Book Title: Nishesh Siddhant Vichar Paryay
Author(s): Labhsagar
Publisher: Jainanand Pustakalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ines आगमोद्धारक-ग्रन्थमालायाः त्रिपञ्चाशं रत्नम् / णमोत्थु णं समणस्स भगवजो महावीरस्स / प० पू० आगमोद्धारक आचार्यप्रवर श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः।। गणिचन्द्रकीर्तिसम्पिण्डित: निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्यायः संशोधक: 50 पू० गच्छाधिपति आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्यः शतावधानी पंन्यास लाभसागरगणि: विक्रम सं. 2029 वीर सं. 2199 प्रतयः 30.1 भागमो सं. 24 [ मूल्यम् 5-.. / :प्राप्तिस्थान: श्री जैनानंद-पुस्तकालय, गोपीपुरा, सुरत. DAANDOEDMEDNESDAI Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goREPRESIDEREDIOHDIOMEDoDog आमोद्धारक-ग्रन्थमालायाः त्रिपञ्चाशं रत्नम् / णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स / र प० पृ० आगमोद्धारक आचार्यप्रवर श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः / गणिचन्द्रकीर्तिसम्पिण्डितः निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्यायः CDSDAPACIDCDDADAPADAPNAAD संशोधक : 50 पू० गच्छाधिपति आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्यः शतावधानी पंन्यास लोभसागरगणि: विक्रम सं. 2029 वीर सं. 2499 प्रतयः 300 ] आगमो सं. 24 / [ मूल्यम् 5-.. : प्राप्तिस्थान : श्री जैनानंद-पुस्तकालय, गोपीपुरा, सुरत. BIDIOPICAREDIORANETSAMADRIDDHESI Page #3 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनंतानंतकालथी एक सनातन नियम छे के शासननी' स्थापना पूर्वे द्वादशांगीनी रचना, त्यारबाद शासनसंघनी स्थापना / आथीज समजाय के जैन-शासननी भव्य इमारतना तांबाना पायारूपे जैनागम छे। संपूर्ण शासननी सुदृढ व्यवस्था आगमज्ञान पर छे। पटलज नहि पण तेनी प्राप्ति माटे : अनेकविध तपयोगवहन करी ते ज्ञान मेलववानी योग्यता मेलवे छे / अने ते ज्ञानमात्रा वधतां पुण्यवान् आत्माओ आचार्य पद पर आरूढ थइ त्रिकालाबाधितशासनन सुकान संभालवा भाग्यशाली बन्या छे। श्रीजिनागमनु अध्ययन नि:श्रेयसपद प्राप्तिना भव्य आदर्शने घरेला आत्माओने अणमोल साधन छे / तेमां कशी अतिशयोक्ति नथी / श्री आगमज्ञान प्राप्तिनी पद्धति अने संरक्षणता / पूर्वकालमा आगमशास्त्रानु अध्ययन मौखिक थतु हतु। बुद्धिना सागर साधुभगवंतो तेने यथावतू याद राखता हता। कदाच स्खलना थाय तो बीजी या त्रीजी वार सांभलीने-अध्ययन करीने स्वनामवत् ते महामृला आगमरत्नोने हृदयमंदिरमा पधरावी जीवनने धन्य बनावता हता। आ ज्ञाननी प्राप्ति माटे लांबा लांबा विहार थता दूर दूर देशामां अनेक मुश्केलीओ वेठीने जता, अने अनेक वाचनाओनेो लाभ लेता हता। तो पण दु:षमकालना विषमप्रभावे मेघावी मुनिवृदनी मेधाना दिनानुदिन क्षीणतानो अनुभव थतां शासनना शिरताज अने उत्सर्ग-अपवादना जाणकार पूज्य देवद्धिगणिक्षमाश्रमण भगवंते वलभीपुरमा ते समयना मुख्य मुख्य 500 आचार्याने भेला करी, अनेकविध पाठोथी मेलवी श्री आगमाने पुस्तकारूढ करवानु महान् कार्य कर्यु / आथी आगमज्ञानप्राप्ति सुलभ बनी एटलुज नहि पण श्री जिनागमज्ञानप्राप्तिनी सरवाणी निरंतर बहेती चालु राखी / तेओश्रीनु आ कार्य जनशासनमां प्राण पूरवासमान थयु एम कहीए तो वधु पडतु नथी ज / Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) लघुग्रंथनो परिचय आ पवित्रतम आगमोनु शान सुलभताथी मेलवधाना अवदात आशये भायनियुक्तिओ चूर्णि टीका टपा आदिनु निर्माण ययु इतुं, थइ रहयु छ भने थशे / आवा ज भव्य आसये आ लघुकाय प्रथनु निर्माण लगभग 11 मी सदीमां थयु। अने तेरमी सदीमां ताडपत्र पर अंकित थयो, तेनु मुद्रण वि. सं. २०२९मां था रहयु छे ते आपणा संघर्नु परम सौभाग्य छ / आ ग्रंथनु नाम : नि:शेषसिद्धतिविचारपर्याय' छ / आगमना मननीय विचारणीय सूक्ष्मतर कतिपय पदार्थो उपर ऊंडाणथी चिंतन अने मंथन साथे जे निष्कर्ष निहाल्या तेने संस्कृतभाषाबद्ध करीने संपिंडित (संकलित ) . कर्या छे ते प्रथम खंडमां छे. अवशिष्ट अंशने परिशिष्टमां मूकी प्रथम खण्ड पूर्ण को छ। श्री आगमाना विषम पदाना कठीन अने गूढ अर्थाने सरल संस्कृतभाषामा संकलित कर्या तेने बीजा खण्डमा स्थान मापवामां आव्यु छ। ग्रंथनाममीमांसा आ ग्रंथनी प्रशस्तिमा स्वयं ग्रंथकार (1) 'सिद्धांत विचार पर्याय' आ मुजपनु नाम लखे छे, (2) 13 मी सदीमा जे ताडपत्र पर मा ग्रंथ पूर्ण थयो, तेना अंत भागमा 'सिद्धांत सारोद्धार' मा मुजबनु नाम लहिया देवप्रसाद लखे छे अने प्रतना मुखपृष्ठ उपर निशेष सिद्धांतविचारपर्याय' छ / संपादन वखते विचार यया के नाम शु राखवु 1 आ प्रश्ननी मीमांसा समये एक तर्क उठ्यो के-श्री जैनागमोमां छेदसूत्रो हाईभूत छे छेदसूत्रोथी शासननी व्यवस्था सुचारुरूपे रहे छे तेथी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज छेदसूत्राने ' श्रुतपुरुष नी रचनामां मस्तिष्कमा स्थान अपायु छ। आथी आ छेदसूत्रो तमाम सिद्धातामा सारभूत गणवामां आवे ते सुयोग्य छ अने अहिआं मुख्यताए छेदना विचारा ने पर्यायो छे / पम मानीने मुखपृष्ठ उपर नि:शेषसिद्धांतविचार पर्याय' लख्यु हाय ! आ तकना आधार आ नथनु गुणनिध्यक्ष नाम मुखपृष्ठ उपर राख्यु योग्य गणाय / नंथ विषय परिचय परिमाणमा नाना देखाता पण अर्थथी अने विषयथी अगाध, आ ग्रंथमा बीजा बीआ आगमोना अर्थ तथा विचाराने अल्पस्थान आपया साथे छेदनधोना विचार अने अथेने मुख्य स्थान आप्यु छ / नाना नाना घणा विषयाने प्रकाश आपता ग्रंथकारे अनुधर्म उपर सारो प्रकाश फेक्यो छे / धर्तमानमा घणांओं पेपर आदि द्वारा पकवार नहिं यण अनेकवार उच्चारी के लखी चूक्या छ के- 'भगवाननु कहेल करवानुछे करेलु नहिं ' तेओ ग्रंथना प्रथम खण्डन 38 मुं पत्र घांची जाय, वधु खुलासा माटे निशीथचूर्णिनी 4855 मी गाथा, तेमज यतिजीतकल्प, बृहत्कल्प ने जोइ सत्यनो स्वीकार करे एज इच्छा / जे जे विचार। संपिडित (संकलित ) कयां छे ते ते अंगेना मूलय थनी गाथाओ तथा अर्थने यथावत् उद्धत करी तेना पर पोते निष्कर्षरूपना का संस्कृत वाक्या मूक्या छ। जेथी आ गाथाना शो आशय छ 1 ते अल्प बुद्धिवालापण तूर्त समजी जाय तेम छ / आज कारणे संग्रहनो प्रयास घणोज स्तुत्य छे अने वर्तमानसमये मुद्रणनी प्रयास पण अल्प उपकारक नथी। ग्रंथकार-परिचय आ लगुकायथना कर्तानो परिचय मेललवा मुख्य साधन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) रूपे प्रतिभागमां लखेल प्रशस्ति छ। तेना आधारे जणाय छे के१२ मी आपेल सदीभा जे पूज्य आचार्य श्री धर्मघोषसरि भगवंत थया हता। तेमोश्री पासेथी पूज्य आचार्यश्री विमलसूरि महाराजाना विद्वान् शिष्य-रत्न पूज्य श्री चंद्रकीर्ति गणिवरश्रीए पोताना स्वाध्याय माटे आगमना पर्यायोनी नोंध करी हती, ते नेधि केवी रीते हस्तलिखित थइ ते माटे हवे पछीना पेरेग्राफमां- .. .. ग्रंथलेखनकाल मादि जे समये ग्रंथकर्ता थया तेज़ समये पोरवाडवंशना शेठ धनदेव तथा शेठाणी इन्दुमतिने त्यां यशोदेव नामना महान् पुण्यात्मानो जन्म थथा हतो तेमने सतीओमा गणना पामेली तेषी पतिव्रता आंबी अांगना हती अने तेओने उद्धरण-आंबीग-वीरदेव नामना प्रण पुत्ररत्नो तथा सोली, लोली अने सोखी नामनी प्रण पुत्रीओ इती। आखु कुटुंब घणुज धार्मिक हतु / श्री जिनवचनना पाननी अने भूत उपासनानी घणीज लगनी इती। आथी तेओए घणाज ग्रंथो लखाव्या हता। प्रस्तुतग्रंथनी प्रशस्तिमा निर्मापिता' नामना ‘ण्यंत' प्रयोग तेमनी श्रुतभक्तिनी तालावेलीनी साक्षी पूरे छ / श्री जिनशासनभक्त आ श्राद्धवयें आ ग्रंयनी प्रत लखाधी हती। अने तेना परथी वि० सं० 1216 मां लहिया देवीप्रसादे मा प्रथ ताडपत्र पर लख्या, तेना परथी सुभाषक नगीनदास भाईए प्रेसकोपी करी हती। ग्रंथनी उपयोगिता __मा 'निःशेषसिद्धांतविचारपर्याय' ग्रंथमां मोटा भागना छेदग्रंथनी गूढविचार अने गूढपदो खारांशता अने कृतिनीपण लगभग 900 वर्षयी वधु प्राचीनता छे, अने वर्तमानकालना श्रुतधरोमां अग्रस्थानने शोभावनार मूर्तिमंत आयमस्वरूप पूज्य गच्छाधिपति आचार्यभगवंतीनी पुण्यदृष्टियी परिपूतता आ त्रिवेणी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) योगथी आ ग्रंथनी उपयोगिता घणीज वधी अशे ते निःशंक छ / आ ग्रंथ नानकडा 'आगमिक कोश' रूपे काममां आवशे तेवी मारी धारणा साचीज ठरशे / आ गथमां अशुद्धिपत्रक साथे ते ते विषयोनी अनुक्रमणिका पण मुद्रित करी छे। जेथी वाचक प्रथम ग्रंथमा रहेली अशुद्धिआने शोधी ते ते विषयाने सांकलियाथी सग्लताथी मेलवी शकशे। मुद्रणकार्यमा क्वचित् क्षति नजर पर तरे पण ते प्रेस आदिना कारणे छे तो वाचको ते समक्ष नजर न नांखता अंदरना तत्व सामे दृष्टिने राखे तेज विनंति छ / नेमचंद मेलापचंद जैन उपाश्रय, सुरत. .. वि० सं० 2029 महावद-८ रवीवार हः- पूज्यपाद आगमोद्धारक ___ ध्यानस्थस्वर्गत आचार्यदेवश्री ____ मानंदसागरसूरीश्वर्गशष्याणु सूर्योदयसागर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय-निवेदन आ 'नि:शेषसिद्धांतविचारयाय' नामना. ग्रंथने आगमोद्वारक ग्रंथमालाना 53 मा रान तरीके प्रगट करता अमने बहु हर्ष थाय छे। - आना प्रकाशनमा पूज्य गणिवर्यश्री अभयसागरनी महाराजे (हाल पंन्यास) आपेली प्रेसकोपीनो उपयोग को छे। __आनी प्रेसकोपी मुनिराजश्री लावण्यसागरजी म. करी हती भने संशोधन पू. गच्छाधिपति आचार्यश्री माणिक्यसागर सूरीश्वरजी म. नी पवित्र-दृष्टि नीचे शतावधानी (हाल पंन्यास ) श्री लाभसागरजी गणिए करेल छे / ते बदल तेओश्रीनो तेमज जेलोए आना प्रकाशनमां द्रव्य तथा प्रेसकोपी आपवानी सहाय करी छे ते बघा महानुभावाना आभार मानीए छीप / लि. प्रकाशक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्राङ्क विषयानुक्रमणिका प्रथमखण्ड-विषयः मासकल्प-वर्षाकल्पानन्तरं न स्येयम् / गुरो. गन्धपूजा / चतुर्दशी पक्षान्तो न भवति / आलोचना श्रावकाणाम् / / यादृशं प्रतिक्रमण साधो: तादृशं श्रापकस्य / साधुभिः वस्त्र प्रावरणीयम् / ईपिथिको प्रतिक्राति गौतमः / अष्टाविचारः / कल्याणकानि / पक्षे-अर्धमासे भव पाक्षिकम् / जन्मकल्याणकम् / श्रावकस्य चैत्यवन्दनम् / प्रमार्जनं वस्त्राञ्चलादिना / श्रावकस्वरूपम् / गृहिप्रायश्चितम् / . मुखास्त्रका श्रावकस्य उत्तरीयवस्त्रम् / श्रावकमुखपोतिका / प्रदक्षिणाविचारः। चैत्यवन्दनाविचार / देवद्रव्यविचारः . वस्तुमूविचारः / प्राभातिकप्रतिलेखनम् / प्रावरणविचारः / सीसढकणनिषेधः / Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) 21 49 तकाम्बिलर / पर्वक्रमः / एकाकीस्त्रीकथा / आधाकविचारः। पर्युषणाविचारः / वर्षाकाले क्षेत्रमानम् प्रथमपौरुष्यां गृहीतं चतुर्था न शुद्धयति / यत् तीर्थकरेराचीर्ण तदन्यैराचरणीयं तीर्थकरकल्प पिना। संयत्या वस्त्राणि स्वयं न गृह्णन्ति / गुरुसंस्तारकस्थाने पादो न भांक्तव्यः / स्थापना / आलोचना दिनानि / रजोहरणम् / निषद्याविचारः / मासविचार: / प्रतिष्ठाविचारः: / मासद्वयविचारः / कल्पविचारः / वर्षातिक्रमे उपधिग्रहणविचारः / मास कल्पान्तरोपधिग्रहणविचारः / अस्वाध्याय न भवति / गर्भाष्टमविचारः / देवद्रव्यविचारः / आचार्यादिपदविचाराः / इत्थापना विषयः / सङ्घस्वरूपम् / 51 3 56 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रात विषयः त्रयोदशगुण वर्षाक्षेत्रम् / कालचारिणीसाध्वीस्वरूपम् / आचार्यवर्णनम् / अवग्रहकाल: / आचार्योपाध्याययोः पञ्च अतिशेषाः / आचार्येण पहिभूमौ न गन्तव्यम् / आचार्येण न भिक्षणीयम् / पाक्षिकविचारः / प्रतिष्ठाविचारः / लिङ्गिकारितादिजिनचैत्यवंन्दनविचारः। जिनगृहनिवासनिषेधस्य स्तुतित्रयस्य च विचारः / वर्षाप्रवेशादिषिचारः / अष्टविधा गणिसम्पद् / तपोविचारः / जीविचारः / पुलाकादिविचारः / प्रावरणविचारः / स्थितास्थितकल्पविचारः। अनुशास्तिः / प्रावरणविचारः / रसत्यागविचारः / देवद्रव्यविचार: / प्रावरणविचारः। कालातिक्रमवसनविचारः / सम्भोगविचारः / महालदगादिविचारः / 'चित्रं बर्थयुक्तम् / Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्राङ्क सोपधित्वं जिनानाम् / थेरस्स आवली। गणविचारः / शाखास्वरूपम् / प्रतिष्ठाविधिः / प्रायश्चित्ते / सम्प्रदायलिखितम् / भिक्षाकायोत्सर्ग नमस्कारः / बिम्बप्रतिष्ठास्वरूपम् / / विषयः .. प्रेक्षणकदर्शनविचारः / 'संवच्छर' इत्यादिगाथान्याख्या / श्रमणोपासकानां पर्युपासना / 'रुप्पं टकं' इत्यादि गाथाब्याख्या / मासादिस्वरूपम् / 'एगाह कूडाह' व्याख्या / द्वितीय खण्डः पर्यायाः / प्रशस्तिः / परिशिष्टम्-१ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ م م م م ه م दुविहो छुभंति (11) शुद्धिपत्रकम् (प्रथमखण्डः) पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धम् शुद्धम् अस्थार्थ: अस्यार्थः व्याख्या व्याख्या चेद 47 25 विषपे विषय पचविहमि पंचविहमि दुविहा च्छुभंति टुंति ठंति निज्जूट निज्जुङ (द्वितीयखण्डः) संसिद्धः सम्बुद्धिः षणबीसाए पणवीसाए यावार्थम् याच्आर्थम् 12 पणउ पणओ मुप्पाउ मुप्पाओ इत्येके इत्येक सिस्नादर सिनोदर (प्रकाशकीयनिवेदन) ___म० करी म० अने बालमुनिश्री महाबलसागरजी म० करी (विषयानुक्रम) स्येय स्थैर्य विचार। विचारः। शुद्धयति / शुद्ध्यति / م م س ع م ه م m م अथपाता Page #15 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स प० पू० आगमोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरेम्यो नम: कृतिवर-गणि-चन्द्रकीर्तिसम्पिण्डित: | निःशेषसिद्धान्तविचार पर्यायः / | प्रथमः खण्डः विचारास्तु लिख्यन्ते-यथा 'अह सा भमरसन्निभे कुच्चफणगपसाहिए / सयमेव लुचई केसे धिइमंता ववस्सिया' // इत्युत्तरा० // 22 / / (आचारस्य) 'से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा जे भयंतारो उउबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवाइणित्ता तत्थेव भुजो संवसंति / अयमाउसो ! कालाइकंतकिरिया वि भवइ' / अर्थस्तु-आगन्तारादिषु ये भगवन्तः 'ऋतुबद्ध 'मिति शीतोष्णकालयोर्मासकल्पमुपनीय - अतिवाह्य वर्षानु वा चतुरो मासानतिबाह्य तत्रैव पुन: कारणमन्तरेण आसते / अयमायुष्मन् ! कालातिकान्त-वसतिदोषः सम्भवति / इति मासकल्प-वर्षाकल्पानन्तरं न स्थातव्यम् / से आगंतारेसु वा 4 जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवाइणित्ता तं दुगुणादु : (ति) गुणेण वा अपरिहरित्ता तत्थेव भुजो संवसंति / अयमाउसो ! इयरा उवट्ठाणक्षिरिया' इत्याचारे (श्रुतस्कन्ध 2, अध्ययन 2) अह पुणेवं जाणेज्जा चत्तारि मासा वासावासाणं वीइकंता हेमंताण य पंच दस राइकप्पे परिसिप, अंतरा से मग्गे बहुपाणा जाव संताणगा नो जत्थ बहवे समण जाव उवागमिस्संति, सेवं नच्चा नो गामाणुगामं दृइजिजा / अर्थस्तु-अथैवं जानीयात् यथा चत्वारोऽपि मासा प्रावृटकालसम्बन्धिनोऽतिक्रान्ताः, कार्तिकचातुर्मासकमतिक्रान्तमित्यर्थः / तत्रोत्सर्गतो यदि न वृष्टिः, ततः प्रतिपद्येवान्यत्र Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये गत्वा पारणं विधेयम् / अथ वृष्टिः ततो हेमन्तस्य पञ्चसु दशसु वा दिनेषु पर्युषितेषु-गतेषु गमनं विधेयं / तत्रापि यद्यन्तराले पन्थानः साण्डा यावत्ससन्तानका भवेयुः, न च तत्र बहवः श्रमणब्राह्मणादयः समागताः समागमिष्यन्ति वा / ततः समस्तमेव मार्गशिरं ब) यावत् तत्रैव स्थेय, तत ऊर्ध्व यथा तथाऽस्तु न स्थेयम् / (इत्याचारे)। तित्थगराण भगवओ पवयणपावयणि अइसइड्ढीणं / अहिगमणनमणदरिसण कित्तणसंपूयणा थुणणा / (आ० 330) .. गाथार्थस्तु प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य प्रावचनिकानाम्-आचार्यादीनां तथाऽतिशयिनाम्-ऋद्धिमतां यदभिगमनं, गत्वा च दर्शने तथा गुणोत्कीर्तनं, सम्पूजनं गन्धादिना, स्तोत्रैः स्तवनम् इत्यादिका दर्शनभावना इत्यनया आचारनियुक्तिगाथात: गन्धपूजा गुरोरभिगमनं च समर्थ्यते / 'जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्टमे पक्खे आसाढसुद्धे तस्स णं असाढसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं हत्थुत्तगहिं न क्खत्तेणं जोगमुवागणं' इत्याद्याचारालापकेन चतुर्दशी पक्षान्तो न भवति / __ " तेणं वहूई वासाइं समणोवासगपरियायं पालइत्ता छण्हं जीवनिकायाणं सारक्खणनिमित्तं आलोइत्ता निंदित्ता गरहित्ता भत्तं पञ्चक्खाइत्ता अपच्छिमाए मारणंतियाए संलेहणाए झुसियशरीरा कालमासे कालं किच्चा तं सरीरं विप्पजहित्ता अञ्चए कप्पे देवत्ताए उववन्ने वीरमायपियरे इति शेषः” इत्यनेन आचारसूत्रालापकेन आलोचना श्रावकाणां भणिता / सूत्रकृत:-जे धम्मलद्धं विणिहाय भुंजे वियडेण साहट्ट य जो सिणाई / जो धोवइ लूसयइ व वत्थं अहाहु से नागणियस्स दूरे // Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 सूत्रकृताङ्गस्य विचारा: अस्थार्थ:-- ये केचन शीतलविहारिण: धर्मेण मुधिकया लब्धम् उद्देशिकक्रीतकृतादि-दोषरहितमित्यर्थः / तदेवंभूतमप्याहारजातं विनिधाय-व्यवस्थाप्य सन्निधि कृत्वा भुजते / तथा ये विकटेनप्राणुकोदकेनापि सङ्कोच्याङ्गानि प्रासुक एवं प्रदेशे देशसर्वस्नान कुवन्ति / तथा यो वस्त्र धावति-प्रक्षालयति / तथा लूपयति-शोभार्थ दीर्घ सत् पाटयित्वा ह्रस्वं करोति इत्वं वा सन्धाय दीर्घ करोति इत्येवं लूषयति स निर्ग्रन्थमावस्य-संयमानुष्ठानस्य दूरे वर्तते, न तस्य संयमो भवतीत्यर्थ: / एवं तीर्थकर-गणधरादय आहुरिति सूत्रकृताङ्गे कुशीलाध्ययने उक्तम् / कम्मं परिण्णाय दगंसि धीरे बियडेण जीविजय आइमुक्खं / से बीयकंदाइ अभूजमाणे विरप सिणाणाइसु इथियासु // 22 // धीर उदकसमारम्भे सति कर्मबन्धी भवतीत्येवं परिज्ञाय किं कुर्यात् ? इत्याह-विकटेन-प्रासुकोदकेन सौवीरादिना जीव्यात् , आदि:- संसारः तस्मात् मोक्ष आदिभोक्षः संसारविमुक्तिं यावदिति सूत्रकृताङ्गकुशीलाध्ययने उक्तम् / आयरियपरंपरएण आगयं जो उ छेयबुद्धोए / कोवेइ छेन्यवाई जमालिनासं स णासिहिति // 165 // इति सूत्रकृताङ्गयाथातथ्याध्ययने निर्युक्तायुक्तम् / चाउद्दसमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह सम्म अणुपा. लेमाणे' इति / 'आलोइयपडिकंता समाहिपत्ता' इति आहारपरिज्ञाध्ययने सूत्रकृदङ्गस्य श्रावकं प्रत्युक्तं, साधु प्रति तु चाउजामाओ धम्माओं पंचमहत्वइयं सपडिक्कमणधम्मं उवसंपजित्ताणं विहरइ उदकसाधुरितिशेषः / ततो यादृशं प्रतिक्रमणं साधो: तादृशं श्रावकस्यानुमीयते। एतदपि सूत्रकृति। 'चाउद्दसट्टमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु' इत्यस्यार्थो यथा-चतुर्दश्यष्टम्यादिषु तिथिषु उद्दिष्टासु-महाकल्याणसम्बन्धितया पुण्यतिथित्वेन प्रख्यातासु तथा पौर्णमासीषु च तिसृप्यपि चतुर्मासकतिथिषु इत्यर्थः / एवम्भूतेषु धर्मदिवसेषु THE. JNE, HTHHTHHHHE Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये सुष्टु-अतिशयेन प्रतिपूर्णो यः पौषधः-व्रतांभिग्रहविशेषः तं सुप्रतिपूर्णम् आहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्याव्यापाररूपं पौषधम् मनुपालयन् सम्पूर्ण श्रावकधर्मअनुचरतीति व्याख्या सूत्रकृति कृतां केचन मन्यन्ते / (स्थानस्य ) 'तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्टु नो आलोएज नो पडिकमेजा नो निंदेजा नो गरहेजा नो विउट्टेजा नो विसोहेजा नो अकरणयाए अब्भुटेजा नो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवजेजा / तं० अकरिंसु वाहं करेमि वाहं करिस्सामि वाहं' इति जीवाधिकारे सामान्येन भणितं त्रिस्थानकतृतीयोद्देशके आलोचनाभिधायकम् / ___अस्यार्थस्तु-आलोचनं-गुरुनिवेदनं, प्रतिक्रमणं-मिथ्या दुम्कतदानं, निन्दा-आत्मसाक्षिका, गाँ-गुरुप्साक्षिका, वित्रोटनं-तदध्यवसायविच्छेदनं, विशोधन-आत्मनश्चरित्रस्य वाऽतिचारमलक्षालनम् अकरणताऽभ्युत्थानं-पुन तत्करिष्यामीत्यभ्युपगमः स्थानाङ्गे सू०१६८) तिहिं ठाणेहिं वत्थं धारेजा, तं जहा-हिरिवत्तियं दुगुंछावत्तिय परिसहवत्तियं धारेजा-उवभुंजेजा / यतः-'धारणया उवभागो परिहरणे होइ परिभोगो'। तत: साधभि: प्रावरणीयमिति सिद्धम् / वृत्तिः पुनरस्य-ही-लज्जा संयमो वा प्रत्ययो-निमित्तं यस्य धारणस्य तत्तथा, जुगुप्सा-प्रवचनखिंसा विकृताङ्गदर्शनेन मा भूदित्येतत् प्रत्ययो यत्र तत्तथा, परीसहा:-शीतोष्णदेशमशकादयः प्रत्ययो यत्र तत्तथा स्थानाङ्गसूत्रमिदम् (सू० 171) असढेण समाइण्णं जं कत्थइ केणई असावजं / न निवारियमण्णेहिं बहुमणुमयमेयमायरियं // अवलंबिऊण कजं जं किंची आयरंति गीयत्था / थेवावराह बहुगुण सम्वेसिं तं पमाणं तु // पञ्चवस्तुके (भगवत्याः) 'चाउद्दसट्टमुद्दीट्ठपुण्णमासिणीतु पडिपुन्न पोसह ' इत्यादि / इहोद्दिष्टा-अमावास्या भगवंत्यां Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीविचारा: द्वितीयशते उक्तम् / (सू०१०६) 'हाया कयबलिकम्मा' इति कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानां ते तथा इति / श्रावकवर्णके भगवत्यां शते 2 (सू० 108) / समणस्स भगवओ महावीरस्म अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमइ, गौतम इति शेष: / इति भगवत्यां (सू० 110) किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा नंदीसरवरदीयं गया गमिस्संति य 1 गो० जे इमे अरहता भगवंतो एएसिणं जम्मणमहेसु वा निक्खमणमहेसु वा नाणुप्पायमहिमासु वा परिनिव्वाणमहिमासु वा' इति भगवत्यां शते 3 (सू० 141) इत्यनेन कल्याणकान्युक्तानि / जेणं निगंथो वा निगंथी या जाव साइमं पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहित्ता पच्छिमं पोरसी उवाइणावित्ता आहारं अ हारेइ, एस ण गोयमा ! कालाइते पाणभोअणे / जे णं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव साइमं पड़िगाहित्ता परं अद्धजोयणमेराए विकमावित्ता आहारमाहारेइ, एस णं गो० ! मग्गाइकते पाणभोयणे / भगवत्याम् (सू. 68) __आगमेणं सुपण आणाए धारणाए जीएण इहि पंचहिं ववहारं पडवेजा / भगवतीसूत्रे (339) / सए ण सा देवाणंदा माहणी पंचविहेण अभिगमेण अभिगच्छइ त सचित्ताण दम्वाण विउसरणयाप, अचित्ताण दवाण अविमोयणयाए, विणओणयाए गायलट्ठीप, चक्खुफासे अंजलिपग्गहेण', मणसा एगत्तीभावकरणेण समण भयवं महावीरं वंदइ वदित्ता उसभदत्तं माहण पुरओं कट्ठ ठिवा चेव सपरिवारा सुस्यूसमाणी इत्यादि / ठिया चेवत्ति ऊर्ध्वस्थानस्थितैव अनुपविष्टेत्यर्थः / भगवत्यां (सू० 380) / 'तए ण समणे भयवं महावीरे देवाणदं माहणिं सयमेव पवावेइ, सयमेव पन्बावेत्ता सयमेव अजचंदणाए अजाए Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्वाये सीसिणीत्ताए दलयइ / तए ण सा अजचंदणा अन्जा देवाणदं माहणि सयमेव पवावेइ मुंडावेइ सयमेव सेहावइ' इत्यष्टाविचारः / / सू० 382) भगवत्यां पुनः 'पव्वाधणा'ग्रहणम् अनवगतावगमविशेषाधानार्थम् / तए ण जमाली खत्तियकुमारे पुष्फतंबोलाउहमाइयं पाणदाओ य विसज्जेह, पाणहाओ विसजित्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ. उत्तरासंग करेत्ता आयंते चोक्खे परमसूइन्भूए अंजलिमउलियहत्थे जेणेव समणे भयवं महावीरे तेणेव उपागच्छइ उवागच्छित्ता समण भयवमित्यादि / 'आयंते' त्ति शौचार्थकृतजलस्पर्शः / 'चाक्खे' त्ति आचमनादपनीताशुचिद्रव्यः / भगवत्यां (सू० 384 ) 'पभट्टउत्तरिजा' प्रचष्टं व्याकुलत्वादुत्तरीयं वसनविशेषो यस्याः सा तथा जमालिमातेत्यर्थ' इत्यनेन उत्तरिजशब्देन उत्तरीयम्-उत्तरासलवस्त्रमुक्तम् (सू० 384) / पभू णं भंते ! चमरे असुरिंदे चमरचंचाए रायहाणीए सुहम्माए सभाए चमरंसि सीहासणासि तुङिएण सद्धितुटित-वर्ग:, दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? नो इणट्रे समटे / से केण?ण' भंते ! मो पभू जाव विहरित्तए ? अजी चमरस्स चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेइयखंभे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गऐतु बहूओ जिणसकहाओजिनसक्थीनि सनिक्खित्ताओ चिटुंति, जाओ पंचमरस्स 3 अन्नेसिं च बहूण असुरकुमाराण देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ चन्दनादिना, वंदणिजाआ स्तुतिभिः, नमंसिणिज्जाओ प्रणामतः, पूणिजाओ पुष्पैः, सकाणिजाओं वस्त्रादिभिः, सम्माणणिजाओ प्रतिपत्तिविशेषैः, कल्लाण मंगलं देवयं घेइयं पजवासणिज्जाओ भवंति, से तेण?ण अजो ! एवं बुच्चइ-नो पभू चमरे जाव विहरित्तए इति भगवत्यां दशमशतपञ्चमोद्देशके आशातनापरिहार उक्त: / Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीविचारा: तुस्त संखस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पजित्था० सेयं खलु मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभयारिस्स उम्मुकमणिसुवण्णस्स ववगयमालावन्नगविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अविइयस्स दमसंथारोवगयस्स पक्खियं पोससहं पडिजागग्माणस्स विहरित्तए / पक्षे-अर्द्धमासे भवं पाक्षिकम् / इति द्वादशशते भगवत्यां (सू० 538) / अस्मिन्नेव शते-पोसहसालं पमजइ पोसहसालं पमजइत्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ शङ्खश्रावक इति शेषः / तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिं समणोवासयं पजमाणं पासइ पासइत्ता हट्टतुट्टा आसणाओ अब्भुट्टेइ, सत्तट्टपयाई अणुगच्छइ, सत्तटुपयाई .अणुगच्छित्ता पोक्क्खलिं समणोवासगं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता आसणेण उवनिमंतेइ, आसणेण उवनिमंतेत्ता एवं वयासी-संदिसंतु ण देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पयाअण ? इत्यादि / तथा तए ण से पोक्खली जेणेव पोसहसाला जेणेव संखे समणावासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गमणागमणाए पडिक्कमइ, गमणागमणाए पडिकमित्ता संखं समणोवासग वंदह नमंसइइत्याद्यपि द्वादशशते भगवत्यां (सू० 438) गमणागमणाए परिकमइत्ति ईर्यापथिको प्रतिक्रामतीत्यर्थः / बउसे णं पुच्छा गो० ! जहन्नेणं अट्ठपवयणमायाओ उक्कोसेणं दस पुवाई अहिज्जेज्जा / वृत्तिर्यथा-अष्टप्रवचनमातृपालनरूपत्वाच्चारित्रस्य, द्वतोऽष्टप्रवचनमातृपरिज्ञानेनाऽवश्यंभाव्यं, ज्ञानपूर्वकत्वाच्चारित्रस्य, तत्परिज्ञानं च श्रुताद् / अत अष्टप्रवचनमात्रप्रतिपादनपरं श्रुतं बकुशस्य जघन्यतोऽपि भवतीति / तच्च 'अट्रह' पवयणमाईण' इत्यस्य यद् विवरणसूत्र तत्सम्भाव्यते / यत्पुनरुत्तराध्ययनेषु प्रवचनमातृनामकमध्ययन तद् गुरुत्वात् विशिष्टतर Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये श्रुतत्वाच्च जघन्यतो न सम्भवति, बाहुल्याश्रय चेदं श्रुतप्रमाण / तेन न माषतुषादिना व्यभिचार इति / भगवत्याः सूत्र (757) व्याख्या च / / इति भगवती-विचारः / ____ "तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोसहियस्स बंमयारिस्स उम्मुक्कमणिसुवण्णस्स ववगयमालावन्नगविलेषणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्त अबीइयस्स दन्भसंथागवगयस्स" इति ज्ञातधर्मकथायाम् (सू० 16) अभयकुमारवक्तव्यतायाम् / सीयं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्टमंगलया पुरओ अहाणुपुव्वीप संपत्थिया / तं जहा-'सोस्थिय 1 सिरिवच्छ 2 नंदियावत्त 3 वद्धमाणग पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये / इति ज्ञातधर्मकथायां सू०२४) मेघकुमारस्य / 'जाव नंदीसरवरे दीवे महिमा' इति (सू० 66) जन्मकल्याणं कृत्वा नन्दीश्वरे महिमानं कुर्वते इत्यर्थः / मल्लिवक्तव्यतायाम् / 'मल्लिस्स अरहओ निक्खमणमहिम करिति करित्ता जेणेव मंदीसरे० अट्टाहियं करंति करेत्ता पडिगया / (सू० 77) सुद्धपावेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिया मजणघराओं पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव जिणघरे तेणेश उधागच्छइ, उवागच्छित्सा जिणधरं अणुविसइ, अणुविसत्ता जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेइ करेत्ता लोमहत्थयं परामुसा एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अञ्चेइ तहेव भाणियन्वं, जाव धूवं डहह उहित्ता वाम जाणुं अंचेइ, दाहिणं जाणुं धरणितलंसि निहट्ट तिक्खुत्तो मुद्धाण घरणीतलंसि नमेइ, नमेत्ता ईसिं पच्चुन्नमइ. पच्चुन्नमित्ता करयल जाव कट्ट एवं वयासी-नमोत्थु णं अरहताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदा नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता जिणघराओ पडिनिक्खमित्ता जेणेव Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञातधर्मकथाविचारा: अंतउरे नेणेव उवागच्छइ' इति ज्ञातधर्म कथा सू० (119) / वृत्तिस्तु यथा-'जाव धूवं डहित्ता जिणघराओं पडिनि अवमइ'त्ति यावत्करणादर्थत इदं दृश्य-लोमहस्तकं परामृशति. ततस्तेन जिनप्रतिमा: प्रमार्टि, सुरभिणा गन्धोदकेन स्नपयति, गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, वस्त्राणि निवासयति, ततः पुष्पाणां माल्यानां-ग्रथितानां गन्धानां चूर्णानां वस्त्राणामाभरणानां चारोपणं करोति स्म / मालाकलापावलम्बनं पुष्पप्रकरं तन्दुलैर्दर्पणाद्यष्टमङ्गलकालेखनं च करोति / ततो वाम अंचे-उत्क्षिपतीत्यर्थ: / दाहिणं धर्राणतलंसि निहट्ट-निहत्य-स्थापयित्वा निवेशयति निवेसेइ इत्यस्य पर्यायः / 'वंदइ नमसइ' त्ति / तत्र वन्दते-चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्यति पश्चात् प्रणिधानादियोगेनेति वृद्धा: / न च द्रोपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्र चैत्यवन्दनभिहितं इत्यन्यस्यापि श्रावकादेस्तावदेव तदिति मन्तव्यं, चरितानुवादरूपत्वादस्य / न च चरितानुवादवचनानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति, अन्यथा सूरिकामादिदेववक्तव्यतायां बहूनां शस्त्रादिवस्तूनामर्चनं श्रूयते / कि चाऽविरतानां प्रणिपातदण्डकमात्रमपि चैत्यवन्दनं सम्भाव्यते / यतो वन्दते नमस्यतीति पदद्वयस्य वृद्धान्तरव्याख्यानमेवमुपदर्शितं जीवाभिगमवृत्तिकृता-विरतिमतामेव प्रसिद्धचैत्यवन्दनविधिर्भवति, अन्येषां तथाभ्युपगमपुरस्सरकायोत्सर्गाद्यसिद्धेः, ततो चन्दते सामान्येन, नमस्करोति-गाशयवृद्धःप्रीत्युत्थानरूपनमस्कारेणेति / किञ्च-'समणेण सावएण य अवस्स कायवयं हवइ जम्हा / अंतो अहोनिसिस्स य तम्हा आवस्सयं नाम' // तथा 'जण्णं समणों वा समणी वा सावओ वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे उभओ कालं आवस्सए चिट्टइ, तणं लोउत्तरीए भावावस्सए' इत्यादेरनुयोगद्वारवचनात् / तथा सम्यग्दर्शनसम्पन्न: प्रवचनभक्तिमान् पविधावश्यकनिरतः षट्स्थानकयुक्तश्च श्रावको भवतीत्युमास्वातिवाचकवचनाच्च श्रावकस्य षविधावश्यकस्य सिद्धावावश्यकान्तर्गतं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये प्रसिद्धं चैत्यवन्दनं सिद्धमेव भवतीति / इतिं ज्ञातधर्मकथायां द्रौपदीस्वयंवरामण्डपवक्तव्यतायाम् उक्तम् / सिहासणाओ अब्भुटेइ, अब्भुट्टित्ता पायपीढा पञ्चारुहइ, पञ्चारहित्ता पाउयाओ आमुयइ, आमुश्त्ता तित्थयराभिमुही सत्तट्टपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचित्ता दाहिणं जाणुधरणितलंसि निहट्ट तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलसि निवेसेइ निवेसित्ता' इति कालीदेवी चमरचंचाए रायहाणीए करोतीति शेषः / ज्ञातधर्मकथायाम् / (सू० 148) 'तए णं से काली कुमारी पासं अरिहं वंदइ नमसइ, नमंसित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवक्कमइ, अवकमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकार ओमुयइ, ओमुयित्ता सयमेव लोयं करेइ जेणेव पासे अरहा तेणेव उवागच्छइ' इति अष्टाविचारो ज्ञातायाम् / _ 'अपमजिय - सेजासंथारे' इति सूत्रपदवृत्तौ-शय्या-शयन, तदर्थः संस्तारक: - कुशकम्बलफलकादिः , शय्यासंस्तारकः' इति उपासकदशायां श्रावकसंस्तारकविचारः / एवं अप्रमार्जितदुःप्रमार्जितशय्यासंस्तारकोऽपि नवरं प्रमार्जनं वसनाश्चलादिना / इति उपासकदशावृत्तौ श्रावकं प्रति विचारः / __“नो खलु मे भंते ! कप्पइ अजप्पभिई अण्णउत्थिया वा अण्णउत्थियदेवयाणि वा अण्ण उत्थियपरिग्गहियाई वा चेइयाई वंदित्तर नमंसित्तर वा, पुब्बि अणालत्तएणं आलवित्तए वा, तेसिं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पयाउं वा / नण्णत्थ रायाभिओगेणं गणाभिआगेणं देवयाभिओगेण गुरुनिग्गहेण वित्तीकंतारेण / कप्पइ मे समणे निग्गंथे फासुपण एसणिज्जेण असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं पीठफलगसेज्जासंथारएण ओसहभेसज्जेण य पडिलामेमाणस्स विहरित्तए" इति / उपासक दशापां श्रावकस्वरूपम् / Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासकदशाविचारा: 'अस्थि ण आणंदा ! गिहिणो जाव समुप्पजइ, नो चेव ण ए महालऐ, तं ण तुम एबस्स ठाणस्स आलोएहि निंदाहि गरिहाहि अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजाहित्ति / (सू० 16) गौतमेनोक्तम् आनन्दं प्रति / आलोचनाविचारोऽयम् / जेणेव कुल्लाए सन्निवेसे, जेणेव मित्तनाइनियगसंबंधे परियणे, जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पोसहसालं पमजइ, पमजइत्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ दब्भसंथारयं संथरइ दब्भसंथारयं दुरुहइ, पोसहसालाए पोसहिए दब्भसंथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपजित्ता णं विहरइ, आण द इतिशेषः / उपासकदशायाम् / तए ण सा भद्दा समणोवासयं चुलणीपियं एवं वयासी-नो खलु केइ पुरिसे तव जाव कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ निणेइ, निणेइत्ता तव अग्गओ घाएइ, एस ण केइ पुरिसे तव उवस्सग्गं करेइ / एस ण तुमे विदरिसणे दिट्रे तण्ण तुम इयाणि भग्गवए भग्गनियमे भग्गपोसहे विहरसि, तं गं तुमं पुत्ता ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि पडिकमाहि निदाहि गरिहाहि विउद्याहि विसोहेहि अकरणयाए अब्भुट्टेहि अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजाहि, तए ण से चुलणीपिया समणोवासए अम्मगाए भद्दाए समणोवासियाए तहत्ति एयमट्ट विणएण पडिसुणेइ पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिवजइ इति / वृत्तिस्तु यथा-एस णतए विदरिसणे दिट्टत्ति / एतच्च त्वया विदर्शन-विरूपाकार विभीषिकादि दृष्टम् इति / एनमर्थ आलोचय-गुरुभ्यो निवेदय, पडिकमाहि-निवर्तस्व, निंदाहि-आत्मसाक्षिकं कुत्सां कुरु, गरिहाहि-गुरुसाक्षिकं कुत्सां विधेहि, विउट्टाहि वित्रोट्य तद्भवानुबन्धविच्छेदं विधेहि, विसोहेहि-अतिचारमलक्षालनेन, अकरणयाए अब्भुट्टेहि-तदकरणाभ्युपगमं कुरु, अहारिहं तवोकम्म Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पायच्छित्तं पडिवजाहित्ति प्रतीतम् / एतेन च निशीथादिषु गृहिण: प्रायश्चित्तस्याऽप्रतिपादनात् न तेषां प्रायश्चित्तमस्तीति ये प्रतिपद्यन्ते, तन्मतमपास्त, साधूद्देशेन गृहिप्रायश्चित्तस्य जीतव्यवहारानुपातित्वादिति / उपासकदशा-तृतीयाध्ययने (सू० 39) / . 