________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१० ] [159 यावत्--वह क्रिया करने से दुःख का कारण है, न करने से दुःख का कारण नहीं है, ऐसा कहना चाहिए। 'कृत्य दुःख है, स्पृश्य दुःख है, क्रियमाण कृत दुःख है। उसे कर-करके प्राण, भूत, जीव और वेदना भोगते हैं; ऐसा कहना चाहिए। विवेचन--'चलमान चलित' प्रादि-सम्बन्धी अन्यतीथिकमत निराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्तनिरूपण--प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीथिकों की कतिपय विपरीत मान्यताओं का भगवान् महावीर द्वारा निराकरण करके स्वसिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। अन्यतीथिकों के मिथ्या मन्तव्यों का निराकरण-(१) चलमान कर्म प्रथम क्षण में चलित नहीं होगा तो द्वितीय आदि समयों में भी प्रचलित ही रहेगा, फिर तो किसी भी समय वह कर्म चलित होगा ही नहीं। अतः चलमान चलित नहीं होता, यह कथन प्रयुक्त है। (2) दो परमाणु सूक्ष्म और स्निग्धतारहित होने से नहीं चिपकते, यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि एक परमाणु में भी स्निग्धता होती है, अन्यतीथिकों ने जब डेढ़-डेढ़ परमाणुओं के चिपक जाने की बात स्वीकार की है, तब उनके मत से आधे परमाणु में भी चिकनाहट होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में दो परमाणु भी चिपकते हैं, यही मानना युक्ति-युक्त है। (3) 'डेढ़-डेढ़ परमाणु चिपकते हैं, यह अन्यतीर्थिक-कथन भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि परमाणु के दो भाग हो ही नहीं सकते, दो भाग हो जाएँ तो वह परमाणु नहीं कहलाएगा / (4) 'चिपके हुए पाँच पुद्गल कर्मरूप (दुःखत्वरूप) होते हैं यह कथन भी असंगत है, क्योंकि कर्म अनन्तपरमाणुरूप होने से अनन्तस्कन्धरूप है और पाँच परमाणु तो मात्र स्कन्धरूप ही हैं, तथा कर्म, जीव को आवत करने के स्वभाव वाले हैं, अगर ये पाँच परमाणुरूप ही हों तो असंख्यातप्रदेशवाले जीव को कैसे प्रावृत कर सकेंगे? तथा (5) कर्म (दुःख) को शाश्वत मानना भी ठीक नहीं क्योंकि कर्म को यदि शाश्वत माना जाएगा तो कर्म का क्षयोपशम, क्षय आदि न होने से ज्ञानादि की हानि और वृद्धि नहीं हो सकेगी, परन्तु ज्ञानादि की हानि-वृद्धि लोक में प्रत्यक्षसिद्ध है। अतः कर्म (दु:ख) शाश्वत नहीं है / तथा आगे उन्होंने जो कहा है कि (6) कर्म (दुःख) चय को प्राप्त होता है, नष्ट होता है. यह कथन भी कर्म को शाश्वत मानने पर कैसे घटित होगा ? (7) भाषा की कारणभूत होने से बोलने से पूर्व की भाषा, भाषा है, कह कथन भी अयुक्त तथा प्रौपचारिक है / बोलते समय भाषाको अभाषा कहने का अर्थ हग्रा-वर्तमानकाल व्यवहार का अंग नहीं है, यह कथन भी मिथ्या है। क्योंकि विद्यमानरूप वर्तमानकाल ही व्यवहार का अंग है। भूतकाल नष्ट हो जाने के कारण अविद्यमानरूप है, और भविष्य असद्रप होने से अविद्यमानरूप है, अतः ये दोनों काल व्यवहार के अंग नहीं हैं। (8) बोलने से पूर्व की भाषा को भाषा मानकर भी उसे न बोलते हुए पुरुष की भाषा मानना तो और भी युक्तिविरुद्ध है / क्योंकि अभाषक की भाषा को ही भाषा माना जाएगा तो सिद्ध भगवान् को या जड़ को भाषा को प्राप्ति होगी, जो भाषक हैं, उन्हें नहीं। (9) की जाती हुई क्रिया को दुःखरूप न बताकर पूर्व को या क्रिया के बाद की क्रिया बताना भी अनुभवविरुद्ध है, क्योंकि करने के समय ही क्रिया सुखरूप या दुःखरूप लगती है, करने से पहले या करने के बाद (नहीं करने से) क्रिया सुखरूप या दुःखरूप नहीं लगती। इस प्रकार अन्यतीथिकों के मत का निराकरण करके भगवान् द्वारा प्ररूपित स्वसिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।' 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 102 से 104 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org