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सराचरण : एक बौद्धिक विमर्श ३१ आचरण के जिन तथ्यों को हम शुभ-अशुभ अथवा पुण्यापाप जी महाराज लिखते है कि बन्ध और निर्जरा (कर्मों की अनैतिके नाम से सम्बोधित करते हैं, उनके सन्दर्भ में साधारण व्यक्ति कता और नैतिकता) में भावों की प्रमुखता है, परन्तु भावों के द्वारा दिये गये निर्णय सापेक्ष ही हो सकते हैं। हमारे निर्णयों के साथ स्थान और क्रिया का भी मूल्य है। आचार्य हरिभद्र के देने में कम से कम कर्ता के प्रयोजन एवं कर्म के परिणाम के पक्ष ग्रन्थ 'अष्टकप्रकरण' की टीका मैं आचार्य जिनेश्वर दे चरकतो उपस्थित होते ही हैं । दूसरे व्यक्ति के आचरण के सम्बन्ध में संहिता का एक श्लोक उदधृत किया है, जिसका आशय यह है दिये गये हमारे अधिकांश निर्णय परिणाम-सापेक्ष होते हैं । जबकि कि देश, काल और रोगादि के कारण मानव जीवन में कभीहमारे अपने आचरण सम्बन्धी निर्णय प्रयोजन-सापेक्ष होते हैं। कभी ऐसी स्थिति भी आ जाती है जब अकायं कार्य बन जाता किसी भी व्यक्ति को न तो पूर्णतया यह ज्ञान होता है कि कर्ता का है. विधान निषेध की कोटि में चला जाता है और निषेध विधान प्रयोजन क्या था और न यह ज्ञान होता है कि उसके कमों का की कोटि में चला जाता है । इस प्रकार जैन नैतिकता में स्थान द्रों पर क्या परिण- नम: अतः जनसायद के नैतिक (देश), समय (काल), मनःस्थिति (भाव) और व्यक्ति इन चार निर्णय हमेशा अपूर्ण हो होंगे।
आपेक्षिकताओं का नैतिक मूल्यों के निर्धारण में प्रमुख महत्व है। दूसरी ओर यह साग जगत ही अपेक्षाओं से युक्त है, क्योंकि अचरण के वर्म इन्हीं चारों के आधार पर नैतिक और अनैतिक जगत की प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। ऐसे जगत में आच- बनते रहते हैं । संक्षेप में, एकान्त रूप से न तो कोई आचरण, रित नैतिकता निरपेक्ष नहीं हो सकती। सभी कर्म देश, काल कर्म या क्रिया नैतिक है और न अनैतिक, वरन् देशकालगत अथवा व्यक्ति से सम्बन्धित होते हैं, इसलिए निरपेक्ष नहीं हो बाह्य परिस्थितियां और द्रव्य तथा भावगत परिस्थितियां उन्हें सकते । बाह्य जागतिक परिस्थितियां और कर्म को पीछे वैयक्तिक वैसा बना देती हैं। इस प्रकार जैन नैतिकता व्यक्ति के कर्तव्यों प्रयोजन भी आचरण को सापेक्ष बना देते हैं ।
के सम्बन्ध में अनेकान्तवादी या सापेक्ष दृष्टिकोण अपनाती है। जैन दृष्टिकोण
वह यह भी स्वीकार करती है कि सामान्य स्थिति में कुल देवों एक ही प्रकार से आचरित कर्म एक स्थिति में नैतिक होता का पूजा अथवा दानादि कार्य, जो एक गृहस्थ के नैतिक कर्तव्य है और भिन्न स्थिति में अनंतिक हो जाता है। एक ही कर्म एक हैं, वे ही एक साधु मा संन्यासी के लिए अवर्तव्य होते हैंके लिए नैतिक हो सकता है, दूसरे के लिए अनैतिक। जैन अनैतिक एवं अनाचरणीय होते हैं। कर्तव्यावर्तव्य मीमांसा में विचारधारा आचरित कर्मों की नैतिक सापेक्षता को स्वीकार जैन विचारणा किसी भी ऐकान्तिक दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करती है। प्राचीनतम जैन आगम आचार्यय सूत्र में कहा गया करती। आचार्य हरिभद्र लिखते हैं कि सर्वज्ञ नीर्थ कर देवों ने न है कि जो आचरित कम आस्रव या बन्धन के कारण हैं वे भी किसी बात के लिए एकान्त विधान किया है और न एकान्त मोक्ष के हेतु हो जाते हैं और जो मोक्ष के हेतृ है, में भी बन्धन निषेध ही दिया है, उनका एक ही आदेश है कि जो कुछ भी के हेतु हो जाते हैं। इस प्रकार कोई भी अनसिक कर्म विशेष कार्य तुम कर रहे हो उसे सत्यभूत होकर करो, उसे पूरी प्रामापरिस्थिति में नैतिक बन जाता है और कोई भी नैतिक कम णिकता के साथ करते रहो।' आचार्य उमास्वाति का कथन है, विशेष परिस्थिति में अनैतिक बन सकता है।
"नैतिक, अनैतिक, विधि (क्तं व्य), निषेध (अकर्तव्य), अथवा न केवल साधक की मनःस्थिति, जिसे जैन परिभाषा में आचरणीय (कल्प), अनाचरणीय (अकल्प) एकान्त रूप से नियत ''भाव" कहते हैं, आपरण के कर्मों का मूल्यांकन करती है, और नहीं हैं। देश, काल, व्यक्ति, अवस्था उपघात और विशुद्ध उसके साथ-साय जन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र और काल को भी मनःस्थिति के आधार पर अनाचरणीय आदरणीय बन जाता है कर्मों की नैतिकता और अनंतिकता का निर्धारक तत्व स्वीकार और आचरणीय अनावरणीय ।"५ किया है। उत्तराध्ययन चूणि में कहा है, "तीर्थकर देश और उपाध्याय अमरमुनिजी जैन दर्शन की अनेकान्तदृष्टि के काल के अनुरूप धर्म का उपदेश करते हैं।"२ आचार्य बात्माराम आधार पर जैन नैतिकता के सापेक्षित दृष्टिकोण को स्पष्ट करते
-- - - - - १ आचासंग, १/२/१३०; देखिए-श्री अमर भारती, मई १९६४, पृ. १५ । २ उत्तराध्ययनचूणि, २३ । ३ आचारसंग, हिन्दी टोका, पृ. ३७८ । ४ उपवेशपक; ७७६ । ५ प्रामरति-प्रकरण (उमास्वाति), १४६; तुलना कीजिए- ब्रह्मसूत्र (शां.), ३/१/२५; गीता (शा) ३/३५ तथा १८/४७-४ ।