'तए ण से कुण्डकोलिए समणोवासर अण्णया कयाइ पुवावरणहकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया जेणेव पुढविसिलापट्टए नामामुद्दगं च उत्तरिजगच पुढविसिलापट्टए ठवेइ ठवेइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्त अंतियं धम्मपण्णति उवसंपजित्ता विहरइ' इत्यर्थात् मुखवस्त्रिका श्रावकस्य उत्तरिजगं-उत्तरीयवस्त्रं उत्तरिज्जेण आसं पेहेइ त्ति सर्वत्र दृष्टत्वात् उपासकदशीसु (सू० 36) कृतबलिकर्मा बलिकर्म-लोकरूढं ‘कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता' कौतुकं-मषीपुण्ड्रादि मङ्गलं-दध्यक्षतचन्दनादि, एते एव प्रायश्चत्तमिव प्रायश्चित्तं दुःस्वप्नादिप्रतिघातकत्वेन अवश्यकार्यत्वादिति / उपासकदशावृत्तिव्याख्या / उत्तरीयकम्-उपरितनवसनं उपासकदशाष्टमेऽध्ययने / ___ 'तए ण सा देवई देवी ते अणगारे इजमाणे पासइ, पासित्ता हट्ट जाव हियया आसणाओं अब्भुट्टेइ अब्भुट्टेइत्ता सत्तटुपयाई तिखुत्तो आयाहिण-पयाहिण करेइ, करेइत्ता वंदइनमंसह त्ति प्रदक्षिणाविचार: अन्तकृद्दशासु / 'तए णं सा पउमावई उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए अवक्कमइ, सयमेव पवावेइ पवावेत्ता सयमेव मुंडावेइ, सयमेव जक्खिणीए अजाए सिस्सिणिं दलयइ' कृष्णभार्या इति शेषः / अन्तकृद्दशासु अष्टाविचारः / नापि पूजनया- तीर्थ निर्माल्यदानमस्तकगन्धक्षेपमुखवस्त्रिकानमस्कारमालिकादानादिलक्षणया भैक्ष्यं गवेषणीयमिति शेषः / इति प्रश्नव्याकरणवृत्तौ श्रावकं प्रति मुखपोतिकाविचारः षष्ठेऽध्ययने / Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. रायपसेणइयविचारा: 'विदिण्णे य गुरुजणेणं उपविढे संपर्माजऊण ससीसं कायं तहा कर यलं' इति सूत्रं / वृत्तिस्तु-उपविष्ट उचितासने, सम्प्रमृज्य मुखवस्त्रिका-रजोहरणाभ्यां सशीर्ष काय-समस्तकं शरीरं तथा करतलं-हस्ततलं च इति / भोजनसमये साधुना मुखवस्त्रिका प्रत्युपेक्षणीया / वज्जेयवो य सव्वकालं अचियत्तघरप्पवेसो अचियत्तभत्तपाणं अचियत्तपीढफलगसेज्जासंथारगवत्थपत्तकंबलदंडगरउहरणनिसेजचीलपट्टगमुहपोत्तियपायपुंछणाई भायणभंडोवहिउवगरणं / वृत्तिर्यथा-अचियत्तपीठफलकशय्यासंस्तारकवस्त्रपात्रकंबलदण्डकरजोहरणनिषद्याचोलपट्टकमुखपोतिकापादप्रोजछनादि प्रतीतमेव / किमेवंविधभेदमित्याह -भाजनं - पात्रं भाण्डं वा तदेव मृन्मयम् उपधिश्व-वस्त्रादिः पत एवोपकरणमिति समासः / तद्वर्जयितव्यम् इति प्रक्रमः / इति मुखवत्रिकाक्षराणि प्रश्नव्याकरणे / / जिणपडिमाओ सुरभिणा गंधोदएण पहाणेइ पहाणित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिंपइ अणुलिंपइता० जिणपडिमाणं अहयाई देवदूसजुयलाई नियंसेइ नियंसेइत्ता पुप्फारुहणं मल्लारुहण चुण्णारुहण गंधारुहण वत्थारुहण आभरणारुहण करेइ इति / रायपसेणइए (सू० 44) / जिणपडिमाण पुरओ अच्छेहि सण्हेइ सेएहि रययमएहि तंदुलेहिं अट्ठमंगले आलिहइ इति / रायपसेणइयस्स / _ 'जहण्णेण सत्तरयणीए' ति सप्तहस्ते उच्चत्वे सिद्ध्यन्ति महावीरवत् / 'उकोसेण पंवधणुस्सबे' ति ऋषभस्वामिवत् / एतच्च द्वयमपि तीर्थकरापेक्षयोक्तम् / अतो द्विहस्तप्रमाणेन कूर्मा, पुत्रेण न व्यभिचारो, न वा मरुदेव्या सातिरेकपञ्चधनुःशतप्रमाणया इति / औपपातिके (सू० 43) / ननु नाभिकुलकरः पञ्चविंशत्यधिकपञ्चधनुःशतमानः प्रतीत एव / तद्भार्यापि मरुदेवी तत्प्रमाणैव 'उच्चत्तं चेव कुलगरेहि सममिति वचनात् / अतस्तदवगाहना Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 14 नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये उत्कृष्टाऽवगाहनोतोऽधिकतरा प्राप्नोतीति कथं न विरोधः / अत्रोच्यते-यद्यप्युच्चत्वं कुलकरतुल्यं तद्योषितामित्युक्तं तथापि प्रायिकत्वादस्य स्त्रीणां च प्रायेण पुभ्यो लघुतरत्वात् पञ्चैव धनुःशतानि. असावभवत् वृद्धकाले वा सङ्कोचात् पञ्च धनुःशतमाना साऽभवत् उपविष्टा वाऽसौ सिद्धा इति न विरोधः / औपपातिकोक्तं (सू० 44) सिद्धाययण अणुप्पयाहिणी करेमाणे करेमाणित्ता पुरथिमिल्लेणं दारेण अणुपविसइ / वृत्तिस्तु-सिद्धायतनमागच्छति त्रि:प्रदक्षिणां करोति / ततः पूर्वद्वारेण प्रविशति इति जीवाभिगमे (सू० 142) प्रदक्षिणाविचारः विजयदेववक्तव्यतायाम् / तथा लोमहत्थएण पमजइ पमजित्ता सुरभिणा गंधोदएण पहाणेइ पहाणेइत्ता दिवाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लूहेहिं लूहेत्ता सरसेण गोसीसचंदणेण गायाई अणुलिंपइ अणुलिंपित्ता जिणपडिमाण अहयाई सेयाई दिव्वाई देवदूसजुयलाई नियंसह नियंसइत्ता अग्गेहि वरेहि य गंधेहि मल्लेहि य अच्चेइ अच्चेइत्ता पुप्फारुहण मल्लारुहण' गंधारुहण वण्णारुहण चुण्णारुहण आभरणारुहण करेइ० / तथा अच्छरसा तंदुलेहि जिणपडिमाण पुरओ अट्ठमंगलगे आलिहइ इत्यपि विजयदेववक्तव्यतायां जीवाभिगमे (सू० 142) / महावित्तेहि अट्ठसय विसुद्धगंथजुत्तेहि अत्थजुत्तेहि अउणरुत्तेहिं संथुणइ संथुणइत्ता सत्तट्ठपयाई ओसरइ ओसरइत्ता वामं जाणुं अंचेइ अंचित्ता दाहिण जाणुं धरणितलंसि निवाडेइ तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवाडेइ निवाडेइत्ता पच्चुन्नमइ पच्चुन्नमइत्ता कडयतुडियर्थभियाओ भुयाओ पडिसाहरइ पडिसाहरइत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी-णमोत्थु णं अरहंताण भगवंताण-जाव - सिद्धिगइनामधेयं ठाण संपत्ताणं तिकट्ट वैदइ नमंसइ / इति सूत्रदण्डकः / वृत्तिस्तु-विधिना प्रणाम कुर्वन् प्रणिपातदण्डकं पठति यथा-णमोत्थु ण अरिहंताण इत्यादि यावन्नमो Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथविचारा: जिणाणं ति दण्डकार्थ: / चैत्यवन्दनविवरणादवसेयः 'वंदइ नमसइ' वन्दते ता: प्रतिमाः चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्करोति पश्चात् प्रणिधानादियोगेनेत्येके / अन्ये तु विरतिमतामेव प्रसिद्धः चैत्यवन्दनविधिरन्येषां तथाऽभ्युपगमे [पुरःसर] कायव्युत्सर्गासिद्धेरिति वन्दते-सामान्येन, नमस्करोत्याशयवृद्धः व्युत्थाननमस्कारेण इति तत्त्वमत्र भगवन्त: परमर्षयः देवलिनो विदन्ति इति जीवाभिगमे (सू० 142) चैत्यवन्दनाविचारः / तत्थ ण बहवे भवणवइ-वाणमंतरजोइसिय-वैमाणिया देवा चाउम्मासिय-पाडिवएनु संवच्छरिएसु य अण्णेसु बहसु जिणजम्मण-निक्खमण-नाणुप्पाय-परिनिव्वाणमाइएसु य देवकज्जेतु य देवसमुदयेसु य देवसमिईसु य देवपयोयणेसु य एगंतओ सहियासमुवागया समाणा पमुइय-पक्कीलिया अट्टाहियाओ महामहिमाओं करेमाणा पालेमाणा तुहंसुहेण विहरति इति जीवाभिगमे (सू० 183) भणितम् / निशीथविचारा यथा-"साहमियत्थलीसु जाय अदत्ते भणावणगिहीसुं / असई पगासगहण बलवइ दुट्टेसु छण्णंपि / (गा० 345) चूर्णिणस्तु असिवगहिए वि सति असिवगहिया वा साहू असंथरंता असिवगहिया वि सउत्तिन्ना वा दुल्लभभत्ते देसे पत्ता असंथरंता साहमियाथली-देवद्रोणी 'जाय'त्ति आरहंत-पासत्थ परिगहिया देवद्रोगी उ पुवं जाययंतीत्यर्थः / इति देवद्रव्यविचार: // ___अद्धाणे श्रान्तस्य पादादिदेशस्नानं सर्वस्नानं वा कर्तव्यं वादिनी वादिपर्षद गच्छतः पादादिदेशस्नान सर्वस्नानं वा आचार्यस्य अतिशयमितिकृत्वा देशस्नानं सर्वस्नान वो / मुल्लजुय पुण तिविहं जहण्णय मज्झिमं तु उक्कोसं / जहण्णेण अट्ठारसग सयसाहस्सच उक्कोस // दो साभरगा दीबिच्चगाउ सो उत्तरावहे एको / दो उत्तरावहा पुण पाडलिपुत्ते हवइ एको // (957-958) साभरको नाम रूपकः / इति वस्तुमूल्यविचारः // चीराचरियाए Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये निग्गओ आयरिओ जान नियत्ता ता दसाओ न छिजति ( 974 गाथाचूर्णिः / ) इति सूरिणा वस्त्रग्रहणाय गन्तव्यम् / चाउम्प्रामातीय वासासु उउबद्ध मासतीय वा बुट्टा वासातीयं वसमाणे काल उ निरुपम // इति मासकल्पाक्षराणि / सेसं मंडलिराइणिओसुब्भी दुभिदव्याविरोहण करंबेडं मंडलिए भुंजति, एवं सव्वेसिं समया भवइ / गाथा तु तम्हा विहिए भुंजे विष्णंभि गुरुण सेस राइणिओ / भुयइ करंबेऊण एवं समया उ सवेसिं // सागारिउत्ति को पुण काहे कइविही व सो पिंडो / असेजायरो व काहे परिहरियची व सो कस्सा // दोसा वा के तस्सा कारणजाए व कप्पए कम्हि / जयणाए वा काए एगमणेगेसु घेत्तव्यो / / (1138-9) सेन्जायरो पहू वा पहुसंदिट्ठो व होइ कायव्वा / / एगमणेगी व पहु पहुसंदिट्ठों वि एमेव (1944) / जइ जग्गति सुविहिया करिति आवस्सगं तु अण्णस्थ / सेज्जायरो न होइ सुत्ते व कए व सो होइ / / अण्णस्थ व सोऊणं आवस्सग चरिममन्नहिं तु करे / दोण्णि वि तरा भवंति सत्थाइसु अन्नहा भयणा (1148-9) इदं च प्रायशः सार्थादिषु सम्भवति इत्यर्थः / / असइ वसहीए वीसुं वसमाणाणं तराउ भइयव्वा / तत्थण्णत्थ व वासे छत्तछायं च वजाति (115) तण-डगल-छार-मल्लग-सेजा संथार-पीठ-लेवाइ / सेजायरपिंडो सो न होइ सेहो व सोवहिओ / / आपुच्छियमुग्गाहिय वसहीआ निग्गहोग्गहे एगो / पढमाई जाव दिवसं युच्छे वज्जेजऽहोरत्तं // (154-1155) एकशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते // 'पढमाइ जाव दिवसं' ति अणुग्गए सूरे निग्गओ सूरोदयाओ असेजायरमिच्छइ / अन्नो भणइ सूरुगमे Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथविचारा: निग्गयाण जाव पढमपहरो ताव सेजायरो इत्यादि विकल्पा: / / एए सव्वे अणापसा। इमो आएसो वुच्छे वज्जेजहोरत्त' न पहरविभागपकप्पणाऐ विसेसो कोइ अस्थि // लिंगत्थस्स च वजो तं परिहरओ व भुंजतो वावि / जुत्तस्स अजुत्तस्स व रसावणो तत्थ दिटतो। (गा० 1158) साहुगुणजिओ जो लिंगं धरेइ तस्स जो सेजायरो तस्स पिंडं सी भुजउ मा वा भुजउ तहावि वज्जो साहुगुणेहि जुत्तस्स अजुत्तस्स इत्यर्थः // तित्थयरपडिकुट्टो आणा अन्नाय उग्गो वि य न सुज्झे / अविमुत्ति अलाघवया दुल्लहसेन्जाए वोच्छेओ (गा० 1159) पुर-पच्छिमवजेहिं अवि कम्मं जिणवरेहिं सव्वेहिं / भुत्तं विदेहएहि य नो सायरियस्स पिंडो उ / / (गा० 1960) दुविहे गेल नंमी निमंतणा दबदुल्लभे असिवे / ओमोयरिय पओसे भए य गहणं अणुण्णायं / / (गा० 1169) दुविहं गेलण्णं आगाढमणागाढं / सागारियं अपुच्छिय पुब्बं अगवेसिऊण जे भिक्खु / पविसइ भिक्खस्सट्टा सो पावइ आणमाइणि / / (गा० 1206) वर्षासु काष्ठसंस्तारकादिभावे / पाणा सीयल कुंथू उप्पायग दीहगोम्हि सुसुणाए / पणए य उहि कुच्छणमल उदगवहो अजीराई (गा० 1245) वासाणं एगयरं संथारं जो उवाइणे भिक्खू दसरायाओ परेणं सो पावइ आणमाईणि // गा० 1278) दशरात्रपरात् यो भिक्षुः उवाइणे अर्पयति इत्यर्थः / 'उग्गहणतग' ति जोणिदुवारस्स सामइकी संज्ञा तस्स गतउ आच्छादकवस्त्रम् / Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये छाएइ अणुकुइए गंडे पुण कंचुओ असिवियओ। एमेव य उक्कच्छिग सा नवरं दाहिणे पासे // (गा० 1404) इति / गाथार्थो यथा-अणुकुंचिया अनुक्षिप्ता इत्यर्थ: / गंड इति स्तनाः / अहवा 'अणुकुंचिय'त्ति अनुः-स्वल्पं 'कुञ्च स्पन्दने' कञ्चकाभ्यन्तरे सविचाग: न गाढमित्यर्थः / गाढपरिधाने प्रतिविभागे विभक्ता जनहार्या भवन्ति, तस्मात् कञ्चकस्य प्रशिथिलं परिधानमित्यर्थः / सच कंचुगो दीहत्तणे सहत्थेण अड्ढाइजहत्थो, पुहत्तेण हत्थी, कच्छाए समीवं उवकच्छ वकारलोप काउं तं आच्छादयतीति उक्कच्छिका एमेव य उक्कच्छियाए प्रमाण वाच्यं / सा य समचउरंसा सहत्थेण दिवड्ढहत्था उरं दाहिणपासं पट्टि च छायंती परिहिजइ, खंधे वामपासे य जोत्तपडिबद्धा भवइ इति गाथार्थ: / अक्खा संथारो य एगमणेगंगिओ य उक्कोसा / पोत्थगपणगं फलग बिइयपए होइ उक्कोसा // 1416 / / समोसरण-अक्खा / संथारगो एगंगिओ अणेगंगिओ य / फलगं जत्थ पढिजइ, मंगलफलग वा जं वुड्ढवासियो / एस बिइयपएण उकासो उवग्गहिओ / - वासत्ताणे पणग चिलिमिलिपणग दुगं च संथारे / दंडाईपणगपुण मत्तगतिग पायलेहणिया // 1414 // गाथार्थो यथा-वासत्ताणे पणग-वाले सुत्ते सुई पलास कुडसिसगछत्तए य / वाल:-कम्बलः. सुत्ते पटी, शूची तालपत्राणां, पलास छत्रं, कुडसिसगछत्तय, सिरिवन्नि खुंपकं / चिलिमिलीपणग-पोत्ते वाले रज य कडग दंडमई / संथारगदुगं-झुसिरो अज्झुसिरो य / दंडपणग-दंडे विदंडे लट्ठी विलट्ठी नालिया य / मत्तयतियं-खेल काइय सन्ना य / मुहपोत्तिगरयहरणे कप्पतिग-निसेज-चोलपट्टो य / Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथविचारा: संथारुत्तरपट्टे व पेक्खिए जहुग्गमे सूरो // इति प्राभातिकपडिलेहणगाथा (1425) एतेसु प्रेक्षितेसु यथा रविः उदेति / चउफलं मेकिल वा खंधे करेइ दुवार इति सीसवारिया करेइ / दो वि बाहामो छाइंता संजइ पाउरणेण पाउरइ // एगओ दुहओ वा कप्पअंचला खंधाराविया गरुलपक्ख पाउणइ / इति (15.5) प्रावरणविचार:। भिक्खुवियार विहारे दृइजते व गाममणुगाम / सीसदुवारं भिक्खू जे कुजा आणमाईणि / 1564 / / अनेन सीसढकणनिषेधः / जल्लो उ हाइ कमढ मला उ हत्थाइघट्टिो सडइ / पंका पुण सेउल्लो चिक्खलो वावी जो लग्गा / / 1522 // सकमहा इंदमहा आइसद्दाओ सुगिम्हगाइ, जो व जत्थ महामहो एपलु मा पमत्तं देवया छलेजा / तेण अणागाढजेोगनिक्खेवो / विभाऽन्यत-तेसु य सहमहाढिदिवसेसु विन्दलाभा भवइ, ताओ दुब्बलसरीग भुजति, ताहे पीणिजन्ति (बलिनो भवन्तीत्यर्थः) / इबरे नाम आगाढजोगवाही ते जोग वहंति, न तेसिं उद्देसा न वा पुन्युट्टि पढंति (1608) इत्यक्षरैरनध्याये योगाद्वहननिषेधः / तकाइ एगोगियं भुंजइ इति (1607) तक्राम्बिलाक्षराणि / विगई विगईभीओ विगइगय जो उ भुजए भिक्खू / विगई विगइसहावा विगई विगई बला नेइ // 1622 // व्याख्या-घृतादिविगई, बिइयविगइगहणेण कुगई / विगईए कयं विगइकय जहा विस्संदण', विगई वा गय जम्मि दवे तं दव्वं विगइगय, जहा दध्यादनः / विगईए भुत्ताए साहु विगयसहावा भवइ, सा य विगई भुत्ता विगइ नरगाइयं बला नेइ इत्यर्थः / विगइमणट्ठा भुजइ न कुणइ आयंबिल न सद्दहइ / Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये एसा उ सब्वभंगा देसे भंगा इमो तत्थ // 1595 // . काउस्सग्गमकाउं भुजा भाऊण कुणइ वा पच्छा / सय काऊण व भुजइ तत्थ लहू तिनि उ विसिट्ठा // 159 // जावञ्चिय कालगया ताहे विय दाण्णि तिणि वा दिवसे / गच्छेज संजइणं अणुसट्टि गणहरो दाउं // 1751 // पडिणीय-मेच्छ सावय-गय-महिसा तेण साणमाईसु / आसन्ने उवस्सग्गे कप्पइ गमण गणहरस्स // 1734 // संयतीवसतौ इत्यर्थः / . पियधम्मो दढधम्मो मियवाई अप्पकाऊहल्लो य / अज्जं गिलाणियं खलु पडिजग्गइ परिसा साहू // 1751 // जेण पहेण पक्खियाइसु आगच्छन्ति, तम्मि पहे दंडाइ उवगरणं न मुंचंति इतिशेषः / ( उ०४ सू०२४). पासित्ता भासित्ता साउं सरिऊण यावि जे भिक्खू / विप्फालित्ताण मुहं सवियारकह कह हसइ // 1823 // पासवणुच्चारं वा जे भिक्खू वासिरेज अविहीए / सेा आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराहण पावे // 1856 / / पट्टीवंसा दो० इत्यादि गाथा, वंसगकडणुकं वण० इत्यादि गाथा। तम्हा सव्वाणुन्ना सम्बनिसेही य पवयणे नस्थि / आयव्वयं तुलेजा लाहाकंखि व्व वाणियओ // 2067 / / जो चेव य उवहिम्मि गमो उ सो चेव हाइ भत्तपाणम्मि / भुजण वजमणुन्ने तिणि दिणे कुणइ पाहुण्ण // 2098 / / जत्थ संजईओ संजयाण किइकम्म करंति, तत्थ सव्वं उद्धट्टिया मुत्तावत्ताइ करति, न मुद्धाण (उ) ठिए रयहरणे पाडिति / केइ आयरिया भणति-उद्धट्टिया चेव रओहरणे सिरे पणमंति त चेव तेसिं मुद्धाणंति / संयतीविचारः (2117 गाथो चू०) / Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 निशीविचारा: वद्धमाणसामिस सिस्सा सुहम्मो, तस्स जंबुनामा, तस्सांव पभवी, तस्स सेज भवा, तस्सवि सिस्सो जसमद्दो, जसभहस्स सिस्सा संभूओ, संभूयस्स थूलभद्दो, थूलभदं जाव सम्वेसि एकसंभोगा आसि / थूलभद्दस्स जुगप्पहाणा दा सीसा अजमहागिरी अजसुहत्थी य / इति पर्वक्रम उक्तः (2154 गाथाचूर्णि:) / जे भिक्खू सहुमाई करेज रयहरणसीसगाई च / सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराहणं पावे // 2171 // रयहरणसीसगाणि-रयहरणदसाओ / तिण्हुवरि बंधाणं दंडतिभागस्स हेट उवरिं वा / दोरेण असरिसेण व संतरं बंधंत आणाइ / / 2178 / / असरिसो अतजाओ इत्यर्थः / नाणाइसंधणट्टा वि सेविया नेइ उप्पहं विगई / कि पुण जो पडिसेवइ विगई वण्णाइणं कज्जे // 2684 // जे भिक्खू आगंतागारसु जाव परियावसहेतु वा एगो इत्थीए सद्धि विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ, असणं वा पाण' वा खाइम वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं पासवण वा परिवेइ, अण्णयरं वा अणारियं निरं असमणपाओग्गं कहं कहेइ .कहतं वा साइजाइ ( उ० 8 सू० 1) / जे उजाणसि वा उजाणगिहंसि वा एगो एगाए-इथिए सद्धि जाव कहेइ, कहंत वा साइजइ (उ० 8 सू० 2) इत्येकाकिस्त्रीकथाविचारः / अवि मायर पि सद्धि कहा उ पगाणियस्स पडिसिद्धा / कि पुण अणारगाई तरुणित्थीहिं सह गयस्स // 2344 // अनावि अप्पसत्था थीसु कहा किमु अणारि असब्भा / चंकमणज्झायभोयण उच्चारेसुं तु सविसेसा // 2345 / / चक्की वीसइ भागं सब्वेवि य केसवाओ दस भागं / मडलिया छब्भागं आयरिया अद्धमद्धेण / / 2355 // पापेन गृह्यन्ते इतिशेषः / Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये . रोहेउ अट्टमासे वासासु सभूमिए निवा जंति / / रुद्धण तेण नगरे हावंति न मासकप्प तु / / 2375 / / गुत्तागुत्तदुवारा कुलपुत्ते सत्तमंतगंभीरे / भीयपरिसे मद्दविए अजासेन्जायरे भणिए // 2457 / / घणकुडा सकवाडा सागारिय भगिणि माउ परंता / निप्पञ्चवाय जोग्गा विच्छिन्न पुरोहडा वसही / / 2455 / / संयतीशय्यागाथे / जो मुद्धा अभिसित्तो पंचहि सहिओ अ भुंजए रज्जं / तस्स उ पिंडो वज्जो तबिवरीयम्मि भयणा उ // 2497 // सेणावइ-अमच्च-पुरोहिय-सेटि-सत्थवाहेहिं पंचहिं सहिओ / मुदिए मुद्धभिसित्ते मुइओ जो होइ जोणिसुद्धो उ / अभिसित्तो उ परेहि सयं च 'भरहो जहा राया // 2498 / / असणाईया चउरो वत्थे पाए य कंबले चेव / पाउंछणए य तहा अट्टविही रायपिंडो उ // 2500 // जे भिक्खू राईण निग्गच्छंताण अहव निंताण / चक्खुवडियाए पयवि अभिधारे आणमाईणि // 2539 / / जइ खलु पुरिम संघं उद्दिसई मज्झिमस्स तो कप्पे // 2670 // अस्या अर्था यथा-रिसभसामिणो तित्थे जे समणा समणीओ वा ते उद्दिसिउ करेइ, तो तेसिं अकप्पं, मज्झिमाण पुण कप्पं, तेसिं मज्झिमाण कडं दोण्हवि. पुरिम-मज्झिमाण अकप्पं इत्यर्थः / इत्याधाकर्मविचारः। गुरुणो जावजीवं सुद्धमसुद्धेण होइ कायव / वसहे बारस वासा अट्टोरस भिक्खुणो मासा // 2686 / / वसहे-उपाध्याये इत्यर्थः / जह भमरमहुयरिंगणा निवयंति कुसुमियंमि वणसंडे / तह होइ निवइयव्वं गेलण्णे कइवयजढेण // 2971 // Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * निशीथविचारा: तोगच्छगस्स इच्छाणुलोमण जो न कुज सइ लामे / असंजमस्स भीओ अलस पमाई च गुरुगा से // 3062 // तेगिच्छगो-गिलाणपडिजागरकः / खतिखम मद्दवियं असढमलोलं च लद्धिसंपन्नं / दक्खं सुभरमसुविरं हिययग्गाहिं अपरितंतं // 3105 // सुत्तत्थापडिबद्धं निजरपेही जिइंदियं दंत / / कोउहलविप्पमुकं अणाणुकित्तिं सउच्छाहं // 3106 // आगाढमणागाढे सद्दहगनिसेवगं च सट्टाणे / आउरवेयावच्चे एरिसयं तु निउजेजा // 3106 // असुविरा-अनिद्दालु, सुत्तत्थापडिबद्धो-गृहीतसूत्रार्थ: / को अन्नो एवं काउ समत्था, तुज्झ वा एरिसं तारिसं मए कयंति एवं जो नवि कथयति सो अणांणुकित्ती / पर्युषणाविचारो ग्रा-जोसवणार अक्खराइ हुँति उ इमाई गोण्णाई / परियागववत्थवणा पजोसवणा य पागइया // 3138 // परिवसणा पज्जुसणा पज्जोसवणा य वासवोसो य / पढमं समोसरणं ति य ठरणा जेट्टोग्गहेगट्टा // 3139 // अम्हा पज्जोसवणादिवसे पवजापरियागो एत्तिया मम वरिसा उहावियस्त तम्हा परियागश्वत्थणा भण्णइ / ऊणाइरित्तमासे अट्ट विहरिऊण गिम्हहेमंते / एगाहं पंचाह मास व जहा समाहीए // 3144 // पडिमापडिवन्नाण' एगाहो पंचाहो तहाऽलंदे / जिणसुद्धाण मासो निकारणओ य थेराण // 3147 / / 'जिणसुद्धाणं ति जिणकप्पियाण थेराण चेत्यर्थ: / कहं पुण ऊणा अइरित्ता वा उउबद्धिया मासा भवंति ? इत्याह काऊण मासकप्पं तत्थेव उवागयाण ऊणाउ / चिक्खल्लवासरोहेण वा बितीए ठिया नूण // 3145 / / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये जत्थ खेत्ते आसाढमासकप्पो कओ, तत्थेव खेत्ते वासावासत्तेण उवागया एवं ऊणा अट्ट मासा / अहवा सचिक्खल्ला पंथा, वासं वा अज्जवि नो विरमइ, नगरं वा रोहियं, शहि वा असिवाइ कारण, तेण मग्गसिरे सव्वे ठिया, अओ पोसाइआ आसाढंता सत्त विहरणकाला भवंति / इयाणिं जह अइरित्ता अट्ट मासा विहारो तहा भण्णइवासाखेत्तालभे अद्धाणाइसु सत्थवसगा वा / वासगवाघाएण व अपडिकमिउ जइ वयंति / / 3146 // अर्थो यथा-आसाढे सुद्धवासावासपाओग्गं खेत्तं मग्गंतेहिं न लद्धं ताव जाव आसाढचाउमासाओ परओ सविसइराए मासे. अइकंते लद्ध, ताहे भद्दवयजोण्हपंचमीए पज्जोसियं, नव मासा एवं, एवं च अट्ठ मासा अइरित्ता / अहवा साहू अद्धाणपडिवन्ना सत्थवसेण आसाढचाउम्मासाओ परेण पंचाहेण दसाहेण वा पक्खेण वा जाव वीसइराए वा मासे वासाखेत्तं पत्ताणं अइरित्ता अट्ट मासा विहारो भवइ / अहवा वासवाघाए अणावुट्टीए आसोए कत्तिए निग्गयाण अट्ट अइरित्ता भवंति / वसहिवाघाए वा कत्तियचाउम्मासियस्स आरओ चेव निग्गया। आयरियाणं कत्तियपुण्णिमाए परओ वा साहगं नक्खत्तं न भवइ, अन्नं वा रोहादिकं जाणिऊण कत्तियचाउम्मासिय अपडिक्कमिउ जया वयति तया अइरित्ता अट्ट मासा भवति / वासावासे कम्मि खेत्ते कम्मि काले पविसियव्वं ? इत्याह आसाढपुण्णिमाए वासावासातु होइ ठायव्वं / मग्गसिरबहुलदसमीओ जाव एकम्मि खेत्तम्मि / / 3149 // कहं पुण वासापाउग्ग खेत्तं पविसंति ? इत्याहबाहिठिया वसभेहिं खेत्तं गाहित्तु वासपांउग्ग / Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथविचाराः कप्प कहित्तु ठवणा सावणबहुलस्स पंचाहे // 3150 // अर्थ:-आसाढपुण्णिमाए पविट्टा, पडिवयाओ आरम्भ पंच दिणाई संथारग-तण-डगल-छार-मल्लगाईय गेण्हंति / ऐत्थ उ अणभिग्गहियं वीसइरायं सवीसई मासं / तेण परमभिग्गहियं गिहिनायं कत्तिओ जाव // 3151 // अर्थ:-इत्य आसाढपुण्णिमाए सावणबहुलपंचमीए वासपजोसविप वि अप्पणो अणभिग्गहियं / अहवा जइ गिहत्था पुच्छंति अजो ! तुम्भे एत्थ वरिसाकालं ठिया अह न ठिया ? एवं पुच्छिपहि अणभिम्गहियं ति संदिद्धं वक्तव्यं / वीसइरायं सवीसइरायं मासं / जइ अभिवढियकरिसं तो वीसइराय जाव अणभिग्गहिय / अह चंदवारसं तो सवीसइराय मास जाव अणभिग्गहिय तत्कालात् परतः अभिगृहीतं ' इह व्यवस्थिता' इति पुच्छंताण कहंति / असिवाइकारणेहिं अहवा वासं न सुट्ट आरद्धं / अभिवढियमि वीसा इयरेसु सविसईमासो // 3152 // अर्थ:-असिवाइपहि कारपोहिं जइ अच्छइ तो आणाइया दोसा। अह गच्छति तो गिहत्था भणति-पए सवण्णुपुत्तगा न किंचि जाणंति, मुसावायं च भासंति / ठियामो त्ति भणित्ता जेण निग्गया। तम्हा अभिवढियवरिसे वीसइराए गए गिहिनाय करिति / तिसु चंदघरिसेसु सवीसइराए मासे गए गिहिनायं करिति / अत्थ अहिगमासगो पडइ-(चटति) वरिसे तं अभिवढियवरिस भण्णइ / जत्थ न पडइ तं चंदवरिसं / सो य अहिगमासगो जुगस्स अंते मज्झे वा भवइ / जई अंते तो नियमा दो आसाढा भवंति अह मज्झे तो दो पोसा / सीसी पुच्छइ-कम्हा अभिवढियवरिसे वीसतिराय चंदवरिसे सवीसइमासो ? उच्यते-जम्हा अभिवइढियवरिसे गिम्हे चेव सो Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये मासो अदक्कतो तम्हा वीस दिणा अणभिग्गहिय कीरइ, . इयरेसु तिसु चंदवरिसेसु सवीसइमास इत्यर्थः / . एत्थ उ पणग पणग कारणियं जाव सवीसईमासी / सुद्धदसमीठियाण व आसाढी पुण्णिमोसमणा // 3153 // 'अर्थ:-अहवा जत्थ आसाढमासकप्पो कओ तं वासपाउग्ग खेतं, अन्नं च नत्थि वासपाउम्ग ताहे तत्थेव पजामविति / एक्कारसीआ आढवेउं डगलाइयगेण्हंति, पजोसवणाकप्पं च कहिंति, ताहे आसाढपुण्णिमाए पजासर्विति / एस उस्सग्गो / सेस काल पजोसविताण सम्बो अववाओं। अववाएवि सवीसइराइमासाओं परेण अइक्कमेन वट्टइ / सवीसइराए मासे पुण्णे जइ व सखेत्तं न लब्भइ तो रुक्ख हेट्ठा वि पजोसवेयव / तं च पुण्णमाए पंचमीए दसमीए एवमाइएसु पव्वेसु पजोसवियव नी अपव्वेसु / सीसो पुच्छइ-इदाणिं कहं च उत्थीए-अपव्वे पजोसविजइ ? / आयरिओ भणइ-कारणिया चउत्थी अजकालगायरिएण पवत्तिया। ताहे रण्णा भणियं-तदिवसं मम लोगाणुवत्तिए इंदो अणुजाएयवो हाहित्ति साधू चेइए न पजवासिस्सं, तो छट्ठीए पजोसवणा कजउ ? / आयरिएण भणियं-न वट्टइ अइकामे, ताहे रण्णा भणियं-एवं तो अणागय चउत्थीए पज्जासविजउ / आयरिएण भणियं-एवं भवउ / ताहे चउत्थीए पजोसविय / एवं जुगप्पहाणेहि च उत्थी कारणे पवत्तिया / सा चेवाणुमया सव्वसाहूणं / रण्णा य अंतेउरिगा भणिया-तुम्हे अमावासाए उवासं काउ' पडिवयाए सबखजभोजविहीहिं साहू उत्तरपारणए पडिलाभित्ता पारेह, पजोसवणाए अट्टमंति काउं पडिवयाए उत्तरपारणय भवइ / तं च सव्वलोगेणवि कयं, तओ पभिइ मरहट्टविसए 'समणपूय' त्ति छणो पयडेइ / इयाणिं पंचगपरिहाणिमधिकृत्य कालावग्रह उच्यते Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 27 निशीथविचारा: .. इय सत्तरी जहण्णा असिई नउई दसुत्तरं च सय / जइ वासइ मासरे दसराय तिण्णि उकोसा // 3154 // अर्था यथा-'इय' त्ति उपप्रदर्शने / जे आसाढचाउमासियातो सवीसइराए मासे गए पज्जोसविति तेसिं सत्तरि दिवसा जहण्णओ वासकाटुग्गा भवइ / कहं सत्तरि ? उच्यते-च उमासाण वीसुत्तरं दिवससय भवइ, सवीसइ मासेा पण्णासं दिवसा, ते वीसुत्तरसयमझाओ सेहिआ सेमा सत्तरि / जे भद्दवयस्स बहुलदसमीए पजजोसविति तेसिं असीइ दिवसा मज्झिमा वासकालाग्गहा भवइ / जे सावणपुण्णिमाए पज्जासविति सिं नउई दिवसा मज्झिमो चेव वासकालाग्गहा भवइ / जे सावणबहुलदसमीप पज्जीसविति तेसिं दहुत्तरसय मज्झिमा चेव वासकालोग्गहा भवइ / जे आसाढपुण्णिमाए पजोसविति तेसि वीसुत्तरं दिवसंसयं जेट्टो वासकालोग्गहा भवइ / सेसवरेतु वि दिवसपमाण वत्तव्यं / एवमाइपगारेहि वरिसारत्तं गिरोत्ते अछित्ता कांत्तयचाउमासियपडिवयाए अवस्सं निग्गंतव्व। अह मगसिरे मासे वासइ चिक्खल्लजलाउला पंथा तो अववाएण र उकासेण तिण वा दसराया जाव तंमि खेत्ते अच्छति / मार्गसिर पूर्णमासी यावत् इत्यर्थः / मग्गसिरपुण्णिमाए परओ जइ वि सचिनला पंथा वासं वा गाढ अणुवरय वासइ जइ विप्लवंतेहिं तहावि अवस्सं निगंतव्वं / अह ण णिग्गच्छंति तो चउगुरुगा एवं पंचमासिओ जेट्टोग्गहा जाओ / तथाहि पण्णासा पाडिजइ चउण्ह मासाण मज्झओ / तआ उ सत्तरी (जहण्णा) हाइ जहण्णा वासुवग्गहा // 3155 // तथा काऊण मासकप्प तत्थेव ठियाणऽतीयमग्गसि। / सालंबयाण छम्मासिओ अ जेट्रोगगहा हाइ // 3155 // जइ अस्थि पयविहारा चउ पाडिवयंमि हाइ निग्गमण / अहवा वि अणितस्सा आरावण पुवनिदिट्टा // 3157 // Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये अर्थो-वासाखेत्ते निविग्घेण चउरो मासा अच्छिउं कत्तियचाउम्मासं पडिकमिउं मग्गसिरबहुलपडिवयाए निग्गंतव्व एस चेव चउपाडिवओ / तथा काइयभूमि संथारए य संसत्त दुल्लभे भिक्खे / एएहि कारणेहिं अप्पत्ते हाइ निग्गमण // 3159 // राया कुंथू सप्पे अगणि गिलाणे य थंडिलस्स असई / एएहिं कारणेहिं अप्पत्ते हाइ निम्गमण // 3158 // वासं व न उ विरमइ पंथा वा दुग्गमा सचिखल्ला / एएहिं कारणेहिं अइकते हेाइ निग्गमण // 3160 // एष पर्युषणाविचारः / वर्षाकाले खेत्ते ठवणा जहा उभओ वि अद्धजोयण अद्धकासं तह हवइ खेत्तं / हेाइ सकोसं जायण मेोत्तूणं कारणज्जाए // 3162 // अर्थो-पुवावरेण दक्खिणुत्तरेण वा / अहवा उभओत्ति सवओ समंता अद्धजायणं सह अद्धकासेण एगदिसाए खेत्तप्पमाणं भवइ / उभओ वि मेलिउ गमागमेण वा सकेासं जायणं भवइ / 'कारणजाएण'त्ति अववायकारणं मात्तण एरिसं उस्सग्गेण खेत्तं भवइ / वासासु एरिसं खेत्तठवणं ठवेइ / तथा उड्ढमहे तिरियमि य सकोसं हवइ सवओ खेतं / इंदपयमाइएसू हिसि सेसेस्सु चउ पंच // 3163 // नइमादिजलेसु इमा विही / दगघट्ट तिणि सत्त व उउवासासु न हणति ते खेत्तं / चउरऽट्टाइ हणंती जंघद्धको वियपरेणं // 3155 // वर्षाकाले चउच्चारपासवण खेलमत्तए तिणि तिण्णि गिर्हति / संजमआएसट्टा भिजेज्ज व सेस उज्झंति // 3172 // धुवलाओ उ जिणाण निच्च थेराण वासवासासु / असहू गिलाणगस्स व त रयणि तू नइक्कामे // 3173 / Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. निशीथविचारा: अर्थो-थेराण वि वासासु धुवलोओ चेव / असहू गिलाणाणं तु पजोसवणराइं नाइक्कमति / वर्षासुच-मोत्तुं पुराण-भावियसड्ढे सञ्चित्तसेसपडिसेहो / मा हाहिति निद्धम्मो भोयणमोए य उडाहो // 3174 // अर्था यथा-जइ सोभण्णइ-बरसंते मा नीहि, आउक्कायविराहणा भवाइ / ताहे सो भणाइ-जइ एए जीवा तो निसग्गमाणे किं भिक्खं गिहह ? वियारभूमि वा गच्छह ? कहं वा तुम्भे अहिंसगा साहवी य वासातु चलणे न धोवंति पायलेहणियाए निल्लिहंति ? ताहे सो भगाइ-अनुई चिक्खलु मदिऊण पाया न धोवंति, असुइणो एए समटस्स य कओ धम्मो ? / एवं विप्परिणओ उन्निक्खमइ / सागारियं ति काउं साधो पाए धावंति तो असामायारी पाउसदोसो य / वाले पड़ते अभाविए सेहे वसहीओ अनिते जइ मंडलीए भुंजइ तो उडाहं करेइ, पाणा इव ऐए परोप्परं संसर्ट भुंजंति / अहंपि णेहि विट्टालिआ ताहे विप्परिणमइ / अह मंडलीए न भुंजइ ताहे असमायारी। जइ वा ते साहवा निसग्गमाणे मत्तएसु उच्चारपासवणाई आयरंति, सो य तं दद्रं विप्परिणामेजा। वर्षासु च-मणवयणकायगुत्तो दुश्चरियाई च निच्चमालोए / अहिगरणे उ दुरूवग पजाओ चेव दमओ य // 3179 // प्रतिष्ठाविषयो यथा-ताहे सो विजमाली भणाइ-इयाणि किं मया कायब्वं ? अच्चुयदेवेण भणियं बोहिनिमित्तं जिणपडिमावयारं करेहि / तओ सो विजमाली अट्टाहियामहवंते गंतुं चुल्लहिमवंत गोसीलदारुमयं पडिमं देवयाणुभावेण निव्वत्तेइ, रयणविचित्ताभरणेहिं सबालंकारविभूसियं करेइ / तया ताहे पभावई. पहाया कयकोउयमंगला सुकिलवासपरिहाणपरिहिया बालपुप्फधूवकडच्छूयहत्था गया / तओ पभावईए सव्वं बलिमादि काउं भणियं-'देवादिदेवो महावीरवद्धमाणसामी तस्स पडिमा कीरउ' Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये त्ति पहराहि वाहिओ कुहाडो, एगघाए चेव दुहा जायं, पेच्छंति य पुन्वनिव्वत्तिय-सव्वालंकारविभूसियं भगवओ प'डम, सा णेउं रण्णा घरसमीवे देवाययणं काउं तत्थ ठविया / तत्थ किण्हगुलिया नाम दासचेडी देवसुस्सूसाकारिणी निउत्ता / अट्टमि-चाउद्दसीलु य पभावई देवी भत्तिरागेण सयमेव (राउ) नट्टोवहारं करेइ / राया वि तयाणुवित्तीए मुरये पवापइ / अण्णया पुणावि पभावईए पहायकयकोउयाए दासचेडी वाहित्ता देवयगिहपवेसा सुद्धवासा आणेहि त्ति भणिया / ते य सुद्धवासा आणिजमाणा कुसुंभरागरत्ता इव अंतरे संजाया / इति श्वेतधौतिकबलिप्रतिष्ठाविचार; / चंपानगरी अणंगसेणो सुवण्णकारी, विजमाली जक्खी, नाइलो सावओ, किण्हगुलिया, उदायणो / उज्जेणी विइन्भयाओ असीइ जोयणाई चंडपजीआ राया / दिद्वसुयमणुभूयं जं वत्तं पंचसेलए दीवे नलगिरी सुवण्णगुलिया / पुन्वाधीयं नस्सइ नवं च छाओ न पचलो घेत्तं / खमगस्स व पारणए वरिसति असहू य बालाई // 3207 / / वर्षतिभिक्षां कुर्वति / धुवलाओ उ जिणाणं वरिसानु य होइ गच्छबासीणं / उडु तरुणे चउमासो खुर-कत्तरि छल्हू गुरुगा // 3213 // पढमंमि समोसरणे वत्थ पायं च जो पडिग्गाहे / सो आणा अणवत्थं मिच्छत्त-विराहणं पावे // 3222 // पजोसवणे केसे गावीलोमप्पमाणमेत्ते वि / जो भिक्ख वाइणावती सो पावइ आणमाईणि / / 3210 // उगलग-ससरक्ख कुडमुह-मत्तगतिगलेव-पायलेहणिया / संथारफलगपीढग निजोगो चेव दुगुणो उ // 3238 / / Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथविचारा: पुरिमा उ उसमसामिणो सिस्सा, चरिमा वद्धमाणसामिणो / हासि एस कपो चेव / जं वासासु पजोसविजंति, वासं पडउ या मा वा / मज्झिमयाण पुण भइयं-पज्जासविति वा न वा / जइ दोसा अस्थि तो पजोसविंति, इदरा नो / मंगलं च वद्धमाणसामितित्थे भवइ / जण य मंगलं तेण सधजिणाणं चरियाई कहिज्जंति, समोना णाणि य, सुहम्माइयाण थेराणं आवलिया कहिजति / पढमंमि समासरणे जावइयं पत्त-चीवरं गहियं / सव्वं वोसिरियव्वं पायच्छित्तं च वोढव्वं // 3253 // पुण्णमि निगयाणं साहम्मियखेत्तवजिए गहणं / संविग्गाण सकोसं इयरे गहियंमि गिहूति // 3258 // सखित्ते परखित्ते दो मासे परिहरित्तु गिहूति / जं कारणं न निग्गया तंपि बहिं झोसियं जाणे // 3260 / / चिक्खल्ल-वास-असिवाइएसु जहिं कारणेसु उ न निति / हिते पडिसेहित्ता गेहति उ दोसु पुण्णेसु // 3261 / / विइए वि समोसरणे मासा उक्कोसगा दुवे हुँति / ओमंथगपरिहाणी य पंच पंचेग य जहणणे // 3266 / / मासकल्पे इत्यर्थः / इति वर्षादिविचारः / जइ वि य फासुगदव्वं कुंथू-पणगादि तहवि दुप्पस्सा / पच्चक्खणाणिणो वि हु राईभत्तं परिहरंति // 3411 // जइ वि य पिपीलिगाई दिसंति पईव-जोइउज्जोए / तह वि खलु अणाइण्णं मूलवयविराहणा जेण // 3412 // उवाइयं अणोवाइयं वा ज पुण्णभद्द-माणिभद्द-सवाण-जक्ख महुंडिमाझ्याण निवेइजइ, सो दुविहो-निस्समनिस्साकडो य / इति बलिः। