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३० | चरणानुयोग प्रस्तावना
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साधन होता हो, अथवा कम सेक हो, किन्तु क्या ऐसे आचरण को सदाचार कहने का साहस कर सकेंगे ? क्या वेश्यावृत्ति के माध्यम से अपार धनराशि को एक त्रित कर उसे लोकहित के लिए व्यय करने मात्र से कोई स्त्री सदाचारी की कोटि में था सकेंगी ? अथवा यौन वासना की सन्तुष्टि के के रूप जिसमें किसी भी दूसरे प्राणी की हिला नहीं होती है, दुराचार की कोटि में नहीं आयेंगे? चारिता का एक ऐसा ही दावा अन्यतीर्थियों द्वारा प्रस्तुत भी किया गया था, जिसे महावीर ने अमान्य कर दिया था। क्या हम उस व्यक्ति को जो डाके डालकर उस सम्पत्ति को गरीबों में वितरित कर देता है, सदाचारी मान सकेंगे। एक चोर और एक सन्त दोनों ही व्यक्ति को सम्पत्ति के पाश से मुक्त करते हैं फिर भी दोनों समान कोटि के नहीं माने जाते । वस्तुतः सदाचार या दुराचार का निर्णय केवल एक ही आधार पर नहीं होता है। उसमें आचरण का प्रेरक आन्तरिक पक्ष अर्थात् उसकी मनोदशा और आचरण का बाह्य परिणाम अर्थात् सामाजिक जीवन पर उसका प्रभाव दोनों ही विचारणीय हैं। आचार को शुभाशुभता विचार पर और विचार या मनोभावों को शुभाशुभता स्वयं व्यवहार पर निर्भर करती है। सदाचार या दुराचार का मान दण्ड तो ऐसा होना चाहिए जो इन दोनों को समाविष्ट कर सके ।
के रूप में वह सामाजिक पाप रूप दुराचार की कोटि में ही आते हैं। अर्थ में हिंसा को दुराचार की और कसौटी माना जा सकता है।
जैन दर्शन में सदाचार और दुराचार की सापेक्षता और निरपेक्षता का प्रश्न
१ देखिए, गीता रहस्य, अध्याय २, कर्मजिज्ञासा । २ स्वयम्भू १०१ ।
साधारणतया जैन धर्म सदाचार का मानदण्ड अहिंसा को स्वीकार करता है, किन्तु यहाँ हमें यह विचार करना होगा कि क्या वे बल किसी को दुःख या पीड़ा नहीं देता या किसी को हत्या नहीं करना मात्र ही महिया है? यदि मयि को मानने इतनी ही व्याख्या है तो फिर यह सदाचार और दुराचार का मानदण्ड नहीं बन सकती। जबकि जैन आचार्यों ने सदैव ही उसे सदाचार का एकमात्र आधार प्रस्तुत किया है। आचार्य अमृत चन्द्र ने कहा है कि अनृतवचन, स्तेय मैथुन, परिग्रह आदि पापों के जो भिन्न-भिन्न नाम दिये गये वे तो केवल शिष्यबोध के लिए हैं। मूलतः तो वे सब हिंसा ही है। वस्तुतः जैन आचायों ने अहिंसा को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचारा है। यह आन्तरिक भी है और यह भी उसके सम्यन्य व्यक्ति भी हैं और समाज से भी इसे जैन परम्परा में स्त्र की हिंसा और पर की हिंसा ऐसे दो भागों में बांटा गया है। जब वह हमारे स्व-स्वरूप या स्वभाव दशा का घात करती है तो स्व-हिंसा है और जब वह दूसरों के हितों को चोट पहुँचाती है, वह पर की हिंसा है। स्व की हिंसा के रूप में वह आन्तरिक पाप है तो पर
किन्तु उसके ये दोनों अतः अपने इस व्यापक अहिंसा को सदाचार की
पश्चिम की तरह भारत में भी नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष पक्षों पर काफी गहन विचार हुआ है। नैतिक कर्मों को अपवादात्मकता और निरपवादिता की वर्षा के स्वर वेदों, स्मृति ग्रन्थों और पौराणिक साहित्य में काफी जोरों से सुनाई देते हैं ।" जैन विचारणा के अनुसार, नैतिकता को एकान्तिक रूप से न तो सापेक्ष कहा जा सकता है और न निरपेक्ष । यदि वह सापेक्ष है तो इसीलिए कि वह निरपेक्ष भी है । निरपेक्ष के अभाव में सापेक्ष सच्चर नहीं है। वह निरपेक्ष इसलिए है कि वह सापेक्षता से ऊपर भी है। नैतिकता की सापेक्षता एवं निरपेक्षता के प्रश्न का एकान्तिक हल जैन विचारणा प्रस्तुत नहीं करती। वह नैतिकता को सापेक्ष मानते हुए भी उसमें निरपेक्षता के सामान्य तत्व की अवधारणा करती है । वह सापेक्षिक नैतिकता की उस कमजोरी को स्पष्ट रूप से जानती थी कि उसमें नैतिक आदर्श के रूप में जिस सामान्य तत्व को आवश्यकता होती है, उसका अभाव होता है । सापेक्ष नैतिकता आचरण के तथ्यों को प्रस्तुत करती है, लेकिन आचरण के आदर्श को नहीं। यही कारण है कि जैन विचारणा ने भी इस समस्या के निराकरण के लिए ही समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाया था जिसे स्पेन्सर और डिवी अपनी दार्शनिक पृष्ठभूमि के नवीन सन्दर्भों में वर्तमान 'युग प्रस्तुत किया है।
इस प्रश्न पर गहराई से विचार करना आवश्यक है कि जैन नैतिकता किस अर्थ में सापेक्ष है और किस अर्थ में निरपेक्ष है। जैन तत्व ज्ञान अनेकान्त-सिद्धांत को आधार मानकर चलता हैं। उसके अनुसार, रात् अनन्त धर्मात्मक है, अतः सत् सम्बन्धी प्राप्त गारा ज्ञान आंशिक ही होगा, पूर्ण नहीं होगा । हम सब जो नैतिकता के क्षेत्र में आते हैं अथवा जो उसके आचरण में में अपनी अपूर्णता का स्पष्ट बोध है। अतः हम जो भी जानेंगे वह अपूर्ण ही होगा, सान्त होगा, समक्ष होगा, और इसलिए नांशिक एवं सापेक्ष होगा। और यदि ज्ञान हो सापेक्ष होगा तो हमारे नैतिक निर्णय भी, जो हम अपने प्राप्त ज्ञान के आधार पर देते हैं, सापेक्ष ही होंगे। इस प्रकार अनेकांत की धारणा से नैतिक निर्णयों की सापेक्षता निष्पन्न होती है।
हुए हैं. पूर्ण