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३२|परणानुयोग : प्रस्तावमा
हुए लिखते हैं कि विभूवनोदर बिबरवर्ती समस्त असंख्येय भाव तथ्य उन्हें प्रभावित करते हैं। चाहे हम गैतिक मानदण्ड और अपने आपमें न तो मोक्ष का कारण हैं और न संसार का कारण नैतिक निर्णय को समाज-सापेक्ष माने या उन्हें वैयक्तिक मनोभावों हैं, साधक की अपनी अन्तःस्थिति ही उन्हें अपने और बुरे का की अभिव्यक्ति कहें, उनकी सापेक्षिकता में कोई अन्तर नहीं होता रूप दे देती है। अतः एकान्त रूप में न कोई आचरण शुभ है। संक्षेप में, सापेक्षतावादियों के अनुसार नैतिक नियम सार्वहोता है और न कोई अशुभ । इसे स्पष्ट करते हुए वे आगे कहते कालिक, सार्वदेश्चिक और सार्वजनिक नहीं हैं । जबकि निरपेक्षताहैं कि 'कुछ विचारक जीवन में उत्सर्ग (नैतिकता की निरपेक्ष वादियों का कहना है कि 'नैतिक मानक और नैतिक नियम या निशाद स्थिति) गोदकर बतर राहते हैं, जीवन में अपरिवर्तनीय, सार्वकालिक, सार्वदेशिक, सार्वजनिक और अपरिअपवाद का सर्वथा अपलाप करते हैं। उनकी दृष्टि में अपवाद बर्तनीय हैं, अर्थात् नैतिकता और अनैतिकता के बीच एक ऐसी (नैतिकता का सापेक्षित दृष्टिकोण) धर्म नहीं, अपितु एक महत्तर कठोर विभाजक रेखा है जो अनुल्लंघनीय है, नैतिक कभी भी पाप है। दूसरी ओर, कुछ साधक वे हैं जो उत्सर्ग को भूलकर अनैतिक नहीं हो सकता और अनैतिक कभी भी नैतिक नहीं हो केवल अपवाद का सहारा लेकर ही चलना चाहते हैं। ये दोनों सकता। नैतिक नियम देश, काल, समाज, व्यक्ति और परिस्थिति विचार एकांगी होने से उपादेय की कोटि में नहीं आ सकते। से निरपेक्ष हैं। वे शाश्वत सत्य है। नैतिक जीवन में अपवाद जैन धर्म की साधना एकान्त की नहीं, अनेकान्त की स्वस्थ और और आपद्धर्म के लिए कोई स्थान नहीं है।' सुन्दर साधना है। उसके दर्णन कक्ष में मोक्ष के हेतुओं की कोई वस्तुतः नीति के सन्दर्भ में एकान्त सापेक्षवाद और एकान्त बंधी-बंधायी नियत रूपरेखा नहीं है, कोई इयत्ता नहीं है।' निरपेक्षवाद दोनों ही उचित नहीं है। ये आंशिक सत्य तो हैं अतः यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन को अनेकान्तवादी विचारपद्धति किन नीति के सम्पूर्ण स्वरूप को स्पष्ट कर पाने में समर्थ नहीं के आधार पर सापेक्षिक नैतिकता की धारणा मान्य है। यद्यपि हैं। दोनों को अपनी कुछ कमियां हैं। उसका यह सापेक्ष दृष्टिकोण निरपेक्ष दृष्टिकोण का विरोधी नहीं नीति में सापेक्षता और निरपेक्षता दोनों का क्या और किस है। जैन नैतिकता में एक पक्ष निरपेक्ष नैतिकता का भी है, रूप में स्थान है, यह जानने के लिए हमें नीति के विविध पक्षों जिस पर मागे विचार किया जायेगा ।
को समझ लेना होगा । सर्वप्रथम नीति का एक बाह्य पक्ष होता वस्तुत: नीति की सापेक्षता और निरपेक्षता का यह प्रश्न है और दूसरा आंतरिक पर होता है, अर्थात् एक ओर आचरण अति प्राचीनकाल से एक विवादास्पद विषय रहा है । महाभारत. होता है तो दूसरी ओर आचरण की प्रेरक और निर्देशक चेतना स्मृति प्रत्य एवं ग्रीक दार्शनिक साहित्य में इस सम्बन्ध में पर्याप्त होती है । एक ओर नैतिक आदर्श या साध्य होता है और दूसरी चिन्तन हुआ है और आज तक विचारक इस प्रश्न को सुलझाने और उस साध्य की प्राप्ति के साधन या नियम होते हैं। इसी में लगे हुए हैं । बर्तगान युग में रामाज-वैज्ञानियः सापेक्षतावाद, प्रकार हमारे नैतिक निर्णय भी दो प्रकार के होते हैं . एक वे मनोवैज्ञानिक सापेक्षतावाद और तार्किक भाववादी सापेक्षतावाद जिन्हें हम स्वयं के सन्दर्भ में देते हैं, दूसरे में जिन्हें हम दूसरों आदि चिन्तन धाराएं नीति को सापेक्ष मानती हैं। उनके अनु- के सम्बन्ध में देते है । साथ ही ऐसे अनेक सिद्धांत होते हैं जिनके सार, नैतिक मानदण्ड और नैतिक मूल्यांकन सापेक्ष है। वे यह आधार पर नैतिक निर्णय दिये जाते हैं। मानते हैं कि किसी कर्म की नैतिकता देश, काल, व्यक्ति और जहाँ तक नैतिकता के बाह्य पक्ष, अर्थात् आचरण या कर्म परिस्थिति के परिवतित होने से परिवर्तित हो सकती है, अर्थात् का सम्बन्ध है, यह निरपेक्ष नहीं हो सकता; सर्वप्रथम तो व्यक्ति जो कर्म एक देश में नैतिक माना जाता है वही दूसरे देश में जिस विश्व में आचरण करता है वह आपेक्षिकता से युक्त है। अनैतिक माना जा सकता है, जो आचार किसी युग में नैतिक जो कर्म हम करते हैं और उसके जो परिणाम निष्पन्न होते हैं वे माना जाता था वही दूसरे युग में अनैतिक माना जा सकता है, मुख्यतः हमारे संकल्प पर निर्भर न होकर उन परिस्थितियों पर इसी प्रकार जो कर्म एक व्यक्ति के लिए एक परिस्थिति में निर्भर होते हैं जिनमें हम जीवन जीते हैं । बाह्य जगत पर व्यक्ति मैतिक हो सकता है वही दूसरी परिस्थिति में अनैतिक हो सकता की इच्छाएं नहीं अपितु परिस्थितिमा हासन करती हैं। पुनः है। दूसरे शब्दों में; नैतिक नियम, नैतिक मूल्यांकन और नेतिक चाहे मानवीय संकल्प को स्वतन्त्र मान भी लिया जाये किन्तु निर्णय सापेक्ष हैं 1 देश, काल, समाज, व्यक्ति और परिस्थिति के मानवीय आचरण को स्वतन्त्र नहीं माना जा सकता है, वह
१ श्री अमरभारती, मई १९६४, पु. १५ । २ श्री अमरभारती, फरवरी १९६५, पृ. ५। ३ वही, मार्च १६६५, पृ. २८ ।