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये अट्ठारस पुरिसेसुं वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु / . पवावणा अणरिहा अनला अह एत्तिया भणिया // 3505 // अनला:-प्रव्रज्याया अयोग्या: / बाले वुडढे नपुंसे य जडे कीवे य वाहिए / तेणे रायावयारी य उम्मत्ते य असणे // 3506 // दासे दुटे य मूढे अणत्ते जंगिए इय / उवद्धए य भयए सेहे निप्फेडियाइय // 3507 // एते अष्टादश पुरुषा: प्रव्राजयितुं न कल्पन्ते / एत एवाष्टादशभेदा: गुर्विणी-बालवत्साभ्यां सहिताः स्त्रीपक्षे विंशतिर्भेदाः / परं नपुंसकदारे विसेसो इत्थीणं, इत्थीनपुंसिया इत्थीवेदी वि से नपुंसगवदंपि वेएइ / अदसणो-अन्धः / अणत्ते-रिणवान् / जुगिओ-जात्यादिदृषितः कुण्टमण्टो वा / उवसंपयं बद्धो ओबद्धो / भइउ-मूल्यकर्मकरः / सेहनिष्फेडिउ-अट्टवरिसाइउ माइमाईहिं अमुकलिओ। नपुंसकभेडा यथा पंडएं वाइए कीवे कुंभी ईसालुएं इय / सउणी तकम्मसेवी य पक्खियापक्खिए इय // 3561 // सोगंधिए य आसत्ते वद्धिए चिप्पिए इय / मंतोसही उवहए इसिसत्ते देवसत्ते य // 3562 // गाथाद्वयम् / अर्थस्तु-पंडगो-नपुंसकः / वातिगो-जस्स वायवसेण लिम उड्ढं चेव चिट्ठइ / कुंभी-जस्स वसणा सुजंति / यस्येा उत्पद्यते अभिलाष: स ईर्ष्यालु: / उक्कडवेयत्सणाओ सउणी व सउणी / तकम्मपडिसेवी-जया बीयनिसम्गो तया साणो इव जीहाए लिहइ / सुक्कपक्खे सुक्कपक्खे अईव मोहब्भवो ‘अपक्ख' त्ति कालपक्खो तत्थ अप्पो भवइ स पक्खियापक्खिओ। सुभ-सागारियस्स गंधं मण्णइ त्ति सोगंधी / आसत्तो-इत्थीसरीरे / वद्धिओ-वधितः / जस्स जायमेत्तस्स अंगुट्ठपएसिणीमज्झिमाहि चमढिज्जति स चिप्पिओ इत्यर्थः / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथविचारा: ऊणडे नस्थि चरणं पव्वावितो वि भस्सई चरणा / मूलावरोहिणी खलु नारभई वाणिओ चेटुं॥३५३२॥ न्यूनेषु अष्टवर्षेषु न प्रव्रज्येत्यर्थः / मागहद्धविसयभासानिबद्धं अद्धमागहं / अट्टविही वाही जर-सास-कास-दाहो अइसार भगंदले य सूले य / तत्तो अजीरघायग आसु विरेचा हि रोगविही // 3647 / / उलूगच्छी-रयहरणाओ अयोमयं कीलयं कढिऊण दोवि अच्छीणि उद्धरित्तु ढोक्के / इति रजोहरणे लोहकीलिकाक्षराणि / पच्छा वि हुंति विगला आयरियत्तं न कप्पई तेसिं / सीसो ठावयत्वो काणगमहिसो व्व निम्नमि // 3710 // अर्था-जइ पच्छा सामण्णभावटिओ सरीरजुंगिओ हवेज, सो अपरिवजो / जइ सो आयरियगुणोवेओ तहा वि आयरिओ न कायब्वा / अह पच्छा आयरिओ विगलो होज तेण सीसो ठवेयव्यो, अप्पणा अप्पगासभावो चिट्रइ / जो चायरिओ स काणगमहिसो / जहा सा अप्पगासे चिट्ठर, तहा गुरूवि / इमे गुचिणी दोसा-उकासेण द्वादश वर्षाणि गर्भत्वेन तिष्ठतीत्यर्थः / हस्तपादकर्णनासाक्षिवर्जितं बिंब मृगावतीपुत्रवत् , वैकृतं सर्पादिवत् भवेत् / पुव्वं जाहे सत्थपरिण्णा सुत्तओ अहिया, ताहे उवट्ठावणापत्तो भवइ / दसवेयालिय उत्पत्तिकाल ओ पुण जाहे छज्जीवणिया अहिया / जद्दिवसं उवट्ठाविओ तद्दिवसं केसिंचि अभत्तट्ठो भवइ, केसिंचि आयंबिल, केसिंचि निन्वितियं / केसिंचि न किंचि, जस्स वा जं आयरियपरंपरागयं छट्टमाइयं कराविजइ / (3753 गाथा चूणी) जं गंगियं खुहापसमणे असमत्थं आहारे य अईइ, तं आहारण संजुत्तं असंजुत्तं वा आहारो चेव नायव्यो / जहा असणे लोणं हिंगूजीरककडुगं मंडं च असणं / (3790 गाथाचूर्णी ) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये जे मे जाणति जिणा अवराहा जेसु जेसु ठाणेलु / . तेह आलोएउं उवडिओ सव्वभावेणं // 3873 // ' जह सुकुसलो वि वेजो अण्णस्स कहेई अप्पणो वाहिं / वेजस्स य सो सोउं तो पडिकम्म. समारभए // 3860 // जाणतेण वि एवं पायच्छित्तविहिमप्पणो निउणं / तह वि य पागडतरगं आलोएयव्वगं हाइ // 3861 / / तणकंबलपावारे कायवतूली य भूमिसंथारे / एमेव अणहियासे संथारगमाइ पल्लंके // 3907 // एतानि अनशनिनः कल्पन्ते इतिशेषः / जति ताव सावया कुलगिरिमंदरविसमकडगदुग्गेसु / साहति उत्तिमटुं धितिधणियसहायगा धीरा // 3912 // किं पुण अणगारसहायएण अण्णाण्णसंगहबलेण / परलोइओ न सकइ साहेउं उत्तिमो अट्रो // 3913 // सव्वाहिं वि लद्धीहिं सव्वे वि परीसहे पराइत्ता / सव्वे वि य तित्थगरा पाओवगया उ सिद्धिगया // 3916 // अवसेसा अणगारा तीतपडुप्पण्णणागता सवे / केई पाओवगता पञ्चक्खाणिगणिं केई // 3917 // सव्वाओ अजाओं सव्वे वि य पढमसंघयणवजा / सव्वे य देसविरता पञ्चक्खाणेण उ मरंति / / 3918 / / सवसुहप्पभावाओ जीवितसारातो सव्वजणिताती / / आहारातो न तरण न विजती उत्तिमं लाए // 3919 / / विग्गहगते य सिद्ध मात्त लोयंमि जत्तिया जीवा / सव्वे सव्वावत्थं आहारे हुंति उवउत्ता // 3920 / / तं तारिसगं रयणं सारं जं सव्वलेोगरयणाणं / . सव्वं परिच्चइत्ता पाओवगता परिहरंति // 3921 / / केइ परीसहेहिं वाउलीउवेतणुद्धतो वा वि। . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथविचारा: आभासिज कयाती पढम बितियं व आसज // 3923 // "हंदी परीसहचमू जोहेयवा मणेण कारणं / / तो समरदेसकाले कपयतुल्लो उ आहारो // 3925 / / इति गाथाद्वयम् अनशने भक्तदानार्थम् / कम्ममसंखेजभवं खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो / अन्नतरगंमि जोगे क्यावच्चे विसेसेणं // 3904 / / चाउज्जायं-जाइफलं कालयं कप्पूरं लवंग / जइ तेसि जीवाणं तत्थ गयाणं तु लोहियं हाजा / पीलिजंते धणियं गलेन्ज तं अक्खरे फुसिउं / / 4007 // जहा तिलेसु पीलिज्जतेसु तेसु तेल्लं नीति तहा जइ तेसिं रुहिरं हाजा, तो पात्थगबंधणकाले तेसिं जीवाणं सुट्ट पीलिज्जंताणं अक्खर फुसि हिरं गलेज इत्यर्थः / / दुप्पडिलेहियदृसं अद्धाणाई विवित्त गेण्हंति / घेप्पइ पात्थगपणगं कालिगनिजत्तिकोसट्टा // (4020) मेहाउगहणधारणाइपरिहाणि जाणित्ता कालियसुयट्टा कालियसुयनिक्षुत्तिनिमित्तं वा पोत्थगपणगं घेप्पड़, कासो त्ति समुदाय इत्यर्थः / साहूणं दाहामि त्ति मलिणं धेोवइ विहिं अजाणतो धाउमाइसु रतं काउ दलाइ रयगसज्जियं निप्पंककयं च चोक्खं असुइमुवलितं धोउ सुई एयावत्थं कयं साहूणा पडिसिद्धं पुरःकर्मत्वादितिशेषः / (गाथा चू० 4107) पुवाए भत्तपाण घेत्तण जे उवाइणे चरिमं / सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराहण पावे // 4141 // उवाइणइ-अतिक्रामति / निस्संचया उ समणा संचइउ गिही उ होंति धारिता / संसत्त अणुवभागा दुक्खं च विगिंचिउं होइ // 4154 // गाथाद्वयेन प्रथमपौरुष्यां गृहीतं चतुर्थ्यां न शुद्ध्यति / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये जे भिक्खु उवगरण वहावे गिहि अहव अण्णतित्थीहिं / आहारं वा देजा पडुच्च तं आणमाईणि // 4204 // सत्त उ वासासु भवे दगघट्टा तिण्णि होंति उउबद्धे / जे उ न हणति खेत्तं भिक्खाचरियं च न हरंति // 4244 // थेरुवमा अकंते मत्ते सुत्ते व जारिसं दुक्खं / . एमेव य अव्वत्ता वियणा एगिदियाण तु // 4263 // गिहिनिक्खमण-पवेसे आवाह विवाह विक्कयकए वा गुरुलाघवं कहिंते गिहिणो खलु संपसारीआ // 4362 / / संपसारकः स साधुः स्यादित्यर्थः / जाई कुले विभासा इत्यादि (4412) गाथायां'तुम्नाइ सिप्प णावजग च कम्मेयरावज्ज 'ति / व्याख्या-अनावर्जकं कर्म, इतरत् आवर्जकं शिल्पमित्यर्थः / उग्गाइकुलेसु वि एमेव गणे मंडलप्पवेसाई / देउलदरिसणभासा उवणयणे दंडमाई वा // 4415 // व्याख्या-प्रथमं पदं गतार्थम् / मंडलमालिहियं दटुं मलाइगणेसु हीणाहियं विवरीयं वा तत्थ वि अप्पाणं जाणावेइ / गणेत्ति गयं / सिप्पे अहिणवघडण चिरकयं वा सिप्पयं दट्टै झणाइ-अहो ! देवकुलस्स उवणओ उवसंघारी संवरणेत्यर्थः / पहाणो वा अप्पहाणी त्ति / अहो ! आयामवित्थरे दटुं भणाइ-एवइए दंडे एयस्स उ त्ति / इह दंडो हस्त उच्यते / इति गाथार्थः / कत्तरि पयोयणावेक्ख वत्थु बहुवित्थरेसु एमेव / कम्मेसु य सिप्पेसु य सम्ममसम्मेसु सूइयरा // 4416 // गाथार्थो यथा-कत्तरि-एष कर्ता, पयोयणं-कारणं दविणं तं च अवेक्ख-दृष्ट्वा वत्थु (खा) उस्सियाइ बहुवित्थरं-अणेगभेयं / एतानि दृष्ट्वा सूयया असूयया वक्तीत्यर्थः / / निग्गंथ सक तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा / तेसिं परिवेसणाए लोभेण वणेज को अप्पं // 4420 // Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथविचाराः अर्था यथा-निग्गंथा-साहू खमणा वा, सका-रत्तापडा, तावसावणवासिणी, गेरुया - परिवायगा, आजीविगा - गोसालगसिस्सा पंडरभिक्खुया वि भन्नति / इति गाथार्थ: / 'एएण मज्झ भावो विद्धो लोगे पणातहयजमि'त्ति (4428) गाथापूर्वाद्धव्याख्या-पणातहज्जंमि इमंति लोगे जो मणोगयं भावं जाणइ तस्स लोगो आउट्टइ / विशुद्धो ना इत्यर्थ: / ___छिन्नमछिन्ने दुविहे' इत्यादि (4509) गाथायां-तदुलघयाई जत्थ परिमाण-परिच्छिन्ना दिज्जति सो छिन्त्री भण्णइ / तप्पडिवक्खो अछिन्नी इत्यर्थ: / __ हत्थस्स छन्भाया-जहा अंगुलीणं अग्गपञ्चा पढमभागो, बीओ मझापार भागा, तइओ अंगुलीमूले भागा, आउरेहाए चउत्थो भागो, अंगुट्टस्स अभिंतरकोडिए पंचमी भागो, सेसी छट्टो भागो / एवं हस्ते भागाः पद / देसी व सेविसग्गो वसणी व जहा अजाणगनरिदो। रज्ज विलुत्तसारं जह तह गच्छोवि निस्सारो // 4796 // इत्थी जूयं मज्जं मिगव्व वयणे तहा फरुसया य / दंडफरूसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त वसणाणि // 4799 // पण्णवाणिज्जा भावा अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं / / पण्णवणिजाणं पुण अणंतभागा सुयानबद्धो // 4823 // जं चउदसपुव्वधरा छट्ठाणगया पराप्परं हुंति / / तेण उ अणंतभागा पण्णवणिजाण जं वुत्तं // 4824 // अक्खरलं भेण समा ऊहिया हुति मइविसेसेण / / ते वि य मइविसेसा सुयनाणभंतरे जाण // 4825 // जायणसयं तु गंता अणाहारेण तु भंडसंकंती / वाया अगणी धूमेहि य विद्धत्थं हेाइ लोणाई // 4832 / / हरियालमणासिलिं पिप्पली य खजर मुहिया अभया / आइण्णमणाइण्णा तेवि हु एमेव नायब्वा // 4834 / / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये खजरादयो अणाइण्णा इत्यर्थः / सामण्ण परिणामकारण जहा आरुहणे आरुहणे निसियण गोणाइणं च गाउम्हे / भूमाहास्च्छे ओ उवक्कमेण तु परिणामी // 4835 / / उवक्कमण-स्वकायपरकायशस्त्रम् / पत्ताण पुप्फाण सरदुफलाण तहेव हरियाण / बिटमि मिलाणंमी नायव्वं जीवविप्पजढं // 4840 // ज तरुणं बद्धट्टियं अबद्धट्टियं वा जाव कामलं ताव सरदुफल भण्णइ, वत्थुलाइ हरियं वा / जइ जं जं गुरूहिं चिण्ण' तं तं पच्छिमेहि अणुचरियव्वं, तो तित्थगरेहिं पाहुडिया साइजिया पागारतिय देवच्छंदओ पीढं च अइसया य एय तेहि उवजीविय अम्हाय एवं किं न उवजीवामो ? उच्यते-न सव्वहा अणुधम्मो, यतो गुरुः तीर्थकरः अतिशया: तस्यैव भवन्ति नान्यस्य / अनुधर्मताडत्र न चिन्त्यन्ते 'सो तित्थयरजीयकप्पो त्ति काउ' तीर्थकरकल्पत्वादेव / (4855 गाथा चूी) जे भिक्खु वत्थाई दिजा गिहि अहव अण्णतित्थीण। पडिहारगं च तेसिं पडिच्छए आणमाईणि // 49.80 / / / बहूणि वा वत्थाणि उप्पाएयवाणि ताहे पिडएणं सब्वे उटुंति / गणित्ति आयरिओ तमोत्तूण, आयरिया पुण जइ अप्पणा हिंडंति तो चउगुरुगा उभावण दोसे हि आयरिउ हुतउ अप्पणा हिउइत्तण एयस्स आयरियत्तणपि एयारिसं चेव चीराणंपिणाहइ / पगई पेलवसत्ता लोभिज्जइ जेण तेण वा इत्थी / अवि य हु मोहो दिप्पइ तासिं सइरं सरीरेसु // 5073 / / अर्थी-जेण तेण वत्थमाइणा लोभिजइ, दाणलोभिया य अकजंपि करेइ, अविय ताओ बहुमोहाओ, तेसिं च पुरिसेहिं संलावं करंतीणं दाणं च गेहतीणं पुरिससंपकाओ मोहो दिप्पइ सहरं सरीरेनु / ततः संयत्यो वस्त्राणि स्वयं न गृह्णन्ति इतिशेषः। . Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथविचारा: नवभागकए वत्थे चउसु वि कोणेसु होइ वत्थस्स / * लाभी विणासमन्ने अंते मज्झेसु जाणाहि / / 5086 / / नवभागकए वत्थे चउसु, तम्मज्झेसु य दोसु एएसु छसु अंतविभागेसु लाभी भवइ / 'विणासमन्ने'त्ति अन्ने मज्झिल्ला तिन्नि विभागा तेसु विणासं जाणिहीत्यर्थ: / अंजण खंजणकद्दमलित्ते मूसगभक्खिय अग्गिविदड्ढे / तुण्णिय कोट्टिय पज्जव लीढे होइ सुहोअनुहो वा // 5087 // पज्जवलीढ-चर्वितम् / चउरी य दिविया भागा दोणि भागा य माणुसा / आसुरा य दुवे भागा मज्झे वत्थस्स रक्खसो // 5088 // देवेसु उत्तमो लाभो माणुसेसु य मज्झिमो / आसुरेसु य गेलण्ण मज्झे मरणमाइसे // 5089 // उस्सग्गेण निसिद्धाणि जाणि दव्वाणि संथरे मुणिणो / कारणजाए जाए सव्वाणि वि ताणि कप्पंति // 5245 // नवि किंचि. अणुण्णायं पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं / एसा तेसिं आणा कज्जे सच्चेण होयव्वं / / 5248 // इमाओ सत्त पिंडेसणाओ-दायगी असंस?हिं हत्थमत्तेहिं देहित्ति असंसट्टा, संसट्टेहिं हत्थमत्तेहिं संसट्टा, जत्थ उवक्खाडिय भायणे ताओ उद्धरिय देइ छव्वगाइसु एस उद्धडा, जस्स दिजमाणस्स दव्वस्स निफावचणगाइगस्स लेवो न भवइ सा अप्पलेवा, जं परिएसगेण पडिसेवणाए परस्स कडच्छुवाइणा आणियं तेण य तं पडिसिद्धं तं तहुक्खित्तं चेव साहुस्स देइ एस उहिया, जं असणाइगं भोउकामेण कंसाइभायणे गहियं भुंजामि त्ति असंसट्रिए चेव साहू आगओ तं चेव देइ एस उग्गहिओ, जं असणाइगं गिहि उझिउकामी साहू य उवट्टिओ तं तस्स देइ न य तं कोइ अण्णो दुपयाइ अहिलसइ एस उझियधम्मो / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये ओसण्णो वि विहारे कम्मं सिढिलेइ सुलभबाही / चरणकरणं विसुद्धं उवव्हेंतो परूवेंतो // 5436 // . छम्मासे उवसंपय जहण्ण बारस समा उ मज्झिमिया / आवकहा उक्कोसे पडिच्छसीसे तु जाजीवं // 5452 // सुयसुहदुक्खे खेत्ते मग्गे विणणे य होइ बोद्धव्वे / उवसंपया य एसा पंचविहा देसिया सुत्ते // 5521 // पडिलेह दिय तुययट्टण निक्खिवणायाण विणय सज्झाए / आलोय-ठवण-भत्तट्ट-भास-पडलग-सेजायराईसु / / 5555 // अथों-पक्खियाइसु आलोयणं न पउंजति भत्ताइ वा न आलोपंति, संखडीए वा भत्तं आलोएंति निरीक्षन्ते इत्यर्थ: / ठवणकुलाणि न उविति, विसंति भत्तटुं, मंडलिए न भुंजति, गुरुणी वा आलोगे न भुंजंति, अगारभासाहि भासंति, पडलपहिं आणियं अभिड्र्ड भुंजंति सेजायरपिंडं वा भुजंति आइग्गहणेणं उग्माइ न सोहिंति इति गाथार्थः / राइ सद्दे आएस दुर्ग-संझा राई संझावगमो राई / सो रायावंतिवइ समणाण सावओं सुर्वािहयाण ! पच्चंतियरायाणो सब्वे सदाविया तेण // 5752 / कहिओ य तेसि धम्मो सवित्थरो गाहिया य सम्मत्त / अप्पाहियाय बहुसो समणाण सावगी होइ // 5753 // अणुयाणे अणुजाई पुष्फारुहणाइ उक्खिरणगाणि / पूयं च चेइयाण ते वि सरज्जेसु कारिति // 5755 // जइ म जाणह सामि समणाण पणमहा सुविहियाण / दव्वेण मे न कजं एयं खु पियं कुणह मज्झं // 5755 // वीसजिया य तेणं गमणं घोसावणं सरज्जेसु / साहूण सुहविहारा जाया पञ्चतिया देसा // 5756 // समण भडभाविएसुं तेसु रज्जेतु एसणाईहिं / साहू सुहपविहरिया तेणं चिय भद्दगा ते उं // 5757 // Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथ-विचाराः चूर्णियथा-तेण संपइणा रण्णा विसजिया, सरजाणि गंतुं अमाघायं घोसिंति, चेइयहरे कर्मिति रहजाणे य। अंधमिडकुदुकमरहट्टया एए पश्चंतिया, संपइकालाओ आरब्भ सुहविहारा जाया / संपइणा साहू भणिया-गच्छह एए पञ्चंतविसर बोहिता हिंडह, तओ साहूहिं भणियं-एए न किंचि कप्पाकप्पं वा एसणं वा जाणंति कहं विहरामो? ताहे तेण संपइणा 'समणगाहे' इत्यादि / प्रतिष्ठाविचार: षोडशोद्देशे। रहगओ पुप्फफले खजगे य कवडगवत्थमाई उक्खिरणे करेइ / तकंतपरंपरओ पलोट्टछिन्ने य भेय कायवहो / हिमुसलालविच्छुग संचयदोसा पसंगी य // 5766 // अस्थानमुक्ते भक्तादो। आहार उवहिदेहं गुरुणो संघट्टियाण पाएहिं / जे भिक्खू न खामेइ सो पावह आणमाईणि // 5781 // गुरुसंस्तारकस्थाने न पादो मोक्तव्यः, यतः - कमरेणु अबहुमाणो अविणय परियावणा य हत्थाई / संथारग्गहणमतो उच्छवणस्सेव वह रक्खा // 5783 // यथा वृतिरक्षायां इक्षुवनं रक्षितमेव / एवं गुरुसंस्तारके रक्षिते गुरवोपि रक्षिता इत्यर्थः। कप्पा आयपमाणा अडाइजा य वित्थडा हत्था / एयं मज्झिममाणं उकोसं हुंति चत्तारि // 5794 // उक्कोसेण चत्तारि हत्था दीहत्तणेण, एयं पमाणं अणुम्गहत्थं थेराण भवइ, पुहुत्ते वि छ अंगुला समहिया कजंति / दढो जो चोलपट्टो सो दीहत्तणे दो हत्था वित्थारेण हत्थो सो दुगुणो कओ समचउरंसो भवइ / जो दढदुब्बलो सो दीहत्तणेण चउरो हत्था सो वि चउगुणो कअ हत्थमेत्तो चउरंसो भवह चोलपट्ट इत्यर्थः / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये वारत्तपुरं नगरं तत्थ अभग्गसेणी राया, तस्स अमञ्चगो पारत्तगो नाम सो घरसारं निसिउं पव्वइओ, तस्स पुत्तेण पिउभत्तीए देवकुलं कारावियं, रयहरणमुहपोत्तियपरिग्गहधारी पिउपडिमा तत्थ ठाविया / इति स्थापनाचार्यविचारः। . पढमुस्सेइममुदयं अकप्पकप्पं च होइ केसिंचि / तं तु न जुजइ जम्हा उसिणं मीसं तु जा दंडो // 5971 // मरेज सह विजाए कालेणं आगए विऊ / अपत्तं च न वाएज्जा पत्तं च न विमाणए // 6230 // गिहि अन्नपासंडि वा पवंजाभिमुहं सावगं वा छन्जीवणीय त्ति जाव सुत्तओ, अस्थओ जाव पिंडेसणा, एप्त निहत्थाइसु अववाओ। पंचविहो मासो-नक्खत्तो, चंदो, उऊ, आइच्यो, अभिवडिओ य। तथाहि - अहोरत्ते सत्तवीसं तिसत्त सन्टुभाग नक्खनो / चंदो अउणत्तीसं बिसट्टि भागा उ बत्तीसं // 6284 / / उउमासो तीसदिणो आइचो होइ तीस अद्धं च / अभिवडिओ बि मासो पगतं पुण कम्ममासेणं // 6285 // एक्कतीसं च दिणा दिणभागसयं तहेक्कवीसा य / मभिवडिओ उ मासो चउवीससएण छेएणं // 6286 // चूर्णियथा-नक्खत्तमासो सत्तावीसं अहोरत्तो / 'तिसत्त'त्ति एक्कवीसं च सतसट्टि भागा, एस लक्खणओ परिमाणओ य नक्खत्तमासो / चंदमासो अउणत्तीसं अहोरत्ते बत्तीसं च बिसटिभागा। उउमासो तीसं चेव पुन्ना दिणा। आइच्चमासो तीसं दिणा दिणद्धं च / अभिवडिओ अहिमासगो भण्णइ / एपसिं पंचण्ह मासाणं इह 'पगति महिगारो कम्ममासेणं, कम्ममासो त्ति उउमासी / अभिवाडयस्स इमं पमाणं-एकतीसं दिवसा दिवसस्स य चउवी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 निशीथ-विचारा: मसयखंडियस्स एगवीसुत्तरं 31-121/124 च भागसयं अहिमासगप्पमाणति / कालमासेण अहिगारो तत्थ वि उउमासेण, सेसा सीसस्स विकोवणट्ठा भणिया / कम्ममासा सावनमासो उउमासो इत्येकार्थाः / पक्खिय चउ संवच्छर उकोसं बारसण्ह वरिसाणं / समणुन्ना आयरिया फड्डगवइया वि विगडंति // 6313 // इत्यालोचनादिनानि / जीहाए वि लहतो ण भद्दओ जन्थ सारणा नस्थि / दंडेण वि ताडिती स भद्दओ सारणा जत्थ // 6614 // जह सरणमुवगयाणं जीवियववरोवणं नरो कुणह / पवं सारणियाणं आयरिओ अचाइओ गच्छे // 6615 // दुग्गविममे विन खलइ जी पंथे सो समे कहं खलइ / कज्जे विऽवजवजी स कहं सेवेज दप्पेणं? // 6698 // अम्हे वि एय धम्मा आसी वट्टति जत्थ सोयारा / इइ गारवल हुकरणं कहए न य सावए लज्जा // 6699 // इति निशीथविचारा: समर्थिता: / सुभाषितगाथा निशीथे - सूईपयप्पमाणाणि परछिद्दाणि पाससि / अप्पणो बिलमेत्ताणि पासंतो वि न पाससि // सिरिए मइमं तुस्से अइसिरिं नो उ पत्थए / अतिसिरिमिच्छंतीए थेरीए विणासिओ अप्पा / उत्तरगुणा इमेपिंडस्स जा विसोहि समिइओ भावणा तवो दुविहो / पडिमा अभिग्गहा वि य उत्तरगुणमो वियाणाहि // 6534 // पञ्च बद्धान्त कौन्तेय ! सेव्यमानानि नित्यशः / आलस्यं मैथुनं निद्रा क्षुधा क्रोधश्च पञ्चमः // दशनविषपेसुलमा अमूढदिट्ठी सेणिय उववूह थिरकरण साढो / वच्छल्लंमि य वइरा पभावगा अट्ट पुण हुंति // 32 // अइसेस इडि धम्मकहि कवि वाइ आयरिय खमग नेमित्ति। विजा राया गणसंभया य तित्थं पभाविति // 33 // Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पुव्वं अपासिऊणं छुढे पायंमि जं पुणो पासे / न य तरह नियत्तेउं पायं सहसाकरणमेयं / / 27 / जंघद्धा संघट्टो नाभी लेवो परेण लेखुवरि / एगो जले थलेगो निप्पगलणतीरमुसग्गो / / 195 / / एगो जले थलेगो-गगने इत्यर्थः / भाष्यगाथाकजिय आयामासह संसट्टसुणोदगेसु वा असई / फासुगमुदगं तसजढं तस्सासइ तसेहि जं रहियं // 200 / / कंजियं देसीभासाए आरनालं, आयाम-अवस्सामणं, संसट्रोदगंगोरसादिभाजनधावनं / जा चेट्टा सा सव्वा संजमहेउं तु होइ समणाणं / संसत्तुवस्सए पुण पञ्चक्खमसंजमकरीओ // -62 / / तदिवसकय ाण उ सत्तुयाण गहियाण चक्खुपडिलेहा / तेण परं नववारे असुद्धे निसिरतर भुंने // 280 / / प्रथमदिनादनन्तरदिनेषु नव वारा: प्रत्युपेक्षणीयाः इत्यर्थः / उड्डाहरक्खणट्ठा संजमहेउं व बोहिगे तेणे / खेत्तमि व पडिणीए सेहे वा खिप्पलोए वा / / 321 / / रूपगत-रूपसहगतमैथुनस्य लक्षणं यथाजीवरहिओ उ देहो पडिमाओ भूसणेहिं वावि जुयं / स्वमिइ सहगयं पुण जीवजुयं भूसणेहिं वा // 354 // कारणपडिसेवा वि य सावजा निच्छए अकरणिजा / बहुसो वियारहत्ता अधारणिज्जेसु अत्थेसु // 459 // असिवाइकारणेसु उप्पण्णेसु जइ अण्णो नत्थि नाणाइसंधणोवाओ तो वियारेऊण अप्पबहुतं अधारणिज्जेसु अर्थेषु प्रवर्तितव्यमित्यर्थः / कामोपशमार्थ गाहानिम्विमा निब्बले ओमे तव उट्ठाणमेव उम्भामे / वेयावश्चापिंडण मंडलि कप्पडियाहरणं / / 574 / / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पस्य विचाराः निबलं चणकादीत्यर्थः / ओम-ऊनोदरतेत्यर्थ: / उब्भामे-ग्रामादौ / मंडाल-सूत्रस्येत्यर्थः / चिलिमिलीगाथा यथा छत्थपणगं तु दीहा तिहाथ-रुंदोन्निया असई खोमा / __ एयपमाणं गणणेकमेकगच्छ च जा वेढे // 6.2 // सूची गाथा उवग्गहिया सूयाइया तु एककए गुरुस्सेव / ___ गच्छं व समासजा अणायसेसेक्कसेसेसु // 663 // सूई पिप्पलउ नहछेयण कन्नसोहण उवह ओवगरण एए य एक्के.कका गुरुस्स भवंति / सेसा तेहिं चेव कज करंति / महल्लगच्छ व समासज अणायसा-अलोहमया वससिंगमई वा सेससाहूण एक्कक्का भवइ / तिण्णि उ हत्था दंडा दोण्णि उ हत्थे विदंडा होइ / लट्ठी आयपमाणा विलट्टि चउरंगुलेणूणा // 700 / / तिण्हुपरि फालियाण वत्थं जो फालियतु संसीवे / पंचण्ह एगयरे सा पावइ आणमाईणि // 787 // वेलुमओ वेत्तमओ दारुमओ वावि दंडओ तस्स / रयाणप्पमाणमेत्ता तस्स दसा हुँति भइयव्वा / / 830 // रजोहरणगाथेयम् / एसेव गमो नियमा समणीण पायपुच्छणे दुविहे / नवर पुण णाणत्तं चप्पडउ दंडओ तासि // 855 // एता अपि निशीथगाथा:। জনৰিৰাৰ। যথা सम्मत्ते पुण लद्धे पालयपुहुत्तेण सावओ होइ / चरणोवसमखया पुण सागरसंखंतरा हुंति // 106 / / एवं अप्परिडिए सम्मत्ते देवमणुयजम्मेलु / अण्णयरसेढिवज एगभवेण व सवाई // 107 / / उवसामगसासाथण खयोवसमियच वेययं खइय / सम्मत्तं पंचविहं जह लन्भइ तं तहा वोच्छ॥ 90 // Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये 'देसकुलजाइरूवी' त्यादिगाथासु अणासंसी-न सोयारेदिता पत्थाईणि आसंसह / आसन्नलद्धपइभी-परवाइणा आभट्ठो. लहुँ उत्तरं दाहिइ / सिवो-अकोहणो सोमो-अघोरदिट्टी / तपुण चेइयनासे तद्दवविणासणे दुविहभेए / भत्तोवहिवोच्छेए अभिवायण-बधघायाई // 389 // * अर्थो यथा-तं शृङ्गकार्य चेइयनासत्ति / लोउत्तरघरपडिमविणासे चेइयदव्वविणासे / दुविहभेय त्ति / मारणे उ पञ्चावणे य जो वा भत्तं ति-भिक्खं वारेइ, उहि वा वाग्इ, जहा वा कोइ भणेजा बंभणे अभिवाएह, जो वा बंधइ, जो वा पहारेहिं पिट्टावेह / आइग्गहणेणं जो वा निविसए आणवेइ / , पट्टिवंसी दो धारणा य चत्तारि मूलवेलीओ। मूलगुणेहि उवहया जा सा उ अहाकडा वसही // 582 // वंसगकडणुक्कंबण छायणा लेवण दुवारभूमी य / सप्परिकम्मा वमही एसा मूलुत्तरगुणेलु // 583 // दृमिय धूमिय वासिय उजोइय बलि कडा अवत्ता य / सित्ता संमट्टा वि य विसोहिकोडिगया घसही // 584 // कालाइकंतीवट्ठाणा अभिकंत अणभिकता य / घजा य महावज्जा सावज महप्पकिरिया य // 59 // उउवासासमईया कालाईया उ सा भवे सेजा। सा चेव उवट्टाणा दुगुणादुगुणं अजित्ता // 595 // जावंतिया उ सेजा अन्नेहिं निसेविया अभिकता। अन्नेहिं अपरिभुत्ता अणभिकंता उ पविसंते // 596 // मत्तट्टकडं दाउं जईण अन्नं करिति वजा उ / जम्हा त पुव्वकर्ड वजति तओ भवे वजा // 597 // पासंडकारणा खलु आरंभो अहिणवो महावजा / समणट्ठा सावजा महसावजा य साहूण // 598 // Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पस्य विचाराः जा खलु जहुत्तदोसेहि पजिया कारिया सयट्टाए / परिकम्मविप्पमुक्का सा वसही अप्पकिरिया उ॥ 599 // उउबद्धे मासो वासावासासु चत्तारि मासा / एयं दुगुणादुगुण अपरिहरंता जत्थ पुणा पंति सा उवट्ठाणसेज्जा भवइ / यदुक्तंउउबद्ध दो मासे वासासु अट्टमासे अजिता एइ / अन्ने भणंतिजन्थ घासावासं ठिया तीए दो वासारत्ते अण्णत्थ काउं जइ एइ तो उवट्टाणा न भवः / / देविद-राय-गहवइ उग्गही सागारिए य साहम्मि / पचविहंमि पविए मायब्वो जो अहिं कमइ // 669 // अणुण्णाए वि सव्वमि उग्गहे घरसामिणा / तहा वि सीमं छिंदति साहू तप्पियकारिणो // 679 // गीयत्थो य विहारो बीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिओ। पत्ता तइयविहारी नाणुण्णाओ जिणवरेहिं // 688 // आयारपकप्पधरा चउदसपुव्वी य जे य त मज्झा / तन्निस्साए विहारो सबालवुड्ढस्स गच्छस्स // 693 // एगमि वा दोसु वा जत्तिएहि वा कप्पेहि बेट्टउ सुह वायणं देइ तेत्तिएहि कप्पेहि. निसजा कीरइ / इति निषद्याविचारः। एते पीठिकाया: / नक्खत्तो खलु मासी सत्तावीसं भवंतऽहोरत्ता / भागा य एक्कवीस सत्तट्टिकरण छेएणं // 1128 // अउणत्तीस चंदो बिसट्टि भागा य हुंति बत्तीस। कम्मो तीसह दिवसो तीसा अद्धं च आइच्चो // 1129 // अभिर्वाड एकतीसा चउवीस भागसय च तिगहीणं / भावे मूलाइजुओ पगयं पुण कम्ममासेणं // 1130 // चूर्णियथा-पत्थ कालमासेणं अहिगारो / तत्थ वि उउमासेण स एव कम्ममासो भण्णइ / एस सो मासो जो सपरिक्खेवंसि अबाहिरियसि कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा मासं पत्थए / इति मासविचारः / Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये आहावसी पहावसी मम चावि निरिक्खसि / लक्खिओ ते मए भावो जवं पत्थेसि गद्दभा! / / 1157 // इउ गया इउ गया मग्गिजंती न दीसई / . .. अहमेयं विजाणामि अगडे छूढा अडोलिया / / 1158 / / सुकुमालग भद्दलया रति हिंडणसीलया / भयंते नस्थि मंमूला दीहपट्टाओ ते भयं // 1159 // सिक्खियवं मणुस्सेण अवि जारिस तारसं। पेच्छ मुद्धसिलोगेहिं जीविय परिरक्खिय / / 1160 // उजेणी जवराया, गद्दभिल्लो नुवराया, दीपिट्ठो अमच्चा, अडीलिया भगिणी / भमरेहिं महुयरीहिं य सूतिजइ अप्पणी य गंधेनं / पाउसकालकलंबो जति वि णिगूढो वर्णानगुजे // 1144 // कत्थ व न जलइ अग्गी कत्थ व चंदो न पागडी होइ / कत्थ वरलक्खणधरा न पागडा होति सप्पुरिसा / / 1245 / वासावासे अइक्कते अट्ठसु उउद्धिएसु मासेसु चारी भवइ / मासे मासेऽन्यत्र गम मत्यर्थः / इति मासः / देवकुल चेईयाई वंदित्ता घरचेइयाई वंदियवाई। तत्थ कहि वि जणेहि सद्धि आयारी वंदमओ जाइ / इयरे भिक्ख चेव हिंडंता वंदिहिति / तत्थ जइ फासुपणं आयरिओ निमंतिजा ता घेत्तव्वं / एमेव य सन्नीण वि जिणाण पडिमासु पढमपट्टवणे / मा परवाई विग्धं करेज वाई अओ विसइ / / 1792 / / चूर्णियथा-सावओ कोइ पढमं जिणपडिमाए पहट्ठवण करेइ / इति कल्पे प्रतिष्ठाविचारः। निस्सकडमनिस्सकडे वावि चेइए सव्वहिं थुई तिन्नि / वेलं व चेइयाणि य नाउँ एक्के क्किया वावि // 1804 / / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पस्य विचारा: निस्सकडे ठाइ गुरू कइवयसहिएयरा वए वसहि / जत्थ पुण अनिस्सकडं पूरिति तहिं समोसरणं // 1805 / / संविग्गेहि य कहणा इयरेहिं अपच्ची न ओवसमो / पवजाभिमुहा वि य तेसु वए सेहमाई वा // 1806 // प्ररित समोसरण अन्नासइ निस्सचेइएमुंपि। इहरा लोगविरुद्ध सद्धाभंगो य सड्ढाणं / / 1807 / / एसेव कमो नियमा सपरिक्खेवे सबाहिरीयंमि / नवर पुण नाणत्तं अतो मासो बहिं मासो // 2034 // बहिर्वसमानलोके क्षेत्रे मासद्वय क्रियते इति / कोटसहिते मासद्वयविचार: कल्पे // पुरओ य मग्गओ या थेरीओ मज्झ हुँति तरुणीओ। अइगमणे निगमणे एस विही होइ कायची / / 2089 // चूर्णिः- पुरओ थेरीओ, मग्गओ वि थेरीओ, मज्झ तरुणीओ, एवं बहुईणं / जहण्णेणं पुण तिषिण निग्गच्छति / एत्थ एगा थेरी पुरओ, एगा मग्गओ, तरुणी मज्झे / मसाइपेसिसरिसी. वसहिखेत्तं च दुल्लभ जोग / एपण कारणेणं दो दो मासा अवरिसासु // 2904 // वतिनीलामिति शेषः / कल्प: / . ओली निवेसणे वा वजि-तु अटंति जत्थ व पविट्ठा / न य वदण न नमण न य संभोसो न वि यदिट्ठी॥ 2216 // ओलीप्रभृतिषु गृहेषु यत्र साधघः प्रविष्टा: तेषु न संयत्यः अटन्ति इत्यर्थ: / 'सो रायावंतिवइ समणाण' // 3283 // इत्यादि कल्पभाष्येऽपि / इति कल्पनथमाद्देशकविचारा: / / द्वितीयस्य उवसगपडिसगसेज्जा आलयवसही निसीहिया ठाणे / एगट्ठवंजणाई ........... // 3295 // उपाश्रयस्येत्यर्थः / / 'सागारिउ त्ति को पुण काहे वा कइविहो व से पिंडो' 3519 // इत्यादि कल्पद्वितीयोद्देशकेऽपि अस्ति / जो तरुणो बलवंतो तस्स कप्पा आयपमाणा, जो पुण थेरो सो रखीणबलोन सक्केइ संकुंचिउ सुविउं ताहे तस्स आयपमाणाउ छ अंगुलाणि अब्भहियं कीरइ / Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पेहल्लेण वि अड्ढाइज्जे हत्थेहिंतो छ अंगुलाणि अन्भहियाणि कीरंति। इति कल्पविचारः // कप्पा आयपमाणा अड्ढाइजा उ वित्थडा हत्था / एयं मज्झिममाण उक्कोसं हुंति चत्तारि // 3969 // संथारुत्तरपट्टा अड्ढाइजा उ आयया हत्था / तेसिं विक्खंभो पुण हत्थं चउरंगुल चेव // 3980 // तिणि कसिणे जहण्णे पंच य दढ दुबलाई गेण्हेजा। सत्त य परिजुण्णाई एय उकोसग गहण // 3986 // वस्त्राणीति शेषः / अक्खा संथारो या दुविहो एगंगिएयरो चेव / पोत्थगपणगौं फलग बिइयपए होइ उक्कोसो // 4099 // इति सामान्येन उत्कृष्ट उपधिर्भणित: कल्पे / भाग्यस्य चूर्णी तुअक्खा संथारमो दुविहो एगंगिओ अणेगंगियो य / जौं वा अणिहिसित्ता कीयंतं जइ कीयं संत भणइ इमाणि मम होहिंति, इमाणि सेसाण साहूणं देमि त्ति दलमाणस्स कप्पइ / अह निद्दिटुंज साहूणं अणुवट्ठा बियगस्स दिति असइ सेहे अणिच्छमाणे वा परिट्टावेयन्वो। इति प्रवज्याग्रहीतुरुपकरणविचारः / / समणीण नाणत्त निजोगा तासि अप्पणो चउरो / चउरो पंच व सेसा आयरियाईण अढाए // 4234 // प्रवजितुकामाया वतिन्या उपकरणसङ्येयं ज्ञेया // पर्युषणादिविचारः - आषाढपुण्णिमाए वासावासासु होइ अतिगमण / मग्गसिरबहुलदसमीउ जाव एगंमि खेत्तमि // 4280 // 'मग्गसिरबहुलदसमीउ' इत्याद्यों यथा चूणौँ उक्तः - ताहे आसाढपुण्णिमाए अइगंतु पंचहि दिवसेहि पजोसवणाकप्प कहित्ता सावणबहुलपक्खस्स पंचमीए पजोसविती, पज्जोसवित्ता Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 बृहत्कल्पस्य विचारा: उक्कोसेण मग्गसिरबहुलदसमीउ जाव तत्थ अच्छियव्व, किं कारण एञ्चिरं कालं पसंति ? जइ चिक्खल्लो वास वा पडइ तेण इञ्चिर, इहरी कत्तियपुण्णिमाए चेव निगंतव्व // एत्थ उ पणगपणग कारणिगं जा सविसईमासो। सुद्धदसमीठियाण व आसाढीपुण्णिमोसरणं // 4284 // काऊण मासकप्प तत्थेव ठियाणऽतीते मग्गसिरे / सालंबणाण छम्मासिओ उ जेट्रोगगहो होइ // 4286 / / अह अस्थि पयविचारो चउ पाडिवयंमि होइ निग्गमण / अहवा वि अणिताणं आरोवण पुत्वनिहिट्ठा // 4287 // तथा 'सवीसहराए मासे पजोसवित्ता कत्तियपुण्णिमाए पडिक्कमित्ता बिइयदिवसे निग्गयाणं पंचसत्तरि' इत्यादि पर्युषणादिको विचारः // वर्षातिक्रमे उपधिग्रहण-विचारः - पुणमि निग्गयाण साहम्मियखेत्तवजिए गहण / संविग्गाण सकोस इयरे गहियंमि गेहति // 4288 // चूर्णियथा-जत्थ साहम्मिएहिं न कओ वासारत्तो तत्थ गेहंति वत्थाई। जत्थ पुण कओ वासारत्तो तत्थ सकोसे जोयण परिहरित्ता गेण्हति / 'इयरे'त्ति-पासस्थाईतेहि जत्थ को वासारत्तो तत्थ तेहिं गहिए गेण्हति / किं कारणम् ? उच्यते वासातु वि गेण्हंती नेव च नियमेण इयरे विहरती / तेहि उ सुद्धमसुद्धे गहिए गेण्हंति ज सेसं // 4289 // सक्खेत्ते परखेत्ते वा मासा परिहरि-तु गेण्हंति / जकारण न निग्गय तंपि बहिं झोसियौं जाण // 4290 // इति वर्षातिकमे उपधिग्रहणविचारः // मासकल्पानन्तरोपधिग्रहणविचार: - बिइयंमि समोसरणे मासा उक्कोसगा दुवे हुँति / ओमत्थग परिहाणिय पंच पंचेव य जहण्णे // 4297 // Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये चूर्णिस्तु-जत्थ मासकप्प करिति तत्थ उवहिं उप्पायंति, तओ निग्गएहि दो मासे परिहरित्ता गेण्हियवं आगंतवं वा / इति मासकल्पानन्तरोपधिग्रहणविचारः // प्रावरणविचारः - पाणदयानिमित्त मसगाइणं जयणा भवउ त्ति पाउणइ सीए वि पाउणइ / इति प्रावरणविचारः / / आयरियस्स आयरियं पाहुणयमागय अणब्भुट्टितस्स, आयरियस्स वसभं पाहुणयमागयं अणब्भुट्टितस्स एक / भिक्खु अणभुद्वितस्स खुड्यं भिन्नमासो // जहि नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छमि / सो उ अगच्छो गच्छों संजमकामीहि मोत्तवो॥ // असढेण समाइण्णं जं कत्थइ कारणे असावज / न निवारियमन्नेहि य बहुमणुमय मेयमाइण्ण // 4499 // थुइमंगलंमि गुरुणा उच्चारिए सेसगा थुई बेति / पम्हुट्ठमेरसारण विणओ य न फेडिओ एवं // 4501 // उप्पन्नकारणमि किइकम्म जो न कुज दुविहं पि / पासत्थाईयाणं उग्घाया तस्स चत्तारि // 4540 // अणवट्रिया तहि हुँति उग्गहा रायमाइणो चउरो। पासाणंमि व लेहा जा तित्थ ताव सक्कस्स // 4778 // देविंदराय-उग्गह गहवइ सागारिए य साहम्मी / पंचविहंमि परूविए नायव्वं जं जहिं कमइ // 4784 // अक्खेत्तं केरिसं? इत्याह भाष्यकार: - इंदक्खीलमणुग्गहो जत्थ य राया अहिं व पंच इमे / सेट्टि अमञ्च पुरोहिय सेणावइ सत्थवाहो य // 4853 // आयरिओ अप्पबिइओ [अप्पबिइओ] गणावच्छेइओ य अप्पतइओ गच्छो परिसा तिन्नि गच्छा, एते पण्णरस उउबद्ध जहण्णेणं जत्थ संतरंति / वासासु सत्तउ गच्छो आयरिओ अप्पतइओ गणावच्छेइओ अप्पचउत्थो एस सत्तउ गच्छो / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बृहत्कल्पस्य विचारा: अप्पतइओ गणावच्छेइओ अप्पचउत्थो एस सत्तउ गच्छो / उग्गमादि असुद्धं जइ आउट्टियाए गेण्हइ, अप्पणा भोक्खामि सेहस्स चा दाहामि :जेण दोसेण असुद्धं तमावजइ / एय:जत्थ अणाभागेण गहिय, तं जइ अजयणाए देइ तो इमे दोसा / इति सेहं प्रति विचारः। खमणे य असज्झाए राणिय महानिनाय निथए वा / सेसेसु मस्थि खमणं नेव असज्झाइय होइ // 5550 // दिवंगतेविति शेषः / दीहाइमाइसु उ विजबंधं कुवंति उल्लोय कर्ड च पोति। कप्पासईए खलु सेसगाणं मात्त जहन्नेण गुरुस्स कुजा // 5681 // उल्लाची बद्ध्यते इति शेषः / एते कल्पचतुर्थीद्देशकविचारा: / पञ्चमस्य यथा आवस्सिग्गा निसीहिय अकरिति असारणे तमावज्जे / परलोइयं च न कयं सहायगत्तं उवेहाए // 5695 // ज वा भुक्खत्तस्स उ संकममाणस्स देइ अस्साय / सव्वा सो आहारो अकामऽनिटुं चणाहारो // 6083 // जं वा तमि चविहे अईइ अन्नं लोणाई एस आहारो। पञ्चमोद्देशके / षष्ठे यथा सामाइए य छेए निविसमाणे तहेव निविटे / जिणकप्पे थेरेसु य छब्धिह कप्पट्टिइ होइ / / 6257 // सेसा वेढियपात्तं नइ उयराम नग्गय बेति / जुण्णेहिं नग्गिया मी तुर सालिय ! देहि मे पोत्तं // 6366 // जुण्णेहि खंडिएहि य असव्वतणुपाउएहिं न य निच्च / संतेहिं वि निग्गंथा अचेलगा हुंति चेलेसु // 6367 // सवाहिं संजईहिं किइकम्म संजयाण कायव्वं / पुरिसुत्तरिओ धम्मो सर्वाजणाणं पि तित्थेसु // 6299 // तओ पारंचिआ वुत्ता अणवट्टप्पा य तिणि उ / दसणमि य वंतमि चरितमि य केवले // 6410 // Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये अदुवा चियत्तकिच्चे जीवकाए समारभे / सेहे दसमे वुत्ते जस्सुवट्ठावणा भणिया // 6411 // अपवादपदे कृत्वा ततः पुनः करोतीत्यर्थः / केवलगहणा कसिणं जइ वमई दसण चरित्तं वा / तो तस्स उवटवणा देसे वंतमि भयणा उ // 6415 // अप्पच्छित्ते पच्छित्तं पच्छित्ते अइमत्तया / धम्मस्सासायणा तिव्वा मग्गस्स य विराहणा // 6422 // सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स / मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं // 6425 // गमणागमणवियारे सायं पाओ य पुरिमचरिमाणं / नियमेण पडिकमणं अइआरो होउ वा मा वा // 6426 // ठवणाकप्पो दुविहो अकप्पठवणा य सेहठवणा य / पढमो अकप्पिएणं आहाराई न गेण्हावे // 6442 // अकल्पिकेन आहारादिकं न ग्राहणीयम् इत्येकः / अटारसेव पुरिसे वीसं इत्थीओ दस नपुंसा य / दिक्खेइ जो न एए सेहठवणाए सो कप्पो // 6443 / / द्वितीयोऽयम् / खेत्तकप्पो जहा-सिंधुविसर पाउपहिं हिंडिजइ, वासावासे मासकप्पेण वा पाउएहिं हिंडिजा, अभाविओ सेहो सो पाउए हिंडइ आव भाविजइ, असहू सीयं नाहियासेइ उहं वा काले पच्चूसे पविसंतो भिक्खाइसु अट्टाए अद्धाण दंडपरिहारेण पाउया जइ सागारियपडिबद्ध वि या तेण पए पाउया निग्गच्छति / इति कल्पचूर्णी षष्ठोद्देशके / समाप्ता: कल्पविचारा इति / व्यवहारविचारा यथा जं जस्स व पच्छित्तं मायरियपरंपराए अविरुद्धं / जोगा य बहुविगप्पा एसो खलु जीयकप्पो उ // 12 // HELHI Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारस्य विचारा: चूर्णियथा-जहा अपञ्चक्खाणे अन्ने निविइय, अन्ने आयंबिलमिच्छति / जोगा य बहुविहा य त्ति / जहा नाइलकुलवियण आयाराओ आढवेत्ता जाव दसाओ ताव नत्थि आयंबिलं, निन्विगईएण पढंति, विहीए आयरियाणुण्णायकाउस्सगं काउं परिभुजंति विगई, तहा कप्पववहाराणं केसिंचि आगाढं जोग केसिंचि अणागाढं इत्यर्थः / पंचविहो ववहारो-आगमे, सुए, आणा, धारणा, जीए / पडिसेवणापच्छित्तस्स इमे भेया। आलोयणपडिक्कमणे मीसविवेगे तहा विउस्सग्गे / तव छेय मूल अणवट्टया य पारंचिए चेव // 53 // अ-यावान् कश्चिदतिचार: आलोचनया शुद्ध्यति स आलोचनारिह इत्युच्यते, परस्य प्रकटीकरणमित्यर्थः / गुत्तीसु य समिईसु य पडिरूवजोगे तहा पसत्थे य / वइक्कमेऽणाभोगे पायच्छित्तं पडिकमणं // 60 // . मीसपायच्छित्तं इत्थं कृतं नवेत्यादिकं / पक्खियाइसु चेइयवंदओ गंतु इरियावहियाए पडिक्कमित्ता विस्समइ अविस्समंतस्स गमणागमणं / गमणागमर्णावयारे सुत्ते वा सुमिणदसणे रामओ। नावानइसंतारे पायच्छित्तं विउस्सग्गो // 111 // चशब्देन एएसु चेव अट्टमीपमुहेसु इतिशेषः / चेइयाई साहुणो वा जे अन्नोए वसहीए ठिया ते न वंदइ मासलहु, जइ चेइयघरे ठिया वेयालियं काल पडिकंता अकए आवस्सए गोसे य कए आवस्सए चेइए न वंदति तो मासलहु इति / तपसः क्रमो यथा निव्वीए पुरिमड्ढे एक्कासणयंविले चउत्थे च / पणगं दस पण्णरसा वीसा तह पण्णवीसा य॥१६४॥ मासो लहुओ गुरुओ चउरो मासा हवंति लहुगुरुगा। छम्मासा लहुगुरुगा छेओ मूलं तह दुगं च // 165 // Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये संभोइयो आयरिया पक्खिए आलोयंति, उमो रायणिस्स आलोएइ, रायणिओ वि उमरायणियस्स आलोएइ, जइ सो रायणिओ नत्थि असइ चाउमासिए (तत्थवि ) असइ संवच्छरिए उक्कोसेणं बारसहिं वरिसेहिं दुराओ वि आगंतु आलोएयव / फूड्डावइया वि आगंतु पक्खियाइसु मूलायरियस्स आलोयति / -सच्छंदत्ति / सो भणइ-सन्नाभूमि पि ऐगाणियस्स गमणं पडिसेहति तं असहमाणो आगओ हं / विवरीय नाम पर रयहरणं निपच्छिमं पडिलेहेइ, अवरण्हे पढम रयहरणं पडिलेहेइ। पिंडस्स जा विसोही समितिओ भावणा तवो दुविहो / पउिमा अभिग्गहा वि य उत्तग्गुणमो बियाणाहि // 289 // बायाला अट्टेव य पणवीसा बार बारस य चेव / / दवाइच उरमिगह भेया खलु उत्तरगुणाण / / 290 // काइगाइभूमिपि न पडिलेहंति, सज्झायं वा न करिति, अपविए वा परियट्टति, आवस्सयं वा न करिति, पाउया वा करित, दंडगाईणं गहण-निक्खेवेसु न पडिलेहणपमजणाई दुप्पडिलेहियाई वा करिति, विप्राय वा अहा-वत्थु न करिति, राय निग्गच्छमाणं इत्थिं वा सुअलंकिय एजमाणिं पलोएंति, नहं वा आघसंति, नहवीणिय वा करिति, कंदप्पकोकुइयत्तणं करिति, एएसु वट्टमाणा पडिसेहेयव्वा / यथा-आउत्ता लेहगा सव्वं लिहंति अविस्सरणनिमित्त, एवं सो नायओ हियए सव्वे 'अवराहे लिहित्ता आयरियाणां कहेइ, आयरिआ, तं सोउं तं निप्फन्नं पच्छित्तं देइ / गर्भाष्टमविचार:- 'गिहत्थपरियाओ जहन्नेण पगुणतीसं वरिसाणि / कहं पुण? ग़ब्भट्टमो पवइओ' इत्यक्षरराणि गर्भाष्टमविषये / - अहाछंदस्वरूपं यथा- सच्चेव मुहपोत्तिया सच्चेव पडिलेहणिया भवइ, दोहि अइरेगो भवइ, जो चेव मत्तओ सो चेव पडिगाही होउ कि दोहि ? सो चेव चोलपट्टओ सो चेव उत्तरपट्टा हाउ इत्यादिकम् / खेत्तओ विमग्गेजा जाव उ छ सत्त जोयणसयाई। बारस समाउ कालओ उकोसेण विमग्गेजा / / आलोचनादाता निरीक्षणीयः इति शेषः / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारस्य विचारा: एवं पि विमग्गंतो जइ न लभिजा उ गीयसंविगं / पासत्थाइसु तो वियडे अणब्भुट्टिएसुं पि॥ // तस्सऽसइ सिद्धपुत्ते पच्छकडे चेव होइ. गीयत्थे / आवकहाए वि लिंगे गेहाविय अणिच्छरुत्तरियं // // तेसि पिय असईए ताहे आलोए देवयसगासे / किइकम्म निसेजविही तहेव सामाइयं नथि // // अरहंतडिमाणं आलोएइ सो पायच्छित्तं जाणओ आलोएत्ता सयमेव पायच्छित्तं पडिवजइ / असइ पाइन्नाइ अभिमुहो अरहंतसिद्धार्ण अंतिए आलोएइ / गीयत्यो य विहारो बीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिो / एत्तो तइयविहारी नाणुण्णाओ जिणवरेहिं // 20 // वायपरायण कुविझो चेइय-तद्दव्व-संजइग्गहणे / / पुबुत्ताण चउण्ड वि कजाण हवेज अण्णयरं // 252 / / 'तद्दव्व' इत्यनेन देवद्रव्यविचारः / व्यवहारद्वितीयोद्देशके / तृतीयोद्देशके यथा गणहारिस्साहारो उवगरणं संथवो य उक्कोसो / सकारो सीसपडिच्छएहिं गिहि-अण्णतित्थीहिं // 46 // गणभृतः आहारादि उत्कृष्टं देयं, ततश्च सत्कार: स्यात् शिष्यादिभिरित्यर्थः / हत्थे पाये कण्णे नासाउटेहिं वजियं जाणे / वामणगमडभकोढिय काणा तह पंगुला चेव // 94 // दिक्खिउ पि न कप्पंति जुंगिया कारणे वि दोसा वा / अण्णायदिक्खिए वा नाउ न करिति आयरिए // 95 // पच्छा वि डंति विगला आयरियत्तं न कप्पर तेसिं / सीसो ठावियवो काणगमहिसो व्व निन्नंमि // 96 // पुव्वं चउदसपुवी इण्हिं जहण्णो पकप्पधारी उ / मज्झिमग पकप्पधारी किं सो उ न होइ गीयत्यो ? // 173 // Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये प्रकल्पो-निशीथः तद्धारी जघन्यगीतार्थः / कल्पधरो मध्यम इत्यर्थः / पुव्वं सत्थपरिण्णा अहीयपढियाइ होउ उवट्टवणा / इण्हि छज्जीवणिया किं सा उ न होउ उवट्ठवणा?॥ 174 // आयारस्स उ उवरिं उत्तरज्झयणाउ आसि पुट्विं तु / दसवेयालिय उवरि इयाणि किं ते न हुंती उ ? // 176 // व्यवहारतृतीयोद्देशके / आचार्यादिपदविचार:- . तिवासपरियागस्स उवज्झायत्तं कप्पइ, तस्त अप्पपरियागस्स नत्थि खेयबहुओ जेण आयरियत्तं पि काहिइ पंचवासपरियागस्स उवज्झायत्तं आयरियत्तं पि कप्पड़, बहुतरवासररियागत्तेग खेयसहतराउ तेण तस्स दो ठाणाणि कप्पंति, छह वासाणं परेण वि य दुवासपरियाओ भवइ, तस्स सव्वाणि वि सट्टाणाणि कप्पति / उवज्झायत्तं आयरियत्तं गणितं पत्तित्तं थेरत्त गणावच्छेइयत्त (183) इत्याचार्यादिपदविचार:। राइत्थीए जाए ताए अगमहिसीए कुलकण्णगाए वा पयासु तिसु वि पारंचिओ, अमच्चीए अणवट्ठो, विहवाए अविसेसियाए पागइत्थीए य [अवसेसियाए] मूलं, तम्हा एयाओ परिहरियवाओ। (249-250) इति उत्थापनाविषयः / संघो गुणसंघाओ संघायविमोयओ य कम्माणं / / रागद्दोसविमुको होइ समो सव्वजीवाणं // 322 // परिणामियबुद्धीए उववेओ होइ समणसंघो उ / कज्जे निच्छियकारी सुपरिच्छियकारओ संघो // 323 // दुक्खेण लभइ बाहिं बुद्धो वि य न लभइ चरित्तं तु / उम्मग्गदेसणाए तित्थयरासायणाए य // 335 // चतुर्थोद्देशके यथाआओ य अजाओ वा दुविहो कप्पो उ होइ नायवो / एकेको वि य दुविहो समत्तकप्पो य असमत्तो // 15 // Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारस्य विचाराः गीयत्थो जायकप्पो अगीओ खलु भवे मजाओ उ / पणगं समत्तकप्पो तदृणगो होइ असमत्तो // 16 // महइ वियारभूमी विहारभूमी य सुलभवित्ती य / सुलभा वसही य जहिं जहण्णतं वासखेत्तं तु // 40 // चिक्खल्ल-पाण-थंडिल-यसही-गोरस जणाउलो वेज्जो / ओसह-निचयाऽहिवई पासंडा भिक्ख सज्झाए // 41 // एते त्रयोदश गुणा वर्षाक्षेत्रे / तरुणे वसहीपाले कप्पट्टिसलिंगमाइ आउभया / मा उ पसज्जति अकप्पिए दोसिमे अण्णे // 60 // अकल्पिके च साधौ दोषा:। अह न संथरंति ताहे आयरिओ हिंडइ तमि वाडए वसहिं पलोएंतो हिंडइ / परिमियं नाम इयरे साहू जावइयं उद्धडाउ ऊणं आणिति तावइयं अज्झापूरं हिंडित्ता आयरिओ खिप्पं संनियट्टइ / वासावासे वीसुंति पिहप्पिहं ठिया असमत्तकप्पिया य ते 'अमणुन्नत्ति / न परोप्पर उवसंपन्ना नत्थि तेसिं उग्गहो समं जइ दोण्णिसमत्तकप्पिया एन्ज तेसिं साहारणं खेत्तं / एगो एगस्त पासे आवस्सयं अहिजइ, आवस्सगवायणायरिओ पुण आवस्सगपडिपुच्छगस्त सगासे दसवेयालियं अहिजइ, दसवेयालियवायणायरिओ हरइ / एवं जाव दिट्ठिवाओ। एवं सुत्ते अत्थे वि एवं चेव, नवरं उवरिम अत्थायरियाणं छेयसुयअत्थायरिओ हरइ / इति वर्षाक्षेत्रे आभाव्यव्यवहारः / गाथाश्च भाष्यस्य यथा वासासु अमणुण्णा असभत्ता जे ठिया भवे वीसु। तेसिं न होइ खेनं म्ह पुण समणुण्णा य करिति // 91 // ता तेसि होइ खेतं / उ पहू तेसि जो उ रायणिओ। लाभो पुण जो तत्था सा सम्वेसिं तु सामण्णो // 92 // अहव जइ वीसु वीसुठियाओ असमत्तकप्पिया होजा। अण्णो समत्तकप्पी एज्जाही तस्स तं खेत्तं // 93 // Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये अहवा दोण्णि व तिण्णि व समग पत्ता समत्तकप्पीओ। सव्वेसिं तु तेसिं तं खेत्तं होइ साहारणं // 94 // पडिभग्गेसु मएस व असिवाइकारणेसु फिडिया वा / एएण उ एगागी असमत्ता वा भवे थे। / / 71 / / इंदकीलमणोग्गाहो जत्थ व राया अहिं व पंच इमे / अमच्च पुरोहिय सेट्टी सेणावइ सत्थवाहो य // 78 // यत्रेन्द्रकीलः तत्रानवग्रह इत्यर्थः / सारूवी जा जीवं पुवायरियस्स जे य पवावे / अपव्वाविए स छंदो इच्छाए जस्स सो देइ // 140 / / जो पुण गिहत्थमुंडा अहवा मुंडे। उ तिण्ह वरिसाणं / आरेणं पवावे सयं च पुवायरिये सव्वं // 141 // अपग्वाविए सछंदा तिण्हं उवरिं तु जाणि पवावे / अपवावियाणि जाणि य सो वि य जस्सिच्छए तस्स // 142 // तओ वत्तव एयस्स गणहरत्त अणुण्णाय, वायाए न सके। वोत्तुं ताहे तस्स उवरि चुन्नानि च्छुभंति एस गणहरो ठविओ त्ति / एग व दो व दिवसे संघाडट्टाए सो पडिच्छेज्जा / असई एगाणी उ जयणा उवही न उवहम्मे / / 193 / / सइघाटकार्थ एग द्वे वा दिने प्रतीक्षेत, असति यतनया एकाकिनोऽपि नोपहन्यते इति तात्पर्यार्थः / ताओ. संजईओ दुविहाओ-कालचारिणीओ अकालचारिणीओ य। तत्थं कालचारिणीओ जाओं पक्खियासु पंति, एयवइरित्तेसु एजमाणीओ अकालचारिणीआ, ताओ पुण अकालचारिणीओ सज्झायट्टाए वा पंति, भत्तं पाणं वा दाउं गेण्हिउ वा इंति, कंदप्पट्टाए वा इंति, अकालचारिणीसु बहुदोसा वसही / Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. व्यवहारस्य विचारा: संमिसेजागयं दिस्स सिस्सेहिं परिवारियं / कोमुईजोगजुत्तं वा तारापरिषुड ससि // 273 // गिहत्थपरतित्थीहिं संसयत्थीहि निच्चसो / सेविजंतं विहंगेहि सर व कमलुज्जल // 274 // खग्गूडे अणुसासंत सद्धावंत समुज्जए / गणस्स अगिला कुब्वंतं संगह विसए सए // 275 // आचार्यमिति शेषः / अहवा गुरुणो आवजीव फासुअ-अफासुपण तेइच्छं / वसभे बारस वासा अट्ठारस भिक्खुणो मासा // 303 // चिकित्सा इयम् / फासुय आहारी से अहिंडतो उ गाहए सिक्ख / ताहे उ उवट्टावण “छजीवणियं तु पत्तस्स // 310 // . षड्जीवनिकाध्ययन ज्ञेयम् / अपत्ते अकहित्ता अर्णाहगय अपरिच्छ अइक्कमे वा से / पकेके चउगुरुगा चोयगसुत्तं तु कारणियं // 311 // इइ खलु आणाबलिया आणासारो य गच्छवासो उ / मोत्तु आणापाणु सा कन्जा सबहिं जोगे // 347 // गिम्हाइसु जे अणागाढजोगपडिवना तेसिं जोगो निक्खिप्पइ मा पमत्तं देवया छलेज तेण निक्खिप्पइ, तेहिं दिवसेहिं विगइओ लभंति, ते आहारित्ता दुब्बला अप्पाजंति पएण कारणेणं निक्खिप्पड जोगो / इतरे नाम आगाढजोगवाही तेसि न निक्खिप्पड़ जोगो न पुण उद्दिसई न वा पढंति / 410 / ओसन्नाण बहूण वि गीयमगियाण उग्गहो नत्थि / / सच्छंदीय गीयाण असमत्त अणीसगीए चि // 490 // . तिविहो उग्गहकालो-उउबद्ध वासारत्ते वुड्ढवासे, उउबद्धे एक पास उस्सग्गेण वासासु चत्तारि मासा गेलन्नं पडुश्च सोलस वरिसा मासा वा। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये खेत्तेण अद्धजोयण कालेणं जाव भिक्खवेलाओ / खेत्तेण य कालेण य जाणतु सपरकम थेर // 537 / / . जो गाउय समत्थो सूरादारभ भिक्खवेलाओ / विहरउ एसो सपरक्कमो उ नो विहरे तेण परं॥ 538 // भागे भागे मास काले वी आव एकहिं सव्वं / पुरिसेसु वि सत्तण्ह असईए आव पकाउ [सहाओ]॥५५८ // थिरमउयस्स उ असई अप्पडहारियम्स चेव वच्चंति / बत्तीस जोयणाणि वि आरेण अलब्भमाणनि // 557 // * काष्ठसंस्थारके इतिशेषः / आसज खेत्तकाले बहुपाउग्गा न संति खेत्ता वा / निच्च व विभत्ताणं सच्छंदाइ बहूदोसा // 570 // चूर्णिर्यथा- आसज त्ति पडुच्च अण्णेसु * खेत्तेसु असिवाईणि कालो जहा-संपयं नत्थि अण्णाणि खेत्ताण जेसु संथरंति, महायणपाओग्गाणि वा नत्थि खेत्ताणि पिहप्पिहं च जाटुंत सच्छदाई दोसा भवंति / एएहिं कारणेहि उउ-वासाइयंमि एगखेत्ते जयणाए अच्छेज, इति व्यवहाराक्षरैः केचिन्नित्यवास समर्थयन्ति / वल्पचतुद्देिशकस्यैते / पञ्चमे यथा अवि य विणा सुत्तेणं ववहारे ऊ अपच्चओ होइ / तेणं उभयधरो उ गणहारी सो अणुण्णाओ // 31 // ता जाव अजरक्खिय आगमववहारिणो वियाणित्ता / न भविस्सइ दोसु त्ति तो वायंती उ छेयसुयं // 62 // आर्यिकाः छेदश्रुत पाठयन्तीत्यर्थः / षष्ठोद्देशके यथाचरणकरणस्स सारो भिक्खायरिया तहेव सज्झाओ / एस्थउ उजयमाणं तं जाणसु तिव्वसंविगं // 39 // आयरिय-उवज्झायगणंसि पंच अइसेसा पण्णत्ता, तं आयरियउवज्झायस्स उच्चारपासवणं अंतो उवस्सयस्स य निग्गिज्झिय निग्गझिय पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा नाइकमइ, आयरिय Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - व्यवहारस्य विचारा: उवज्झाए अंतो ‘उवस्सयस्स उच्चार पासवणं वा विगिंचमाणे वा विसोहमाणे वा नाइक्कमइ, आचार्यश्वासावुपाध्यायश्च आयरियउवज्झाए पसो केसिंचि आरिओ केसिंचि उवज्झाओ नियमेण पुण सो आयरिओ कुलाइकज्जेणं निग्गओ पडियागओ उस्सग्गेण ताव वसहीए पाहि चेव पाए पप्फोडेइ, निकारणे पाए बाहिं न पप्फोडेइ, पंच राईदियाणि / जइ बाहिं सागारिय होज तो वसहिं पविसित्ता पप्फोडणा, तत्थ विहीए पप्फोडेयध्वं पडिलाभित्ता पमजित्ता / सो अभिन्गहिओ आयरियसंतिएण रयहरणेण आयरियस्स पाया पमजइ / ऊ हव उन्निको पायपुंछणो तेण वा / सुषवंतमि परियारवं च वणियंतरावणुट्टाणे / दुट्टानग्गमंमी य हाणि य परमुहावन्नो // 97 // इत्याचार्येण बहिभूमौ न गन्तव्यम् / उप्पण्णनाणा जह नो अडंती चोत्तीसबुद्धाइसया जिणिंदा / एवं गणी अट्टगुणोववेओ सत्या व नो हिंडइ इढिमं तु // 125 // इत्याचार्येण न भिक्षणीयम् / / सुत्तस्स मंडलीए नियमा उटुंति आयरियमाई / मात्तूण पवायंतं न उ अत्थे दिकवण गुरुपि // 198 // ' अनुयोग इति शेषः / भत्ते पाणे धोवण पसंसणा हत्थपायसोए य / आयरिए अइसेसा अणाइसेसा अणायरिए // 229 // कालसभावाणुमयं भत्तं पाणं अचित्तं खेत्ते / मलिणा मलि य जाया चोलाइ तस्स धोवंति // 230 // परवाईण अगम्मो नेव अवणं करति सुयसेहा। जइ अकहिउ वि नजइ एस गणी ओजपरिहीणो // 231 // एए पुण अइसेसे उवजीवेयावि कोवि दढदेहो। निरिसणंपत्थभवे अजसमुद्दा य मंगू य / / 239 // Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये करचरणनयणदसणाइ-धोवणं पंचमो उ अइसेसो। आयरियस्स उ सययं कायवो होइ नियमेण // 236 // अइवि य निग्गयभावो तहवि य रक्खिजए स अण्णेहिं / वंसकडिल्ले छिन्नो वि वेणुओ पावए न. महिं // 249 // विजाण परिवाडी पव्वे पव्वे य दिति आयरिया / मासद्धमासियाण पव्वं पुण होइ मज्झं तु // 251 // पक्खस्स अट्टमी खलु मासस्स य पक्खियं मुणेयव / अण्णं पि होइ पव्व उवरागो चंदसूराण // 252 // चूणिर्यथा- 'पक्ख पव्वस्स मज्झं अमि, बहुलाइया मास त्ति काउ मासस्स मज्झे पक्खियं किण्हपक्खस्स चउहसीए विजासाहणोवयारो' इति पाक्षिकविचारः / अइ उग्घाडपोरिसीए इंतवव्वंताण . पोरिसीभंगो भवइ तो आयरिएण चेच अकयसुयाण सगासं गंतव्वं, अह भायरिओ बुड्ढत्तणेणं गेलण्णेण वा न सकेइ गंतुं ताहे अकडसुत्ता मज्झे आयरियसगासमागंतुं आलोइंति' इति अन्यत्र उषितानां प्रभातादौ आलोयणकस्य विचारः। / जहा य अंबुनाहमि अणुबंधपरंपरा / वीई उप्पजए एवं परिणामो सुभासुभो // 316 // षष्ठस्यैते समाप्ताः / सप्तमे तु यथा धम्मकहनिमित्तेहि य विजामंतेहिं चुण्णजोगेहिं / इन्भाइ जोसियाण संथवदाणे जिणाययण // 3 // . संबोहणट्टयाए विहारवत्ती व जिणवरमहे वा। महयरिया तत्थ गया निजरणं भत्तवत्थाणं // 4 // Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 व्यवहारस्य विचारा: अणुसट्टउज्जमंती य विवज्जते चेइयाण सारवए / पडिवज्जति अविज्जंतए उ गुरुया अभत्तीए // 5 // चूर्णियथा--- कस्तइ आयरियस्स सिस्सिणी सा सुत्तत्थाणि घेत्तु धम्मकहाओ य पढित्ता निमित्ताणि य घेत्त आइग्गहणेण घिजाओ मंताणि चुण्णजोगा य जाणित्ता निग्गया गच्छाओ ताहे सा इन्भइणं इत्थियाओ आउट्टावेत्ता संथवेण जिणाययण कारिता विउलं सकारसमुदयं अणुभवइ / अहण्णया सा महत्तरिया से तीसे संबोहणट्टाए वा विहारपत्तियं वा चेइयमहे वा तत्थ गया। तओ सा सिस्सिणी तीसे परितुहा मथहरियाए विरूवरूव असणाइ वत्थाणि य महारिहाणि. निजरावेइ इभाइघरेलु / अणुसट्टगाहा / ताहे सा महत्तरियाए अणुसट्रा / किं अउजे! पासत्थत्तणेणं अच्छसि ? उज्जमाहि अहवा अप्पणा चेव उजमिउकामा एवं तीर उवट्टियाए जइ चेइयाण अण्णो सुस्सूसओ अस्थि तो पडिकमाविजइ तस्स ठाणस्स। अह अण्णो नवि चेइंयाणं सुस्सूसओ तो जई ताओ पडिकामित्ता थिति तो चउगुरुय तासिं चेइयाण अभत्तिनिमित्तं / इति प्रतिष्ठाविचारः लिंगिकारितादिजिनचैत्यवंदनादिविचारश्चेति / अह नवरौं पक्खियाइसु अजाओ चेइयवंदियाओ पट्टियाओ इति / तिणि दिणे पाहुण्णं सव्वेसि असइ बालवुड्ढाणं / जे तरुणा सग्गामे वत्थव्वा बाहि हिंडंति // 86 // अटुमि पक्खिए मोत्तु बायणाकालमेव य / पुव्युत्ते कारणे वावि गमणं होइ अकारणे // 229 // व्यवहारे सप्तमस्य समर्थिताः / अष्टमे तु यथाउच्चार पासवण, अणुपंथे चेव आयरतस्स। लडओ य होइ मासो, चाउम्मासो य वित्थारो॥ (व्यव० भा० 177) नवमे यथा चेहयदव्व विभया करेज कोई नरो सयट्टाए / समण वा सोवहियं, विकेजा संजयटाए // 62 // चूणिर्यथा-. 'चेश्यदव्वं हत्वा चोरा विभएज / तत्थ कोइ अप्पणग' भाग Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये समणोण देज जो वा संजय सोवहिय विकिणित्ता तं फासुगं समणाण देज तं किं कप्पइ न कप्पर वा? उच्यते इत्याह यथा चेइयव्व विभया करेज कोई नरो सयट्ठाए। .. समण वा सोवहिय, विकेजा संजयटाए // एयारिसंमि दवे समणाण किण्णु कप्पा घेत्तु? / चेइयत्वेण कयं भोलेग बज्ज मुविहियाण // तेणपडिच्छा लोए वि गहिया उत्तरे किमंग पुण। चेइय जइ पडिणीए जो गेण्हइ सावि हु तहेब // (63, 64) जा तित्थयराण कया वंदण आयरिसणाइ पाहुडिया / भत्तीए सुरवरेहिं समणाण तहिं कहं भणिय ? // (66 चूर्णियथा'उच्यते (भगवतः) प्रवचन तीतत्वात् कल्पते / किं चान्यत् जइ समणाण न कप, वयं एगाणिना जिणवरिदा। गणहरमाई समणा मपए व चिट्ठति // 67 // तम्हा कप्पइ ठ जह सिद्ध अयणमि होइ अविरुद्धं / जम्हा उ म साहमी सत्था अम्ह तओ कप्पे // 68 // चूय॑क्षराणि यथा जत्थ निस्सा नस्थि तत्थ कप्पइ सिद्धायथणे ठाइउ, किं कारण ? उच्यते साहम्मियाण अट्री चउधिहो लिंगी जह कुटंबी / मंगलसासयभत्तीए जकय तत्थ आएसो॥ 69 / / पूर्वोक्ता कल्पे। ऐसा जत्थ निस्सा नस्थि तत्थ वि चेयघरे न कल्पते ठाउं, इमेण कारणेण जइवि न आहाकम्म भत्तिकयौं तह वि वजयंतेहिं / भत्ती खलु होइ कया जिणाण लोगे वि दिटुं तु // बांधत्ता कासवओ वयण आपुडसुद्धपोत्तीए / पत्थिवमुवासए खल वित्तिनिमित्त भया चेव // (70, 71) चूर्णिस्तु एवं-रायत्थाणीयस्स तित्थगरपडिमाभत्तिनिमित्त / मा वाउनिसग्गो उस्सासनिस्सास निया (निग्गमा),विस्संति तेण न Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारस्य विचारा: कप्पइ चेइयघरे ठाउं। अत्र कारणं दुन्भिगंधपरिस्सावी तणुरप्पेसऽण्हाणिया / दुहा वाउवहो वेव तेण ट्रति न चेइए // तिणि वा कढ्ढए जाव थुइओ तिसिलोइया / ताव तत्थ अणुण्णायं कारणमि परण वि ( 72, 73) इति व्यवहारे देवद्रव्यस्य तीर्थशरनिमित्त कृते समवसरणे साधूनां कल्पते इत्यस्य च जिनगृहनिवासनिषेधस्य स्तुतित्रयस्य च विचारः नवमोद्देशके। (वर्षाप्रवेशादिविचार) चउग्गुणोववेयं तु खेत्त होइ जहण्णय / तेरसगुणमुक्कोसं दोण्ह मज्झमि मज्झिमग // 67 // महई विहारभूमी विधारभूमी य सुलभवित्ती य / सुलभा वसही य जहि जहण्णगं वासखेत्तं तु // 68 // चिखल्ल 1 पाण 2 थंडिल 3 वतही 4 गोरस 5 जणाउले 6 वेज्जे 7 / ओसह 8 निचया९हिवई 10 पासंडा 11 भिक्ख 12 सज्झाए // 69 // खेत्ताण अणुण्णवणा जेट्टा मूलस्स सुद्धपांडवए / अहिगरणो माणो मा मणसंतावा न होहिति // 71 // जयणाए समणाण अणुण्णवित्ता वसंति खेत्तबहिं / वासावासट्टोण आसाढे सुद्धदसमीए // 93 // संविग्गबहुलकाले एसा मेरा, पुराउ आसी य / इयरबहुले उ संपइ पविसंति अणागयचेव // 98 // // व्यवहारे दशमोद्देशके वर्षाप्रवेशादिविचारः // अष्टविधा गणिसंपद् अट्टविहा गणिसंपय एकेका चउविहा उ बोद्धव्वा / एसा खलु बत्तीसा ते पुण ठाणा इमे हुंति // 252 // यार 1 सुय 2 सरीरे 3 वयणे 4 वायण 5 मई 6 पओगमई 7 / एएसु संपया खलु अटुमिगा 8 संगहपरिण्णा // 253 // आयारसंपयाए संजमधुवजोगजुत्तया पढमा 1 / / बिइय असंपग्गहिया 2 अनिययवित्ती भवे तइया 3 // 255 // Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये तत्तो य वुड्ढसीले आयारे संपया चउद्धेसा 4 / / चरणं तु संजमो ऊ तस्यिं निच्च तु उवओगो // 2566 बहुसुय 1 परिजियसुत्ते 2 विवित्तसुत्ते य हाई बोद्धव्वे / घोसविसुद्धिकरे या 4 चउहा सुयसंपया होइ // 259 / / घोसा उदात्तमाई तेहिं विसुद्ध तु घोसपरितुद्ध। एसा सुओवसंपय सरीरसंपयमओ वोच्छ // 262 // आरोह-परीणाही 1 तह य अणुत्तप्पया सरीरमि 2 / पडिपुण्णमिदिएहि य 3 थिरसंघयणो य बोद्धव्वो 4 // 263 // तपु लजाए धाऊ अलजणीमो अहीणसवंगो / होइ अणुत्तप्पेसो अविगलइंदी उ पडिपुण्णो // 265 // वचनसंपत् यथा आदेज 1 महुरवयणे 2 अनिसियवयण) 3 तहा असंदिछ / आदेज गज्झवको अत्थवगाढ भवे महुर॥ 267 // वायणभेया चउरो विजिओदिसणा 1 सं दिसणओ अ 2 / परिनिव्वयनिवायाए 3 निजवणा चेव अत्थस्स // 270 // 'विजिय'त्ति परीक्ष्येत्यर्थः।। निजवओ अत्थस्स जो उ वियाणाइ अस्थत्तस्त / अत्थेण वि निव्वहई अत्थं पि कहेइ ज भणियं // 275 / / मइसंपय चउभेया उग्गह 1 ईहा 2 अवाय 3 धारणया 4 / उग्गहमइ छब्भेया तत्थ इमा होइ नायव्वा // 276 // खिप्प 1 बहु 2 बहुविह' च 3 धुव 4 अणिस्सिय 5 तह य होइ असंदिद्ध 6 / ओगिण्हइ एवीहा अवायमविधारणा चेव // 277 / / एत्तो उ पओगमई चउविहा होइ आणुपुन्वीए / आय १पुरिसं च 2 खेत्तं 3 वत्थु वि य पउंजए वायं // 283 // बहुजणजोगं खेत्तं 1 पेहे तह फलगपीढमाइण्णं 2 / पासासु एए 3 दोण्णि वि काले य समाणए कालं 4 // // इति द्वात्रिंशत् स्थानानि / ततश्च आ भणिया बत्तीसा तं छोढूण विणयपडिवति / चउभेयं तो होइ छत्तीसा एस ठाणाणं // 301 / / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारस्य विचारा: 73 विनयश्चतुर्दा यथा मायारे 1 सुतविणए 2 विक्खेवण चेव होइ बोधव्वे 3 / दोसस्स य निग्घाए 4 विणए चउहेस पडिवत्ती॥३०३॥ आयारे विणओ खलु चउविहो होइ आणुपुब्बीए / संजमसामायारी 1 तवे य र गणविहरणा 3 चेव // 304 // सुत्त / अत्थ 2 च तहा हिय निस्सेस 4 तहा पवाएछ / एसो चउन्विहो खलु सुयविणओ होइ नायवो // 312 // विक्खेवणा-विणओ जहा अदिटुं दिटुं खलु 1 दिटुं साहम्मियत्तविणएण 2 / चुयधम्म धम्मे ठावे 3 तस्सेव हियट्टमभुट्टे 4 // 315 // दोषनिर्घातविनयो यथाकुद्धस्स कोहविणयण 1 दुट्ठस्स दोसविणयणं जं तु 2 / कंखिए कंखछेओ३ आयप्पणिहाण चउहेसो 4 // 323 // ____ इति अट्टविहा गणिसंपया // ___ इति व्याख्यात व्यवहारे दशमोद्देशके // (तपोविचारः) पक्खियपोसहिएसु कारेइ तवं सयं कारविय / भिक्खायरिए तहा नियुंजइ पर सयं वावि // 1 // अर्थस्तु पाक्षिक पाक्षिकमेव, पोसहिय तु पोसहदिणं अट्टमीचउहसीलक्खणं / इत्यक्षराणि पाक्षिकविषये। दशविध पायश्चित्तं यथा आलोयण 1 पडिकमणे 2 मीस.३ विवेगे 4 तहा विउस्सग्गे 5 / तव 6 छेय 7 मूल 8 अणवट्ठया य 9 पारंचिए 10 चेव // 352 // Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये दस जा अणुसज्जति चउद्दसपुबिए पढमसंघयणं / तेण परेणऽट्टविहीं जा तित्थ ताव होहिती ( बोधव्वं ) // 353 // एगाहं नाम अभत्तट्ठो तम्मि सेविए पंचराइंदियाणि देज बहुतर' वा / पंचाई वा सेवित्ता एगाह देज आयंबिलं वा पुरिमइदं वा एगासणं वा निम्वियं वा पोरिसि वा नमोकार वा, सा पुण बुड्ढी वा हाणी वा रागदोसवेरगभावणाईहिं पुवभणिएहि भवति / // इति तपोविचारः // न विणा तित्थ नियंढेहिं नियंट्ठा व अतित्थया। छक्कायसंजमो जाव ताव अणुसजणा दोण्ह // 389 // तस्स य चरिमाहारो इट्ठो दायवो तण्हछेयट्ठा / सव्वस्स चरिमकाले अईव तण्हा समुप्पज्जे // 496 // सरीरमुज्झियं जेण को संगी तस्स भोयणे ? / समाहिसंधणाहे दिजए सो उ अंतए // 544 // कप्पस्सय निज्जुत्ति ववहारस्स य परमनिउणस्स / जो अत्थओ विजाणइ ववहारी सो अणुण्णाओ॥ 607 // कुलाइकजववहारे जोए ज भगवया भद्दबाहुणा सुत्तं निज्जूढं कप्पववहारा तं सुत्तं उच्चारित्ता तस्स अत्थ भाणिऊणं निहिसइ / वत्तणुवत्तपवत्तो बहुसो अणुवत्तिओ महाणेण / एसो उ जीयकप्पो पंचमओ होइ नायवो // 693 // वत्तो नाम एक्कसि अणुवत्तो जो पुणो बितियवार / तइयवार पवत्तो परिग्गहिओ महाणेणं // 694 / / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . व्यवहारस्य विचारा: 75 चूणिस्तु वत्तं नाम एकसिं तेण ववहरिय, अणुवत्तो दुण्णि वाराओ. तेण ववहारेण ववहरियं, पवत्तो त्ति तिणि वारा तेण ववहारेण ववहरिय। 'बहुसो बहुस्सुएहिं जो वत्तो न य निवारिओ होइ / वत्तणुवत्तपमाणं जीएण कय हवइ एयं॥ जं जीय सावज न तेण जीएण होइ ववहारो। जं जीयमसावज तेण उ जीएण ववहारो॥ 715 // जं जीयमसोहिकर' पासत्थपमत्तसंजयाईणं / जइ वि महाजणाइण्ण म तेण जीएण ववहारो // 720 // जं जीय सोहिकर संविग्गपरायणेण दंतेणं / एगेण वि आइण्णं तेण * उ जीपण ववहारो॥ 721 // // इति जीतविचारः॥ मणपरमोहिपुलाए 3 आहारग 4 खवग. 5 उवसमे 6 कप्पे 7 / संजमतिय 8 केवलि 9 सिझणा य 10 जंबुम्मि वुच्छिण्णा // 699 // 'खवग'त्ति / उवसामगसेढिदुगं, 'कम्पत्ति। जिणकप्पो, 'संजमतियं' ति / सुद्धपरिहारियसंजमो सुहुमसंपरायसंजमो अहक्खायसंजमो / संघयण संठाणं च पढमगच 2 जो य पुव्वउवओगी 3 / एए तिणि वि अत्था चउदसपुस्विम्मि वोच्छिण्णा // 700 / / संघयणसंठाणाणि पढमाणि पुव्वउवओगो। एए तिण्ण वि (अत्था) भहबाहुम्मि वोच्छिण्णा // // Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये व्यवहारसूत्रं (10) यथा नो कप्पइ निगंथाण वा निगंथीण वा ऊणट्टवासजाय खुडुय वा खुड्डियं वा उवट्ठावित्तए / भाष्यं तु ऊणट्टए चरित्तन चिट्टए चालणीए उदयव / बालस्स य जे दोसा भणिया आरोवणाए सा // 9 // // उद्देशके दशमे // // इति व्यवहारविचाराः समाप्ता: // पञ्चकल्पविचारा यथा-. भद्रबाहुना दशाकल्पव्यवहारनिशीथमहाकल्पसूत्राद्या: प्रवचनाभिहिता निर्जूढा: / जम्हा तेण भगवयो आयारपकप्पो दसाकप्पववहारा य नवमपुव्वनीसंदभूया निर्जूढाः / सामाइय छेओवट्ठावणं च परिहारसुद्धिय चेव / तत्तो य सहमरागं अहखायं चेव बोधव्वं // 79 // कस्सेय चारित्त नियंठ तह संजयाण ते कइहा ? / / पंच नियंठा पंचेव संजया हुँतिमे कमसो // 83 // पुलए बउस कुसीले होइ नियंठे तहा सिणाए य / एएसिं एकेको पंचविहो होइ बोधवो। // 84 // नोणपुलाए तह दसणे य चारित्तलिंग अहसुहुमे / / एसो पंचविहो खलु पुलगनियंठो मुणेयवा / / 85 / / आभोगमणाभोगे तह संवुडमसंयुडे अहासुहुमे / एसा पंचविहो ऊ बउसनियंठे। मुणेयव्वा // 86 // दुविहो होइ कुसीलो पडिसेवणया तहा कसाए य / एकेको पंचविही परूवणा तस्सिमा हाइ // 87 // नाणपडिसेवणाए दसणचरणे य लिंग अहसुहुमे / पडिसेवणाकुसीला पंचविही एस नायव्वा / / 88 // Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 पञ्चकल्पस्य विचारा: नाणकसायकुसीले दंसणचरणे य लिंग अहसुहुमे / एस कसायकुसीले पंचविहो ऊ मुणेयन्वो // 89 // पढमगसमयनियंठे 1 अपढम 2 चरिमे य 3 अचरिमए चेव४। तत्तो अहासुहुमे पंचमए होइ नायवो // 90 // पंचविहसिणाए ऊ अच्छवि तह असवले अकम्मंसे / संसुद्धनाणदंसणधरे य होई चउत्थे उ // 91 // अरहा जिणे उ केवलि अपरिस्साई य होइ पंचमए / एए पंच विगप्पा सिणायस्स तो हुँति नायव्वा // 9 // पंचविह संजया वी सामाइयछेउवट्ठपरिहारे / सुहुमे य अहक्खाए एकेके ते पुणो दुविहा // 93 // इत्तरिए आवकही सामाइयसंजए भवे दुविहे / दुविहे य छेउवढे सइयारे निरइयारे य // 94 // परिहारविलुद्धीए निविसमाणे तहेव निबिडे / दुविहे य सुहुमरागे संकिस्संते विसुझंते // 95 // अहखाओ वि य दुविहो छउमत्थो चेव केवली चेव / एसो उ संजओ खलु पंचविहो हाइ नायव्बो // 96 // सामाइयम्मि उ कप चाउजाम अणुत्तर धम्म / तिविहेण वि फासिंतो सामाइयसंजओ स खलु // 97 // छेत्तण उ परियागं पोराणं तो ठवेइ अप्पाणं / धम्मम्मि पंचजामे छेओवट्टावणो स खलु // 98 // परि हरइ जो विसुद्ध पंचजाम अणुत्तरं धम्म / तिविहेण फासयंतो परिहारियसंजओ स खलु // 99 // लोभमणुं वेयंतो जो खलु उवसामओ व खमओ वा / सो सुहमसंपरोओ अहक्खाया ऊणओ किंचि // 10 // Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये उपसंते खीणमि व जो खलु कम्ममि मोहणिज्जमि / छउमत्थो व जिणो वा अहखाओ संजओस खलु॥