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किरण १]
हमारे जैनकवि
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सकपुरा मालूम होता है। मा-बहनों भागे तो उन्हें
जब, हिन्दीसाहित्यमें उरच माने जाने वाले कविगण पड़ना निलज्जताकी सीमाको ना कहा जा सकता है। पाशविकताका प्रचार करने में वहीन, तब जैन कमिगण
उनकी कवितामें न पीडित मानवताकी पुकार है, न दवस्वकी महत्ताको भून महा गए । जनकाषयाका यह राष्ट्रीय भावोंके नन्न चिन साहसपूर्ण उत्साह संचार प्रारम्भ हीसे विशिष्ट विशेषता रही है कि प्रत्येक प्राणों में करनेकी भोजपूर्ण उक्तियां ही।
मानवताका संचार किया जाय । उसे अपनी स्थिति, परिकहाँ है ये पंक्तियाँ जो माखनलाल चतुर्वेदीने कहीं, स्थिति और कर्तव्यसे परिचित किया जाय । वे स्पष्ट जानते कहां है वह दृदयविदारक माँसीकी रानी' कविता कहने हैं कि मानवका कल्याण, उद्धार, विषयमें नही, भोगमें नहीं बाजी सुभद्राकुमारीकी पंक्तियाँ और कहाँमाज हमारे में और इच्छा में भी नहीं। मानवका भादर्श मानवता है यह भावना
नकि पाशविकता । देखिए 'वसंत'जीच्या कह रहे है"जिसको न निज गौरव तथा निज देशका अभिमान है. "जीवन में ज्योति जगाना है" वह नर नहीं नरपय निरा है और मृतक समान है।"
ज्योति हमेशा निष्कलंक हुमा करती है, जिसमें ज्योति भाज तोक्स अंचलजीकी तानमें सान मिलाकर हम
जगानी है, वह भले ही कातिमापूर्ण हो, परन्तु ज्योतिमें यही चाहते हैं --
काखिमा रह ही नहीं सकती। चाहे पाए वीरत्वकी ज्योति "गोरी बाहोंमें कस प्रियको
जगाइए, साहसकी जगाइए, शान्तिकी जगाये, वह सौंदर्य कर चुम्बनसे सुरास्नान "-अपराजिता
पूर्ण और कल्याणप्रद ही होगी। अंधकारका सर्वनाश ही सच में माज हिंदी साहित्यके भीतर शब्दक्षेत्रमें कति- करेगी। इसी जीवनको सर्वश्रेष्ठ जीवन मानने वाले, इसके पय कवि-श्रेष्ठोंको बोदकर अश्लीलता और गुण्डत्वकी भर-भागे कुछ भी न माननेवाले और राग-रंगमें मा रहनेवाले मार हो रही है, यदि यही रफ्तार कुछ समय तक और रही भने मनुष्यों को जरा भोलखोलकर देखना चाहिए कि-- तो, यह ढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि वह दिन अधिक
"किसका कैमा गर्व, अरे ! दूर नहीं है जब हम भारतीय अकर्मण्य, आलसी और
जब जीवन ही सपना, पाखण्डी बनकर नारकीय जीवन बिताने लगेंगे। उस समय हमारेमें चेतना होते हुए भी जड़ता व्यास रहेगी । उस
सर्वनाशके इस निवासमेंसमय हम.माजके सौ वर्ष पूर्वके कविके शब्दोमें
कौन कहां अपना!"--'कुमरेश' 'सीग 'विनु बैल है मानुष बिना विवेक।"
कहां तो यह उत्तम भावना और कहाँ वह चार माल .. यदि रहेंगे तो कोई भारचर्य नहीं।
मिखानेकी चणिक सुखकी बाते! दुनियाभरके रागरंग, ऐशो इतना सब कुछ होते हुए भी, हम लोगोंकी 'विनाश.
भाराम, धनसम्पत्ति, मान अभिमान और कारोबार, स्थायी काले विपरीतबुद्धिः' हो रही है,अपना पतन होते हुए जान
नहीं. अस्थायी ही है। क्योंकि हमने देखा है, और देख कर भी हम उन्हें बधाई दे रहे हैं, उनकी रसिकताकी
रहे हैं और देखेंगे भी कि
रहे। दुहाई दे रहे हैं, उन्हींका यशोगान गा रहे हैं, कितनी दुख “समयरेत पर नखर गया और ओमकी बात है ! हम बोगर्मि साम्प्रदायिकता और
बों बौका पानी ।" पापातका अंकुर इस प्रकार जम गया है कि तूसरी और तब किसपर इतमा गर्व, किसपर इतना अभिमान, भांब उडाकर मी देखना नहीं चाहते, अपनी मौत-बेमौत किसपर यह नाजनगारे ! समममें नहीं पाता जीवनकी मरना मंच परन्तु दूसरेके पास यदि सुधा, अमृत समभंगुरता देखकर भी हमारे कविगण यो विषयवासना तो वह निरुपयोगी। बड़ी माश्चर्य और विस्मयकी शिकार बने उन्मत्तहोर पाग मरेकी नाई, विभित्र बात है!
शक्कियोंपर मंडराया करते है।