Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति कि उन्होंने आगमिक आधार पर व्याकरण की रचना नहीं की।
डॉ. के. आर. चन्द्रा आदि भाषाविदों के अनुसार प्राचीन अर्धमागधी संस्कृत के निकट थी लेकिन समय के अंतराल के साथ तथा हेमचन्द्राचार्य की प्राकृत व्याकरण के प्रभाव से यकार श्रुति का प्रयोग होने लगा। प्राचीनता की दृष्टि से जहां कहीं मूल व्यञ्जनयुक्त पाठ मिला, उसे हमने मूल में स्वीकार किया है लेकिन पाठ न मिलने पर यकार श्रुति वाले पाठ को भी स्वीकृत किया है। तकारश्रुति वाले पाठ को स्वीकार नहीं किया जैसे—विणओ > विणतो, कागो > कातो आदि।
· प्राकृत व्याकरण के अनुसार संयुक्त व्यंजन से पूर्व का स्वर हस्व हो जाता है। दोनों रूप मिलने पर प्राचीनता की दृष्टि से दीर्घ रूप को स्वीकार किया है, कहीं-कहीं न मिलने पर हस्व स्वर भी स्वीकृत किया है, जैसे-हुंति > दिति आदि।
हेमचन्द्र के व्याकरण से प्रभावित व्यञ्जन विशेष एवं स्वरविशेष से जुड़े पाठान्तरों का प्रायः उल्लेख नहीं किया है क्योंकि वर्णों एव व्यञ्जनों के पाठान्तर देने से ग्रंथ का कलेवर बढ़ जाता। जैसे
ग > क तित्थगरे तित्थकरे भ > ह पभू पहू ध) ह तधा तहा
तय कतं कयं न्न > ण्ण अन्न अण्ण मात्रा संबंधी पाठान्तरों का भी उल्लेख कम किया हैअ > इ परिसडंति > परिसडिंति ओ > उ परोक्ख > परुक्ख देंति दिति
एइ जेव्वाण णिव्वाण आदि। साहइ साहई सप्तमी आदि विभक्ति के लिए 'य' का प्रयोग प्राचीन है। जहां भी हमें 'य' विभक्ति वाले पाठ मिले, वहां उनको प्राथमिकता दी है। इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति के अर्थ में जहां अंसि और म्मि दोनों रूप मिले वहां अंसि विभक्ति वाले रूप को प्राचीन मानकर स्वीकार किया है जैसे-पुव्वंसि, सव्वंसि आदि।
अनेक स्थलों पर स्पष्ट प्रतीत होता था कि हस्तप्रतियों में लिपिकर्ता द्वारा लिपि संबंधी भूल से पाठभेद हुआ है, उन पाठान्तरों का उल्लेख प्रायः नहीं किया है पर कहीं-कहीं उसके दूसरे रूप बनने की संभावना थी, वहां ऐतिहासिक दृष्टि से उन पाठान्तरों का उल्लेख किया है।
नीचे टिप्पण में दी गयी गाथाओं के पाठान्तरों का उल्लेख नहीं किया है पर उनके पाठशोधन का लक्ष्य अवश्य रखा है।
टीकाकार की विशेष टिप्पणी का भी हमने पादटिप्पण में उल्लेख कर दिया है। देशी शब्दों के लिए जहां कहीं 'देशीत्वात्' 'देशीवचनमेतत्' आदि का उल्लेख हुआ है, उनका भी टिप्पण में उल्लेख कर दिया है। जैसे-निहूयं ति देशीवचनमकिंचित्करार्थे (हाटी)।
यत्र-तत्र टीकाकारों ने अलाक्षणिक मकार या पादपूर्ति रूप जे, इ, र आदि का उल्लेख किया है, उसका भी हमने पादटिप्पण में उल्लेख किया है। जैसे जे इति पादपूरणे (मटी)। अन्य व्याकरण संबंधी
१. जैन भारती, ५ मई १९६८ ।
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