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२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ विविध विशेषताओंके धनी .५० अमृतलाल जैन, शास्त्री, लाडनूं
व्याप्तः सर्वत्र भूमौ शशधरधवल: शम्भुहासापहासी कीर्तिस्तोमो यदीयो जनयति नितरां क्षीरपाथोधिशङ्काम् । यस्मिन् सम्मग्नकाया अमरपतिगजो दिग्गजाश्चन्द्रतारा जाताः सर्वाङ्गशुभ्राः स जयति सततं फूलचन्द्रो बुधेन्द्रः ।।
-अमृतलाल:
श्रद्धेय पण्डित फलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य, वाराणसीके द्वारा सम्पादित, अनूदित तथा स्वतन्त्र रूपसे लिखित शताधिक ग्रन्थों, उनके विशेषार्थों और विस्तृत प्रस्तावनाओंके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि उनका समस्त विषयोंपर समान अधिकार है। किन्तु उनके जीवनका बहुभाग आगम-साहित्यके सम्पादन एवं हिन्दी रूपान्तरणमें बीता है। जिस आगमिक कार्यको अनेक विद्वान् मिलकर भी पूरा नहीं कर सकते थे, उसे अकेले आपने सम्पन्न किया है। फलतः विद्वत्संसारमें आप आगमज्ञके रूपमें प्रसिद्ध हैं और इसी रूपमें आपने अमर कीर्ति प्राप्त की है। इस श्रुत-साधनाकी लम्बी अवधिमें मैं सन् १९४४ से १९७९ तक आपके निकट सम्पर्कमें रहा हूँ।
जहाँ तक मुझे स्मरण है, सन् १९४४ में कटनीमें विद्वत्परिषद्का प्रथम अधिवेशन हुआ था। उसमें शताधिक जैन विद्वान् उपस्थित हुए थे, जिनमें न्यायालङ्कार पण्डित वंशीधरजी इन्दौर और प्रसिद्ध कहानीकार जैनेन्द्र कुमारजी दिल्ली प्रमुख थे । अधिवेशनके प्रारम्भमें ही इन दोनों प्रमुख विद्वानोंने विद्वत्परिषदकी स्थापनाको लेकर आक्षेपोंकी झड़ी लगाकर वि०प० की निरर्थकता बतलाई। इसे सुनकर सभी विद्वान् मौन रहे, सिद्धान्ताचार्यजी अकेले पड़ गये, पर निर्भीक रहे । आप बोलनेके लिए खड़े हुए तो प्रस्तुत दोनों विद्वान परिहास करने लगे, पर आपने एक घण्टेके भाषण में सभी आक्षेपोंका खण्डन किया । फलतः दोनों विद्वानोको निरुत्तर होना पड़ा।
बहुत पुरानी बात है । पण्डितजीका परिवार बीना गया हुआ था। पण्डितजी अकेले ही वाराणसीमें थे। मैंने पण्डितजीसे भोजनके लिए निवेदन किया । आप प्रतिदिन जिस समय मेरे घर आकर भोजन प्रारम्भ करते, संयोगवश एक वृद्धा आ जाती। पण्डितजी तत्काल अपनी थाली उसे दे देते। तुरन्त दुसरी थाली पंडितजीको दी जाती, पर वे उसे कभी स्वीकार नहीं करते, भूखे ही उठ जाते-प्रतिदिन ऊनोदर तप तपते । इस अवसर पर आप कहते-अधिक भोजन करना पाप है-'योऽधिकं भुङ्क्ते स पापं भुङ्क्ते'। थोड़ा-बहुत सामान देकर मैंने वृद्धासे कहा-आप पण्डितजीके भोजनके समय न आया करें । पर वह कब माननेवाली थी। कहती थीकि इतने ज्ञानीका जूठा खानेसे इस जन्ममें नहीं, तो अगले जन्ममें उसे भी विशिष्ट ज्ञान प्राप्त होगा । पण्डितजी सरीखी करुणा शायद ही कहीं देखनेको मिले।
इस प्रकार समयज्ञता, तल्लीनता, श्रुत-सेवा, उदारता, निर्भीकवक्तृता, और अप्रतिम समाधातृताआदि विविध विशेषताओंको देखकर मैं पूज्य पण्डितजीके प्रति श्रद्धावनत हूँ और उन्हें हार्दिक श्रद्धाञ्जलि समपित करता हूँ।
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