१०१॥ इति पुलाकादिविचारगाथाः // . .. आहारे उवहिमि य उवस्सए तह य पस्सवणए य / सेजानिसेजठाणे दंडे चम्मे चिलिमिणी य // 723 // अवलेहणिया कण्णाण सोहणे दंतधोवणे चेव / पिप्पलगसूइनखाण छेयणे चेव सोलसमे // 724 // इति षोडशक उपधिः॥ पुत्तं जणेज कोई आयरिओ मज्झ अपरिवारो ति।। तेसि सहाओ होहिइ पवावेउ तु सो कप्पे // 782 // एमेव य पच्छाया पुरिसं खेत्तं च कालमासज्ज / तिण्णादी जा सत्त तु परिजुण्णा पाउणेजाहि // 880 // नरिमो असह कालो सिसिरो खेत्तं व उत्तरपहाई / गिम्हे वि पाउणिजातारिसयं / देसमासज्ज // 801 // . इति प्रावरणविचारः पञ्चकल्पे / कप्पा दुब्बलसंघयण णं सीयपरीमहवारनिमित्तं / हिरिपच्छायणनिमित्तं वत्थगहणं अणुप्णायं // // अजाणं पुण पंच वसहीओ घेत्तवाओ। कम्हा? जम्हा तासिं दुमासो कप्पो, नवगगहणं तु सेताणं संजयाण वुइढावासे अइकंते उउवद्धे मासे अइए वासावासे चउम्मासे अइए ओग्गहो तिविहो न भवइ / निक्कारणियाण सचित्ताचित्तमीसओ / अह पुण विसुद्धेसु आलंबणेसु अइथिए वि काले अच्छंति ताहे ओग्गहो भवइ / काणि पुण ताणि आलंबणाणि ? नाणदंसणचारित्ताणि जाव तं कज्जं न वोच्छिन्जर ताव ओग्गहो न लब्भइ / वोच्छिण्णे तम्मि कज्जे असिवासु वा विरहिए नस्थि ओग्गहो / इति अवग्रहविचारः। लीहालेढुगमाई जो य पढंतो न करइ वक्खेव / / अव्वक्वित्तो एसो आउत्तो अणण्णमणसो // 1246 // Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चकल्पस्य विचारा: दसठाणठिओ कप्पो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स / कयरे दस ठाणा ऊ ? भण्णइ आचेलगाइ इमे // 1270 // आचेलुकद्देसिय 2 सेजायर 3 रायपिंड 4 किइकम्मे 5 / षय 6 जेट्ट७ पडिकमणे 8 मासं 9 पज्जोसवणकप्पे 10 // 1271 // एपहिं दाह ठिओ ठियकप्पो होइ उ मुणेयव्यो / (दार)। चउहि ठिओ छहिं आठओ अठियकप्पो पुण इमेहि // 1272 / / सेन्जायरपिंडे या 1 किकम्मे 2 चेव चाउजामे य 3 / रायणियपुरिसजेट्टो 4 चउसु वि एएसु होति ठियो / / 1273 // आचेलुकद्देसिय 2 निवपिंडे चेव 3 तह पडिक्कमणे 4 / मासं 5 पज्जोसवणा 6 छप्पेए अणवट्टिया कप्पा // 1274 // दुविहा होंति अचेला संताचेला असंतचेला य / तित्थयर असंतचेला संताचेला भवे सेसा // 1275 / / एत्तो सावजाई चेलाई संजमोवघाईणि / वजित्ता विहरंतो होइ अचेलो अपरिजुण्णो // 1281 // निग्गहियरागदोसो अणवज्जेहिं अहापरित्तेहिं / अप्पेहि वि विहरंतो होइ अचेलो उ परिजुण्णो॥१२८२ / / इति स्थितास्थित-कल्पविचारः // संखेत्ता विवपवहे जह वढइ वित्थरेण वच्चंती। उदहितेण वरनई तह तह सीलगुणेहि वड्ढाहि / / 1406 // सुस्सूसगा गुरूणं चेइयभत्ता य विणयजुत्ता य / सज्झाए आउत्ता साहूण य वच्छला निच्चं // 14.9 / / एस अखंडियसीलो बहुस्सुओ य अपरोवतावी य / . ' चरणगुणसुटिओ त्तिय धण्णा णयरीइ घोसणयं // 1410 // इति अनुशास्तिः॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये ते भगवंतो रागदोसनिग्गहपरा मा य पडिमाए वा पाउयाण वा रागहोसा न भवति / इति प्रावरणविचारः // . .. रसपरिच्चागं न करेइ निच्चमेव विगइपडिबद्धो कायकिलेसन करेइ ठाणासणमोणाईणि पायच्छित्तं विसंभोगो वा / इति रसत्यागविचारः / / चोएइ चेइआणं खेत्तहिरण्णाइ गामगावाई। लग्गंतस्स व जइणो तिगरणसोही कहं नु भवे ? // 1569 // भण्णइ एत्थ विभासा जो एयाई सयं विमग्गेजा। न हु तस्स होइ सोही अह कोइ हरेज एयाई // 1570 / / तत्थ करित उवेहं जा सा भणिया तु तिगरणविसाही। सा य न होइ अभत्ती य तस्स तम्हा निवारेजा / / 1571 / / उपेक्षां कुर्वाणे त्रिकरणशुद्धिर्न भवति अभक्तिश्च कृता स्यात् तस्मानिवारयेदित्यर्थो ज्ञेयः। सम्वत्थामेण तहिं संघेणं होइ लग्गियव्वं तु / सचरित्तऽचरित्ताण उ सम्वेसिं एय कज तु॥१५७२ / / चूष्णिस्तु-रुप्पहिरण्ण उवण्णाइ साहुणा आयठिरण तवनियम जुत्तेण चेयनिमित्त रुपहिरण्णवणं अपुवं उप्पाएइ, तस्स माणदरिसणचरित्तमणोकरणाइया तिगरणसोही न भयह / जया पुण पुवपवत्ताणि खेत्तहिरण्ण-दुपयचउप्पयाई जइ भंड वा चेइआणं लिंगत्था वा चेइयदव्वं राउलबलेण खायंति, रायभडाइ वा अच्छिदेजा, तया तवनियमसंपउत्तो वि साहू जइ न मोएइ वावार वा न करेइ, तया तस्स नाणाइसुद्धी न भवइ, आसायणा य भवइ / एवं समुप्पन्ने कज्जे रायाईणं पुव्वं अणुसट्टी करेइ, धम्मो वा से कहिजइ, अणिच्छंतस्स अंतद्धाणेण वा अवहरति / इति देवद्रव्यविचारः पञ्चकल्पे // Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चकल्पस्य विचारा: चरित्तमणोकरणाइया तिगरणसोही न भवइ / जया पुण पुब्बपवत्ताणि खेतहिरण्ण-दुपयचउप्पयाई जइ भंडं वा चेइमाण लिंगत्था वा चेइयदवं राउलबलेण खायंति, रायभडाइ वा अच्छिदेजा, तया तनियमसंपउत्तो वि साह जइ न मोएइ वावार वा न करेइ, तया तस्स नाणाइ सुद्धी न भवइ, आसायणा य भवइ / ऐवं समुप्पन्ने कब्जे रागाईणं पुत्र अणुसही करेइ, धम्मो वा से कहिजई अणिउछंतस्स अंतद्धाणेग वा अवहरति / ___ इति देवद्रव्यविचारः पञ्चकल्पे // तत्धेगपडिगाहए भत्तं लेवार्ड पि गेण्हंति / पगत्थ व मत्तग दोण्ह पी रित्तगपकप्पो // 1593 // मात्रकं द्वाभ्यामपि रिक्त कार्य इत्यर्थः / चूर्णिणस्तु - दोण्ह वि हिंडंताण एगपडिग्गहे कूर, एगपडिगहे पाणय मत्तया रित्तया / कालपमाणाइक्कमे कुजा पाउरणग अकाले वि / दार। वसई कालाईय असिवादणुवासणं एय॥ 1625 // इति प्रावरणविचार: // गम्भाणं आयाणं करेइ तह साडणच गम्भाणं। अभिजोगवसीकरणे विजाजोगाइहिं कुणइ // 1654 // विच्छिगर्माच्छगभमरे मंडुक्के मच्छए तहा पक्खी / संमुच्छा वेमाई जो जोणीपाहुडेण च // 1655 // पमाइ अकरणिज्जं निकारणे जो करेइ ऊ भिक्खू / सवो सो उक्कप्पो / दारं / एतोऽकप्पं तु वोच्छामि / इति // 1657 // गच्छो सकारणो त्ती गिलाण धुढे य बालमसहाई / तेसट्टा अइरेगं घेप्पड मा होज दुलभं ति / / 1882 // जस्सेव अभिमुहत्ती जं चेव य काउ विहरए पुरो। आयरिय उवझाया तस्सेव य तं तु आलोए / / 1930 // Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये उस्सगेण विहारो संथरमाणोण नव उ हेत्तेसु / तो सब्युग्घादुवही न विल्ले आव दगा / / .009 / तेषु एव उत्पादयेत् उपधिं न तु क्षेत्रे अष्टौ ऋतुबद्धाः वर्षाकालाश्चेत्यर्थ:। दुलभंमि वत्थपाए ऊणहिएसु वि नवसु गच्छेजा / . एमेव विहारो वि हु खेत्ताणऽसई मुणेयवो // 6011 // एगत्थ उ गामाइलु जहियं संथरंति तहि अच्छे / / सम्वेसिं तहिं उग्गहो साहारण होइ जह नगरे // 2457 // जइ पुण बहिया हाणी तहिं वढि गुणाण तत्थ अच्छति। के पुण गुणाइ भणिया भण्णइ नाणाइया हुंति // 2473 // कालाईए दोसा व्यक्खओ होइ अच्छमाणाण / तम्हा उ न ढेिजा रित्तं दुविहकालम्मि // * 474 / / मा होज चरणभेमो पुण्णाइयंमि संवसंताण / अइचिरसंवासेण सिणेहमाईहि / दोसेहिं // 2479 // ___ इति कालातिकमवसनविचारः // अइहिमदेले य तहा कारणियगयाण सिसिरकालम्मि / परिभुजंताण य का विवाद चरणे अणुवघाओ // 2499 // इति प्रावरणविचारः // संभुतणा विरु द्धा उवग्गहं कुणइ नाणचरणाण। संभुंजणा असुद्धा चरित्तभेयं वियाणाहि // 2.06 // इति संभोगविचारः // अहलंदियाण गच्छे अप्पडिबद्धाण जह जिणाणतु। नवरं कालविसेसो उडुवासे पणग चउमासी / / 2758 / / चूर्णिणस्तु-नवरि काले छन्भागे गामा कीरइ / एगेगे भागे पंच दिवस भिक्ख हिंडंति तत्थेव वसंति / वासासु एगत्थ चाउम्मासो इत्यर्थः / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशा श्रुतस्काधस्य विचाराः गच्छे पडिबद्धाण अहलंदीणं तु अह पुण विसेसो / उग्गही जो तेसिं तू सो आयरियाण आभवइ // 2559 // एगवसहीए पणगं छन्वीहीओ व गाम कुवंति / दिवसे दिवसे अण्ण अडंति वीहीय नियमेण // 2560 // परिहाविसुद्धीणं जहेच जिणकप्पियाण नवरतु / आयंबिल तु भत्त गेण्हंती वासकप्पं च // 2569 // चूणिर्यथा-परिहारियाण वि जहा जिणाणं नवरं आयंबिलेण मासी सो सच्चो वि होइ ति / जिणकप्पि-अहालंदी-परिहारविसुद्धियाण जिणकप्पो / थेराणं अजाण य बोधवो थेरकप्पो उ // 2564 // इति अहालंदगादिविचारः // इति पञ्चकल्पविचारा: समाप्ता : // दश श्रुतस्कन्धविचारा यथाअत्थेण वा विचित्तं सुयं, अहवो सप्तमयपरसमयेहि उस्सग्गाववाएहि पा, उक्तं च - 'चित्रं बह्वर्थयुक्तम्' इति स्तुतियुगलसूचा चतुर्थदशायाम् / 'पक्खियपोसहिएसु' इति / चूर्णिणयथा-पक्खियं पक्खियमेव, पक्खिए पोसहो पक्खियपोसहो चाउद्दसिअट्टमीसु य। इति पाक्षिकविचारः पञ्चमदशायाम् / उहिट्टा-अमावासा पञ्चमदशायाम् / तत्थ णं जे से पावाए मज्झिमाए हस्थिपालरण्णो रज्जुयसभाए मपच्छिमं अंतरावास वासावास उवागए, तस्स णं अंतरावासस्स ने से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तियब हुले, तस्स णं कत्तियबहुलस्स पण्णरसी पक्खेण जा सा चरिमा रयणी, तं रयणिं Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये व ण समणे भयवं महाबीरे कालगए वीरकते समुजाए छिण्णजाइजरामरणबंधणे सिद्ध बुद्धे मुत्ते परिनिन्धुए' इत्यादि / तथा, ज रयणि च ण समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सबंदुक्खपहीणे सा ण रयणी बहूहिं देवेहिं देवीहि य ओवयमाणेहि य उप्पयमाणेहि य उज्जोविया आवि होत्था / तथा जरयणिं च ण समणे भगवं महावीरे कालगए त रयणि जेटुस्स अंतेवासिस्स गोयमस्त इंदभूइस्स अणगारस्स अंतेवासिस्स नायए पेजबांधणे वाच्छिण्णे अणंते अणुत्तरे जाव समुप्पण्णे / ज रयणि च ण समगे भगवं महावीरे कालगए तं रयणि नव मलई नव लेच्छई कासीकासलगा अट्ठारस गणरायाणो अमावासाए पाराभोए पासहोपवास पहावइंसु / गए से भायुज्जाए दाज्जायं करिस्सामी / जं रयणि च णं समणे भयव महावीरे कालगए तं रयाणि च ण खुद्दाए भासरासी नाम महम्गहे दोवाससहस्सठिई भगवओ जम्मनक्खत्त संकंते / जप्पभिई चणं से खुद्दाए भासरासी महम्गहे दोवाससहस्साठई समणस्स भगवओ महावीरस्स जम्मनक्खत्तं संकंते तप्पमिदं च ण समणाणं निगंथाण निगंथीण य उइए पूयासकार नो पवत्तइ / जया णं से खुद्दाए भासरासी महगहे दोवाससहस्सठिई भगवओ जम्मनकलत्ताओ बीइकंते भविस्सइ तया ण समणाणं निग्गंथाण उइए पूयासक्कारे पवत्तिस्सइ / जं रयणि च ण समणे भयवं महावीरे कालगए जाव त रयणि कुंथू अणुद्धरी नामं समुप्पन्ना जा ठिया अचलमाणा छउमत्थाण निग्गंथाण वा निग्गंथीण नो चक्खुफास हव्यमागच्छद। जा अठिया चलमाणा छउमत्थाण निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चक्खुफास हव्वमागच्छइ, ज पासित्ता बहूहिं निग्गंथेहि य निग्गंधीहि य भत्ताई पञ्चक्खायाई, किमाहु भंते ! अजप्पभिई दुराराहए सामण्णे भविस्सह। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्धस्य विचारा: चूपणा तु-तम्मि नायए पेजवंधणं नेहो तं वोच्छिण्ण / गोयनो भगवया पट्टविओ अमुगग्गामे अमुग बोहेहि / तहि गओ वियालो य जाओ तत्थेव बुच्छो नवरि पेच्छा रत्ति देवसंनिवार्य उवउत्तो नाय जहा भयव कालगओ / ताहे चिंतेह-अहो ! भयव निस्पिवासी कहं वा वीयरागाण नेहो भवइ नेहरागेण य जीवा संसार अडंति / पत्थंतरे नाण उप्पन्नं / बारस वासाणि केवली विहग्इ जहेव भयव / नवर अइसयहिआ धम्मकहणा परिवारो य तहेव पच्छा अजसुहम्मस्स निसिरइ गण दीहाउ त्ति काउं, पच्छा अजसुहम्मस्स केवलनाण समुप्पन्नं / सा वि अवासे विहरित्ता केवळलपरियापण अजजंबुनामस्स गण दाउं सिद्धि गओ इति / वीरस्स पक्कारस गणहरा नव गणा, दोण्ह दोण्ह पच्छिमाण एक्का गणा, जीवंते चेव भट्टारए नव गणहरेहि अजसुहम्मस्स गणा निक्खित्ती दीहाउगोत्ति नाउ / इमीले आसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए बहुवीइकंताए तिहिं वासेहि अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं पायाए मज्झिमाए हत्थिपालरणो रज्जुगसभाए एगे अबीए छ?ण भत्तेण अपाणएण साइणा नकवत्तेण जोगमुवागरण पच्चूसकालसमयंसि संपलियंकनिसपणे पणपण्ण अझयणाई कल्लाणफलविवागाई पणपण्ण' अज्झयणाई पावफलविवागाई छत्तीसं च अपुट्ठवागरणाई वागरित्ता पहाण नाम अज्झयणं विभावेमाणे विभावेमाणे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे इति। : अट्टमेण भत्तेण अपाणएण विसाहनक्खत्तेण जोगमुवागएण एग देवदूसमादाय तिहिं पुरिससरहिं सद्धि मुंडे भवित्ता अगाराओ मणगारिय पम्वइए पासेण अरहा इति 'सोपधित्व जिनानाम्' / सयमेव पंचमुट्टियं लोय करेइ 2 छ?ण भत्तेण अपाणएण चित्ताहि नक्खत्तेण जोगमुवागरण पगं देवदूसं गहाय एगेणं Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पुरिससहस्सेण सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवार अरहा णं अरिट्ठनेमी इति 'सोपधित्व जिनानाम्' / / तेण कालेण तेण समएण भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा रायगिहे नगरे मासिपण भत्तेग अपाणपण कालगया / जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरते सम्वे विण एत्ता अजमुहम्मस्स आवच्चेजा अवसेला गणहरा निरवच्चा पसिनव्युया / समणे भयवं महावीरे कासवगात्तेणं भगवो महावीरस्स कासवगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अजसुहम्मे अगिवेसायणे गातेण / थेरस्स अजसुहम्मस्स अतेवासी थेरे अजजंबुनामे कासवगोत्तेण / अजजबुनामस्स कासवगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अजपभवे कच्चायणगाते ण / थेरस्स गं अजपभवस्स अंतेवासी थेरे अजलेजंभवे मगगपिया पच्छप्सगात्तेणं। थेरस्सण अजसेज्जभवस्स अंतेवासी थेरे अजजसभद्दे तुंगियायणगोत्तेण / थेरस्स ण अजजसभहस्त अंतेवासी दुवे थेरे अजभहबाहू पाईणसगोत्त थेरे अजसंभूयविजए माढरसगात्तेण / थेरस्स णं अजसंभूयविजयस्स अंतेवासी थेरे अजथूलभद्दे गायमगीते णं। थेरस्त गं अजथूलभहस्स दुवे थेरे, थेरे अज्जमहागिरी पलावबसगात्तै गं अजसुहस्थी वासिट्टसगोत्ते ण इत्यावली। भगवओ महावीरस्स नव गणा एकारस गणहरा होत्था : से केगट्टे ण भंते ! एवं वुच्चइ० जेट्टे इंदभूई गोयमगेत्ते पंच समसयाई बाएइ, मझिमे अग्गिभूई गोयमगत्ते ण पंव समसयाई वाएर / थेरे वाउ नूई काणटे पंच समसयाई वाएइ, प्रयोऽपि सोदरा: इत्यर्थशेषः / थेरे अजवियत्ते भारदाए गोत्ते ण पंच समसयाई बापड् / थेरे अजनुहम्मे अग्गिवेसायणे गेोत्ते ण पंच समणसयाई वाएइ, थेरे मंडियपुने वासिटे गाते ण अट्ठाईसमणसयाई वाएइ / थेरे मोरिययुत्ते कासवे गौत्ते ण अद्धट्ठाईसमणसयाई वाएइ / थेरे अकंपिए गोयमे गोत्तेण थेरे अयलभोया हारियणे गोत्ते णं एए Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्धस्य विचाराः दोनिवि थेग तिन्नि तिनि समणसयाई वाति, थेरे अजमेइज्जेथेरे अजपभासे एए दुण्णि वि थेरा काडिन्नागोत्तेणं तिनि 2 समणमयाई वाएंन / से एएणट्रेण एवं वुश्चइ समणस्स भगवओ महावीरस्स नवगणा एकारस गणहरा हेात्था इति गणविचारः / थेरस्स ण अजसुहत्थिस्स वासिट्टसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा सुट्टियसुप्पडिबुद्धा कोडियकाकंनगा वग्घावञ्चसगोत्ता। थेराण सुट्टियसुप्पडिबुद्धाणं काडियकाकंदगाणं वग्यावच्चसगात्ताण अंतेवासी थेरे अजइंदिन्ने कोसिर गेोत्तेणं / थेरस्स गं अजइंददिन्नस्स कोसियसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अजादने गायमगोत्तेण / थेरस्स णं अजदिन्नस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासीथेरे अजसीहगिरी। अजसीहगिरिस्स अंतेवासी थेरे अजवाइरे, अजवइरस्स अंतेवासी चत्तारि थेरा-थेरे अजनाइले, थेरे अजामिले, थेरे अजजयंते, थेरे अजतावसे / थेराओ गं अजनाइलाओ नाइलसाहा निग्गया / थेराओ ण अजपामिलाओ पोमिलसाहा निग्गया। थेराओ ण अजजयंताओ जयंतीसाहा निग्गयो / थेराओ णं अजतावासाआ तावसीसाहा निग्गया। इति शाखास्वरूपम् / भूमीए अणंतरे संथारए कए अवेहासे पिवीलिगाइसत्तवही दीहजाईओ वा डंसेज तम्हा उच्चो कायव्वा / वर्षासु संस्तारक इति शेषः / जो परं पजोसवणोत्रो अहिगरणं वयह सो अकप्पा ममेरा निज्जूहियव्वो गणाओ तंबोलपत्रनायवत् / नो कप्पर निगंथाण वा निग्गंधीण वा गोलोममेत्ता वि केसा तं रयणि उवाइणावेत्तए / अष्टमदशायामेते / Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये दशम्यां तु-तपणं सेणिए राजा जाव सीहासणाओ अब्भुट्टे इ पायपीढाओ पञ्चोरुहइ 2 जाव करयलसिरसावत्तं दसणहमत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी-नमोत्थु ण अरहताणं जाव सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं / नमोत्थु णं समणस्स भगवा महावीरस्स आइगरस्स नाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोबएसगस्स / तए ण सा चेल्लणादेवी जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवापच्छइ 2 समण भगवं पंचविहेण अभिगमेणं अभिगच्छइ / सेणियरायं परो कट्ट ठिया चेव तिविहाए पन्जुवासणाए पज्जुवासा / // इति दशाश्रुतस्कन्ध विचारा: समर्थिताः // स्नातो लिप्तश्च गन्धी धृतसदशयुगो विद्यया क्लुप्तरक्षो मुद्रावान् दिक्पतिभ्यः प्रचुरतरबलि संयत: सम्प्रदाय / नन्दावत्तस्य पूजां तदनु वितनुते देवताकङ्कणार्चा पञ्चागो मन्त्रपाठो मलयजतिलकः पुष्पमालाधिरोपः // 1 // सप्तधान्यकरत्नाम्बु पञ्चधात्वंऽगघर्षणम् / मृत्कषायाम्बुमागल्यमूलीवाष्णकमजनम् // 2 // प्रतिष्ठादेवताहवान स्नानं जातिफलादिभिः / स्नान सषिधि स्नानी वासचन्दनकुङ्कुमैः // 3 // कपूरस्नानमुद्रासुरभिकरयुगालेप्यगात्रानुलेप: पुष्पारोप: सपुष्प: प्रतिसरकरण वासनिक्षेपण च / वेदीन्यासोऽथ कृत्यः सदशयुगधृतासर्पिरापूर्णदीपा: देयाः साद्री यवारास्तदनु बलिसरावाणि पूर्णा बलिश्च // 4 // देयो दिग्देवताभ्यो बलिरुदकयुतो भूतसाथै सधूपः .. वस्त्रच्छादस्तदन्तेऽञ्जलिभिरथ तथा सप्तशस्याभिषेकः / पुष्पारोपो विधेयस्तदनु पुनरिहारत्रिकं वन्दनं स्यात्यानां चाधिवास्य प्रतिकृतिविषयः स्यात्तथोत्सर्गमार्गः // 5 // Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाविधिः श्रुतदेव्यादि देवीनां कायोत्सर्गान् विधाय च / तत: पातालमित्यादि पठन् पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् // 6 // अयं अधिवासना-विधिः / / कृत्वा शान्तिबलिं प्रणम्य च जिनान् धूपं क्षिपेदादरादांप्तादस्तदनन्तरं चलजिने दर्भाद्यधः स्थापयेत् / अन्यस्यास्तु कुलालचक्रकमृदा युक्तं च रत्नासन स्थाप्य मन्त्रयुत स्थिरीकृतिकृते मन्त्रं न्यसेदादरात् // 7 // सौवीरमधुसर्पिी रूप्यकञ्चालकस्थितैः / नेत्रोन्मीलन कुर्यात् सूरिः स्वर्णशलाकया // 8 // घृतपूरितकञ्चोलकदधिभाण्डादर्शदर्शन चैव / सौभाग्यमन्त्रपवन मुद्रासौभाग्यपदपूर्वा // 9 // कपूरचन्दनसमालभन प्रतिष्ठा / मन्त्राभिमन्त्रिंतमथापि च पुष्परोप: / वासान् क्षिपेत् तदनु धूपविधि विदध्यान् मन्त्र न्यसेत् पुनरिय खलु चक्रमुद्रा // 10 // धूपोद्ग्राहणबहुबर्बालचन्दनतिलका भवन्ति कर्तव्याः / दध्यक्षतावमिणने कार्य चतुरादिभिः स्त्रीभिः // 11 // कर्तव्या लवणावतारणविधिः पश्चात्तथाऽऽरत्रिक भूतेभ्यः प्रचुरो बलि: पुनरधो रत्नासनस्थापनम् / अस्मिंश्योपविशन्तु तीर्थपतयो जात प्रतिष्ठां पठन् / पुष्पाणामिह चाजलिं प्रतिक्षिपेदेवं पठंश्चादरात् // 12 // इदं पुष्पं गृह्णन्तु जिना इदं पुष्पं गृह्णन्तु जिना इति / श्रुतदेव्यादिदेवीनां कायोत्सर्गान् कुर्यात् / जह सिद्धाणं पइट्ठा तिलोयचूडामणिमि सिद्धिपप / ... आचंदसूरिय तह हेाउ इमा सुपइट्ट त्ति // . // अयं प्रतिष्ठाविधिः समर्थितः / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये 'जे छेए सागारियं न सेवइ, कट्ट एवमवि जाणो बिइया मंदस्स बालया' इति / वृत्तिस्तु-रहसि मैथुन कृत्वा पुनर्गुवा दिना पृष्टः सन्नपलपति, तस्य चैवमकार्यमपलपतोऽविज्ञापयतो वा द्वितीया मन्दस्य-अबुद्धिमत: एकमकार्यासेवनमियं बालता-अज्ञता, द्वितीया तदपह्नवन मृषावादः / आचारपञ्चमाध्ययनप्रथमोद्देशके / ... जाणिय त टणपण हुइ विसुत्तरुसउ मैथुनि पावइया मूलु श्रावापरायइ आरवणजा तह उवधासु / परदारि अवधूतियह जाता एकवार दस उबवासा / कुलवहु परदारियह सउ उववासु / जाणिउ लेकि वित्तरुप्सउ / प्रधान कुलपुत्रीराजपुत्रीमहत्तमपुत्रीसार्थवाहश्रेष्ठिपुत्री लोकि अजाणियउं असिउ सउ उववासह / लोकि टगपण उहूयउ मूलु / परिगाह नवहि ठाहेहि जाणंतर अतिक्रमु करइ नवहि ठाएहि उव० 10 / सम्वो विभंजइ उव. 120 / रात्रिभोजन असणखाइम जाणतउ निकारणि करई. परिभेगु उव० 3 पावईया मुक्कसंनिहि छटु / आईसंनिधि कांठउ दौरउ मुहतीत्रेपणइ पात्राबंधि पात्रह खरडियइ वासियइ उव० 1 / सेलिहि पारिसिहि उपवासु / अटुहि पुरिमड्ढेहि उव० 1 / इति प्रायश्चिरो / ( सम्प्रदायलिखितमिदम् ) पञ्चवस्तुकस्य यथाचिइवंदण 1 रयहरणं 2 अट्टा 3 सामाइयस्स उस्सग्गा 4 / सामाइयतियकड्ढण 5 पयाहिणं चेव तिक्खुत्तो // 15 // मुहपोत्तिय 1 रयहरणे 2 दाणि निसेन्जाउ 4 चालपट्टो य 5 / संथारुत्तरपट्टो 7 तिणि य कप्पा मुणेयव्वा 10 // केई भणति एकारसमो दंडओ / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चवस्तुकस्य विचाराः अप्पडिलेहिय दौसा आणाई अविहिणा वि ते चेव / / तम्हा उ सिक्खियव्वा पडिलेहा सेवियव्वा य // 262 // 'द्रव्यपरिच्छेदपूर्वक' मिति द्रव्यं-वासा: / मा हासिष्ट 'ओहाक त्यागे' मा योगे सिांच अद्यतन्यां प्रयोगः / 'गलप्रवजिताऽविधिपरिपालनादिना' इति / मिष्टान्नादिना गलप्रव्रजितस्य अविधिपालनादिना / नयूहक:-गवाक्ष: 'पहवंते' प्रभवति विद्यमाने / 'तानऽन्विषतो' तानऽन्तान् / किकिसिंघाण-जीवविशेष: / 'अम्हं पुण नस्थि' एतन्मतमिति शेषः / भाणकाणा:-पात्रबन्धकाणा: / 'ताहे उवओगं बच्चइ पंचहि' इति / पञ्चभिः-पूर्वोक्तैः स्थानैः / 'मुहणंतपणं अंतो तिणि वारे पमजद' त्ति / मुहतणंपणं-केसरियाए / तिण्णि पारे-त्रिगुणान् / धारण पात्रस्येति आत्मप्रत्यासन्नीकरण। 'रयत्ताणं च विटणयं संलित्ता धारिज' आत्मसमीपे ध्रियते / 'न निक्खिप्पड़' त्ति न निक्खिप्प दुरे व्यवस्थाप्यते। ऋतुबद्धे कोले / 'वर्षालु पुनः अबन्धन उपधेः स्थापना च पात्रस्य' दूरे विराधनादि तच्च प्राप्नोति निक्षिप्तेन दुरे व्यवस्थापितेन / बाहिरकप-कम्बलम् / 'जस्त य जोगा' त्ति जई न भणंति न कप्पई तओ अण्ण / जोग्ग पि वत्थमाई उवगहकर पि गच्छंमि // 295 // कालोचितानुकूलानपायित्वात् यस्य च योग इति / यस्य च घनादेयोग:- प्रवचनेोक्तेन विधिना सम्बन्धः-प्राप्तलक्षणः / हिडंति तओ पच्छा अमुच्छिया एसणाए उवउत्ता / दवादभिग्गहजुया मक्खिट्टा सवभावेण // 297 // 'आवश्यिक्या यस्य च योग' इति भणित्वा ततो निर्गच्छन्ति / पसतिप्रवेशे / Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पायपमजण 1 निसीहिय 2 अंजलि 3 दंडुवहिमोक्खण 4 विहिणा / सेाहिं च करिति तओ उवउत्ता जायसंवेगा // 311 // . एवं च पडुप्पण्णे पविसओ य तिण्णि उ निसीहिया हुति / अग्गहारे मज्झे पवेसणे पायऽसांगरिए // 312 // एलुगा-उंबर / तोडामा-ठाणाओ / यतेरे कस्मिन् पात्रे भक्तं द्वितीये पात्रे जलं ग्राह्य, तृतीये तु मात्रके संसक्तभक्तादिशुद्धिः / ओलंबयं-मात्रकं / ओगाहणय-पात्रं / प्रतिसेवना-लघवः प्रथम आलेच्यन्ते, तते। गुरव इति लक्षणा / पुनरकरणरूपा विकटना तु आलोचना / कारिकादीपिथिका-योगात्सर्गादिका / अकारकदोषः अपरिणतिदेोषः अप्रावृतोपघात इति पश्चाद् भाग: अप्रावृतो यत इति पृष्ठावलोकनं कार्यम् / 'चउरंगु उमप्पत जाणु हेडाऽछिवावरिं नाभि / उनओ कोप्परधरिय करेज पट्ट व पडलं वा' // 318 // भिक्षाकायोत्सर्गे नमस्कारः / 'जह मे अगुगाई कुजे' त्यादि गाथा वा / इच्छेज म इच्छेज व तह वि य पयओ निमंतए साह / परिणामवियुद्वीप निजरा है।अगहिर घि' // 346 // लाटपन्जिका-वचनमात्रम् / धम्म कहण्ण कुज्जं संजमगाह च नियममो सके / पदहमेत्तं वऽण सिद्धं जजमि तिमि // 352 // भावाऽऽसण्णा-असहत्वं / 'ओगाहित्ता पाणयं गिण्हइ' त्ति / मात्रकम् अवगृह्य / महति वैकिये इन्द्रिये-लिङ्गलक्षणे / तत्रान्यत्र वा पुञ्छेत्अधः स्थानिका निर्लेग्नं कुर्यात् / मत्ता विलोहावगनिमित्त लूहेवं इति शेषः / तृतीयपौरूष्यां 'घ्राणाशासि' नासिकायां स्युरित्यर्थः // Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालो गायरचरिया थडिल्ला पत्थपत्तपडिलेहा / संभरऊ सो साहू जस्स व ज किंचि गुवउत्तं // 445 // यत् किश्चिदनुपयुक्तं तत् स्मरन्तु इत्यर्थः / विगिचणयापारिट्रावणिया / उपस्थापना गाथा यथा अहिगय णाउस्सग वामगपासंमि वय तिगेककं / पायाहिणं निवेयण गुरुगुर्णादसि दुविह तिविहा वा // 667 // अभिगतं ज्ञात्वा शिष्यं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति गुरवः वामपार्श्व शिष्य स्थापयित्वा त्रीन् वारान् एकैकं पठन्ति, पुन: प्राक्षिण्य नमस्कारपाठेन, निवेदनं-युष्माभिरपि महाव्रतान्यारोपितानि इत्यादिलक्षणं, गुरुगुणैः वर्द्धस्वति सूरवचः, दिक् द्विधा त्रिधा वा / अन्यकरणोपपत्ते:पार्श्वस्थानमित्तकरणोपपत्तेः // 'सारणमाइविउत्तं गच्छं पि हु गुणगणेग परिहीणं / परिचत्तनावग्गो चरंज तं सुविहिणा उ' // 700 // स्पर्शनानुपघातात् - वस्त्रस्पर्शेन लिविकारलक्षणस्य उपघातस्याभावात् / 'वेटवेधादिना वातिके च उच्छने' इति क्वापि देशे विण्टकेन विध्यते लिग / मातृग्राम:-स्त्रीजन: / 'सदाऽप्रयोगे सुखशीलतया, असम्यग् योगश्चायोगतोपि अपर:-पापीयानि' ति असम्यगनुयोगोऽननुयोगादपि पापीयानित्यर्थः / आवश्यकादिसूत्रस्य यावत् सूत्रकृत द्वितीयमङ्गं तादि' ति सूत्रकृतं यावत् सामान्योऽपि पाठ्यते इत्यर्थः / नालबद्धवलिः-स्वजनवर्गः / निरुद्धस्य-निरोधस्य तपाविशेषस्य / प्रज्ञापककथन भावयोरिति / व्याख्यातृव्याख्येययां: लक्षणमित्यर्थ / कायोत्सगै कुर्वयनुयोगप्रारम्भार्थ तत् समाप्तौ च सर्वेऽपि पुनरपि गुरुमेव वन्दन्ते, अन्ये पुनः प्राहु: ज्येष्ठार्योऽपि पन्दनीयः य: चिन्तनां कार यतीति शेषः / बिम्बप्रतिष्ठा स्वरूपं यथानिप्फण्णस्स य संमं तस्स पइट्टावणे विही एसो। सटाणे सुहजोगे अहिवासणमुचियपुयाए // 1132 // Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिइवंदण थुइवुड्ढी उस्सम्गो साहु सासणसुराए / थयसरणपूयकाले ठवणा मंगलपुवा उ // 1133 // (भव्य.इत्यर्थः) विविहनिवेयणमारत्तिगाइ धूवथयवंदण विहिणा / जह सत्ति गीयवाइय नच्चणदाणाइयं चेव // 1142 // (नैवेद्यमित्यर्थः) 'विशेषपूजाया दिगादिगताया' इति / एकाचार्यस्य धर्मप्रतिबोधकादेः या पूजा सा दिगादिगता / जइणो वि हु दवत्थयभेओ अणुमोयणेण अस्थित्ति / पयं च इत्थ नेयं इय सिद्ध तंतजुत्तीए // 1210 // मोसरणे बलिमाई न चेह जं भयवयावि पडिसिद्धं / ता एस अणुण्णाओ उचियाण गम्मई तेण // 1213 // उचितानां गम्यते तेन द्रव्यस्तषः / अनेन बलिरुक्तः / अग्राहारः द्विजग्राम: / 'धण्णा निवेसिजइ धण्णा गच्छति पारमेयस्स / गंतुं इमस्स पार पार दुक्खाण वचंति' // 1348 // इयरे वाऽऽणा उ चिय गुरुमाइ निमित्तओ पइदिणं पि दोसं अपेच्च्छमाणा अडंति मज्झत्थभावेण // 1476 / / / प्रतिदिनमिति दोषः // सुयबज्झायरणरया पमाणयंता तहाविहं लोयं / . भुवणगुरुणो वरागाऽपमाणयं नावगछति // 1708 // // इति पञ्चवस्तुकस्य गाथा: पर्यायाश्च समाप्ता: // Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् पत्तो य लहुयबंधू रहनेमी नाम नेमिनाहस्स / अरिष्टनेमि-चरिते / तम्हा सिद्ध य न कारवेजा अगुवरणमिलका (?) / निशीथचूौँ / वंदेण इति निभी जुव मरू थेर इस्थिजोएणं / न य ठंति नाडए जे अह ठंति न पेहगाई (1) // प्रेक्षणकदर्शनविचारः / 'संवच्छर वावि परं पमाण' इत्यादिगाथाव्याख्या यथासंवत्सर वाऽवि। अत्र संवत्सरशब्देन वर्षासु चातुर्मासिको ज्येष्ठावग्रह उच्यते। तमप्यपिशब्दान् मासमपि पर प्रमाण वर्षाऋतुबद्धयोः उत्कृष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत् / द्वितीयं च वर्ष चशब्दस्य व्याहत उपन्यास: / द्वितीय वर्ष वर्षासु चशब्दान्मासं च ऋतुबद्ध न तत्र क्षेत्रे वसेत् / यत्रैको वर्षाकालो मासकल्पश्च कृतः / अपि तु संगदोषात् द्वितीयं तृतीय च परिहत्य वर्षादिकाल ततस्तत्र वसेदित्यर्थः / दशवैकालिकम् / तत्थ णं तुंगियाए नगरीए बहवे समणोवासया ण दित्ता जाव अपरिभूया अहिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा जाव बहूहि सीलवयगुणांवरमण-पञ्चक्रवाण-पांसहोववासेहिं चउद्दसट्टमुट्ठिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह सम्मं अणुपालेमाणा समणे निगंथे फासुयएसणिज्जे ण जाव पडिलाभेमाणा विहरति / तए गं पासाच्चिजा थेरा भगवंतो जाव पंचसयपरिवारसहिया तुंगियाए नयरीए पुप्फवइए चेइए जाव समोसढा / तए णं ते समणोवासया जाव व्हाया जाव सुद्धपावेसाई मंगलाई वत्थाई पवराई परिहिया जाव साओ साओ गिहाओ निग्गच्छति निग्गच्छित्ता एगओ मिलाइंति मिलाइत्ता पायविहारचारेण निग्गच्छति जाव थेरा भगवंतो पंचविहेण अभिगमेण अभिगच्छंति, तं जहा- सचित्ताण दवाणं विउसरणयाए, अचित्ताण अविउसरणयाए, एगसाडीएण उत्तरीसंगकरणेणं, चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं, मणसो एगत्तीभावकरणेणंः। . अड्ढा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता तिक्सुत्तो आयाहिण पयाहिण कति करित्ता वंदति नमसंति जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति / भगवइए भणियं / एवं उववाइए रायपसेणए नायधम्मकहाए एवमाइ बहुएहिं गंथेहि भणियं / दारवइए नयरीए कण्हे वासुदेवे जाव भगव अरिट्टनेमी पुच्छिओ अढारसमणसाहस्सीओ कयरेण वंदणेणं वंदामि / दुवालसावत्तेणं वंदाहि / आवस्सगचुण्णीए भणिय / सोयरीए नयरीए पएसीरागा केसि कुमारसमण पंचविहेण अभिगमेण वंदइ खामेइ / एवमाइ अण्णे बहवे समणोवासया पंचविहण अभिगमेण वंदति नमसंति / जे भिक्खू सगणेच्चियाए वा परगणेच्चियाए वा निगंथीए सद्धि गामाणुगाम दुइज्जइ आवजइ चउमासियं परिहारट्टाणं / सयमेव आभरणालंकार ओमुयइ ओमुयत्ता सपमेव चउहि अट्टाहि लोयं करित्ता छटेण भत्तेण उसमेणं अरहा संवच्छर साहिय चीवरधारी होत्था / तेण पर अचेलए / जंबूद्दीवपण्णत्ती / पच्छिमे तिभाए पण्णरस कुलगरा-- संमुई, पडिलुई, सीमंकरे सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, विमलवाहण, जसम,ऽभिचंदे, चंदाभे, पसेणइ, मरुदेवा, नाभी, उसमे। हनीई मा ठि जंबुद्दीवपण्णत्तीए / रुप्प टंकं विसमाहयक्खरं नवि य रूवओ छेओ / दोण्हपि समाओगे रूवो छेयत्तणमुवेइ // उस्सग्गेण जहिं दवलिंगं भावलिंगं च अस्थि सो वंदणिज्जो। जहा-रूवगं, जत्थ सुद्धं टंक समक्खर सो छेको भवति / रुप्प जत्थ सुद्धं टंकं विसमाहयक्खर सो वि रूवगो छेओ न भवइ, रुप्प जत्थ असुद्धं टंकंपि असुद्ध सोपि सुतरां छेओ न भवइ किंतु जत्थ दुण्णि वि सुद्धाणि सो छेओ / एवं सो संव्यवहार्य इत्यर्थः / जत्थ उभयमवि अस्थि / एत्थ य Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् रुप्प पत्तेयबुहा टंकं जे लिंगधारिणो समणा / दव्वस्स य भावस्स य छेओ समणो समाओगे // 1139 // एत्थ य रुप्पगत्थाणीया पत्तेयबुहा जया वा दवलिंग नथि त्ति न कोइ ते पणमेइ / भणियं च किह लिंगमप्पमाणं ? उप्पण्णे केवले वि जं नाणे / न नमति जिण देवा सुविहियनेवत्थपरिहीणं // 'किह लिंगमप्पमाणं ?' गाहा- अया वा दवलिंगं गहियं तया मिज्जति / टंकत्थाणीया निण्हगा / सदगं तेवि रयहरणगोच्छपडिग्गहधारी तहवि मिच्छविट्ठी जे पासत्थाइ तेहिं भगवओ लिंगं गहियं न पुण सव्वं अणुपालिति त्ति / विसमाहयक्खरा अहवा संविग्गा वि जया निकारणे पाउयाहिं हिंडंति / एवमाइ तो विसमाहयक्खरा एवमाइ विभासा / आवस्सगचुण्ण / दिवसउ पाउओ हिंडइ / पचकल्पचूर्णिः / गिहत्थवेसे मूलं पक्कोए वा राऐ गिहत्थलिंगे। कल्पे / अद्धंसका पकं संजइपाउएकं सीसदुवारियाए.......मासो भण्णा एग अहोरत्त बुद्धीए बावट्ठिभागे छेत्ता तस्स एगसटिभागा चंदगइए तिहीसमत्तीप? भवइ / शहं पुण एवं उच्यते जइ अट्ठारसहि अहोरत्त सपहि सपहि। ........या तीउत्तरा लभंति तो एकेन अहोरत्तेण किं लभामो ? / एवं समीयकम्मए कए आगयं / एगसट्टि बावटिभागा अहोरत्तस्स य / सा एगसट्टी तीसार तिहीहि मासो भवइत्ति तीसाए गुणेयव्वा ताहे इमो रासी जाओ / 1830 / एयस्स एगसट्टीए भागो हायवो लद्धा तीस तिही / एवं एसो उउमासो निष्फन्नो / एस चेव कम्ममासो सावनमासो य लब्भइ / एस चेव रासी बावट्ठीहिए चंदमासो वि लगभइ / निशीथग्रंथे / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् निरयावलीश्रुतस्कन्धपर्याया यथा- विहरइ-आस्ते / अदृरसामंतेन च दुरे न च समीपे / उड्ढ जाणु-उत्कुटुकासनः / 'वंदइ नमसइ'त्ति / वन्दते स्तुत्या, नमस्यति प्रणामत: / 'चंदगस्स रण्णो सपक्ख' इति / समानपक्ष समानपार्श्व समवामेतरपार्श्वतया / सपडिदिसिं-सप्रतिदिक् / अभिमुखागमेन हि परस्परस्य समावेव दक्षिणवामपावों भवतः / 'एगाह कूडाहश्च' इति / अकैव आहत्या हननं-प्रहारो यत्र तत् अकाहत्यं कूटस्येव-पाषाणमयमहामारणयन्त्रस्येव आहत्या हननं यत्र / सोल्लिएहि य पक्कैः / तलिओहि य-स्नेहेन पक्वैः / जिअहि य-भृष्टैः / पसन्न-द्राक्षादिजन्यासव-प्रसत्तिहेतुः / ओलग्गाअवरुग्णा-- भग्नमनोवृत्ति: उलग्गसरीरा-भग्नदेहा, नित्तेया-गतकान्तिः / दीणविमणवयणादीना विमनोवदना / पंडुल्लुयमुही-पांडुलितमुखी / ओमथिय-अधोमुखीकृतं, रुहिरं अप्पकप्पियंति-आत्मसमीपस्थ / दारगस्स अणुपुन्विणं ठिइपडियं चेति। स्थितिपतितं-कुलक्रमागतं पुत्रजन्मानुष्ठान। घातेउकामेण अम्मो इति / हतुकामः / पीई अलोवेमाणा अलोपयन्तः। खंडयाविहूणो-छात्ररहितः / मित्तनाइनिययादओ विउलेणं ति / मित्राणिसुहृदः, सातयः-समानजातय, निजका:-पितृव्यादयः सम्बन्धिनःश्वसुरपाक्षिका: / भोगभोगाई भुंजमाणीत्ति। अतिशयवन्त:शब्दादीन् / अजाहि अणाहहिया इति / यो बलात् हस्तादौ गृहीत्वा प्रवर्त्तमान निवारयति सोऽपघट्टकः तदभावात् अनपघट्टकः। