। यथा
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य तीन पल्य की स्थिति वाले ही होते हैं, ऐसा कहने का फल वहाँ पर शेष आयुस्थिति के विकल्पों का निषेध करना है और इस सुत्र को छोड़कर अन्य सूत्र नहीं है जिससे यह ज्ञान हो कि उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य तीन पल्य की स्थिति वाले ही होते हैं, अत: यह विशेषण सफल है। अथवा एक समय अधिक दो पल्य से लेकर एक समय कम तीन पल्य तक के स्थिति-विकल्पों का निषेध करने के लिए सूत्र में "तीन पल्य की स्थिति वाले", इस पद का ग्रहण किया है। सर्वार्थसिद्धि के देवों की आयु जिस प्रकार निर्विकल्प होती है, उस प्रकार वहाँ की आयु निविकल्प नहीं होती; क्योंकि इस प्रकार की प्राय की प्ररूपणा करने वाला सूत्र और व्याख्यान उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार यहाँ यह बताया गया है कि "तिपलिदोवमट्रिदियरस" तीन पल्य की स्थिति वाले के, इस पद के दा अर्थ बनते हैं-- (१) वहाँ तीन पत्य की ही स्थिति होती है, (२) वहाँ अन्य भी प्रायु विकल्प (एक समय अधिक दो पल्य आदि) बनते हैं।
विशेष यहाँ यह स्मरणीय है कि सत्कर्म पंजिका पृ. ७८ में लिखा है कि-भोगभूमीए कदली. घावमस्थि ति अभिप्याएण। पुणो भोगभूमीए प्राउगस्स घादं स्थिति भणताइयाणमभिष्पाएण".. (धवल १५ परि० पृ. ७८) । अर्थ- उपर्युक्त प्ररूपण भोगभूमि में कदलीघात है, ऐसा कहने वाले प्राचार्यों के अभिप्राय से कहा है। पुनः भोगभुमि में कदलीघात मरण नहीं है ऐसा कहने वाले प्राचार्यों के मत से प्ररूपण ऐसा है कि.............|
इस प्रकार भोगभूमि में भी कदलीघात मानने वाले आचार्य हैं तथा उन प्राचार्यों के अभिप्राय से बहाँ अनेक प्रायुविकल्प बन जाते हैं। अथवा विभिन्न प्रायुनों को बांधकर भी वहां उत्पन्न होने से अनेक प्रायुविकल्प बन जाते हैं। ज, ध. पृष्ठ १६-१०२, धवल १६ पृ. ४२४-२५ भी देख।
तत्त्वार्थ सूत्र २/५३ प्रादि से उपर्युक्त मत भिन्न हैं। शेष सब सुगम है।
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