________________
T
है
सदाचरण एक बौद्धिक दिन | २६ दशा की ओर ले जाने वाला आचरण ही सदाचरण कहा जा जिसके द्वारा हम उसे पाना चाहते हैं और जिस रूप में वह सकता है । हमारे व्यवहार में और सामुदायिक जीवन में प्रकट होता है। जहां तक व्यक्ति के चैतसिक वा आन्तरिक समस्य का प्रश्न उसे वीतराग मनोदशा या अनासक्त चित्तवृत्ति की साधना मान सकते हैं। फिर भी समत्व की साधना का यह रूप हमारे वैयक्तिक एवं आन्तरिक जीवन से अधिक सम्बन्धित है। यह व्यक्ति की मनोदशा का परिचायक है। यह ठीक है कि व्यक्ति की मनोदशा का प्रभाव उसके आचरण पर भी होता है और हम व्यक्ति के आचरण का मूल्यांकन करते समय उसके इस आन्तरिक पक्ष पर विचार भी करते हैं किन्तु फिर भी यह सदाचार या दुराचार का प्रश्न हमारे व्यवहार के बाह्य पक्ष एवं सामुदायिक के साथ अधिक जुड़ा है। जब भी हम सदाचार एवं दुराचार के किसी मानदण्ड की बात करते है तो हमारी दृष्टि व्यक्ति के आचरण के बाह्य पक्ष पर अथवा उस बाधरण का दूसरों पर क्या प्रभाव या परिणाम होता है, इस बात पर अधिक होती है। सदाचार या दुराचार का प्रश्न केवल कर्ता के आन्त रिक मनोभावों या वैयक्तिक जीवन से सम्बन्धित नहीं है वह आचरण के बाह्य प्रारूप तथा हमारे सामाजिक जीवन में इसके आचरण परिणामों पर विचार करता है। यहाँ हमें सदाचार और दुराचार की व्याख्या के लिए कोई ऐसी कसोटी खोजनी होगी जो आचार के बाह्य पक्ष अथवा हमारे व्यवहार के सामा जिक पक्ष को भी अपने में समेट सके । सामान्यतया भारतीय चिन्तन में इस सम्बन्ध में एक समान्य दृष्टिकोण यह है कि परोपकार ही पुण्य है और परपीड़ा ही पाप है। सनी ने इसे निम्न शब्दों में प्रकट किया है
पुनः प्रश्न यह उठता है कि हमारा स्वभाव क्या है ? व्यास्याप्रज्ञप्ति में गौतम ने भगवान महावीर के सम्मुख यह प्रश्न उपस्थित किया था। वे पूछते हैं, "भन्ते! आत्मा का निज स्वरूप क्या है और आत्मा का साध्य क्या है ?" महावीर ने उनके इन प्रश्नों का जो उत्तर दिया था वही आज भी समस्त जैन आचारदर्शन में किसी कर्म के नैतिक मूल्यांकन का बाधार है। महावीर ने कहा था, "आत्मा" समत्व स्वरूप है और उस समत्व स्वरूप को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है।" दूसरे शब्दों में समता स्वभाव है और विषमता विभाव है। और जो विभाव से स्वभाव की दिशा में अथवा विषमता से समता की दिशा में से जाता है नहीं धर्म है, नैतिकता है, सदाचार है। अर्थात् विषमता से समता की ओर ले जाने वाला आवरण ही सदाचार है। संक्षेप में जैन धर्म के अनुसार सदाचार या दुराचार के मानदण्ड समता एवं विषमता अथवा स्वभाव एवं विभाव के तत्व हैं । स्वभाव से फलित होने वाला आवरण सदाचार है और विभाव या परभाव से फलित होने वाला आचरण दुराचार है।
यहाँ हमें समता के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा । यद्यपि द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से समता का अर्थ परभाव से हटकर शुद्ध स्वभाव दशा में स्थित हो जाता है, किन्तु अपनी विविध अभिव्यक्तियों की दृष्टि से विभिन्न स्थितियों में इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से समता या स्वभाव का असे राग-द्वेष से ऊपर उठकर वीतरागता या अनासक्त भाव की उपलब्धि है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक समत्व का अर्थ है - समस्त इच्छाओं, आकांक्षाओं से रहित मन की शांत एवं विक्षोत्र ( तनाव ) रहित अवस्था । यही समत्व जब हमारे सामुदायिक या सामाजिक जीवन में फलित होता है तो इसे हम महिला के नाम से अभिहित करते हैं। वैचारिक दृष्टि से इसे हम मनाब या दृष्टि कहते हैं। जब हम समय के अर्थिक पक्ष से विचार करते हैं तो अपरिग्रह के नाम से जानते हैं । साम्यवाद एवं न्यासी- सिद्धांत इसी अपरिग्रह वृति की आधुनिक अभिव्यक्तियां है। यह समत्व ही मानसिक क्षेत्र
अर्थात वह माचरण से दूसरों के लिए कल्याणकारी या हितकारी है सदाचार है. पुष्प है और जो दूसरों के लिए माणकारी है, अहितकर है, वही पाप है. दुराचार है। जैन धर्म में सदाचार के एक ऐसे ही मानदण्ड की चर्चा हमें आचारांग सूत्र में उपलब्ध होती हैं। वहाँ कहा गया है "भूतकाल में जितने अर्हत् हो गये हैं वर्तमान काल में जितने अहं हैं और भविष्य
में अनमिता के रूप में सामाजिक क्षेत्र में हमें जितने होने के सभी यह उपदेश करते है कि सभी प्रामों
अर्हतु में
के रूप में, वैचारिकता के क्षेत्र में अनाग्रह या अनेकान्त के रूप में और आर्थिक क्षेत्र में अपरिग्रह के रूप में अभिव्यक्त होता है। अत: जैन धर्म के अनुसार समत्व निर्विवाद रूप से सदाचार का मानदण्ड स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु "समय" को सदाचार का मानदण्ड स्वीकार करते हुए भी हमें उसके विविध पहलुओं पर विचार तो करना ही होगा क्योंकि सदाचार का सम्बन्ध अपने साध्य के साथ-साथ उन साधनों से भी होता है
सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सखों को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यहीं शुद्ध नित्य और शाश्वत है।" किन्तु मात्र दूसरे की हिला नहीं करने के आसा के निषेधात्मक पक्ष का या दूसरों के हित साधन को ही सदाचार की कसौटी नहीं माना जा सकता है। ऐसी अवस्थाएँ सम्भव हैं कि जब मेरे असत्य सम्भाषण एवं अनैतिक आचरण के द्वारा दूसरों का हित
"परहित सरिम धरम नहिं भाई परपीड़ा सम नहि बधाई।"