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः खण्डः / पर्याया लिख्यन्ते यथा- आचारे शस्त्रपरिज्ञायाः उद्दे० ४मुक्तकं-मुत्कलम् / उद्दे० ५-ज्योतिष्मती-कांगुणी। ‘मरणदुक्खमाभा' इति अभयमित्यर्थः उद्दे० ६-'संवर्तितलोकप्रतरासङ्ख्येयभागवर्ति प्रदेशराशिपरिमाणाःत्रसपर्याप्ता:'। एतच्च मानं स्वावगाहनया द्रष्टव्यम् अन्यथा विरोधप्रसङ्गात् / गुदकीलिका-हरिस / शीतिका-ऊटिका / सामिदग्धनगरम् - अर्द्धदग्धम् / केसराणि - कुङ्कुमकेसरव्यतिरिक्तं हट्टद्रव्यं समाप्तं प्रथमाध्य्यनम् / द्वितीयेऽध्ययने प्र० उद्दे०-स्मात्पदरूपं यत्सयं (यदव्ययं) तेन लाञ्छिताः / जातिरसः-सहजरसः / हृषीकानि - इन्द्रियाणि / कलम्बुकापुष्पंकाहलिका / न ताव रिकी-न निराकुलः / उद्दे० २-मुक्तोली-मोट्टा / उ० ५-सिता-शर्करा / अवस्कन्दादिना-धाटीप्रभृतिना / तृतीयाध्ययने उद्दे० २-कालप्रष्ठादय:-म्लेच्छादय: / त्रपुषीफलनिबन्धनं-कटुकककटीविण्टम् / अध्ययने 50 उ० 1- देशे आम्रवृक्षः वेणुर्वा' त्वक सारत्वादनयोः / कुरुकुचादिभि:-गण्डूषैः / कल्कतपसा-शठतपसा / उ०२-पस्य वत्वं-पकारस्य वत्वम् / चकति-बिभेति / स्तेनकुलिङ्गादीनां-चौरकुलिङ्गादीनां / उ०४-जाम्बाल.-मूत्रपुरीषोद्भवं कदमम् / गदागदकल्पस्य-मान्द्यौषधीकल्पस्य / 'जहा दियापायमपक्खजायं' इत्यादि-गाथार्थो यथा-दियापायं-द्विजपातम्, अजातपक्ष स्वाश्रयात् उत्पतितुकामं तं पक्षिणं, अचाइया-अशक्नुवन्त, तरुणं-बालम् / अवील:-तम्बोलः। अनपाचीनमार्ग:-उत्तममार्गः / अधीतान्विक्षिकीकस्य अधीततर्कादिविद्यात्रयस्य / षष्ठाध्ययने उद्दे० १-एकान्तरिते-एकेन 'उयरिं चे' त्यनेन पदेनान्तरिते मूई (यं चेत्यस्मिन् पदे मूक इति शेयम् / विच्युशब्देन कृकलासाकृतयः जीवा उच्यन्ते / अम्बरीषाभाण्डः / उ०२-'अपरिमाणाये' त्यव्ययं दीर्घकालाथै यथा चिरायेति / दीप्तजिह्वादय:-शृगाल्यादयः / उ० 3 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये 'निम्माणेइ परी च्चिय अप्पाणउ न वेयणं सरीराणं / अप्पाणुच्चिय हिययस्स न उण दुक्ख परो देइ' // 1 // अस्या अर्थो यथा-निर्मापयति वेदनां परः सरीराणं-शरीरस्यैव आत्मनस्तु न वेदनां परः क-तुं समर्थ: / हृदयस्य तु ' अप्पाणुच्चिय आत्मैव दुःखं ददाति न तु पर इति गाथार्थ: / सपुट-विषमोन्नतम्। 'आँ' इति एवंपर्यायः / अवरुग्णवाहनानां-भग्नवाहनानाम् / मीमांसाअविचारणा / उ०.४-कृत्स्नं वाङ्मयमित' इति / इता-मासकाशात निर्गतमिति जल्पति / 'क्रीडनकमीश्वराणां' गर्वाध्मातजल्पकः क्रीडनकं जायते / 'गन्तु तत्थऽचय तो' अशक्नुवन् / उ०. ५क्षीबा इव-मत्ता इव / अष्टमाध्ययने उ०१ ऐतिह्यम्-अनादिवार्ता। 'अथवा अलोकोऽस्ति न च लेोका भवति, लोकोऽपि नामास्ति, नच लोका लोकाभाव इत्येवं स्यादनिष्टं चैदि'त्यत्रार्थो यथा-अथवेति प्रवेक्तिाद्विपर्य येणायोज्यते-पूर्व हि 'लोकोऽरती'त्युक्तं अत्र 'वलोका. ऽस्ती' (युच्यते / ततश्चात्रापि अस्तिना सह सामानाधिकरण्यात् यदस्ति तत्सर्वमलेोकः स्यात् 'न च लोक भवतीति कश्चनापि न प्राप्नोतीत्यर्थः। अथवा अलेोकप्रतिपक्षभूतो 'लोकाऽपि नामास्ति' परं न स लोकः प्राप्नोति किं तर्हि लोकाभाव अलोक एव स्यादित्यर्थ: / अथवा 'न चेति पाश्चात्येन पदेन सह सम्बध्यते, तद्यथा-लोकोऽपि नामास्ति परं न भवतीति तहि किं स्यादित्याह-' लेोका लेोकाभाव' इति / लोकः सन्नलोक एव स्यादित्यर्थ: तस्याप्यस्तित्वेन व्याप्तत्वादित्यर्थः / किश्चास्य व्याप्यस्य व्यापकत्वे सति लोकस्येत्यर्थः / द्विवचनबहुवचने अण्यायोज्ये वक्ष्यमाणसूत्रजाते इति शेषः / अध्ययने 9- किमिय.कस्यायं किमियः / उपपति:-पारदारिक : / .. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * द्वितीयः खण्डः गई भदृष्टान्तोऽपि यथा सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं च न विन्दति / सन्तुष्टश्च भवेन्नित्य - माचरेत्त्रीणि गर्दभात् // 1 // पटवासा-देवगन्धविशेषाः / निःश्रेोत्रम्-औषधविशेषः / मथुः-बदरचूर्णादिकम् / द्वितीयश्रुतस्कन्धकदशमोद्देशके-'तं नो वि (हि) त्ति वएज्जा ना हं दह (अणिहि) त्ति वएज्जा' इत्येतौ शब्दो परुषार्थों ' अन्नं वा फरुसं न वइज्ज' त्ति चूण्णिवचनात् / उपचरः-चौरसमीपस्थः। संस्तारकमपवर्तकम् उटकं इत्येकार्थाः / दूमियवसही-धवलिता / अंतेण वा-अन्ते इत्यर्थ: / मज्झेण वा-मध्ये / तृतीये सप्तैककेसेचनपथो निक्का कुल्ही इत्येकार्था: / प्रलेह्या गवादनी खाणस्थानमित्येकार्थाः / पात्रं समाधिस्थानं विष्ठामूत्रभाजनमित्येकार्थाः / 'चरियाणि' - गृहप्राकारान्तराणि 'डिंबाणि' - डमरविशेषाः / 'संतसावएग्ज'-सत् स्वापतेयं संवलकमित्यर्थः / // इत्याचाराङ्गस्य पर्याया: समाप्ता: // सूत्रकृताङ्गपर्याया यथा-सव्वामगंधं-आधार्मिकम् / पुद्गला: संस्कारा: क्षेत्रशा आत्मान इत्येकार्था: / जहब्भपडलस्स-अब्भोडिङ्गकस्येत्यर्थः / 'सत्तऽद्धतरू विसमे न मेहया ताण छ? नहजलया / गाहाए पच्छद्धे भेओ छट्टोत्ति एक्ककलो' // एतद् गाथालक्षणम् अशन्यसनेन ज्ञेयम्, अर्थस्तु यथा-सप्त मात्रा गणा ज्ञेयाः, अर्द्ध तरुगुरुच्यते, स च भवति, विषमे न मेधकागुरवः षष्ठे स्थाने किन्तु नभोजलदा: लघुगुरवः इत्यर्थः / वाममागोंदर्शनविशेषः / सूर्यसम्भेदिनोऽन्ये-सूर्यादुपरि स्वर्ग यान्तीत्यर्थः / त्रैराशिका-गोशालकमतानुसारिण एवोच्यन्ते / अध्ययने द्वितीये वैतालीयम् Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये वैतालीयं र्लगनैधना: षडऽयुपादेष्टौ समे चल: / ' न समोऽत्र परेण युज्यते नेतः षट् च निरन्तरा युजो: // अंशकान् न्यस्य ततो मात्राभिर्वैतालीयलक्षणं ज्ञेयम् / अर्थस्तु-लगरगण-लघुगुरवः सर्वत्र निधने कार्या: षट् च कला: अयुक्पादेविषमपादे, अष्टौ तु मात्रा: समे पादे कार्या: / तथा ल-लघुः समःसमपादोदर्भबो न परेण युज्यते लघुना सह, न इतो हेतोः षट् निरन्तरा लघवः कार्या युजो.-समपादयोरिति वैतालीयलक्षणार्थ:। समीतरुपत्र:-समीतरुपत्रवत् स्तोकमुपाय॑ते पुण्यं शाकतरुपत्रवन्च बहुतरं पातं गच्छति / उत्प्रोत्क(क्ष)ण:-आभाषकः / कुक्कटसाध्यःमायासाध्यः ‘दंडकलियं करिता' इत्यादिगाथार्थो यथा-दंडकलियदण्डरीतिं कुर्वाणा: / यथा कोलिकदण्डे सूत्रं उद्वेष्टयते निखिलमपि तथा आयुरुद्वेष्टयन्त: वासरा प्रयान्तीत्यर्थ: / कण्हस्स पिउच्छापितृष्वसा / पियपुत्तभायकिडगा-कृतकचात्रादिव्यपदेशतः पते प्रच्छ-' नपतय इत्यर्थ: / 'न य तुप्पिज्जइ घयं व तेलं वा' न तुप्पिजइन चोपडिजइ / टकवस्तुल इति नाम / 'लोहिकुंथुरूवाई' ति / लोहिकुन्थवो-जन्तुविशेषाः समवयरमाणा-आश्लिष्यमाणा: ।क्षाद्रणचूर्णविशेषेण / सौंडीयम्-आपद्यऽविषण्णता / द्वितीयश्रुतस्कन्धेडिब:- परानीकशृगालिका भयमित्येकार्था: / डमर-स्वगष्ट्रक्षोभः / पुष्करिणी-तडागरूपा / धर्मलाभादिकं द्रम्मादिकम् / थूरियाटका: खुलुका इति जङ्घाद्यवयवविशेषाः / दशद्धि गुजो माषः / (खड्ग) खेटको-असिफरको / खर्रावशदमभ्यवहार्य-सुकुमारिका मोदकादि / अर्भक:-बालः / कुहणककन्दुकादयः-प्रत्येकवनस्पतिविशेषा: वर्षाछत्रादयः / गंडी-अहिरणि काष्ठम् / अब्भवालुय-अभ्रकमिश्रवालुका / अध्ययने ४-अपूर्वाया अभावात्-अपूर्वजीवोत्पत्तरभावात् / अध्ययने ६-अत्यङ्गानि-प्रधानानि / 'संसारमोचकादीनामपि' इति / ये Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः खण्डः मारितोऽयं वृद्धादिः सुखी भविष्यतीति बुद्ध्या व्यापादयन्ति तेषां म्लेच्छादीनाम् / आततायिनशब्देन गोघातकादयः षद उच्यन्ते / 'अकल्ककुहकाजीवनं' कल्कः-पापं कुहकः-मायागोलकादिकः ताभ्याम् आजीवनं यत्र नास्तीत्यर्थः / 'व्रतेश्वरयागविधानेने 'ति / व्रतार्थम् ईश्वरस्य यागविधानं तेन / अध्ययने ७-'गतं न गम्यते तावदगतं नैव गम्यते' इत्यादिश्लोकार्थस्तु यथा-अतीतगमनक्रियं वस्तु न वर्तमानक्रियायुक्तं भवति, अगतम् अनागतक्रियं न वर्तमानक्रियं भवतीत्यर्थः / इति सूत्राकृताङ्गपर्याया:॥ स्थानपर्याया यथा-वैशा-जाड्यम् / आश्रवणक्लेदने लालानिर्गमार्द्रताकृत् अम्ल इत्यर्थः। रिषभसेन:पोण्डरीकः / ठाणे २-खण्डः सण्डः कल्होडकः / उक्षा-सम्बन्धनम् / अत्थवावर्ण-अर्थव्यापनम् / 'गणहरथेराइकयं' इत्यादिगाथायां यथासङ्ख्यं, यथा गणधरकृतं ध्रुवं 1 थेरकृतं चलं.२, तथा आदेशात् कृतं ध्रुवं 1 मुक्तव्याकरणकृतं चलमिति। तथा ध्रुवम्-अङ्गप्रविष्टं 1 चलम्-अनङ्गप्रविष्टम् 2 / 'कर्मकर्तृप्रयोगोऽयं' कर्मवभावादित्यर्थः / ततो 'भवति सम्पद्यते' इत्यर्थः / 'असज्ञिनश्च नारकादिषु व्यन्तरावसानेषूत्पद्यन्ते, न ज्योतिष्कवैमानिकेष्विति तेषामसज्ञित्वाभावादिहाग्रहणं' इत्यस्य वाक्यस्य तात्पर्यार्थो यथा-असज्ञिन: ज्योतिष्कवैमानिकेषु नोत्पद्यन्ते इति तेषां ज्योतिष्कवैमानिकानाम् असज्ञित्वाभावादग्रहणं / त्रिसोपानप्रतिरूपका:-यत्र दिक्त्रये सोपानानि प्रतिद्वारं स्युः / पूषा चेतीश्वरा भानां' भानामिति नक्षत्राणां / गेंदुकः-दण्डकः / 'दृष्टिगोचरातिसूक्ष्मद्रव्यासङ्ख्येयभागमात्रसूक्ष्मपनके ' त्यादेरर्थो यथा-यत् दृष्टिगोचरम् अतिसूक्ष्मद्रव्यं तस्याऽसङ्ख्येयभागमात्रे पनकजीवो यः तच्छरीरासङ्ख्यातगुणखण्डीकृतवालाग्रभृत इत्यर्थः / 'एत्तो अद्धाइ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये नियमेण' मिति द्वादशवर्षसंलेखनाया अर्द्धादिनियमतो विधेयमित्यर्थः। 'तत्र नारका: कति कति-सङ्ख्याता: सङ्ख्याता एकैकसमये ये उत्पन्नाः सन्त: सश्चिता: कत्युत्पत्तिसाधात् बुद्ध्या राशीकृता: ते कतिसञ्चिता' इत्यस्य तात्पर्य-यथा कति कति इत्यस्य पर्यायोऽयं सङ्ख्याता: सङ्ख्याता एकस्मिन् एकस्मिन् समये ये उत्पन्नाः ते भिन्नभिन्नस्थानोत्पन्ना अपि सङ्ख्यातोत्पत्तिसाधात् कतिसश्चिता उच्यन्ते-सङ्ख्यातसञ्चित उच्यन्ते इत्यर्थः / मेहनं-पुस्खलिङ्ग / भत्तीसह-भक्त्तौषधं / 'गुत्तो समियत्तणमि भइयव्वा' यत: संवृतकायत्वेन गुप्तोऽपि मनसा दुष्ट चिन्तयन् न समित: / ' तवजणवावारपरो' तपःसमुपार्जने व्यापृत इत्यर्थः / शुद्धचातुथिकादयः- चतुर्थभागग्रहीतार: कर्मकरादयः / नालिकबद्धकुसुमानि - वृन्तयुक्तानि / लेखाचार्या: - पाठयितारः / त्रिस्थानकद्वितीयोद्देशके तु 'पुरावट्ठपुराणे' पूर्वशिक्षितो यः पुराण: भ्रष्टः जात इत्यर्थ: / 'संविग्गो उज्जुओ य तेयसी 'ति / सांवग्गआदेयवचनः / तेजस्वीत्यर्थ: / 'बहुसो पयासो य' दुराचारस्य बहुप्रकाशक इत्यर्थः / 'अणइसेसी से' अनतिशायीत्यर्थ: / 'आसयपोसयसेवी-मुखापानयो: सेवकः / 'वट्टइ नयावि आवाए' न चोपकारे वर्तते इत्यर्थ: / हस्तिकल्पनं-हस्तिप्रगुणीकृतिः / चतुःस्थानकेषु - 'अइसंघणपरस्स-वञ्चनापरस्य / 'सुहदुक्खबहुसईयं' सुखदुःखबहुउत्पत्तिकम् / 'मोत्तण सगमबाहं' स्वकं-निजं / तम्हा स कालकालो' स मरणकाल इत्यर्थः / 'ओयरियावाआ'-औदरिकवादः / 'कलनी'-दाली। 'अस्थिताम्रफलानि'-आथीतानीत्यर्थः। * षट्प्रज्ञकगाथादिरूप' इति / षट्प्रनको ग्रन्थविशेषः / अध्यय० ५'देसविरई पडुच दोण्हवि पडिसेहणं कुज्जे 'ति / देशविरतिं प्रतीत्य द्वयोः सर्वद्रव्यपर्याययोः प्रतिषेधनं कुर्यादित्यर्थः / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H .. द्वितीयः खण्डः 'तदहिगदासनिवत्तीफलं'ति / अणुव्रतादिकदोषनिवृत्ति: फलं महावतकथने फलमित्यर्थः / ‘दोषान्नभुगि'ति / रात्रिपर्युषितभोजीत्यर्थः / 'ओमंथिय' त्ति / अधोमुखं / 'पास' त्ति पार्श्वन / तृतीयं तूत्तानं / आहारा-तन्तुका: / एत्थ पसिद्धी' उत्तरं / ओघसणं (ओसगण) बुड्डनं माणुस्से आभिआगे य' मानुषोपसर्गा: बलात् कर्म कायंते इत्यादयः / कालांतरसबीजा पडिसिद्धो विसइ-प्रविशति / 'भाजनं संमार्टि' भव्यरीत्या करोति / 'अजाघरे '-चामुण्डागृहे / प्रत्यइगिरां स्खलितादिरूपाम् / वग्घाडिय-मुहमक्कडिया। पडिसिद्धेसु य दोसे-द्वेषे / 'दहनाद्यं ऋक्षसप्तक' मिति / कृत्तिकाद्यमित्यर्थः / 'मैच्यादिकम्'- अश्विन्यादिकम् / 'यातुराशायां' गच्छतो दिशीत्यर्थः / 'परिघाख्यामनिलदहनदिग् रेखां' इत्यस्यार्थो यथा-इयं पूर्वोक्त्ता नक्षत्रपद्धतिः परिघाख्या भण्यते, तत इमां परिघाख्यां नक्षत्रपद्धतिमतीत्य-उल्लङ्घ्य किंविशिष्टाम् ? अनिलेन-वातेन प्रज्वालितदहना दिग् रेखेव तां / अध्य० ८-'पउमुत्तरो त्थ पढमो पुस्विमसीउत्तरे कूले' इति / पूर्व दिग्वतिन्या: सीताया उत्तरे कूले इत्यर्थः / अध्य० ९'साजीणे भुज्यते यत्तु, तदऽध्यसनमुच्यते' इति / सह अजीणेन भुज्यते यत् तत् साजीण म्-अजीण मित्यर्थः, अध्यसनं चोच्यते / इडा दक्षिणा नाडी वामा तु नाडी पिङ्गला। वैद्यकृष्टक:-वैद्यसेवकः / चिलातक्षेत्रे-म्लेच्छक्षेत्रे / चातुर्वर्ण्य-ब्राह्मणादिकं / 'समुहाइ समुस्सिओ व जो नवओ' इति / स्वमुखानि-द्वादशाङ्गुलप्रमाणनिजमुखानि यस्य देहे नवगुणानि स्युः, अष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्यदेह इत्यर्थः / प्रतिवेशिकराज:-प्रत्यासन्ना राजा। ओमवयभिक्खवियरणं 'ति / दुःकालात्यये / पुनर्नवा-साटडी / आग्नेयं-कृत्तिका, आदित्यं नक्षत्रपुनर्वसुरुच्यते / ब्राहम्यं-अभिजित् भृगुः-शुक्रः ‘भरणी स्वात्याग्नेयं' इत्यादिश्लोकेषु त्रीणि त्रीणि नक्षत्राणि प्रायः एकैकस्यां वीथ्यां योजनीयानि, यत: क्वापि चत्वारि नक्षत्राणि एकवीथ्यां सन्ति / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये अध्य० 10 - 'सतन्त्रीककरटिका' इति / करटिकायां हि तन्त्र्यो भवन्ति / 'परिणामो ह्यर्थान्तरगमन' मित्यादिश्लोकः द्रव्यार्थनयस्य मतेन / सत्पर्य येण नाशः इत्यादिश्लोकस्तु पर्यायनयमतेन / 'वेमाय' विमात्रया / 'जहण्णवजो विसमो समो वत्ति / जघन्यगुणवर्ज: जघन्यस्निग्धवर्ज: विषमः समो वा बन्धो भवत्येवेत्यर्थः। अचपटलस्येव' अब्भोडिंगस्येवेत्यर्थः / 'सइकरणं'ति स्मृतिकरणं / 'जम्मणविणीय उज्झा' इत्यादि-गाथार्थ: यथासङ्ख्येन ज्ञेयो वृत्तिं परिभाव्य अग्रतः पश्चाच्च द्वादशचक्रिणां वृत्तावुक्तत्वात् / 'सिलनिचओ रायहाणि' त्ति सिलनिचयः पर्वतः / 'पढमबीयदुओ' इति / प्रथमद्रतः क्षुधाद्रुतः, द्वितीयद्रुतः पिपासाद्रुतः / अनामिका-वृहदगुलिकाया लघुतरा / मधुमुखाः-भट्टाः / 'मावला:'-प्रकृतिविशेषाः / 'एगे भवं दुवे भवं' भवानित्यर्थः / स्थानाङ्गपर्यायाः समाप्ता: / समवायपर्याया यथा-'वाणमंतराणं सोहम्माओ सभाओ' तेषामपि सभानामतन्नाम / 'शरीरावयवप्रमाणस्पन्दितादि-विकारफलोद्भावकमिति - शरीरावयवप्रमाणस्य स्पन्दितादिविकारस्य च स्पन्दितं-चलनं / छदै:-पत्रैः / 'संतो हाइ अलोगो' इति-सान्तोऽलोकः प्राप्नोति। 'विमाणावाससयसहस्सा' इति-विमानावासशतसहस्राणीत्यर्थ: / प्रकीर्णक:-चामरः / 'जोयणसहस्स पढमं वाहल्लेणं च' इति-बाहल्यम् उच्चत्वमत्र ज्ञेयम् / 'पुढवोवलवइरसकरा पढमंतिपृथ्वीउपलवज्रशर्करामयः प्रथम इत्यर्थः / विभाजितं-विभाग: व्यवस्थितं समांशं-समविभाग योजनभ्येकषष्टिभागानां मध्यात् षट्पञ्चाशत् भागप्रमाणं चन्द्रमण्डलमित्यर्थ: / 'पण्णरसभागेण य' चन्द्रं कृत्वा राहुः पनरसमेव पञ्चदशभिर्भागः तं चन्द्रं चरति / 'कालो वा जोण्हा वा' इति-कृष्णो वर्ण: ज्योत्स्ना वा / 'सर्वेषां नक्षत्राणां सीमाविष्कम्भः सप्तषष्ट्या भागैः भाजितः समांश: Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः खण्डः समच्छेदः प्राप्त' इति-समांशता तु उक्तव्यतिरिक्तभागाभावात् समांशता न तु भागसमतयैव / 'सत्तदि खंडिए अहोरत्ते भागाओ एकवीसति - सप्तषष्ट्या खण्डितेऽहोरात्रे एकविंशतिर्भागा भवन्तीत्यर्थ: / 'एतदेव द्विगुणं षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणा' मितिद्विगुणत्वं च नक्षत्रयोईयत्वात् / 'न बाधते' इति-अबाधा-कर्मणोऽनुदय इत्यर्थः / तदेष चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं पूर्वमुच्यते' इति-पूर्वमिति सङ्ख्याविशेषः। 'तच्च स्थानम्' इत्यत्र पदछेदः कार्य: / 'स्थानान्तरमित्येवम्' इति स्वस्थान-स्थानं इति प्राग् व्याख्यातं, स्थानान्तरं तु पवं वक्ष्यमाणन्यायेन, तथाहि-पूर्व स्वस्थानं तदेव चतुरशीत्या लक्षैगुणितम् अनन्तरस्थानं त्रुटितागं भवतीति / 'चउदस नामा ओ अंगसंजुता' इति 'पुब्बतुडियाऽडड' इत्यादीनि चतुर्दश नामानि अङ्गसंयुक्तानि कार्याणि / ततोऽष्टाविंशतिः सङ्ख्याविशेषा: स्थानलक्षणा लभ्यन्ते / शीर्षप्रहेलिकायां चतुर्नवत्यधिकं स्थानशतम् अङ्कस्थानशतं स्यादित्यर्थ: / 'छेदेन अष्टादशलक्षणेन' इति / छेदेनअंशेन / 'एगूणपन्नासइमे मंडलगए अट्टाणउइ एगसद्विभाए मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुइडेत्ता' इति / एकोनपञ्चाशत्तमे मण्डले तिष्ठन् गविः रेकषष्टिभ गैः मुहूर्तो भवति तेषां भागानां अष्टानवति भागान दिनक्षेत्रस्य हानि नयतीत्यर्थः / धणूवि अंगुलानि 96 / नालिया-दण्डापकरणविशेषः जुगं-यूपं अक्षः-शकटसम्बन्धी, मुशलम् एतानि सर्वाणि हस्तचतुष्टयम् इति तात्पर्यम् / 'द्रव्यादिभेदात् वा विशतिर्वा' इति-द्रव्यक्षेत्रकालभावाः पञ्चसु इन्द्रियेषु चत्वारः प्रत्येक योज्यन्ते, ततो विंशतिरिन्द्रियाणीत्यर्थः / 'एत्थ य समलक्खणाइया जम्हा / नवनाययसंबद्धा अक्खाइयमाझ्या तेणं // तो सोहिज्जंति फुडं' इत्यस्य गाथाशकलस्य व्याख्या यथा-समलक्षणा:-समस्वरूपा: नवज्ञातसम्बद्धा आख्यायिकाद्या: तेन कारणेन शोध्यन्ते ततो 'वेगलानां' उद्धरितानां 'पुनरुक्त्तवर्जितानां' अर्द्धचतुर्था एव Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये. कथानककोट्यो भवन्तीति तात्पर्यार्थ: / 'अनशनिनां भक्तद्वयछेदो भवती' ति व्यासनकापेक्षया / 'तृतीयकप्रणायकभेद' इति / तृतीयप्रतिपादकभेदस्य सूचनार्थ इत्यर्थः / बोधनं-प्रज्वालनं / 'शेषमूलगुणा:' प्राणातिपातादिपूर्वोक्तमूलगुणापेक्षया शेषाः मूलगुणाः / ‘एको य होइ सन्वटे' लक्ष इति शेषः / 'दर्दरेण चपेटाभिघातेन' इति / चपेटाभिः भित्तिषु दत्तपश्चागुल्यः / 'ओगाहित्ता' अवगाह्य-ऽधो गत्वेत्यर्थः / मनुष्याणां आवासा: शरीरलक्षणा एव / 'ऊर्ध्वम् अच्युतं यावत्' इत्यादिवाक्येऽर्थो यथा-इह मनुजलोके उत्पद्यमानस्य अच्युतादिति तात्पर्यार्थ / तत: अच्युतमनुष्यलोकयोः अन्तरम् ऊर्ध्वलोक इहोक्तः / नरके सामान्यापेक्षया द्वादश मुहूर्ता: सर्वनरकापेक्षया, यतः द्वादशमुहूर्त्तानन्तरं सप्तानामेकत्रापश्यं नारकोत्पत्तिः। // समवायपर्याया: समाप्ता: // भगवतीपर्याया यथा-शते 7 उ०२-'तिरियाणं चारित्त' इत्यादिगाथार्थो यथा-तिरश्चां पश्चमहाव्रतारोपणं स्यात् अष्टादशपापस्थानोच्चारणे सति इत्यर्थः / उ० ९-तृणशूक-तृणसिलूः / समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणप्रधाना राजानो गणराजा:-सामन्ता: / शते 25. उ० 3. स्थापना सङ्ख्यात- ब्रह्मलोकतिर्यगु- | 'तिण्हं सहस्सपहत्तं' इति / त्रयाणां प्रदेशाः मध्यप्रान्तश्रेणयः / | सम्यक्त्व-थुतदेशविरतिसामायिअलोक- अधोलोकको- | कानां / 'तदद्वयस्य भावात श्रेणय: पश्रेणयः / / साधुसाध्वीद्वयस्य भावात् 'विश तिरेव तेषां' साधुसाध्वीनां श्रूयते // इति भगवतीपर्यायाः समाप्ताः // Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः खण्डः प्रश्नव्याकरणपर्याया यथा - ' सूत्र ब्यवस्थाप्यमतो विमृश्य व्याख्यानकल्पादित एव नैव' इति व्यारव्यानकल्पात्-प्रज्ञाशास्त्रपुस्तकादिलक्षणात् इतः-पूर्वोक्तात् नैव सूत्रं व्यवस्थाप्यमित्यर्थः / 'संसारमोचकाः' इति / वृद्धोऽयं अन्धोऽयं इति भणित्वा ये मारयन्ति ते संसारमोचका: / 'व्रणे श्वयथुरायासात्' श्वयथुःशोफः / इति प्रश्नब्याकरणपर्यायाः // जीवाभिगमस्य यथा-'सतः सम्भूतभावस्य चारु रूपं फलं च यद्' इति, सत:-आप्तात् सम्भूतभावस्य-शास्त्रस्यत्यर्थः, चारु रूपं फलम्-अभिधेयमित्यर्थः / 'वचनाजिनसंसिद्धः तन्नरर्थक्यमन्यथा / तन्नरर्थक्यं-वचननरर्थक्यम् / 'सर्वशादपि हि श्रोतुः तदन्यस्यार्थदेशने' इति / श्रोतु:, किंविशिष्टस्य ? तदन्यस्याऽसर्वज्ञस्येत्यर्थ: / 'तदाधिपत्यादाभासः सत्त्वार्थेषपजायते' इति, सत्त्वार्थेषु-पुरुषार्थेषु इत्यर्थः / जीवाभिगमपर्याया: समाप्ता: // प्रज्ञापनाऽष्टादशपदे-'देशतोऽपि स्वावगाहनाततप्रदेशोऽयमनाहारक:' अयं केवली स्वावगाहनया कृत्वा विस्तृतप्रदेशोऽनाहारकः स्यादित्यर्थ: / विशतितमपद-'मुहतूरए चेव'त्ति / मुखवाद्यानि डिम्भानामिव / गोविसो-गोवृष: ।"घयणुव्व छले' इति / घयणोभाण्ड उच्यते / धाटि-भैश्योपजीवि (न:) त्रिदण्डिन: धाडीवाहा भण्यन्ते / त्रयोविंशतितमपदे-'स सर्वज्ञत्वाश्च भवति' इति / स व्याबाधाभावः / व्याबाधाभावो नुः स्वस्थस्य ज्ञस्य ननु स सुखं' इति / व्याख्या यथा-सुखं कि भण्यते ? स व्याबाधाऽभावः, कस्य 1 नु:पुरुषस्य, किविशिष्टस्य ? स्वस्थस्य पुनः ज्ञस्य अहा? | शरीरसम्बन्धात् 'अगुरुलघु आत्मानं नमति शरीरं न गुरु नापि लध्विति' शरीरं कर्तृ आत्मानं कर्मतापन्न नमयतीति तात्पर्यम् / 'खद्योतबुध्नादिषु' इति / बुध्नं-गुदप्रदेशादि / 'बेइंदियजाइनामेणं पुच्छा / गो०१ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये जहण्णेणं सागरोवमस्स नव पणतीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेजहभागेणं ऊणगा' / अर्थस्तु-यैः पञ्चत्रिंशदाभिर्भाग: सागरीपमं स्यात् तेषां भागानां मध्यात् नव भागा इत्यर्थः / 'वन्गुकोसठिईणं मिच्छत्तुक्कोसएण अं लद्धं' इत्यादिगाथा व्याख्या-बर्गोत्कृष्टस्थितिनां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटिप्रमुखानां मिथ्यात्वोत्कृष्टस्थितिना सप्र्तातसागरोपमकोडाकोडिलक्षणया गुणने यत् लब्धं शेषाणाम अयं जधन्यः स्थितिकाल: पल्योपमासङ्ख्येयभागोन इतिगाथार्थः / 'जहण्णेणं सागरोवम पणवीसाए तिन्नि सत्त भागा' इति / अस्य वृत्ति:-एए चेव सत्त भागा बेइंदियठिइबंधे षणबीसाए गुणिजन्ति / द्वयोरपि भावार्थो यथा-सागरोपमसप्तभागा: पञ्चविंशत्या गुण्यन्ते, तत: सप्तभागानां पञ्चविंशत्या गुणितानां ये त्रयो भागा: ते गृह्यन्ते, पल्योपमासङ्ख्येयभागाना: प्राक्तनसप्तमागेभ्यः एते स्थूलतरा इत्यर्थ: / 'दरिसणावरणिज्जादी' दर्शनावरणीयादो इत्यर्थः / 'असंखेप्पऽद्धपविट्टे' असक्षेप्यकालप्रविष्ट इयर्थ: / 'गो० ? जेणं जीवे असंखेऽद्धपक्ट्रेि सवनिरुद्ध सेसे आउए सेसे' इति सूत्रानन्तरं पदच्छेदो ज्ञेयः तदनन्तरं सब्बमहंतीए आउयबंधऽद्धाए इत्यादि सूत्रं ज्ञेयम् / 'कम्मभूमग-पलिभागी-गम्भिणियाऽवहियकम्मभूमिथिजाओ जाइस्सरणाइणा भावलिगं पडिवज्जइत्ति / अर्थो यथा-कर्मभूमिजाया: अपहृताया:स्त्रियो जातः पुरुषः भावलिङ्गं प्रतिपद्यते यः स कम्मभूमगपलिभागी पुरुष उच्यते / पदे २८-'चुक्कखलितन्यायादविरहितः यन्निरन्तर-मनाभोगाज्जायते आहारादि तत् चुक्खलिय'ति भण्यते / पदे ३३-जवनालिया-कन्याचोलकः / 'नेरइयाणं भंते ! ओहिस्स किं अंतो बाहिं' इति / किं अन्त:-अविच्छिन्नः सन्ततः, बाहिं ति विच्छिन्न इत्यर्थः / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः खण्डः * 'कृत्वेत्थमेतां यदवाप्तमत्र, पुण्यं मया तेन भवन्तु भव्या: / प्रज्ञापनार्थावगमान प्त)शुद्ध-भावान्विताः सत्त्वहिताय नित्यम् // ' // इति प्रज्ञापनापर्यायाः समाप्ताः / / निशीथचूणिप्रभृतिपर्याया यथा - 'अत्थेण कारणं पप्प' अत्थेण-भाष्येन / कारति रुचि: / 'लोमसियाण'ति-चिन्भडी / ओसन्न-प्रायः / गोथुमो-वायविशेषो मेषो वा / उग्घाडापोरसीद्वितीय प्रहरः / 'कोकारसद्दभिहाणेण य'त्ति कोशब्देनेत्यर्थ: / समावत्तीए-समीपे / आणखेऊण-विज्ञाय / वाहित्ता-आकार्य / 'तओ उठिएण'त्ति-रोगादुत्थितेन / सइज्झियथेरी-प्रातिवेशिकस्थेरी / कुडिया-शरीरं / अंबम्गहणपरिच्छडो-आम्रगोच्छकादि / गोजो-नट: / पढिउमावाहेइ-विद्यां परावर्तयति / न वहइ-न भवति / 'गोयारिया' एतत्प्रत्यन्तेन / 'वंजणसंजोगा व्यक्त' इति / पञ्चमी ज्ञेया / 'दोसु माओ दुमत्ति, दोसु पुढवीए आगासें च / 'कलिदावरणे भंगाण'त्ति / प्रथमद्वितीययोरित्यर्थः / 'घडस्स दंडादओ'त्ति / वैधर्म्यदृष्टान्तः / 'मासकणफोडिय'त्ति / वग्घारिया कण कुंडगा तिउडेरा / मोय-मूत्रं / सहोढः-सलोडः / वल्लिकरंतुम्बं / समाहिसु-मत्तपसु / 'बुक्कन्नएहिति घाटिकया / 'अणुक्करिसणवकं दट्ठवं'ति / अजघन्यमित्यर्थः, उत्कृष्टं पाराञ्चितं / 'च: अणुक्करिसणे'ति / अमूढदिट्टीयत्ति यश्चकारः / 'पाहडिय (वाडहिय) संजइ'त्ति गर्भवती / निक्केइया-प्रसूता / अप्पाहेइ यभणति च / कालियाए-रात्रौ / ईलएण-दात्रेण / 'मणोहिय अइसय अझयणा यत्ति / मनःपर्यवज्ञानावधी / 'वाचाचावल्लफरुसपिसुणे'त्यादि / वाचश्चापल्यादिषु प्रवर्तननिग्रहकरणं / मोणेण वासति / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये आसणमिति ज्ञेयम् / नसणं-न्यसनं / 'तणुगइकिरिय समिई' तनुगतिक्रिया ईर्यासमितिर्भवति / 'मायापवयणत्ति / प्रवचनमातरः / वीरियं पि तदंतग्गयमेव' तपश्चरणान्तर्गतमेव / 'भट्ठ'त्ति-भडत्रं / 'वेयणोदीरणेवि अवियलत्तं' अविचलत्वं इत्यर्थः / अप्पजत्तगोत्ति / अप्पज्जत्तग' इति पाठे अपर्याप्ताङ्गोऽपरिपूर्णाङ्ग इत्यर्थः / 'सीअग्गि'त्ति / ईषद विध्यातोऽग्निः कोऊ वा। कन्नसं-चेटांगुली। सत्तटाणे-शत्रस्थाने / पिट्रिमो-पश्चिमः। 'उवचारेणेव पंचम अग्गं ति भाष्ये / उपचारेण-पाठक्रमेणेत्यर्थः / प्रकर्षाद्वा कल्पनंविरचनमित्यर्थ: / 'सुर्याजयकरण'त्ति / कृताभ्यासा:। गंडी-काप्टविशेषं / 'सीहकण्णपासाय'त्ति / प्रासादविशेषः / 'पटुकरणथंति / स्पष्टीकरणार्थ / उदकचलणी-गडुलकदमः / कम्मगंठी विगयइघिद्राति / 'आयाराइ-निक्खेवदारगाहा गय'त्ति 'आयारे निक्खेवा' इत्यादिका . / 'बीयगाहाए य आयारमाइयाइंति गयं' 'नवबंभचेर' इत्यादिगाथापेक्षया द्वितीयगाथयेत्यर्थः / ‘स कत्ता तकरणेहि पयत्तं कुव्वाणो तदत्थं कजमभिनिष्फाएइत्ति / स कर्ता कुम्भकारादिः. तकरणेहि-मृद्दण्डचक्रादिभिः, तयाथ-घटाधर्थ, कर्ज घटादिकं / पण्णवग आह-प्रज्ञापक आहेत्यर्थ: / 'पडिसेवणं पडिसेवयतीनि प्रतिसेव्यं वस्तु इत्यर्थ: / सेवत्थे-श्रयणीयार्थे / भयं-भज / 'अघवायसहिए कप्पे दठियत्ति। स्थविरकल्पे इत्यर्थ:। 'अट्ठमोसंघयणभेओ' तत्त्वार्थसूत्रापेक्षया / 'अणेगवायामजोग्ग'ति / एकस्यैव व्यायामस्य योग्यां क्रियां / ज जत्थ खेत्ते अच्चियं-उत्कृष्टमित्यर्थ: / 'कमोवण्णत्थाणं' क्रमोपन्यस्तानाम् / 'कहं ? दर्पिकाया' इत्यादि / एतदव्याख्यानायाह-'कहमि'त्यादि / 'पुवं जयणपडिसेवण भणंति'त्ति / कल्पिकप्रतिसेवनं / 'जइणा असणाइकिरियपवत्तेणं' Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः खण्डः साधुना ' अशनाद्य क्रियाप्रवृत्तेने यर्थ: / तं च किं असंजमो' निर्वाहः / अग्गद्धस्स-प्रथमार्द्धस्य / सामते(सोमले)राण-देशविशेषोद्भवानाम्। 'छेयमूलदुग' मितिभाध्ये, दुर्ग अनवस्थाप्यपाराश्चितलक्षणं / 'गेहीओ साइजणा' अभिवङ्गः / 'दहरचारा' घायगा इत्यर्थ: / 'चारिया-भण्डिया'हेरिका एकार्था: / 'विगिच्चमाणो' उत्कर्त्यमानः / 'संझावासणं' प्रतिक्रमण / 'वियडण चरिमाए भायणाणित्ति / पादोनप्रहरप्रत्युपेक्षणायामित्यर्थ: / 'एगत्थपतिवायगोदाहरणाणति / एकार्थस्य प्रतिवाचकोदाहरणानाम् / 'हत्थिणा पक्खित्तो' ग्रहीतुमारब्धः / 'तहवि से लिंग न दिजइ तस्स वा अन्नस्स वा' इति / तस्य गृहीतव्रतस्य, अन्यस्य-अगृहीतव्रतस्य / 'सण्हतंदुल'त्ति / श्लक्ष्णतंदुला: / 'एवचिरं थाविधण'ति / इयन्मात्रम् / बोहिगा-मानुषापहारिणः चौरा: / 'छगणछिप्पोली वरिसोवट्ठाविया' इति / छिप्पोली-छाणी, वरिसोवट्टाविया-वृष्टयवृष्ट-1 खित्तादिनिमित्तं-प्रथिलादिनिमित्तं / भूधरोव्वरो-भूमिगृहापवरकः / 'एस आदिसद्दो वक्खाओ'त्ति, 'दीहाइय' इत्यत्र 'कुड्डमाई' इत्यत्र वा यः। 'उहिनिप्फन्नं सठाणाओ'त्ति / लघुपणकादेः / 'उदसिमावियपोत्तया वा' इति, उदस्विता-तक्रेण भावितानि / वरणो-सेतुबन्धः। संडेवगा-पाषाण: / आरपारमागमणं-अर्वाग् पारागमनम् / गवंगरसभायणनिक्केयण-गोरसभाजनधावनम् / सल्लोयणो-शाल्योदनः। 'धम्मकरगाइ परिपूर्य'ति / मुखनिविडबद्धगलनकेन अधश्छिद्रितघटेन यत् गल्यते तस्य धम्मकरगपरिपूयमिति सज्ञा / 'पडिणीयाउंटणं काउकामो. करणं'ति, वाउल्लगादि / विषोपयुक्तेतरभुक्तेमोदकादो भुक्ते / - 'जोई-उदितं'ति / जाज्वल्यमानो वह्निः / 'अगणीए छेयणगा निवडंति' वस्त्रपक्ष्मविशेषाः / 'असंपत्तो वा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये जाणुकोप्परेहिति / वाशब्दात् प्राप्तजानुकूपराभ्यां जा धरए जाईत्ति भवति / 'सूलाइ तावेउ'ति / शूलादिकां व्याधि तापयित्वा / विलेवी-जवागूः / 'तेण वा अप्पमाणे' अपूर्यमाणे इति भावः / खद्धन्गिणा-प्रचुराग्निना / 'ते पुण लोए चुंपा(चोप्पा)लया भणंति' जालिकायुक्ता भित्ति: / तु मुरुली वसुलीति प्रसिद्धा / 'सिय अभिप्पाओ' स्याद् इत्यर्थः / सवरिवायस्स-रात्रिवातस्य / फिडिया-च्युताः / 'एयस्स चिरायणगाहापायस्स' चिरन्तन-- गाथापादस्येत्यर्थः / 'अगीएसु विकरणाणि काऊणं'ति / विकरणानिछेदनानीत्यर्थः / 'प्रयात: पंथेत्ति / 'प्रयातुमारब्धः / पलूगस्सथलही / 'सिइ(मित्ति)फलगाण'त्ति / निश्रेणीफलकानाम् / 'अजयं परिहरंतो' भुजान:। भत्तट्ठाइकरणनिमित्तं-भक्तार्थादिनिमित्तं / निवजाति-शेरते / भुइ ददति / / भस्म इत्यर्थः / 'धन्नकारित्ति / भ्रमरिका यासां गृहाणि भित्त्यादिषु दृश्यन्ते / 'न रयत्ताण विकप्पणाऽवस्थाप्येति / न रजस्त्राणे निक्षिप्य निरीक्षणीयाः / 'सहिणा सत्तुगा'श्लक्ष्णा: / ऊरणीया-ईलिकाः / 'जइ उउवासासु संसत्तावि वसही पुवाभिहियपमाणेणेव असंसत्ता भवइ त्ति / यदि ऋतुबद्धवर्षासु संसक्ता वसति: पूर्वाभि हतप्रमाणेनैव प्रमार्जिता सती असंसक्ता भवति तदा तावन्मात्रैव वसतिः प्रमार्जनीया / 'अणंतरीयं पाउणि तहिं संकामेति'-अ(न्वं) तरवस्त्रं प्रावृत्य वाह्यसत्का: चटन्तीत्यर्थः / 'पिउडं पुणं उज्झ' किल्विषं कचबरी गवादीनामुदरोदभवः / 'मज्झत्थपुरिसधन्नमवणं'मीयते धान्यमित्यर्थः / सरिसवावणं-युगपद्वपलम् / 'परिपूय परिसोहिय' सर्वमलापनीतानीत्यर्थ: / वालुगं-कोटीभिडकं / डोवेहि-मिठिलेहि / गोदहा-नटाः / 'पयंगसेणा इव भूबिलाओ' यथा पतङ्गसेना भूविलात् निर्गच्छति / तेणम्हि उच्छित्ती-तेनास्मि उत्रासित: / तिलचलणी-तिलपङ्कः / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 द्वितीयः खण्डः मासपायवे-मासपादपे / धाराधरणट्याए-गगांधाराधरणार्थम् / सामिागह-स्कन्दकगृहम् / 'वालगांते कुडियगीवाए'त्ति बालगंपुच्छं तदन्ते / महसेणं-स्कन्दकं / 'ओलंपियं' सिंटितं हारितं 'जंबुपहि छाएहि' बुभुक्षितैः / महिसिछिप्पा पुंछ / 'उदग्गभोयणमं डॉलत्ति उदग्रा-संपूर्णा परिवेस परिचियं राहुणा ग्रस्यमानं / 'सहोढपच्चुत्तप्पयाणं'ति, सलोद्रचौरस्येय उत्तरप्रदानं / आमंति इत्यादिकं / दिसावहार वा-शिष्यापहारं / भूमियं-थवियं / कुडमुहो-कंठओ / 'न खेत्तिएसु' परक्षेत्रिकसाधुषु / 'सामछण कोभत्त'मिति भाष्यवचने सामच्छण-पर्यालोचनं / सिद्धपुत्तो-मुक्तवत: / 'देवद्रोणी जाय'त्ति यस्यां पार्श्वस्थादयः अर्हतामादानानि भुञ्जते सा देवद्रोणी / जोगच्छित्ति / गिहत्थेहि-अधिकारिगृहस्थैः / आसुकारिण:विनाशका: / 'नकुलद्यादि औषधं' नकुला-औषधी महिष्यादीनां वातापहरणार्थ दीयते / 'तचणिगि रत्तपडी' परिवाजिका / 'सापज्झिया समोसइया' प्रातिवेशिका इत्येकार्था: / तइओ नपुंसगवेओ-स्त्रीपुरुषाभिलाषलक्षण: / अणुठोभगो-ओष्ठहीनः / 'पुवणियं तु कारगगाहा' इति, उक्तगाथेयं ज्ञेया। कम्मिवि निओएआवसथे / 'न सुटुप्पगासे' अल्पप्रकाशे इत्यर्थ: / 'सगो ताओ पारंचिएवि करिजा' नि:सारयतीत्यर्थ: / 'नीए वासे सेवेज' स्वजनानित्यर्थः / 'खड्डाकुमा(सा)रो' इति / जत्थ पोल्लारभूभीए पाओ खुप्पइ एस कुमारः / अकालघायगो गर: / 'झरणे तकितपरंपरओ'त्ति, बिन्दुपाते मक्षिका याति, तस्यां घिरोलिका, तस्यां तु मार्जारी इत्यादिका ज्ञेया / 'सञ्जक्खयाओ' सद्य: क्षतानि / 'उक्कोडुयं सूल' कादाचित्कं / 'अग्गिए वा वाहिमि'त्ति, भस्मक: 'उद्दद्दरे सुभिक्खे' धान्यसंभृत कुशूले सुभिक्षे आपिवनं / 'अईयत्तीपहिवा' Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याय इति, वाहनतप्तिकारका मूलसार्थवाहेन नियुक्ताः / / एत्थेवेद गाहापुचद्धं भावेयव्वं' इति, 'एस गो वंजणमीसपण' इत्यादिकः / 'अज्झपूरयं गिण्हउ'त्ति, आत्मपूरक / 'भत्तमीसोवकावर्ड' फचरिप्रभृति / 'निम्मीसोबक्खड' केवल मन्नं / 'अद्धाणकप्पमायण' रात्रिभोजन / * उद्दाइयाए' मारीए / 'जहा गंड पिलागवा' इत्यादिगाथाव्याख्या - पिलाग- फोडिया विण्णवण थी-विज्ञा-. पनास्त्रीषु / ' हा दुडु कयं कारगगाहा' उक्तगाथेत्यर्थः / 'मूलं भवतीति चारित्रशुद्धमित्यर्थः / सुद्धा पडिसेवणा अजयणाए निप्फनं पच्छित्तं भवतीति शुद्धः पाठ; / 'चुलियं व (चुलि) वंदणागारेणे'ति, उल्लुकभिवेत्यर्थः / कयलगनादी-कदलीफलादीनीत्यर्थ: / बाडेन-वेगेन / पश्यतंबूलं-शदितताम्बूल: / एन्थ पव्ययओ अपवयं तेलु य इति पाठः / विद्धि लक्खणं-जानीहि / "तंतुगार-लोहगाराइ' इति / तंतुगारा:-कुविन्दगा: / ओमजगाइसउजणादिषु / बिबयं-बीबकामांत रूढम् / निल्लेवगाइ कायं निबत्तेइ' इति / निल्लेवगा-छिपगाइणा ते कार्य-प्रत्तोलकादिक विस्बेन निर्वर्तयन्तीत्यर्थः / 'लाउनालो' बोंडी तुवकनालमित्येकार्था: / 'संजई वा मा हत्थकम्म'-विटस्थ योनिप्रवेशरूपम् आवरिसंता-- छटकादिदानेन वर्षन्त श्वेत्यर्थ: / उड्डंचगो-वञ्चकः / कोट्टीयंहास्यादि / विहिानग्गया-अरण्यनिर्गता / साहीणभत्तारा-स्वाधीनभर्तृका / माउलदुहिया आभवा-आभजइजा इत्यर्थः / अप्फुन्नाव्याप्ता / 'ववहारो वि तेणति / राजकुलादो व्यवहारः कार्य: / 'वाइयजीएणति / वाचं वक्तीत्यर्थः / 'अभिसेगारिय'त्ति, अभिसेगो-उवज्झाओ। 