Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भूमिका विशिष्ट निर्देशों का उल्लेख भी पादटिप्पण में किया है जैसे-सूत्रे विभक्तिलोप आर्षत्वाद्।ईसाण इति प्राकृतत्वाद् विभक्तिलोपः', सव्वामयप्पसमणी प्राकृतशैल्या स्त्रीलिंगनिर्देशः।
हस्तप्रतियों में अनेक गाथाओं के आगे 'दारं' का उल्लेख है पर उन सबको द्वारगाथा नहीं माना जा सकता। इसलिए हमने किसी भी गाथा के आगे दारं का संकेत नहीं किया है।
पाठभेद में छंद के नियमों का भी ध्यान रखा गया है। अनेक स्थलों पर तो छंद के कारण ही मूलपाठ की गलती पकड़ में आयी है।
सामायिक नियुक्ति में जहां कहीं एक सी गाथाएं पुनरुक्त हुई हैं, वहां लिपिकर्ताओं ने पूरी गाथा न लिखकर गाथा का संकेत मात्र किया है पर हमने उसकी पूर्ति कर दी है जैसे पंच परमेष्ठी की संवादी गाथाएं। ऐसा संभव लगता है कि पाठ का संक्षेपीकरण कंठस्थ करने की परम्परा एवं लिपि की सुविधा के कारण हुआ। आगम-साहित्य की भांति नियुक्ति साहित्य में 'जाव' एवं 'वण्णग' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है और न ही अधिक संक्षेपीकरण हुआ है।
सामायिक नियुक्ति में अनेक स्थलों पर गाथाएं पुनरुक्त हुई हैं। कहीं-कहीं उनमें पाठभेद भी है। लगता है लिपिदोष या भिन्न-भिन्न वाचनाओं के कारण यह अंतर आया है, जहां जैसा पाठ मिला उसे उसी रूप में सुरक्षित रखा है। हमने प्रामाणिकता की दृष्टि से अपनी ओर से पाठ को संवादी बनाने का प्रयत्न नहीं किया है। नीचे टिप्पण में संवादी संदर्भस्थल भी दे दिए हैं।
हस्त आदर्शों में यति या पूर्ण विराम नहीं होने से अनेक स्थलों पर पूर्वार्द्ध के शब्द उत्तरार्ध में या एक चरण के शब्द दूसरे चरण में मिल गए हैं, वहां छंद या टीका के आधार पर पाठ शुद्धि की है। जैसे'उसभस्स गिहावासो अ। सक्कओ आसि आहारो' इस चरण में असक्कओ शब्द एक साथ है।
___ गाथा-निर्धारण में हमने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि जो भी गाथा नियुक्ति की भाषा-शैली से प्रतिकूल या विषय से असंबद्ध लगी, उसे हमने मूल क्रमांक के साथ नहीं जोड़ा है। अनेक गाथाओं के बारे में टिप्पणी सहित विचार-विमर्श प्रस्तुत किया है कि किस कारण से वह गाथा नियुक्ति की न होकर बाद में प्रक्षिप्त हुई है अथवा भाष्य की गाथा नियुक्ति में जुड़ गई।
सामायिक नियुक्ति में अनेक स्थलों पर गाथाओं का क्रम-व्यत्यय मिलता है। इसका संभवतः एक कारण यह रहा होगा कि प्रति लिखते समय लिपिकार द्वारा बीच में एक गाथा छट गई। बाद में ध्यान आने पर वह गाथा दो या तीन गाथा के बाद लिख दी गई। प्रति की सुंदरता को ध्यान में रखते हुए इस बात का संकेत नहीं दिया गया कि क्रम-व्यत्यय हुआ है। ऐसे संदर्भो का निर्णय व्याख्या साहित्य एवं विषय के पौर्वापर्य के आधार पर किया है जैसे-देखें गा. १६४, १६५।
आदर्शों का लेखन प्रायः मुनि या यतिवर्ग करते थे। वे व्याख्यान की सामग्री के लिए प्रसंगवश कुछ संवादी एवं विषय से सम्बद्ध गाथाओं को स्मृति हेतु हासिए में लिख देते थे। कालान्तर में अन्य लिपिकों द्वारा जब उस आदर्श की प्रतिलिपि की जाती तब हासिए में लिखी गाथाएं गूल में लिख दी जाती। सामायिक नियुक्ति में अनेक गाथाएं प्रसंगवश प्रक्षिप्त हुई हैं। अनेक स्थलों पर तो लिपिकार ने संकेत भी कर दिया है अन्या व्या. अर्थात् यह गाथा अन्यकर्तृकी है पर टीका में व्याख्यात है। प्रक्षिप्त गाथाओं के बारे में विशेष विमर्श पहले कर दिया गया है।
१. मटी गा. ३०५।
२. हाटी गा. ३६२/२५
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