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दिनांक 12 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना ।
प्रश्न सारः
पहला प्रश्न :
प्राण की यह बीन बजना चाहती है-प्रवचन- दूसरा
आपने हमें संन्यास दिया, लेकिन कोई मंत्र नहीं बताया। पुराने ढब के संन्यासी मिल जाते हैं तो वे पूछते हैं, तुम्हारा गुरुमंत्र क्या है?
मंत्र तो मन का ही खेल है। मंत्र शब्द का भी यहीं अर्थ है, मन का जाल, मन का फैलाव।
मंत्र से मुक्त होना है, क्योंकि मन से मुक्त होना है। मन न रहेगा तो मंत्र को सम्हालोगे कहां? और अगर मंत्र को सम्हालना है तो मन को बचाये रखना होगा ।
निश्चय ही मैंने तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया। नहीं चाहता कि तुम्हारा मन बचे। तुमसे मंत्र छीन रहा हूं। तुम्हारे पास वैसे ही मंत्र बहुत हैं तुम्हारे पास मंत्रों का तो बड़ा संग्रह है। वही तो तुम्हारा सारा अतीत है। बहुत तुमने सीखा बहुत तुमने ज्ञान अर्जित किया। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई ईसाई है। किसी का मंत्र कुरान में है, किसी का मंत्र वेद में है। कोई ऐसा मानता, कोई वैसा मानता। मेरी सारी चेष्टा इतनी ही है कि तुम्हारी सारी मान्यताओं से तुम्हारी मुक्ति हो जाए। तुम न हिंदू रहो, न मुसलमान, न ईसाई । न वेद पर तुम्हारी पकड़ रहे, न कुरान पर। तुम्हारे हाथ खाली हो जायें। तुम्हारे खाली हाथ में ही परमात्मा बरसेगा । रिक्त, शून्य चित्त में ही आगमन होता परम का; द्वार खुलते हैं।
तुम मंदिर हो। तुम खाली भर हो जाओ तो प्रभु आ जाए उसे जगह दो। थोड़ा स्थान बनाओ। अभी तुम्हारा घर बहुत भरा है- कूडे - कर्कट से, अंगड खंगड से। तुम भरते ही चले जाते हो। परमात्मा आना भी चाहे तो तुम्हारे भीतर अवकाश कहां ? किरण उतरनी भी चाहे तो जगह कहां ? तुम भरे हो। भरा होना ही तुम्हारा दुख है। खाली हो जाओ! यही महामंत्र है। इसलिए मैंने तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया, क्योंकि मैं तुम्हें किसी मंत्र से भरना नहीं चाहता। मन से ही मुक्त होना है। लेकिन अगर मंत्र शब्द से तुम्हें बहुत प्रेम हो और बिना मंत्र के तुम्हें अड़चन होती हो, तो इसे ही तुम बता दिया करो कि मन से खाली हो जाने का सूत्र दिया है; साक्षी होने का सूत्र दिया है।
कुछ रटने से थोड़े ही होगा कि तुम राम-राम, राम-राम दोहराते रहो तो कुछ हो जाएगा। कितने