'अंतपए दोवि गुरुगा'तपःकालाभ्यां / दोद्धियनालियं-तुबकबिटं / माइसलागा-त्राकुप्रति / परिसाडनिमित्तं-पडणनिमित्तं / 'ओमुत्तितलयं वा' सादिमूत्रेण Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः खण्डः खरण्टितं / 'खयं वा'-क्षतं वा' / गंध-वासलक्षणं / 'असंनिहियऽपरिगहे'-अपरिग्रहेषु / 'अड्ढोकंतीए' गृहीतमुक्तन्यायेन / 'पायावञ्चपरिग्गहे' पातिपरिग्रहे। 'धरणिपुत्तो'-कुम्भकारः उड्डो वा। 'मायगुन्गुलियाणं भौता:-भस्मिका: / सेहासिहेति लोकरूढा / कारण-काउडीए / 'आइमा चउरो' दंडादयः। 'मच्छियडोलाइ'ति, डोला:-तिड्डाः / उक (उज्झं) खणी-सजलवाउली / 'अंतोबहि कसिण इयरं वा' इति, कसिणं-प्रधानम् अन्तः, इतरम्-अप्रधानं वाहः / पासगं विलं-नकयं / 'धुयावणं' दयावेइ' मोल्लं / 'परिघट्टणं नमायण' बहिर्गतान्तर्गतत्वकमलाद्यपसारणम् / 'एकैकवचनं निगमनवाक्यमाहु' रिति / दादिकमेकैक न तु जघन्यादि / सुत्तद्धति / चतुः-सूत्रेभ्यः सूत्रद्वयं व्याख्यातमित्यर्थ: / किन्तु अपजत्तियं-लघु / मुद्दियावन्धस्थापना यथा xxxxxxxxxxxxx / नावाबन्धस्थापनाwv / कुयवा-घरकोउ जटिलकंवल: / 'ओझाइयया परिहरिया'दुर्वर्णत्वं परिहतं भवतीत्यर्थः / स्वखाइग्नु' रव:-कणिका तस्या अक्ष:-चालनिका / 'पयालणी कसा' तस्या: सेवनी / निभंग:पट्टिया उट्टणी / दुक्खीला-पाणहसेरणी / एगखीला-वहंतसेवणी / गोमुत्ता-कंथाइषु / झसडा-खजूरी / 'विसरिया सरडो भन्नई' गाण सीवणी भन्नइ / अतजाएणं गंजा-सीवयेत् / 'घरधूमे सुनिबंधो तज्जाइयसूयणट्ठा कओ' इति सूत्रे गृहधूमग्रहणं तजाइयस्स-कुष्ठस्य सूचनार्थ कृतम् / 'पाणगपुरीसं'ति, सुरापायिविष्ठा / पडियाणिया-थीगलं / फुडयं संठवेइ-चुल्येकादशः / 'एष एव गतार्थो रन्धनकल्पेषु' इति, एवं स्थितार्था प्रतितिव्या / काले वासति-वर्षति / 'वग्धारियवुठिकायंमि' प्रचुरवृष्टिकाले / उत्तणेसु-उत् ऊर्ध्व तृणेषु / ओसाए-अवश्यायेन, विसुयावेइउम्गवेइ / 'पुवे अवरंमि यत्ति भाष्ये, उत्सर्गपदे अपवादपदे च / Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये भाष्ये-सिन्हाए ऊसाए / भाष्ये-उडाय पमज्जंतेत्ति, रजोहरणाग्रेषु मलग्रन्थयः / उग्गमियं-लब्धं / पयडिमयं-नालिकेरिछल्ली / 'सयणसमोसिगाइ' समोसिगा-प्रातिनिवेशिका: / 'वक्ष्यमाणषोडशभंगमध्यात् अमी अष्टौ घटमाना: शेषा अघटमानाः' / 'आइन्न लहुसएणं' गाहा इत्यादिकः सर्वोऽपि ग्रन्थः, एतद् भङ्गाष्टकं षोडशभगमध्यात् लिखित्वा ज्ञेयं, तथाहि - (आचीर्ण-लघुस-कारण-देश: प्रथमः) 'तृतीय आ० ल० का० दे० शुद्ध: / / चतुर्थपञ्चम- / / / / 1 | | 7 | 0 षष्ठभग- ऽ / 3 | 0555| 15 | . विपर्यास: 5 | 5 | 11 | 0555516 | 4 प्रदर्शितः' ऽ / ऽ ऽ 12 | 4| शून्यादिप्राय: इत्यस्यार्थो / ऽ / 50 चित्तानि यथा-अष्टानां घटमानानां भङ्गानां मध्ये तृतीयः एकादशाकयुक्त: / चतुर्थ: द्वादशाकसंयुतः / पञ्चमः पञ्चकाङ्कसंयुत: / षष्ठः सप्तकाङ्कयुक्त: ज्ञेयः / एवग्रहणेन च तृतीयादिभङ्गानां विपर्यासः सूचितः / यत: तृतीयादयो भङ्गा: षोडशभङ्गानां मध्यात् व्यतिक्रमेणाऽत्र लिखिता: / लहुसनि:पन्नौ द्वौ एकादश-द्वादशौ लहुसनिःपन्नभङ्गकसमीपे द्रष्टव्यौ / पञ्चमपष्ठभङ्गको बहुत्वनिःपन्नौ बहुत्वनिःपन्नघटमानपञ्चदशषोडशसमीपे द्रष्टव्यौ इति सर्वगर्भार्थ: प्रतिपादितः / 'अंते वा' इति, रोगावसाने / 'किढियादि सढिया' वृद्धा / 'खपुसा पदाणि चक्कपातिका च' इति, खपुसाशब्देन पदानि भण्यन्ते, चकपातिका च' उपानविशेष उच्यते / अन्ये तु सर्वेऽपि भेदाः, व्याख्या पुनग्ग्रे ज्ञेया / इयाणि पायच्छित्तं भण्णइ / 'सगलकसिणं गाह'त्ति,. चूर्णिण; भाष्येऽ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः खण्डः पीयमित्थं न दृश्यते, एतदर्थसंवादिनी तु 'लहुगो' इत्यादिगाथा दृश्यते इत्यर्थः / कमणी-उपानत् / पदकरः-चर्मकारः / तेणेहि ओदुब्भति-उपद्रयते / 'समं मसिणं कलं मोडियं वा' कलं मनोरममुच्यते, मोडियं-मोटितं, सर्वेऽपि अमी समशब्दपर्याया: / भाष्ये-'भावओ वण्णमाउक' वर्णमृदुत्वे इत्यर्थः / भाष्ये- 'अद्धंगुलज पुन्वं' इत्यादिका प्राक्तनगाथाल्लिङ्गना ज्ञेया / 'जहन्ने य मुल्लकसिणे तिविहे मासटहु 'ति, मूल्यकिअं किल विधा तत्रापि जघन्य के मासलघु इत्यर्थ: / 'सकलकसिणे पमाणाइरित्ते' इति / द्रव्यकिअं किल द्विधोक्तं प्राक / 'उवादाणं भवइत्ति, आजीविकोपायः / भाष्ये-'घट्टयसंवियाणं पुस्विं जमियाण'त्ति / घट्टियं निम्मोयणसंदवियाण मुहकरणं जमियाण समकरणं / भाष्येनियएण पायलेहणी। 'चीरायरियाए'-वस्त्रचर्यया / 'जा न नियत्तई' यावद्वसतो नागम्यते तावद्दशा न छिद्यन्ते / 'ओमाइसु केवडियहेउ" रूपकहेतोः। 'जो गिहत्थो पाय गवेसाबिज्जइ' स निजत्वेनान्विष्यते साधोयस्य च तत् पात्रमस्ति गृहिण' इति, न केवलं साधोनिजत्वेन अन्विष्यते यस्य तन् पात्रमस्ति गृहिणः तस्याऽपि निजत्वेन अन्विष्यते इत्यर्थ: / भत्तट्ठो-परिपूर्ण भोजनम् / प्रथमपादोत्तरं 'दाहामित्ति य भणिए' ज्ञेयम् / 'द्वितीयपादोत्तरमाहे'ति. 'तं केवइयं च केवचिर वा वित्तिलक्षण / 'नेकंतिउत्ति काउ' निकाचितमिति कृत्वा / 'कालदुगे तीताणि' मासकल्पवर्षाकालरूपे / 'ने वट्टइ' नोऽस्माकम् / 'प्रथम वयसि निविट्ठो' परिणीतः / 'निन्विसमाणो वा'. परिणयनयोग्यः / कुथु भरी-वेसण / संताण ठ्या वा-संत्राणाय / सण्णीण दसणथ श्रावकदर्शनार्थ / 'स्वतन्त्र अविरुद्ध' स्वसिद्धान्ताविरुद्ध / 'जोग'-मांसादिरहितं 'खुलखेत्तं'-घृष्टक्षेत्र / 'पुइयघराओ' प्रातिवेशिकगृहात् / 'समिइमे' रंडकान् / आजीवका:-गोशालकशिष्या: / वृद्धश्रावका:-तापसा: / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये 'दारमपत्यादिसमुदायो कुल' मिति, कुलशब्दस्य व्याख्यानमिदम् / भोई-भार्या / सत्तुय ओयणकओ क्रय: / 'अह संजओ वऽलद्धिओ' अलब्धिकः / 'अह भद्देवि एस कमो' अभडे इत्यर्थः / उड्डचकादय:-ऊघटा: / 'भारदुंदुओ' भराक्रान्तः / 'मायामडली' मातृमंडली-भोजनमंडली। सरीरमहिमाए' शरीरसत्कारे / 'ओमच्छगपरिहाणीहिंडियाण' अट्टमछट्टेत्यादि-क्रमेण हिंडियाण इत्यर्थः / ताहे 'सखेत्ते क्रोशप्रश्वकमध्यरूपे / 'अवोच्च थं' क्रमेण / 'मूलभेदो गणो' प्रथमाचार्यविश्लेषः। 'कल्लदिणे सुत्तपोरिसिं काउ'त्ति प्रभातसमये / 'जे सुविउ मया' स्वपनाय गताः / 'लाडाचार्याभिप्रायात्' मथुराचार्याभिप्रायेण / 'परओ राईए चिंता' अस्माकं अचिन्तेत्यर्थ: / 'एए सब्वे एवं वाई' राध्यचिन्तावादिनी द्रष्टव्याः / जे पुण पढमाइपहरविभागेण असेज्जायरमिछति तेसिं सुरत्थमणविणिग्गयाण' इति, कह' असेज्जायरो भवतीति योगः रात्रावग्रहणादिति भावः / 'रयणीए चउरो जाम त्ति, सेज्जायरी ज्ञेयः / 'ओलजायको' श्येनः / 'निसज्जणसंघसणभया' पुतसघर्षणभयात् / 'सइकालं देवखति' सत्काल वीक्ष्यन्ते / 'मारिय कज' गुरु इत्यर्थः / 'एगमि वा अणेगहा ठिए'त्ति, गृहे पुत्रादयो विभक्ता: स्थिता इत्यर्थः / निगडागणि मायाऽग्नी भाष्ये / भाष्ये 'जेठाइ व जइ व' इति, यावन्तः / समाणा-मिलिताः / 'पियपुत्तथेरए वा' सरछोडगाहा अनतिक्रमणीयवचनेष्वित्यर्थः / 'किं वोऽसुभेहिं'ति, अकारो ज्ञेयः / 'तो वि से सो वज्जो'त्ति, तथापि से तस्स सोऽ: वर्जनीयः / 'घर पडिणीयं '-गृह प्रति नीतम् / पट्टिआ-दत्तप्रयाणा: / 'कच्छपुडओ-जस्स कक्खापएसे पुडो स कच्छपुडो' | एग कप्पागं ठवित्तु' नायक स्वामिनम् / 'भद्दो निस्साए छुभेज'त्ति, अणेसणीय दद्यात् / उन्चाओ-परिश्रान्तः Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः खण्डः सन् / पञ्चरेण-खीलियाए / 'सुत्ताइमगाहा गतार्था रवकेण दधिमंथनवदिति, मन्थान: चतु:कोणः, रवकश्चाष्टकोणः, यथा रवकेण दधि मथ्यते येन अनया व्युत्पत्त्या मन्थानको गतार्थ एवमेषापि गाथा गतार्था / 'अत्थेण निसिद्ध 'त्ति, नियुक्येत्यर्थः / 'जस्स दालिओ न फिडिय'त्ति, राजयः / 'अओ वुच्चत्थं'विपर्यस्तम् / 'उवाइणावेइ' स्वामिने न समर्पयति / उवरिसेजतिमिज / भाष्ये-'धम्मकहा पणियलोभियंति, धर्मकथैव पणितंपण्यं / भाष्ये-' सेोउ हिंडणकहण 'ति, विप्परिणामण पि ज्ञेयम् / ‘पजोसवणाकाले घेच्छामो' वर्षाकाले इत्यर्थः / अत्थो उ कारणे' इति भाष्ये इत्यर्थः। 'सत्ती यव सो विह न तेन न निविसह' इति भाष्ये, न निवारयति अपि तु प्रस्थापयतीत्यर्थ: / 'सपरिक्खेवे ठियाणं' प्राकारादिवेष्टिते स्थाने / 'उड्डाहविरुभणे' हस्तादिकर्त्तने / 'यथा तत्र तेनाहड'त्ति-एवं इत्यर्थः / 'मीरा-मेराकडणं' कुञ्जकरणं / 'सहीणे वा पडिचरिउ' हरिउ / 'एरिसीए कडाए' मर्यादया / 'संथारे घेप्पमाणे एगाणेगवयणे अट्टविह भंगभयणा कायव्वा' | एकसा० एकगृह एकसंथार इत्यस्यार्थी-भङ्गरूपे तथाहि'सत्तमभंगे तइयभंगे वा' इति, बहुगृहस्थस्वाधीनो यतः / 'ओहारकं बीओ' बहुगृहेभ्यो मीलिता: / 'अणप्पिणणं संभवइ' बहुगृहसत्कत्वात् तासां विक- S रणं करिति बंधादिछोटनं / तस्स निवेएइ स्वामिनः / 'अहो अकयन्नू' अकारो ज्ञेयः। / इत्यष्टौ भंगा ज्ञेयाः / - --.- -- - -- - " " Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये 'विहाइ निग्गयाण' अद्धाणे निग्गयाण / 'छेवइओ वा' इति, चौरः। 'नासाऽरिसाओ' हरिसो नासिकायां / निक्केयणं' पसवणं / 'दवओ वंजणजाओ' जातानि व्यञ्जनानि कूर्चादीनि यस्य / वट्टमि ठविजए वट्टो' इति, गोलकस्योपरि कथं गोलकः स्थाप्यते? / भूणगस्स-पुत्तस्स / 'अहवा उउवं उगिहईति, आत्तवं / तच्च 'तनुपर्यन्ते' पर्यन्ते तनु-सूक्ष्मं कार्य / ‘मा उम्भूया जणहास'त्ति, वातेन उतिक्षप्ता / 'खलुगो' संखोड़ओ / 'उभयवेच्छिनिकाइयाए' इति, वैकक्षमुत्तरासइन्गः, उभयपाचे उत्तरासगनिबद्धया / 'सव्वा वेस उवही' वेष इति सम्भाव्यते / 'गणं पीठंगति, त्रेहवत्यां भूमों वर्षाकाले वा ध्रियते संयतीभिश्चाभ्यागतसाधुनिमित्तं / निसेजा ओनिया खोमिया य' निषीदनार्थ / दंडपमजणीय' दण्डकपुछनाभिधाना / 'वाले'त्ति, वाल: कम्बललक्षण: / 'सूई' तालपत्राणां पलाशपत्राणां छत्रं वंशमयं / 'कुडसीसगछत्तयं सिखिन्निखुपकं'। 'संनाहणट्टो' दोरिया ज्ञेया। 'उड्डाहपच्छायणवारओ' जलवारकः / 'अहऽभत्तट्ठी' अकारो ज्ञेयः / 'वत्थं अंताओ'त्ति, वस्त्राश्चलान् / 'तओ अंतो निसेजा' सूत्रमयी 'बाहिरनिसेजा' पादप्रोञ्छनरूपा / 'चरिमाए पडिग्गहं'ति, प्रथमपौरुष्या: चरमा इति सञ्ज्ञा / 'दात्रसंधी' कार्तिकमास: / ‘दोसु वि मीसेसु परंपरे लहुगुरुं पणगं' इति / दोसु वि मीसेसु परंपरे लहु अणंतरेसु दोसु वि गुरुपणगं' / 'अट्ठसु जोयणेसु मूलं भिक्खुणो सपयं' मूललक्षणं सपदमित्यर्थः / 'उवज्झायस्स चउगुरुगाओ अट्ठसु अणधट्ठो' इति, उपाध्यायस्य चतुगुरुकादारभ्य अट्ठमे स्थाने अणवट्ठो भवतीत्यर्थः / 'आयरियस्स छलहुगाओ अटुसु चरिमंति, आचार्यस्य षड्लघुकादारभ्याष्टमे चरिमे इत्यर्थः / 'कावोडी संकाइ' एकार्थो / 'अर्थडिलाओ वा' अथंडिले इति ज्ञेयः / 'उब्वायस्स'-श्रान्तस्य / मयदंतिया मेती / Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथचूर्णिपर्यायाः 'अपनवओ' अशक्तस्य / 'तिक्खसंहिणधारं' ति, तीक्ष्णश्लक्ष्णधारं / 'चन्द्रार्द्ध' इति पादयोः / 'सुक तुंडे' इति हस्तयो: / पोमेगवां रोमे। 'पउमे' कुसुंभकिट्टिकायां / 'मंसूचिबुगे' श्मश्रूयुते ओष्ठे / 'उत्तरमाणो अच्छी रेणू वा अकारो ज्ञेयः / 'संजश न तडफडेज' इति नकारोऽयं / 'सीयाणं' मशानं / गिरिवडे छप्परे / 'मुत्तसकराए य' ककराभिर्युतं सुन्न / 'महासद्दिया'-गईभी / 'विसुवावेइ वा इति उववेइ इति भणियं होइ / 'तत्थेव उत्तति, पीठोक्तमय / खारतेलं-तिलतैलं / खाडाहडो-पिण्डिकारूप: / 'जमि जोगे तणा' नियन्त्रणा / 'तकाइ एगंगियं' आयंबिलं / 'पणिय विलेवी' जाउलिया। 'पच्चक्खाणे' ति, संवरणं / 'थूलं भे' बहुलाभे। 'तस्य पूर्व न भवतीत्यर्थ' इति प्रवेश इत्यध्याहारः / 'पहाणिया सोहगा' वेढा सोहगा' पदकरा-चर्मकरा:। 'निलेवा'रजकाः। अन्नत्थ अजुंगिया' अकारो ज्ञेयः / 'मोरुत्तिया' यध्रियककारिणः / 'सिग्गा' श्रान्ता / 'जावसिया' चारिवाहका: / 'मोयगमाइयं' ति कदली। ‘एवं आसाहपिच्छे' ति, हरितं / कडपूरेण उदरपूरण। हिंगुदद्दरिय-हिंगुमिस्साई डरी। 'उल्लोएण' सामान्येन। 'अप्पायणट्ठा' स्फाईओप्यायी आप्यायनाय / 'नेकतिओ" नित्यपिण्डः। 'समिइमा' मण्डका: / 'भत्तट्टस्स अवढई' भक्ताद्धमित्यर्थ: / एक दिजा शावेत / 'विवकराइदोसा' विपत्करा दोषा: / ससवत्तियं-ससऊकं इत्यर्थः / डिडिमहेउगर्भहेतुः / 'पम्हुट्टाइयाण भायणं' समर्पणं / अहिगरणं-भण्डी / 'संजमसारं ठवेउ' संथिलीकृत्य / 'वसहीए पुरोहडे' पच्छा / गणिणीमहत्तरा / अभीजा-अयोग्या। 'पात्तीएंतेण पोती'-चिलिमिलिसमीपेन / 'एवं सब्वेसु' पुत्तशब्दो योज्यः / इमं चिन्तन्ति संयत्यः / 'पन्नप्पइ'नीरोगी करोति। किरियासज्झाए-क्रियासाध्याया: / समोसियगोप्रातिवेशिकः / 'गोवालकंचुको' गायत्री / जो ओतो-यत् ओजः Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये सामर्थ्य / 'सागारियासेवणा' लिङ्गासेवना / 'घोड़िय'त्ति, मित्राणि / कणयं-नाराचं / 'अहं पि ते किं न भणिउ' काक्वा / 'विनाडिकाकारवत्' विकृतानाड्यो यत्र भवन्ति सा विनाडिका-अवगायिका। निवेसणस्सघरस्स। 'तेण गहियं' ति, तेन हेतुना सूत्रे गृहीतं पासवणग्रहणं / 'जहा उच्चारे' जहा उच्चारे आयमणं न तहा पासवणे / 'विट्टलेहि' उञ्चिद्धेहि / 'सव्वसाहूहिं (सहु) समाण' ति, सर्वसहस्य समाणं यथोक्तं / 'स चेलओ' पृथक् कृतः / भाष्ये-'अलिगाए सोहिकरणेण वा वि' त्ति लिकान्यायेन पापं क्षीणमित्यर्थ:। भाष्ये-दइवय-दैवः / भाष्ये 'द्दिवसितेविऽणा' अणट्टा अकारो ज्ञेयः / पञ्चमोद्देशकस्य-यथा-पडछोडगा-ग्रन्थभेदका: / 'विलिएण देससवण्हाणं' ति खंलिए जुगुप्सादिके। 'परियासि-वासयित्वा / सिंहे-सिंभे। 'पवहणं' वावरणं / 'उडढोरगी' स्थूलजयः / पइद्धं पतकउं / मंगयालीए दर्भतोरणं / 'विकरणमपि' अचेतनं / विचित्ता मुषिता: / भाष्ये 'उद्दद्दरे' इंति, कोष्ठादिगतं धान्य प्रचुरमस्ति न च तेषां स्थगनमस्ति / भाष्ये 'पुच्छे अवरंमि य पयंमि' त्ति, उत्सर्गपदे अपवादपदे चेत्यर्थः / 'कल्माषिका वंशदण्डबदि' ति / कल्माषिका स्थानविशेषः / कायमाणमंडवो-कवाइण मण्डप इति ख्यातः / 'पुवण्हे अपट्ठविए' स्वाध्याये / बहुकारा वोहारी। उल्लोइयं-धवलितं / 'कुलिया कुडड' मित्येकार्थे / 'सीतभरोसाय उझं क्खणी भन्नइ' त्ति / सीतभरो-जलकणा: ऊसाय ततः जलकणिका ऊसयुक्तो वात: लोके उज्झंक्खणी भन्नइ / भाष्ये 'अहवऽविसुद्ध' अकारो ज्ञेयः / अणिसेज्जं-यो निषद्यां गुरोर्न करोति। ‘एग? भोयणं' ति, सह भोजनं एगट्ठा इत्युच्यते / ओसवणा-उपशमनं / परियतिसूत्रं परावर्तयन्ति / भाष्ये बारस य चउब्बीसा' इत्यादिगाथायां द्वादश द्वाभ्यां गुणिता: चतुर्विशतिः, द्वादश त्रिभिर्गुणिताः षट्त्रिंशत् Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथचूर्णिपर्याया: इत्यादिका भावना कार्या / दुट्टाई दुदाता सिंसवादि शिंशपा / 'रयणहरणं दंडियं' वृत्तां, 'सबिट वा लाउयं' सवृन्तं तुम्बकं / 'सड्ढीयरो' भागिनेय: महागिरेः / 'कोसंबाहार' कोसंबदेसं / 'साइहि वि सिटुं' कथितम् / 'अंधा मिला य' देशविशेषा: / 'ओयविया' साधिता:। 'रहा गुजागे' रथयात्रायात् / वइदिसा उज्जेगी / 'पूइया' कंदोइया / भनु' भजिऊणं / 'पोरप्पमाण' अंगुष्ठपर्वणि अङ्गुलिकायां दत्तायां यत्स्यात् / 'उंडया' मलग्रन्थयः। अणायचज्जाए-अज्ञातचर्यया / 'जलहर पलंबणे' ति, दोभावा / बाहिरनिसेन्जाए' ति, उपविशन् पादपुञ्छनेन / 'अवसबाइ' ति, अपसव्यादि वामावर्तादीत्यर्थः / 'मुंजपिच्च' मित्येकं पदम् / अंचियं-पूजितम् 'आउग्गहाउ परेण' यत् हस्तेन न प्राप्यते / वलवा-वेसरी 'अड्ढोकंतीए' गृहीतमुक्तन्यायेन / सिज्झिलिया-गुरुभगिनी। पभायवरिसे प्रभाते वर्षे वर्षाविरमे / संजोगमवेक्खइ मुखौष्ठादिम् / 'उस्सद्ध सवाउ-वीसइभाग सहिय' ति / सर्वायुषोविंशतितमभागेन सहितम् / “पाणाइणामलस्स'त्ति, पाणं / 'तंतुम्गयं' अभिनववस्त्रम् / 'गोमिया' आरक्षका: / नो पलिंधइ परिहइ। 'आचूला' अवचूला: / 'कायाणि' मणिप्रभारत्नतडागजलरक्तानि 'द्रते वा काए' काचे / 'दुगुल्लाउ अभंतरहिते' इति, पूर्वोक्तात् वृक्षविशेषात् प्रधानपट्टसूत्रे इत्यर्थः / 'कोयवोवक्खोओ' वक्खा रूढा / पारसासंज्ञा: कम्बला: / 'वग्याइणं चित्तगचम्म' एकार्थे / भाष्ये 'आहारमंतभूस' त्ति, अन्तर्भूषा इत्यर्थः। 'भली-घरकहणं' यथा विष्णुमल्लिना हत: तादृशं च तीर्थमस्ति सोमनाथे / 'कूरचारगो' नाम राया संवठंतमि उच्चाले / संवट्टे-नवावासे / 'कप्पुवरि' कम्बलोपरि। 'वारवारगेण' वेलया वारया। 'चड्डगा' कमढगा। 'ओमेण' क्षलकेन। 'तया विसाइणा' त्वचा। 'उदित्तगादि' पलीवणाइ / 'पडालीए' पत्राडीए। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये विकरण-लवनम् / 'ईसत्थं' धनुःशास्त्रम् / 'उक्खंदो' धाडी। सपच्चवायमागासे' यत इत्यध्याहारः / दारिटुं-द्वारस्थं / अतट्ठियाभुक्ताः / 'नित्थर' निरंतरम् / 'जाउप्पन्ना' जात्युत्पन्ना: / 'एगयरीविए' एकतरभद्रके। 'अणुप्पए' अनुप्रगे प्रभाते / 'कप्पट ठगस्स नियंसेइ' कप्पट्ठगे उवगरणपरिहणविहिं इंसेइ / 'पुरोहडा' लिंडी / 'लोयकरा' पहाविया / 'आउज्जोवण वणियाइ' त्ति अप उद्योत वणिजादयः / 'मुइओ' जातिसुद्धो / 'निभमेत्तं' निम्मं / भाष्ये 'परिणीयउ गिहीणं मल्लियइ गिहिं व आणइ' त्ति, प्रत्यनीकसंभवे गृहिषु संश्लिप्यते गृहस्थो वा आनीयते / 'दिवे देहजुए' मनुष्यादिशरीर मृतं व्यन्तराधिष्ठितम् / भाष्ये-'निवसंसी' नृपस्यांशो भागः / निवनीससामन्नो-नृपनिश्रासामान्यः / 'उच्छुड्ढ' त्ति, क्षिप्तानि / रण्णो वाऽविइए-अविदिते / उज्झाइओ मि-मलिनोऽस्मि / 'विलेवा विरोहि' रब्बाया: विरोधि / पोग्गलं-पिसितं / भाष्ये 'उव्वा (च्चा) ऊ पढमदिणे बिइया एगेसि तो पंच' इति, एकेषां मते पढमदिणे उधाओ-श्रान्तः तेन द्वितीयादीनि दिनानि गृह्यन्ते ततः पञ्च जायन्ते इत्यर्थः। उइक्खंति-पडिक्खंति / 'अकयदारसंग्गहा'-(अ) कृतदारसंग्रहा: / 'बृहत्तरा रक्तपादा-वट्टा' मार्गात् बृहदन्तरा रक्तपादाः वहा जन्तवः भण्यन्ते / मार्गात् अल्पान्तरा: (अल्पतरा) लावगा उच्यन्ते / सिलोक:-श्लाघा : 'वरमम एयाओ आयट्ठा भावियाओ' इति, आत्मार्थमद्यापि अभाविता अतस्तासां विश्वासार्थ मलिनवस्त्रा व्रजति / 'भोइय घाडिय' त्ति, भोगिका-ठक्कुरा: घाडिया-तन्मित्राणि / 'घट्टमी निश्च उवरि' दीर्घा वयं इत्यर्थः / अकर्णश्रुतेन-अश्रुतेनेत्यर्थः / 'हि (तादि) क्ति न याणसि तुमं हियमहियं वा इत्यर्थः / भाष्ये 'अम्हे खमणा न गणी' ति, क्षपका वयं न गणयः। 'अल्लगफलाइ वा कुभारिपत्राणि ।'दव्वाहा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथचूर्णिपर्याया: धणु आहियं जीवा आरोविया' इति पाठ: / भाष्ये 'तजाइएण' तसातदोषेण / अब्भुच्चओ-अतिसंस्करः / अमणुग्गइया पञ्चोणी निगमणं एकार्था:' / 'आसियाविओ' हृतः / 'आन्मान्तेन' आत्मसम्मुखम्। वच्छओ विवाहेंडलो' भयालुः / सपच्चवो-सार्वज्ञः। 'तहावि साहू-भव्यम् / 'जे पढमिल्ले तु तितु भंगेसु अव्वत्ता तिणि भणिया' इति, आश्रयणीयचतुर्भग्यऽक्षया एषां प्राथम्यं न तु स्वस्थानापेक्षया इत्यर्थः / ‘आहाइयं त्यक्तलिङ्गम् / 'तम्हा असं विग्गेसु न निक्खिवे' अकारो ज्ञेयः / 'मुयमाभियं' ति, मा मृतमातृडम्भक इव / भाष्ये 'न मे गुरू सो उ' इत्युल्लेखेन स्वयमपहारः स्यात् / चंडिओ-हेरिक: / विफालिए-पृष्टः। हिजो- प्रभाते / 'एवंकुणं कोट्टि' पकाथा / विश्उं-वेदयितुम् / अपोहंतं-अपहुवंतं / 'जाइसरणं' जाति: किमिति न स्मारितेत्यर्थः / भाष्ये 'समीखल्लएहि' खीजडिपत्र: ।...मच्छियं आलोच्य / 'अवहडो' असारः / अत्र 'गण असंभाइय' त्ति, अकारो ज्ञेयः / बारसाहाए' द्वारशाखायाम् / 'पच्चाओसे' प्रत्याक्रोशेत् ‘साहाणुसाही' महाराजः / 'आकाप्यमाणं' आकोप्यमशो (मान) / पहिंदुगदेसं-पादचारदेश ।लत्ताहि य-पट्टयाहि / 'गीओमहं' ति, गीतार्थोऽहं / अरुहा जोग्याः / 'वट्टमाणि' वार्ताम् / धरितेसि त्रिभिः / 'नाए' ज्ञाते / 'अंचियकाले' दुभेदे / 'मजियकूर' सिक्खरणि कूरो। 'पणावेई' ढोकयति / 'तेवत्थेण' पाद्रेण / तिसु लहुगो गुरुगो' त्ति गतार्थमिति, एतत् गाथापदं व्याख्यातप्रायमित्यर्थः। अह उड्ढेण अट घरय तिरियं चउरो इत्यादिकाया ग्रन्थपद्धतेर्भावनार्थ यन्त्रकमिदं लिखितं झयम् / तिसु लहुओ गुरु एगो तीसु य गुरुओ य' इत्यादिगाथार्थो यन्त्रके भावनीयः / 'लहुगो गुरुगो मासो चउरो लहुगा य हुंति' इत्यादिगाथापि यन्त्रकात् ज्ञेया 'आयाणस्स' आद्रहण Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये | जग्ग. 1 | विगि०३ आइयण 27 // | 27 // 27 // 7 // 4aa जयण अजयण पत्तभू अपत्तभू दुजायण चउजा० अजी० बारजी० 8 ' ऽनव० पा० स्य आएज न य पच्छित्तं' आपिबेत् न च प्रायश्चित्तं / 'निव्वेसवुद्धीए नि:काशनबुद्ध्या / अन्येषामर्थपौरुष्यां शिष्यं व्यापारयति इत्यर्थः / 'अत्थपोरसीए सीसं वावारिता' इत्यस्यावि हि / कप्पागो-अनुष्ठानकारापकः / 'मायाणुयवोदसरिच्छा' अज्ञाः / 'अणोभट्ठ' अमग्गियं / 'उच्चउण्हे' उच्चे दिने / अहहे.........यगे वा अद्धसीसी। भाष्ये 'मइलकुचेले' इत्यादि गाथायां साणो-मन्दपादो नरः शुष्क(क्ल)पादो बा। काणिट्टघरे वा...विते इत्यर्थः। चोप्पगसमीवाओ-हेरिकात् / 'तवस्सिणो वि गव्वं' तपस्विनोऽपि गर्वन् / केवगा-रूपका: / 'भइ भत्तं' मूल्यम / 'सूयगेहिं' पिशुनैः / अहिन्नवसा खली वंझा वा' इति, खलीव खडीपर्यायः ततः अहिन्नवसाशब्देन च खडी चंझा वा उच्यते / 'पलालखेला' नि:सारपलालम् / 'कइय' क्रयिकः / संगच्छावणेद्रव्येण समाधिकरणे / कंटामदावणियं-धूलिछड्डावणं / चीरेण बदरिय-बंधित्वा / वमला-द्रम्मा: / विटा-देवकुलिकाः। थली-देवद्रोणी / आसाढो-पढमपाउसो मतान्तरेण भण्यते / भोमोदगं-भौम जलम् / 'उभिज-बीय-सावएहिं' ति कोद्रविया चूडइल्ला: तासां Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथचूर्णिपर्याया: चयैः / उवइगउद्देहिया / 'पडोयारो' परिग्रहः / 'सवीसइराइमासदिवसेसु' त्ति, सवीसतिरात्रिकदिनेषु इत्यर्थ: / साहगं नक्खत्तं' भव्यं / 'चंदवरिसं' अनभिवर्द्धितमासं वर्षम् / 'अहिगमासगो पडई' चटतीत्यर्थ: / 'गाहो' नरः / 'भाणगो' भंभिओ। सस्से-धान्यानि / 'हत्थप्पलावीभूओ' व्याकुल: / 'संभट्ठो' सम्भाषितः / 'अवज' त्ति, अवज्ञा / 'आवकप्पे' आपत्कल्पे ! भाष्ये 'अविगडियफलं' अनालोचितफलम् / सरसरस्स-अतिशीघ्रम् / असिएण-दात्रेण / डालीओराजिका: / भाष्ये 'नवि सिंगपंछवाला' इत्यादि गाथायां सिंगादीनि संस्थानानि / 'सुजवसनीरोगाया:' सुचारिताया नीरोगायाश्च गोः तानि रोमाणि न दृष्यानि 'सेसंगरुहाणि हाणीए' त्ति, शेषाङ्गरुहाणां हानि: घोटनं कार्यमिति गाथार्थ: / वन्भामगा-हिण्डका: / 'पदुप्पाइंति' पश्यन्ति / वासकप्पं-गलइकम्बल इत्यर्थ: / 'समप्पावणियं' समाप्त्यर्थम् / 'छिन्नाच्छिन्नद्धाण' त्ति, छिन्नः-परिमितः, अच्छिन्नो-महीयान् / 'भट्टिमाइयासु' भटि: रज्जकद्रव्यविशेषः / 'वालिभद्दगंडियाए' त्ति, वृक्षधिशेषः / 'कारणे न निग्गया'.न / 'उमंत्थग पणग' त्ति, पश्चात् / ललकं-घोरम् / काहावणा-द्रम्मा: / 'उन्भामगखेत्तं तमि' त्ति, विहारक्षेत्रे / 'विहरते चेव भायण' त्ति, विहारं कुर्वाणः / पुव्वदारिय' पूर्वदिकद्वारकम् / 'असिव अवणयणेण' अशिवापनयेन / कुवोसहाइया -कुपोषधादि / थलीसु-देवद्रोणीषु / 'खाउसयाए' बलिष्ठया / 'कोवेणयबिइजा' कौपीनद्वितीया:-कच्छोटकद्वितीया इत्यर्थः / 'पजालिय विज्झावणे' उज्झवणे / 'हारितिगराइणो' अपहरर्तृराज्ञः / 'लोलगें काउं' निगोलकान् पिण्डकान् / मत्तगा वट्ठाविया भृताः। 'अटकुलवमेत्तसमियाए' कुडवमात्रकणिक्कया / भाष्ये-'उभयपगासो पठमो आई अंते य सव्वतमो' इति-पश्चार्द्धव्याख्या-उभयपगासो Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याय HITAHATA पढमो, यत: दिवा गृहीतं दिवा भुक्तं, द्वितीया दिवा नुक्तत्वात् आदौ प्रकाशः, तृतीयो अन्ते प्रकाशः, चतुर्थः सर्वतमः सर्चान्धकारः रात्री गृहीतभुक्तत्वात् / 'विवित्ता' मुषिता: / चकाय(ध)रा' दर्शनविशेष: / “अद्धाणकप्पाइ" मार्गापकरणानि / 'पलंवाइविकरणा' फलकर्त्तनानि / केवयादिडम्मा / 'आइत्तियाण' त्ति, जेसिं सत्थो आइत्तो ते आइत्तिया / 'नंदी-हरिसो' येन भक्षितेन शक्ति: स्यात् / 'लुंटागा' लूषका:। भाष्ये-'कड़वाला' गृहरक्षका:। भाष्ये-घडागोठी / भाष्ये-अथारिया ल्हासिया 'तकिंतपरंपरा' भक्षकजन्तुपरम्परा यथा-मक्षिकाया गृहकोकिला तस्या मार्जार इत्यादिका / 'करुडुगाई कारख्यं / 'निवेयणचस्ववएसेणं' ति, चरु:-पाक: मुक्तव्याकरणवत् -तथाविधोच्छखलवाक्यवत् / 'जहा. नितो जीवदयत्थं पमजइ जाव छन्नं' ति, यावत् छन्नम्-आच्छादितं, उपरि स्यात् तावत् प्रमार्जयदभिर्गन्तव्यमिति स्थिति: / 'गिहिमत्तसेवणे' गृहिभाज सेवने। 'ईदृशप्रमाणस्य दृषणे न दोष' मिति, नञ् / 'पीहगाइ' स्तन्यादि / आवस्सगकरणं-पडिक्कमणं / 'अजा संकार्मितो नत्थि बुड्ढो असंको तो संकामिस्सइ त्ति, अआ पधाविति' अग्रे अशकः आर्यासङ्क्रामको वृद्धो नास्तीति तो-तत: प्रव्राजयन्ति / 'समाउक' चोरवं / 'भूणिया' पुत्री। 'उवगरणोवघाए' जलधरोपघाते / थिवुयेहि यबिन्दुभिः / कचिच्चो-नपुप्तओ। वडंवगो-वडहंडः। 'अपरिहत्थोअदक्खो / परियटृति-धारयन्ति / 'कग्गिसंनिकरिसे विलयइ' अग्निसमीपे विलीयते / भाष्ये-छेवगा असिवं / महुरकुंडइला-जातिविशेषः / भाष्ये 'कोट्टिबं' सिम्नम् / अन्नहा वि चारिज ते उक्तव्यत्यायन / भाष्ये 'कण्हवण्णिया' महिसी / दोच्चविरुद्धं'-दौत्यविरुद्धम् / सेल्लयंभजिया / 'अइरुद्दो रसवीरिय' अतिरौद्रो रसवीर्यम् / 'सिज्झियाइसु' Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 निशीथचूर्णिपर्याया: पाडोसिणी। 'सो वि पडिबद्धो' घाइओ। करणीव-करकस्य ग्रीवा / चकियादि-घंचिओ। झंझडिये अदीयमाने रिणे वणिएहिं इत्यर्थः / अवंजणजायं-अजातकूर्चम् / असाविए' अश्राविते / 'फासुगाहारं धरांति साधुमिति शेषः। 'साहूण निवेयाविजइ'-पवेयाविजइ / 'महव्वयं अइक्का' उच्चरइ / 'महत्वए सगि कढित्ता' सकृत् / संचिक्खाविजई' पडिक्खाविजइ / 'पवजाए अलो'-समत्थो / पिंडाइ कप्पिओ'-भक्तादेगनथिता / 'अंबाइएसु फलेसु सुतं' आचाम्लं आछणं / सुंठीए गुला-गुडसुंठिरित्यर्थ: / 'बिहेलयहरितकी' बहेडक हरीतकी / 'सहसरुया'-सहसात्काररोगेण / 'विज्जूखायं'-विद्युत्कृतगा। एसकालं पडुच्चा' एष्यत्काल-भविष्यन्तम् / भाष्ये निस्सट्रगलधरण तैलस्य / 'पढमबिइपहिं छडडे' क्षुधापिपासाभ्याम् / कल्लाणयं-चक्रवर्तिभोजनम् / 'जोगं करेमी' योग्यं भोजनम् / भाष्ये 'समाहिए' समाधिनिमित्तम् / 'परिकोसो य जायणे' याचने क्लेशः / भाष्ये 'परिछिया' परीक्षा। भाष्ये ‘मा तुर' मा त्वरो भव / हिंडिउ बइले काए' बलीबई कोपोती च / भाष्ये 'मज्झे दवे' मेधार्ह द्रव्यम् / 'समाहिकामाण उवहणिउं' दौकित्वा। भाष्ये-उझुसिओ सेवित: / 'झोसिजइ' दीयते / 'नवतगजीणं संवरंति' प्रत्याख्यापयन्ति / विरुगिओ-कृतहस्तादिविनाश: / भाष्ये-'पढमे पगयं सिया बिदएँ-प्रथमे भक्ते कदाचित् द्वितीये पाने। भाष्ये निदेसानिदेसे' कढि विकड्ढी। भाष्ये अणुलोमा पांडलोमा दुगं तु उभयसहिया तिगं होइ' अनुलोमप्रतिलोमोपसगा द्वयं उभयसंयोगे निक्षिप्ते त्रयं स्यात् / भाष्ये 'पुरिसहेसिणि कन्ना रायविन्ना गेण्हेज्जा' पादपोपगतं प्रकटशरीरं सलक्षणं धीक्ष्य पुरुषद्वेषिणी कन्या राजवितीर्णा न गृह्णीतेत्यर्थः / कालासगवेसिओ नाम मोग्गल्लो' नाम शैलु। 'खइओ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये तिरत्तेणं' प्रहरत्रयेण रात्रेरित्यर्थः / 'बावीसमाणुपुत्विं' उपसर्गा इति शेषः / बत्तीस घडा' गोठीत्यर्थः। तन्नाईहि-वसादिभिः / 'मिगेन, य' अगीतार्थेषु / साएइ आस्वादयति / 'तस्सोवरि गंडपएसे' गल्ले / सुइमाणभेया-सकुमारभेदा: मेहायुगहण त्ति, मेधायुः / 'प्रमाणप्रमाणेन तिपमाणा' वक्ष्यमाणेनेत्यर्थ: / 'उफोसणाइ' अब्भोगी। उक्कइमाइणा' उकुहियाइणा। 'आहारेइ-पंडुरोगाइ संभवे' खउियाइपुढवि आहार पंडुरोगादिकं स्यात् / 'घंटिकरडाइ' करोडिया / 'पक्कभीम' भाण्डम् / भाष्ये 'सत्वे वि लोहपाया, तसनिफनं' पुरुषर्लोहस्य उत्पाद्यमानत्वात त्रसनिःपन्नत्वं, पक्वभौमेऽपि त्रसनि. पन्नं पुरुषैर्यापार्यमाणत्वात् / भाष्ये 'वखुरे य' तुरलगमः / दरभुत्ते-ईषदभुक्ते / अवहे पाणिणं ति-अवहते गृहिणोऽन्यासनग्रहणे प्राणिवधः। 'दारेण वा' द्वारेण। वई वा-वाडी वृतिः। 'अट्ठापदं देइ' परमार्थवृत्त्या वैद्यमुपदिशतीत्यर्थः। तस्संदिट्ठो-सामिसंदिट्टो / 'चेलवंती ओ' हसन्त्यः / 'उद्दिकावइ' पडिक्खइ ततो गृह्णातीत्यर्थः तृतीयादिषु न प्रतीक्षगी-नव प्राह्यमित्यर्थः / मुहकाणुयाए-मुखकाणिना / 'वियर्ड' प्रकाशः मंडवः / निक्का-कूल्हः / करट:-काकः / धावेवाहियालीए 'भंसुरलाऐ धूलहडी / 'गिडुगाइसु' दडाइसु / बहुवरपरियाणं' वधूवरगमनम् / 'आसयंते' इत्यादि व्याख्यानं 'साइज्जई' इत्यस्य / 'भागवियावडो' भारव्यापृतः / 'वडछल्लिमाई तुवरा' ताहितुवरा: स्युः / 'लाउपन्नीहि' तुंबकैः तृणविशेषश्च / थामे-स्थाने। 'घाडिएण' मित्तेण / 'तरपन्नं' तरणपण्यम् / 'पासाणजलं' पाषाणजलम् / 'संडे वा' उत्तारपाषाणादयः / गारागारिसरिसगाणि' त्ति, यकाभिर्गुहं लिप्यते तत्सदृशानि / 'पाडिपहिय' प्रातिपथिकः / तं वेठावेइ-परिभावयति / 'एगाभोगेण' एकत्रमीलनेन / 'सगडमादेसेण' शकटादिव्यूहादेशेन / 'छिद्रगुडों' द्रव्यगुडः। सुत्तं Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 निशीथचूर्णिपर्यायाः मज्जे' आचाम्लम् / 'अमणुम्गइयाइ' त्ति, पच्चोणीशब्दस्यायं पर्याय: संमुखगमनम् / 'युसिउ-समोसिओ' पाडोसिउ इत्यर्थः। 'पण्णत्तो' नीरोगीभूत: / 'कण्हवेण्णा' इति वा भीम भीमसेनवत् / 'संकरजडमउडे' ति, भावार्थाऽयं-चन्द्रसुतेन कृतेयं चूर्णिणः / 'अइस' त्ति, सार्थतप्तिकारकः / 'ओहारगसंखडीए' मीलनसंखडीए / 'उलंवगपायं' उद्धरितपात्रम् / 'जालागद्दहो' लूता। 'मंदक्खेणं' लजाए / कुलालं कुंई / दिट्टाभट्ठों-परिचितः / गंमुणिगाइफला-ग्रामणी-तृणविशेषफलानि / 'मायस्स मुहस्स अवणयणं तुंवगगिरस्स / नटुं वा अडाडाए अड्डमडेण / 'मीगए' चुल्लीए / 'सोया तं करीसखइंमि मिलिया' श्रोत्रा: प्रतिगर्ता: तां करीषखड्डां मिलिता: / 'वच्चंतस्स भंगरयणभेया इमे-दिया गच्छइ पंथेण उवउत्तो सालंवो / एएहि चउहि पएहि' इत्यादिग्रन्थस्य 'अढगचउक्कदुगएकगं च लहुगा य हुाते गुरुगा य' इति भाष्यगाथापूर्वार्द्धस्य च भावना एभिर्भौविधेया-'एवं बितीय . दि. पं. उ. सा . अट्टगेवि एगंतरा सुद्धा' इति 1 / / |9| | षोडशमध्यात्। द्वितीयाष्टकेप्ये२ || 10||. वमित्यर्थः / 'बिइयतझ्यपंचमनव३] | 5 | 117 | 5 | | 55 127 55 मेसु एकं संठाण पछित्तं भवई' | | | 13s 5 | | त्ति, षोडशानां मध्ये द्वितीयissss 45 तृतीयपञ्चमनवमेष्वित्यर्थः। 'छद्दि७ | 55 | १५ऽss | 8| sss 16s sss सिया' इति, ऊर्वाधः प्रर्वादिषु गमनसम्भवात् विदिशिगमनस्याऽसम्भवात् एकपरमाणुत्वात् / पच्छाकडो जिओ' पराजित इत्यर्थः / 'वाजोगपउत्तेण' वाग्योगप्रयुक्तेन / 'डिंगरा-पायमूलिया' पाउल णीत्यर्थ: / 'विलंकेण' मांसेन / सोंडोमद्यपायी। वाउलणा-व्यावर्त्तना / 'धिधिको निछुढी' धिक् धिक चतुलताभिर्भगा: षोडश .Cw - - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये कृतः / 'दारुदंडयं पायपुंछणं' रजोहरणं दारुदण्डयुक्तम् / 'चियत्ताओ' रोचकाः / विसप्पियं' विकोपितम् / 'समिया' कणका / 'सुसियप्पएसियं' कणका सुषिता सती अप्रदेशिका जाता / 'चिंधियं' चिह्नितम् / 'उब्भामगं' पारदारिकम। भाष्ये 'आणादिरसत्ति, आज्ञादयः रसगृद्धिश्च स्यात् / इत्वराभिषेकेन आचार्यपदे अभिषिक्त: यः स इ. त्वराभिषेकः कियत् कालं यावत् / 'अज्झवपूरयं' उदरपूरणम् / उग्धाइयं-प्रासुकम् / कुसीलयाण ते-तव सत्कवादयितृणाम् असमाणीअसमीपस्थः / भिओएज-मंताहिट्टियं करेज / 'कप्पं काऊण' जलेनेति शेषः / भाष्ये 'अन्नदुवण? जुन्ना' अन्याया: स्थापनार्थ जीर्णा / पञ्चदशं.द्देशे पर्यन्तगाथाया अर्थो-भावासुंतेन कृता चूर्णिणः / यतः रविकिरणनाम भा:, अकचटतपयसा इति वर्ग: सप्तमवर्गान्ताक्षरो 'वा' इति नाम गृह्यते / 'पंचसयभोइ अगिणी' भाइ-भार्या / सप्तधारा नाम तीर्थन् / भाष्ये 'पुच्छअच्छीणि' मर्दय / निकाएइनिकावयति / 'दलियं' ति, शिष्यलक्षणं द्रव्यम् / 'सुहदुक्खायसंपन्नो' अस्मिन् ग्रामादौ सुखेन दुःखेन वा स्थास्यामः इति यो वदति / फेगओ-झावकः / 'मगोत्र संपन्नो' मार्ग यावत् सुखदुःखयुक्तः भवदुभिः सह यास्यामः / 'गुरुसज्झिलए सज्झतिए य' इत्यादिगाथा-व्याख्या-गुरुसज्झिलओ-पितृव्यः, सज्झंतिओ-घाता, गुरुगुरू-पितामहः गुरुस्स नत्तू-पोत्रकः / 'माउमाया' इत्यादौ मातुःसत्का माता, पिता, धाता, भगिनीत्यर्थ: / वंटगो-भागः / 'आयरियं अभिधारउ' चित्ते कत्वेत्यर्थः / 'खलुगो'-संखोडओ / गुलिगमाईहि-गुटिकादिभिः / 'पत्थ छत्तीलुत्तरसयदिवसे पारंचियं पावई' त्ति / तथाहि-सत्तदिणे पंचलहु, तत: पञ्चगुरु, दशलघु, दशगुरु, लघुपञ्चश, गुरुविंशति, लघुविशति, गुरुपञ्चविंशति, लघुपञ्चविंशति, गुरु, लघुमासु, गुरुमासु, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 निशीथचूर्णिपर्याया: चउलहु. चउगुरु, छल्लहु, छग्गुरु ततः चउगुरूछेओ, छल्लहूछेओ, छग्गुरूछेओ एतेषु एकोनविंशतिपदेषु प्रत्येकं सप्त सप्त दिनानि, ततः त्रयस्त्रिंशदुत्तरं शतं, मूलाऽनवस्थाप्यपारश्चितानां च एकै दिन ततः षट्त्रिंशदुत्तरं शतं जातमित्यर्थः / पिनाओ-खलः / 'अणागओमासियसुत्तत्थेण' 'अनागत ओमकालाश्रितसूत्रार्थेन सूत्रस्य तत्कालप्राक्तनवात् / मोरंडाणि-ककरिगाणि / भाष्ये 'समणि सत्तट्ट' सप्तम प्रायश्चित्तम् अष्टमं चेत्यर्थः। दुपुयं-चलम् / कुरिटो-मुंडहस्तः / बाहुसीसं-स्कन्धः / कलाईण-कलाचिकाभिः / सोत्थियागारो-स्वस्तिकाकारः। भाष्ये 'तिनि कसिणे जहन्ने' इत्यादिगाथायां जघन्येन कल्पा: त्रयः, मध्यमाः पञ्च, सप्त पुन: उत्कृष्टा इत्यर्थः / वोसणं ति / टकारपाठ: / 'पढमदोचंगाई' प्रथमशालनकानि / वाहतेणव्याधा: चौराश्च / 'सपडिग्गहमायाए' सुप्रतिग्रहकमात्रया / 'अगणिकाइयाणि' दड्ढाणि / 'वग्धारियवासं' अतिवृष्टिः / 'अब्बोगडो' अविशेषितः / 'दढसोहिएण' दृढसौहृदेन / वाताहरा(डा)-आगन्तुका:। बहिफोडा-बहुभक्षकाः। परिसंथिय(पदसंधियं)-शीतलीकृतम् / दीविगा-आहारविशेषः। डिंडका-जत्तकाः / लंघेऊणुत्तविहिं' उक्तविधिम् / उज्झिमिया-परिसाटि: / नायमाइणा-शाताधर्मकथादिना / एक्का निसेन्जा-आसनम् / उवाइणावेइ-लधति 'कप्पे वा उज्झियं' ति, वस्त्रे / पंच उस्सासकालियं-नमस्कारपदपञ्चकं चिन्तयतीत्यर्थः / 'भासो' त्ति सकुंती-पक्षिविशेष: / 'ओमे न पुच्छइ' लघुः / पलिकुंचइ-अन्यथा कथयति / 'दिनाए गारस्थिगभासाए' अगारभाषया तीर्थकृभिरदत्तयापि / 'वर्ल्ड वोरं खुज्जा अबिलिया' इत्यादि असम्बद्धवचनानि, न किश्चित् सिद्धान्तमध्ये इत्यर्थः / मासथंबो-माषस्तम्बः / 'सतसट्टि चुण्णियाओय' चूणिता इत्यर्थ: / Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये तीसाए तिहीहिं' अत्र तिथिशब्देन वारो अभिप्रेतः / 'तीसं तिही' वारा: / वसतुल्ला इति, बलिवईतुल्या: / 'मूलुत्तरागाहे' त्यत्र 'मूलुत्तर तह चेव य आलोयण नवरि विगडिए इमं तु' चूर्णिण अनुसारेणायं पाठः सम्भाव्यते / छुडकिकंटकं-रिंगीणीकण्टकम् / 'इसिया कंडकं' सरवनिसरः / भाष्ये-'सो हेऊ अत्तो जेणालियं बूया' इति, आप्तो येन अलीकं न वदेत् / सई नाम विशिष्टा शस्यसमृद्धि: / तिचउपणअट्रमवग्गे तिपणगतितिगक्खरा व ते तेसिं' इति, तृतीयः चवर्गः, चतुर्थ: टवर्ग:, पञ्चमः तवर्गः, अष्टमः शषसहेति, एतेषु यथास ङ्ख्यं तृतीयपश्चमतृतीयतृतीयाक्षराणि गृह्यन्ते जणदसरूपाणि, एतानि च 'तिदुसरजुएहिं' ति, तृतीयस्वर इकारः, द्वितीयस्वर आकारः, माभ्यां युतानि क्रियन्ते / ततो जिणदास इति नामायातम् / / इति निशीथपर्याया: समाप्ताः / कल्पपर्याया यथा-निर्न(ण)य इत्यर्थः एतत् विभाषा इत्येतस्य पर्यायः / अथवाऽस्मिन्नेव गच्छाधिवासे। अस्मिन् कल्पाध्ययनवेदिनि / तं एगविहमेव भण्णइ न वि इति आदौ पृच्छतो [ता] नवीति प्रतिषेधः / कुविकन्नस्स तत्कथायामित्यर्थः / वयोगयं-बचोगतम् / 'साहुणो वि पवचंति' त्ति / मंसाया मांसादा इत्यर्थः / आओदेसस्स-आहोश्विदित्यर्थः / कप्पोसियं-लौकिक शास्त्रम् / मायारएहि-इन्द्रजालिकैः / उत्तरज्झयणाणं तणगाणि-सत्कानि / शुक्तं-तीमनं / अणिचिटुंअनुपार्जितम् / उंडीया-मुद्रा / 'नवविहववहारेणं' ति व्याख्या-गिम्ही लुक्खो कालो / साहारणो हेमन्ती / वासारत्तो निद्धो / गिम्हे तिविही तवो जहण्णाइ चउत्थं, मज्झिमो छटुं, उक्कांसो अट्ठमं / हेमंते वि जहण्णमज्झिमुक्कोसे छट्टट्टमदसमाई / वासारत्ते वि जहण्णमज्झिमुक्कोसे Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प-पर्यायाः utili अट्ठमदसमबारसमाइं / इइ नवविहो ववहारो। सुयववहारो वा नवविही-गुरुओ गुरुतरो अहागुरु, लहुगो लहुतरो, अहालहु, लहुसो लहुसतरो अहालहुसो / लओ-संकुश्चिताङ्गोपाङ्गः / किण्हु हु-कि इत्यर्थः / भाष्ये 'तोरदरे' त्यत्र अलङ्कारे / भाष्ये 'आवायं पुरिसेयर' त्ति। नपुंसकः। भाष्ये 'महजणणाए'त्ति, महाजनः बहवःसाधवः यान्तीत्यर्थः / उंडियाए चेव-मुद्रिकैव लेखः / लहुं च उस्मारेइ-परावर्त्तयति / अस्थिचर्मशिलापृष्ठं वृद्धा-इयं वृद्धा अस्थिचर्मणो: शिलापृष्ठमिव / निद्देसदोसी-परपवित्तिदोसो / तोखाइ-तहि / ओहारपणं परमनंसाधारणम् / संजूहो-ग्रन्थरचना / न मंदक्खं करेइ लजाम् / ओग्गाहणपाउ-यत्र तज्जलमानीयते / जाव न ताव उगाहइ-नायाति / तो ओगाहाए वि-आयातायामपि गच्छति / अव्वकालियलेवो-अक्किालिकः / सद्रवनिक्षेपपरिहारं इच्छन्तो-सद्रवं-साई तस्य भूमौ निक्षेपो न कार्य: / 'परिखुत्थए त्ति काउं' जुन्नमिति कृत्वा। अतिछडाणं- अत्रिछटितानाम् / भिगूहि राईहिं अमिओ-बहुः / भाष्ये 'छारेण अक्कमित्ताणं' ति / रक्षा उपरि दीयते जीवपातनिषेधाय / भाष्ये 'ओमत्थियस्स भाणस्स काउं चीरं उरि' इत्यादौ अधोमुखस्य भाजनस्य उपरि वस्त्रं दत्त्वा वस्नोपरि कर्पासतूलं दत्त्वा ततो लेपपुट्टलिका क्रियते / 'अलिंपिऊण भाणं' ति लेपपुट्टलिकया रसं क्षरन्त्या लिप्यते, पाषाणेन च वेलाद्वयं त्रयं वा घर्ष्णते, 'अन्नोन्न अंकमि उ' उत्सङ्गे 'रएउं अभत्तट्ठी' लेपयित्वा जलं गृह्यते / 'अब्भत्तट्टियाण दाउं अन्नेसिं वा' इति लेपितम् अन्येषां समर्पयित्वा आत्मना हिण्डति / उविष्टसाधोरभावे अरइयं-अलेपितं गृहीत्वा हिण्डति। संजमभूइनिमित्तं-व्रतस्फातिनिमित्तम्। छाणिय छारोछाणाणां छारो चीरेण बंधिऊणं ततो उण्हे तापे उद्वर्तनादि विधीयते / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये . 'पत्ताबंधं अबंधगं कुज्जा' तिसुणहाइणा गंठीए कड्ढीयाए जेण पत्त सरिसं चेव जाइ तेण वजणिज्जा गंठी / अट्टगहेउं लेवाहिगं तु-लेपाधिकं तूलादिकम् अट्टकार्थ कुट्टनीयम् / वासाइसाणरक्खट्टा-वृष्ट्यादिरक्षार्थ साणक(श्व)रक्षार्थ च / 'जुत्तिलेवो' कट्टकुट्टने / खंजणलेवो सगडे / चिरं आयारग्गपिडेसणाए-पूर्व आचारपिण्डेषणा: पछ्यमाना आसीरन् इयाणिं दसालियपिंडेसणाओ पठ्यन्ते / उक्कुट्टकरणं अणंतेणं-कुट्टितेन / रिंखाओ-रेखा: / मालवतेणा-मनुष्यापहारिणः / संनिरे शाकपत्रे / केसि चि नत्थि तीए ओहनिज्जुत्तीए-शय्यासूत्रं नास्तीत्यर्थः / उडुंग-घटा / आएस-प्राघूर्णकाः / निक्केयणं-प्रसवनम् / 'विहाइ पावए अन्नं' विहाइ मार्गे / 'इति व नीय' त्ति, निजकाः / 'संसर्तमि य छक' इत्याद्युत्तराद्धस्य व्याख्यामतनगाथया करिष्यति। भाष्ये 'आउजितो परिकहेइ' उपकरणे उपयोगं कुर्वन् / भाष्ये 'अच्छुल्लुढे जलणे' अतिरूढे / भाष्ये 'भय सेवणाए धाउ' त्ति, भज भिंग सेवायां धातुः / वीराण पि नाढाइ-नाद्रियते / आणक्खेयधाउपरि भावनीया: / अविकूडत्तेहि-अविकुट्टभिः / पाकट्टित्तणंअग्रेसरत्वम् / मंदक्खेणं-लज्जया। ततं विततं च-ततं ताणओ. विततं वाणउ / उफोसेज-रोमाणि कुर्यात् / चडुओ पत्रडिका। ओलंबिया मात्रकम् / नामऽऽइढयं-वाचक इति नाम्ना आढयं पुस्सालं वनप्रायमैतत् चिन्त्य एतत् / संभाइजेजा न पहुच्चेजा ताहे निजरावेहलोको ददातीत्यर्थः। उक्केलयं-ऊहियम् / अबिलबीयाणि-अबिलस्य कारणानि ढुंढणकणादीनि / 'भद्रबाहोरपीति' भद्रबाहुसम्बन्धी सूत्रानयोगः / नामनिष्पन्न निक्षेपोपोद्घातेऽभिहितं पञ्चककल्पे इत्यर्थः / उस्सारकप्पिओ-यस्य उत्क्रमेण छेदशास्त्रभावाः कथ्यन्ते / भाष्ये 'तुरिय पाइज्जते नेव चिरं जोगलुजिया ईति' त्ति, त्वरिते वाच्य Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प-पर्यायाः माने नैव योगतप: प्रयुक्तं स्यात्, महाशब्दश्च लब्ध:, कि पश्चात् पठितेन / दवमिओ संविग्गो-द्रव्ये मृगः संविग्न उच्यते / पारणवाउटवेइ-पठति / गरुडपक्खियं-पंगुरणविशेष: / नंदीए कढियाएनमस्कार / 'नया वि ते सावहिंपंहे' तेषामुपधिं न प्रत्युपेक्षते / 'भूयावायं न अन्नेण' त्ति. भूयावादो-दृष्टिवादः / भाग्ये 'गुरुमाइणं चउण्ह' त्ति, सूरिवृषभभिक्षुक्षुलुकानाम् / भाष्ये 'सुत्तं विल' त्ति, सुत्तं तक्रम् / 'आमे ताले तहा पलंबे य' त्ति, तालं अग्रप्रलम्बं पलंबे मूलप्रलम्बम् / मीर मग्गइ सक्खी दोणि उच्छिन्न: / घाडिय स्स-मित्रस्य / निवसणे-गृहे / साही-गृहपक्तिः / भाईए-भार्यायाः / भंडी-गन्त्री / दाढोरुवट्टाह-दात्रीभिः / आसियाइज्जइ-अपहियते / अगि सट्ठाणे-यत्र स्वतो. ज्वलत्यग्नि: निजामेण पडइ-निघातेन / अक्खेवए।ह-हस्तपादनिक्षेपैः / संचिखऽत्तगवेसर' त्ति-संचिक्खसहेत | भाष्ये 'अटुगचउक्कदुयएक्कगं चे' त्यादिगाथार्थो-अट्टगचउक्कादयो मिलिता: पञ्चक्श षोडशस्तु प्रथमो ज्ञेयः / प्रथमरहिताः शेषा: त्रयो ज्ञेया: प्रथमस्तु शुद्धः। 'भंगपमाणायामो' इत्यादिगाथायां भागप्रमाणमङ्कगणनात: कार्य, ततो भूमौ अक्षनिक्षेप: गुरुः लघुरिति न्यायेन ततः आरओ-पश्चानुपूर्व्या द्विगुण: प्रस्तारे निक्षेपः कार्यः इत्यर्थः / 'पयसमदुगमऽम्भासो' इतिगाथायामप्युक्त: / कुवणओ-लगुडः / भाष्ये 'परेण बलसाहिए' बलात्कारेण आहृते / पच्चोंगराकरो-प्रत्युत अपकारकर्ता / गंडी-गंठमाला / 'इयरत्थ य निद्दओ सुद्धे' सुद्धे इत्यस्य छुढे पर्यायः / भाग्ये 'पन्वायसरडूय' त्ति प्रम्लानं अबद्धास्थिकं चेत्यर्थः / पलिउखायति-अग्निना दग्ध्वा / आदुक्कियं-छिन्नम् / सुत्तआसुरिमाईहि' त्ति, सुत्तं खायं / आसुरीराजिका / 'भरतर्षभवदिदमपदिष्टं' इति / यथा भारते भरतर्षभ इति Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये. पदं स्थाने स्थाने प्रयोजनाभावादपि प्रयुज्यते तथात्रापि राग इति, रागद्वेषयो: संतुलितत्वात् / गाजूइंगयाणं चाहं / 'सुंडओ' सुंडा-सुरा पेयमस्यास्तीति सौडिकः / विलंको-सालनकम् / चिभिडचन्नियाकाचरीचनकाश्च / खारियगाइणि-लवणकरीराणि / 'पंचगव्यं वा दिन्नं' ति, मुत्रछगणदुग्धदधिघनानि / सीसई वेव-कथ्यते / उठवेत्ता तं पएसं / शेषादिना शल्यस्थानं ज्ञात्वा / अत्थेण न कप्पड़ भाष्येण / सुद्धज्झवप्पूरो द्रवः / तस्स सुद्धस्स अज्झवपुरयं गेण्हइ-केवलोदनस्य न्यूनपूरकम् / असइसग्गामे मिश्रोपस्कृतस्य / आलि संदया-चवला। हरीयगा-मुद्गा: / हंसाहाप तेनाहडं। भाष्ये 'अणुवासप' अनुपासकः / भाष्ये 'हवइ जओ' प्रयत्नपरः। तित्थस्स-पढमगणहरस्स। अतिरियं-अनियन्त्रितम् / परंगियओ चेडरूवो-प्रचक्रमणशक्तियुक्तः / निउयंइछइ-निजौकः / पासाणेहिं जहा बाग्वईएसु-वर्णधातुपाषाणैः / 'जइ तित्थयरो रूववं' ति, जइ-किं इत्यर्थः / आरं दुगुणेणं-संसारं रागद्वेषाभ्यां, पारं एगगुणेणं-मोक्षं संयमेन / 'आयरित्ताऽभविए भयणा' अभाविनि / 'कहयइ यऽभासियाणवि' अकारो ज्ञेयः। 'होइ जओ' परिचयः / वासावजविहारी-वर्षावर्ज विहरतीति / 'हाणाइसमोसरणे' इत्यादिगाथायां अट्टेत्ति आचार्योऽन्यं साधुं 'अट्ठे लोए परजुन्ने' इत्यादि कूटं सूत्रं पठन्तं श्रुत्वा प्रेरितवान् 'अट्टे लोए' इति पाठ भण इत्यर्थः / सिरपग्रियाय-शिरोतिः / इंदियजोगायरिओ-इन्द्रियसमाधिशिक्षाचार्यः / 'पुब्बि निसि निग्गमेलु' इत्यादिगाथायां पुब्बि गृहवासे विसहिंसु-विसोढवन्तः 'घोरे य संगामे' ये च संग्रामे प्रविष्टवन्तस्तेऽपि सहन्ते इति शेषः / भागजढे-निर्जने / द्वारकोष्ठाभ्यां बाहर्भूतो देश: अलिन्दकः / तणुसायि-अल्पशायी / रोमं चुन्भेय-उद्वेग: / 'खामे अगणी उ केवलं' ति, अगणिनं-अना Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प-पर्यायाः चार्यम् / मजाररसियं-प्रथमं बृहत् ततो लघु / 'उवसंपयं च गिहिएसु' गृहिषु उपसम्पत्-वसतिग्रहणलक्षणा / उच्यते तदवस्थमेवेति, मम वचन मिति शेषः / स्वविषये शक्त्यपरिज्ञानात्, पूर्वपक्षवादिन इति शेषः। 'संविग्गा तिण्हटु' त्ति वक्ष्यमाणायाः आयपरोभयगाथायाः पश्चाद्धेऽवयवे संस्पर्श: / निक्खुरो निकिट्ठो मोहेण य मुझइ त्ति वाक्यशेषः / अस्यार्थी उम्मग्गदेसणेत्यादिद्वारगाथापात्ते पदे अयमध्याहारः कार्य: / केषु मुह्यते ? इत्याह-ज्ञानान्तरादिषु / संपिहणंसप्रावरणम् / कायं दीहा मत्ता लक्खणगाहा इति अग्गहइ ति-हस्वमपि अन्गहई ति दीर्घमात्रया व्याख्यातमनेन प्राकृतलक्षणेनेत्यर्थः / 'पृश्यं कप्पए छट्टे भक्तवत् अस्य व्याख्या द्रष्टव्या इति शेषः / 'शरदादिर्भवत' इति शरत्-मार्गशीर्षादिरिति भगवत्याम। 'विसं गरो वा दिजइ' विषं स्वाभाविकं, गरः सांयोगिकः / 'हरियपत्ती' भिन्नं पदम् / पिकछायं पन्नं-आपांडुरम् / 'सत्तवइयं पलावमित्तं भवइ' शिष्टी येन सार्द्ध सप्तपदान्यपि गच्छति, तेन सह मित्रत्वं कुरुते एतदसत्यं जातमित्यर्थः / 'वइयंऽणाए गए दिवसे' व्ययितं अनया / भाष्ये 'धम्मेण उ पडिवजइ' धर्मध्यानेन प्रतिपद्यते, पच्छा इयरेसु वि झाणेसु / 'अन्नेनु वि वटुंतोऽतीयनयं युचई पप्प' अतीतनयं प्राप्य / 'तुमंतुमा य कलहे य' त्ति, त्वं त्वमिति कृत्वा रटन्ति / 'वक्कइय' भाटकेन दत्ता। विकएण-विक्रीणीते / 'पडिच्छाहिगरण तेणे' त्ति, पडिच्छा-प्रतीक्षणं कार्य यतीनाम् / 'तवसोसिय उवाया' इत्यादो उव्वाया-श्रान्ता: 'खुल लुक्खाहार दुब्बला' खिल-क्षेत्ररूक्षाहार कृशा / अप्पाइया-आण्यायिता: / 'विटियउक्खेवणया' ओहिकासु-ऊ/कृतासु / नो ओस्सप्पिणि नो उसप्पिणिकालो महाविदेहे च उत्थपलिभामश्च तत्र दूसमसूसमलक्षणः / वेओ तिविही वि Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पडिवजमाणए इत्यत्र छेदः / पुवपडिबन्ने / अवेओं वि इति छेदः / अविक्कितो हिडइ-अवक्रयन् / जया उवग्गाणि-निकटीभूता न / 'सुहुः मकाइया' एकैक पुष्पाणि / 'तिगमाईया गच्छा' इत्यादौ ज्यादयो गच्छा: पुण्डरीकस्य आसीरन् / 'संखुन्ना जेणंता' इति, संक्षुण्णानि ििलतानि अन्त्राणि येन / 'अदागं पेच्छह' त्ति पुतलक्षणं गृहस्था मणन्तीति / उब्भजी विजउ काथिली एकार्थाः / विलंबिसूरे-अस्तमने / ओवियभोजनं-संसट्ठं / पिह सोयाणि-पृथक्शौचानि। पिउडंउझं / 'सेसएसुं च' त्ति / घए ममि मंसे ये अवयवाः। घयघट्टीतापितघृतकिट्टम् / सूमालिय-साण्ही / खा नु-वितर्के / मुड्डुयरेबृहदुदरः बहुभक्षको वा 'पडिणीए न ते जिणे' न ते साधुं जयन्ति / सज्जणं-मष्टीकरणम् / 'जत्थ साहुनिस्सा नत्थि' निश्रा-यथा-अयं प्रदेशो गुरूपविशनार्थमित्यादि / पिठंततंतूहि-अपानतन्तुभि: / फासुण विपजिओ-प्रासुकेन पायित: / सत्थुनिमित्तं-शास्तृनिमित्तम् / जीयमणुयत्ती जीतं-आचरितम् / भाष्ये 'सो पुरिसा तं वनं' तां वा पंक्ति अन्यां वा / निक्वेसगबुद्धीए-निःसारणबुध्या / बद्धपलालिओ-बहुभाषकः / अत्थबोद्दो-आगमार्थमूर्खः / अह हिरिया नामंत मो-हिया समन् 'पन्नत्ते समाणे प्रगुणीभूते सति / वाहिज्जति कंटगमद्दावणं धूलिझाडावणं / भइए भणिया वृत्तिः / असइवेकणा कणिका / गिलापनिमित्तं तो सन्नं-संकेतम् / लोगप्पायणं-लागप्रत्यायनम् / 'रोगविहि' त्ति, रोगविधिं वाचयन् / केवडिए-रूपकान् / भाष्ये 'सूयगा वा हेरिका वा भवेयुः / अंतरपल्ली-पर्यन्तपाटकः / वसभगामी-मुख्यग्रामः, पडिवसभा-आसन्नवत्तिलघुग्रामा: / भाष्ये ‘पच्चंगिरो' सलोद्रचोर / भाष्ये 'णतनिमंतण' त्ति, नंतं वस्त्रम् / दुक्खणओ-व्याकुलः / सो य अंतोलित्तो मात्रकः / जमलमाइसरिसी-पुत्रयुगलमातृसदृशी। छुद्धं Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yu कल्प-पर्यायाः कमढए भागसुद्धम् / भाष्ये 'पुलएज' प्रलोकयेत् / सामत्थं करेपर्यालांचयति / परिवच्छेद-उपधिं प्रगुणीकगति / भाष्ये 'पालंक लट्टसागा मुगकयं च' इाने, पालंक फलविशेषः, लट्टा प्रसिद्धा यच्च मुद्गकृतं / एतानि गोरसोन्मिश्राणि संसज्यन्ते। भाष्ये 'अविहार्ड' असमर्थ सिंहम् / सदद्लपोइयाओ-त्रासिता:। तण्णगाई-वत्सान् / सज्जंति वाहिओ-बन्ध्या: / 'तलपनविय' त्ति, चप्पुडियाकालेण पन्नविया चकरिया भण्यते / भाष्ये 'कस्सइ विराहणा' कूर(ल)वालक्रस्येव / दुन्नए अभेउ वा यउ काससंनिधानेपि 'सगडालिमणो' थूलभद्रस्य मन: धीमान् / 'तह वीओ कि न रुभिसु' कूर(ल)वालक: इति गाथार्थ: / 'सइकाल' त्ति, भिक्षाकालः / आवायभद्दओ-आगन्तुकान् प्रति भद्रकः / भाष्ये 'सेणाणुमाणेण' स्वेन अनुमानेन / अवे. यवचाण-अपगतवाच्यानाम / सभावओ उच्चो-थलो / खंडिओ छिडिओ। खुड्डियाओ रयेण ठायति, अर्वाग् दिशि / 'आवण रच्छगिहे वा' इत्यादिगाथाना: 'सव्वेसु विचउगुरुगा' इत्यादिगाथायाश्च स्थापनेयं-यथा-अर्थो यथा-सव्वेसु .वि चउगुरुगं अविसेसियं / आपण रथ्या. त्रिक. शून्य. उद्या. | अहवा भिक्खुणिमाईण इमा सोही०० 00 00 00 ६भि | भिक्खुणीए एपसु ठाणेसु चउही ही ही ही गुरुगं तवकालविसेसियं / छल्लह०० 00 00 00 दी।गए ठाइ / गणावच्छेइणीए छन्गुरुए 6 6 6 6 ठाइ / पवित्तिणीए छए ठाइ 00 00 00 . 00 छ। प्र| इत्यर्थ: / 'मुहदंत वासि' त्ति, दी. ही ही ही विशिष्टो दन्तच्छदः / दिस्सदृष्ट्वा / ' होणे' इति, अस्माकमभूवनीदृशाः इति काश्चित् चिन्तयन्ति / 'छिन्नाइबाहिराणं' छिन्न आदिर्यासां ता: छिन्नादया वेश्याः / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये भाष्ये-दोच्च-दौत्यम् / पत्थारो-कटः। भाष्ये 'ढकिंत वंगुरिं' ति, पिधीयमाने उद्घाट्यमाने च / भाष्ये 'अन्नतूहेण' अन्यतीर्थेन / भाग्ये-दबकरणं-शून्यक्रिया / कजं पडिप्पहइ-प्रतिप्रभवति-साधयतीत्यर्थ: / 'मा उहुंचएऊ घटा जत्थ गं' गाहा न दृश्यते। उदए पडिजा गर्तायाम् / जूवओ नाम पीडं विटम् / इंदकुमारियाहि-पादुकाभिः / खद्धपेत्तिए-हल्लिगे। सिविहपरिगहिए तइयादि पूर्वबदिति / अर्थो यथा 'चउगुरुगे' 'त्यादिगाथाक्ततृतीयपदात् षड्गुरुकलक्षणादारभ्येत्यर्थः / उक्कांसे वि पूर्ववत्, अर्थो यथा-अपरिगृहीते / 6 / 6 / 6 / छेदाः, परिगृहीते तु 'तवछेओ लहु' इत्यादिगाथोक्ततृतीयपदात् षडलघुछेदलक्षणादारभ्येत्यर्थः / भाष्ये-दारठा-दौवारिका: / भाष्ये-पत्थारी-कटमईनम् / जीवियदोच्चा-जीवितभयात् / सो अणुप्पेहेइ-चित्तमध्ये परावर्तयति / अब्भावासे वि अल्पवर्षे / उवगाणंसमीपागतानामस्माकम् / अवतासेजा-आश्लिष्यते। 'थेराइतिए अहवा पंचग पण्णरस मासलहुओ य' इत्यादिगाथायाः स्थापनात अर्थो ज्ञेयः / यथा-छेओ मज्झत्थाइसु-मध्यवय आभरणप्रियादिषु छेदः पञ्चकादिविशेषितो ज्ञेयः / काथिके तरुणविशेषिते चतुर्लघु छेदसहितमिति मध्यव० | आभ० | कंद० | काथि० | गाथार्थ: / चउत्थपयं तु विथे।छे ५/छे ५/छे ५/छे 15 दिन्नं-अनुज्ञातम् / पुमंसमम छे 15/ छे 15/ छे 15/ छे स्सिया जे उ पुरुषाश्रिताः। त छे छे छे छे 5 कयकरणे' करणं-सङ्ग्रा. म: / असामाणिओ-अप्रत्यासन्न: / निरायं-अत्यर्थम् / गुम्मासेडियगवल्लिविशेषः / सेजायरचुंणिया-पुत्री / अरिठा-संकेत: / ममसल्लीभार्या / आयर्याठया-संयमस्थिता: / सामाणिए भोयए-सन्निहिते। परिणीयं च न पडिदेजा न प्रतिनीतं च न प्रतिदद्यात् / अवेसिए Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 कल्प-पर्याया: भग्गलाए / उछद्धाणि-प्रचुराणि / जहा कठस्स कथानकम् / पाएसु विचञ्चिगा-विगिचिया वाओ / करमोत्तीए गुरुचक्खडिया / खयकाई खंपओ। मिगपच्चयनिमित्तं-मूर्खप्रत्ययाय / वियडखोलाणि-धात्री प्रभृतिछल्लयः। कडपालए वा-गृहरक्षकान् / भाष्ये-समुदाणं-भिक्षाटनम् / कप्पासकाउ-कर्तयितुम् / भाष्ये-भिंगारेण न दिन्ना-भृङ्गारेण जलाञ्जलिपूर्वमित्यर्थः। अरिठा-मर्यादा। आसियावेइ-आस्वादयति। घंटिक्करेषु-बाटकेषु / तेहि हुं कज्जं. भाजनैः / छेप्पो-पुंछडी। नीलीरागखसद्रुमाख्यानं, यथा-नीलीखरण्टित: शृगालः खसद्रुमनामाहमिति वदति, ततो नादं कुर्वन् ज्ञातः शृगालः इति विनाशितवेत्यर्थः / दवायरिया-नामण-धोवणाइ-नमनधावनयोग्यद्रव्याणि / एयं अणागउमासियं भणियं अनागताऽवश्रितं भणितं संपइकथानकमित्यर्थः / अजाविओ-आशित: / भाष्ये 'नंग्गलिपासएणं' मूलादो वेष्टनं कृत्वा / भाष्ये कोव जंतयं पुवं' ति / कोपः, ततो यन्त्रे मां पूर्व निक्षिप सूरिवचः / 'बंध चिरिक' त्ति बद्धः-शोणेन उत्रेडितः / प्रथमांद्देशकस्य समाप्ता: / द्वितीयस्य तु-ना पंचकमित्यर्थः / दस ना-पंचदस इत्यर्थः / अथिरेसुं थ-विंशतिरित्यर्थ: / "उस्सग्गेण निसिद्धा' गाहा इयं इत: स्थानान्नवमी झया। भाष्ये 'तेणऽपियर खणट्टा' अप्रीतिरक्षणाय / भाष्ये-'अवेइय हि एव' इत्यत्र 'अवेइय' त्ति अज्ञातपर्याय:। 'अव्वोगडो उ भणिओ' अव्याकृतोऽविशेषित इत्यर्थः / 'कास अगीयस्थ सुत्तं तु' कस्येत्यर्थः। निग्रोलियं च पल्लं-रिक्तीकृतम् / अस्साए चउलहू प्रद्वेषे / किं पुण जा अतोया' प्रचुरशीतलादकरहिता: / सएऊएसु-प्रातिवेशिकेषु / पुबलगं सोट्टावियं पाडिजइ' सोट्टावियं-उपरि स्थितं शुष्ककाष्ठम् / फेल्लो जाओ दरिद्रः / परिसाडणियावलिः। भुत्तसेसं पडिणीयं-प्रत्यानी Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये वम् / विट्टला जात्या दश विंशोपका:। भाष्ये 'वणिए घडा वए चैव' इत्यत्र घडावए गोष्ठ्याम् / भाष्ये-किलिबोऽहवायं-क्लीबोsथवायं / भाष्ये-'कडीवलुग्गे' कट्यां वातः प्रविशति / 'सीयाइ जो' साथेरि पूजा / 'जते रसो गुलो वा' यन्त्रारम्भे रसं गुडं वा ददाति / तेलु चक्कंमितेसु वा जंतू'-चाक्रिकेषु तैलं / समाप्ताः कल्पद्वितीयोद्देशकस्य / तृतीयस्य यथा-भाधे 'घोडेहि व धुत्ते व घोड:-चाटैः। भाष्ये-'सेजायर मामाए पडिकुदुद्देसिए पुच्छा' एषां पृच्छा कार्या / 'वट्टक्खुरे संका' हये / दोच्चा आया भयम् / भाष्येकरोत्या इत्यक्षरैः वृत्तं सूचितम् अग्रेतनं, करोत्यादौ तावत्सघृणहृदय इत्यादिकम् / पाओ उ समाउको-समार्दवः। भाष्ये 'अहिच्छसे जति न ते उ दुर' अथेच्छसि यान्ति न ते दरम् 'सांखोभिया ते हऽवरे वयंति' तै: संक्षोभिता अपरे यान्ति / डिंडिया वाइया इग्नाचार्या: एकार्थाः / भाष्ये-कसिणा दुया दो-चतुगु व इत्यर्थः / भाष्ये-'भाणप्पमाणगहेणे-भाजनप्रमाणे गेलन्नऽभुंज' अभाजने / भाष्ये बोसटुं पि हु' भृतमित्यर्थः / भाष्ये 'पूग-लसिगा पूयं रसिका च' / भाष्ये 'बज्झए तेहिं' पट्टकैः अरुगं-अरईयओ-निच्चोला-नित्यााः / पदे धिगहो-वदेत् धिग् अहो इत्यर्थः / भाष्ये-'असई अणंतगस्सप्रणवण्णुत्तिन्निगा व न उ गिण्हे' / पञ्चवर्णादिकं न ग्राह्यमित्यर्थः / माष्ये-जा उ विहिम्मिया सई सवञ्चयामेइ' सापायातां 'मधुमुहे जणे' मिष्टभाषिणि / 'अणागए चेव सइकाले' भिक्षाकाले / 'वाणओं उ पराजिओ' इत्यादौ व्रणित: पराजित इत्यादि ज्ञेयम् / उज्झतु चीरे' इत्यादो मुश्च चीराणि इत्युक्ते 'उच्छुरिया नडी'-आच्छादिता नटी 'दीसइ कुप्पासगाइहि'-कञ्चुगादिभिः। 'जा थणं पियई' यावत् स्तनं पिबति बालकः / 'केसि-सच्चईणं' ति / केशि: शुक्रसमन्वि Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प-पर्याया: तकेशेभ्यः समुत्पन्न: / 'नालबद्धकिढफासु' स्वकृतेन प्रासुकेन च / अवणिओ-मुक्तस्तन: / 'बिइयपए न गेण्हेजा' विउग्गहणंतकं / असईए वत्थस्स। वाहाडिया-गर्भवती। उयह-पश्यत / वइयं नीयं व हसियं वा-व्यूतं नीतं वा हसितं वा। पडुयारो-उपधिः / भाग्ये 'समणस्स वि पंचगं भंडं' पश्चभिः दीणारजघन्यत: श्रमणस्य भाण्डमुपकरणं स्यात् / भाष्ये 'दुओर आल्ले य गेल्लन्ने' उदरवृद्धि: ग्लानिश्च / 'कारणिग पंच रत्ता सम्वेसि मल्लगाईणं' कारणात् पञ्चरात्रं यावत् मल्लगादीनां ग्रहणं वर्षाकाले मध्येऽपि / 'चारणवारे वणीणं' ति / चारणसघाते / 'असद्दहतो कुत्तियावणाओ भूयं मग्गइ' इत्यादि कथायां भूतं मार्गयति वणिजः समीपे भृगुकच्छायातो नरः / तेण चिन्तियं कुत्रिकापणवणिजा / देमि भूयं ते पंचरत्तो को-कुत्रिकापणवणिजा पञ्चरात्रं याचितं ग्राहकसमीपे / तेण देवो पुच्छिओ-कुत्रिकापणर्वाणजा। उच्छाएहिइ-छलिजासि / जाव नावलोएसि ताव तलागं भवई' त्ति / भृगुकच्छीयनरेण अश्वमारुह्य पश्चादागमनमवलोकयता द्वादशयोजनान्याक्रान्तानि भूततडागं च तत्र जातमिति कथार्थः / उद्दद्दओ-भृतः / परिभट्टया-परिव्राजकाः / निकारणे घेत्तुं जइ गेण्डइ-ग्रहीतुं न वर्त्तत इत्यर्थः / अहालहुसं पच्छित्तं-भिन्नमास इत्यर्थः / 'पच्छाअणेहि पवंतेहिं पिनिग्गंतव्वं' ति। एभिः पवमानरपीत्यर्थः / 'अणपुच्छा तिविह सोहि नवमं वा' इति / जघन्यमध्यमोत्कृष्टरूपा त्रिविधा शुद्धिः नवमं वा प्रायश्चित्तमित्यर्थः / 'अणुएहसंवइढिय कक्कसंगा गेण्हंति जं अन्ने न तं सहामो' इति / न तत् सहामहे यत् अनुष्णवर्द्धिताः कर्कशाङ्गा गृह्णन्ति / भाष्ये-'जा लयाओ वाया लया इव कम्पन्ते / उभओ पक्खच्चओ घोरो' संयतीसंयतपक्षात्ययः / भाग्ये-'भाविणऽमहियमसुगाओ' अधिक भावि Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .50 नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये अस्मात् वस्तुनः / 'भत्तट्टिग-बोसिरिया'-भक्तार्थिनः सञ्ज्ञां व्युत्स ज्य / भट्टणस झाप-भक्तार्थने भोजने / अकंठगमणाई अश्रोतःषुगमनं धान्यस्य / 'फिडियऽन्नोन्नाऽऽगारण' त्ति / नष्टानाम् अन्योऽन्याssकारणम् 'तवोवणं मूसिगा जं च' त्ति / साधु तप इत्याद्युपहासः 'मूसिगा ज च'त्ति यथा मूषिका भ्रान्त्वा चान्त्वा स्वस्थाने प्रयाति तथा एतेऽपि वेश्यादिके स्थाने यान्ति / चिलीण सेहन्नहाभावा-अपवित्रं चिलीणं तत्र शिक्षकान्यथाभावः स्यात् / 'गपणे पत्ते अ इंते य' इति गमने प्राप्ते आगच्छति च। पुवठियाऽसइ-गच्छन्ति पूर्वस्थितानां साधूनामसति-अभावे / 'पुंछ चिलिमिली दोरे' इति इंडाउंछणं चिालमिली दोरकं गृहीत्वा गन्तव्यम् / 'कंचुक तह दारुदंडे य' कञ्चकंगात्रिकां कृत्वा दारुडगं-दंडाउँछणं च गृहीत्वा / 'असारियं चेव कहयंते' इति / सागारिकव्याक्षेपः कृतो भवति / इयरे गहियंमि गेण्हन्ति यतय: / जोपंति पकं न उ पकलेणं' ति। योजयन्ति न दर्पिष्ठं दर्पिष्ठेन सूरह(व)गस्स सुन्हडस्स / 'ह णु दाणि अक्खमंणे' हणु एवं इदानीं अक्षमं नोऽस्माकं / तेण य ते अवणीया-तेन ते अपनीताः। दुवक्खरएण-दासेन / निजरा चोच्च-निर्जरा च उच्चैर्गोत्रं च / 'फाई दोसो गच्छइ' स्फातिं / सोयाई माणसा-मनोगुप्ति: / मज्झिमवंदणएखामणवंदणए / 'सिंग पुण कुंभगनिवाओ' इति शृङ्गं हस्तिकुम्भनिपतनमिव / 'जा दुचरिम त्ति ता हाइ वंदणं तीरिये' इत्यादी यावचरिमं साधुद्वयं तावद्वन्दनं देयम् 'आइन्नं पुण तिण्ह' कथं ? गुरा: साधुद्वयस्य चेति त्रयम् / 'मझिल्ले न करिती सो चेव करेइ तेसिं तु' मझिल्ले-क्षामणावन्दने रत्नाधिका: न कुर्वन्ति वन्दनम् / 'जब नामऽपूइओमित्ति वजिओ' इत्यादौ यदि नामाऽपूजितोऽस्मि इति वर्जितोऽन्यैः इति वि हु सुहशीलजणा-एवमपि सुखशीलजनः परिवर्जनी Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प-पर्यायाः योऽनुमतिर्मा भवत्विति / जह न होइ से मन्नु-अपगधः / कुलाइकज्जेसु जहा अभिवायणे' इति / राज्ञा धिग्जातीयोनां प्रणामकरणे / फेज(टा)वंदणपणं-खमासमणेणं / 'व्रतसमितिकषायाणां आर्या' इति / 'व्रतसमितिकषायाणां धारणरक्षणविनिग्रहाः सम्यक् / दण्डेभ्यश्चोपरमो धर्मः पश्चेन्द्रियदमश्च' इत्यार्या ज्ञेया। अकयमुह! फलयमाणय जा ते लिक्खंतु पंचग्गा' इति / हे ! अकृतमुख ! मुर्ख फलकं आनय यावत्ते लिख्यन्तां पंचगा-पञ्चाक्षणि / 'संघियकड्ढणे' त्यादौ संहिता प्रथमं ततः कर्षणं / भाष्ये-'भइणिं अवतासिंता' इति आश्लिष्यमाण: तं चेव मज्झ सक्खी' हे पञ्चक्खमेव साक्षी। कोई अच्चा-प्रतिमा, 'सच्चेव चिईकया छिबिउं' ति / सा चैव प्रतिष्ठिता प्रतिमा कृता मस्तकेनापि स्प्रष्टुं शङ्कले / न पुविपुत्ता-न पुत्रपौत्रका: न उ विउत्तान पुन: वियुक्ताः / 'मंदक्खेणं न तस्स' त्ति / लजया। दिज्जते वि तया णेच्छिऊण अप्पेमु य त्ति नेऊणंति / दीयमानमपि तदा अनिच्छ्य अपीयष्याम इति ज्ञात्वा / भच्छा-गता: / 'दिन्नो भवविहेणेव एस नारिहसिणे न दाउं जे' इति / णेऽस्माकं नाहसि-न दातुमपि अर्हसि / कि पुण मन्नुप्पहरणेसु मन्युप्रहरणेषु / जतियकयं वायन्त्रितकृतं वा / असामाणियत्तणेणं न याति-अन्यत्र गतत्वेन / असत्ते-इंदखीलाइए, यत्र इन्द्रकीलादिकं भवति तत् क्षेत्रं न कस्यापि आभजने इत्यक्षेत्रमुच्यते / भाष्ये-'दटुं व अचक्खुस्सं' अप्रियं / 'निहिट्ठसंनिअब्भुवगएयरे अट्ट लिंगिणो भंगा' इत्यत्र निहिट्ठसंनिअब्भुवगय इति. पदत्रयस्याष्टौ भङ्गाः / माउम्माया य पिया भाया भगिणी य एव पिउणावि / भायाइ पुत्त-धूया सोलस छक्क च बावीसा' // इति गाथाया अर्थो-यथा मातुः सत्का माता, पिता, माता, भगिनी एते चत्वारः, पितुरपि चत्वारः इत्यष्टौ, तथा धातुः Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पुत्रः, धूया इति द्वौ, भगिन्या अप्येतौ द्वो, पुत्रस्यापि एतौ द्वो, दुहितुरप्येतौ द्वौ इति सर्वेऽपि षोडश प्रर्वतनाश्च षट् इति द्वाविंशतिः। संगार:-सङ्केतः / अणुमोययइ सो हिंसं-सं हिंसामनुमोदयति / 'निहिट्टमणि इटुं अब्भुवगलिंगि नो लभइ अन्नो' इति अभ्युपगतलिगिनं न लभतेऽन्यः / निहुँ वा-जश्य प्रतिसशः। 'सा चेव उम्गहो खलु, चिट्ठइ काले उ लंदक्खा' काले तु लन्दाख्या भवती त्यर्थः / सजालमालाचीप्यालं-शोभायुक्तं / सेफल्ला जाया-निर्द्धनाः। उपरियं घेप्पइ झुपिया। तेण र सेणासुत्ते-तेन, हेतुना रपूरणे सूत्रे सेनाग्रहणं कृतं / 'अन्नाए परलिंग उवओगद्धं तुलेत्तु' इत्यत्र उपयोगाद्धां यावत् अवधिं प्रयुञ्जयति प्रथममुत्पन्नो देवः तावन्न परलिंग क्रियते / अणुसट्टाईण अपडिसेहो- अप्रतिषेधः / 'ओहिकाले अईते' प्रथमोत्पन्नस्यावधौ / अन्नम्मि वि पेज्जंता-पाययन्त पानीयं / 'सेल्लए परिक्खइ-सेल्लय-वालमयी रज्जुः / (चतुर्थस्य) 'कुवणयमाई भेओ' कुवणओ-दण्डः / कस्स गच्छपए वणयं लद्धं शालनकं / 'पडिहाररूवि भण रायरूवि' इत्यादी हे प्रतीहाररूप-हे प्रतीहार ! भण राजरूपिणं-राजानमित्यर्थः / त्वां संयमरूपी द्रष्टुमिच्छति / यत्र नृपस्तत्र तं प्रवेशयति / ___ 'एको य दोन्नि दोन्नि य मासा चउवीस टुति छन्भागे। देसं दोण्हवि एयं वहेज मुश्चेज वा सव्वं' गाथार्थो यथा-स्थापनात:आशातनापारंची आशातना पा० प्रतिसेवनापारंची वहेत् मुञ्चेत् वेपण्मासेभ्यो म. मा. वरि. त्येकगृहकार्थः / ध्यात् षष्ठं मासं 6 मा-१ | 1 मा-२ द्वितीयगृहकार्थवर्षमध्यादा षष्ठं व.. व. स्तु यथा-प्रतिभागं मासयल-१मा-२ | 12 मा-२४ क्षणं सेवनापारची Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प-पर्याया: IT घर्षस्य मध्यात् षष्ठं भागं मासद्वयलक्षणं। द्वादशवर्षमध्यात् पुनः षष्ठं भागं चतुर्विशतिमासलक्षणं वहेत् मुश्चेद् वा इति गाथार्थः / 'अट्टारस छत्तीसा दिवसा छत्तीसमेव वरिस च / बावतरि च दिवसा दसभाग बहेज बा बिइओ' // प्रकारान्तरेण अनया गाथया आशातनापारश्ची प्रतिसेवनापारञ्चो च यन्त्रकात् ज्ञेयः / तथाहि-मासषट्रकमध्यात् दशमभागे दिनानि अष्टादश। वर्षमध्यात्तु दशमभागे दिनानि पत्रिंशत् इत्येकगृहकार्थ: / द्वितीयस्य यथा-वर्षमध्यात् आशातनापारञ्ची | प्रतिसेवनापारची | दिनानि पत्रिंशत् दशम भागे / द्वादशवर्षाणां तु दिन 18 1 दिन. 36 | मध्यात् दशमभागे वर्ष | व. वषमेकं मेकं दिनानि च द्विसप्त| 1 दिन 36 | 12 दिन. 72 तिरितिगाथार्थ: / 'तइयस्स दोन्नि मोनुं दवे भावे य' इत्यादो सूत्रापेक्षया तृतीयः सोऽपि त्रिधा तस्य द्वे / पसमं केरिसं-अस्मिन् संवत्सर / 'खड्डे गल्ले वा' खड़ेकूर्चस्थाने / 'न तस्स गओ संभवइ' त्ति / तस्स आयरियस्स सत्थेसु नत्थि खेओ-परिश्रम: / 'खेत्तोवसंपयाए बाधीतं संथुया य मेत्ता य' इत्यत्र द्वाविंशति: पित्रादयः पूर्वोक्ता: मित्राणि च / 'चेइयघरे वा उवस्सए वा' इति / चैत्यगृहं यदि हस्तशतमध्ये स्यादित्यर्थः / भाष्ये 'तजाइयरे य संडेवा'इति / संडेवा:-पाषाणा:। "लत्तगपहे य' इत्यत्र अलक्तकमात्रम् / जो छेवई तस्स छिन्नो वि' इति छेवइ अशिवगृहीत: तस्य छिन्नोऽपि उपधिस्त्यज्यते / दीहाइमाईसु उ विजबंध इत्यादौ विद्याबन्धी विधीयते 'उल्लोयकडं वा पोत्ति' उल्लोचो बध्यते इत्यर्थः / कल्पचतुर्थपर्याया:-'अड्ढाइजा मासा पक्खे अट्टहि मासा हवंति Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये वीसं तु' इत्यादि व्याख्या-दिने दिने पञ्चकवृद्ध्या पक्षान्ते सार्द्ध। द्वो मासौ भवत: / पक्षाष्टके तु पञ्चकवृद्ध्या विशतिर्माता भवन्ति / दशकवृद्ध्या दिने दिने पक्षे चत्वारो मासा भवन्ति / पक्षाष्टके तु दिने दिने दशकवृद्ध्या चत्वारिंशत् मासा भवन्ति / इत्यादि विभावनीयं गाथात्रयेऽपि / सूत्रे-'गणस्स पडिनिजायब्वे सिया' प्रत्यर्पणीयः स्यात् / पाडियस्स य पाईहि-उपाश्रयरक्षयित्रीभिः / सच्चेव हि लालग्गइ हेवाकः। सिवियं व सुकं सिवियं वस्त्रं, सुकं शुक्लं रुक्खदुगं कडिल्लं भण्यते / एगपोरिसीए ठवियं भत्तं लब्धामत्यर्थः / इति कल्पपर्याया: समाप्ताः / / व्यवहारपर्याया-यथा-अप्पापमाणाए धुक्लंभो त्ति / अल्पापमानायां / खलियाइसु-अपशकुनादिषु सक्खुणिओ.........निराकुलः / आइस्गहणेणं गहणं गहनमित्यर्थः / खाडभंगो-प्रथमनगरानेवेशः / 'हाडहडा नाम मासाई' माहा इति पुनरप्यत्राप्यावर्त्तनीया / तालपलंबा गाहो निशीथगाथेयं ज्ञेया। जम्हा तेहिं आयया आगाढा:। ओहारमुहा-उद्वलिउ मनाः। भाष्ये-जा खायइ अट्रियाई पि' यावत अस्थीन्यपि भक्षयति / 'निहत्थरियाओं जहन्नेणं एगुणतीसं वरिसाणि' इत्यत्र गृहस्थपर्यायेण सह एकोनविंशातेर्वर्षाणि / वलायमीणेव्युत्क्रमेण / निकारणे संथारएसु कविएसु / रायारूपवरक्खाय जलारा इत्यर्थः / अहएडगं काउं भाजनं / अटुच्चाला अभ्युत्राता। भाष्ये'दसुदेसे' अनार्यदेशे बत्तीस सहस्साई हवंति उक्कोसओ एस-उत्कृटोऽयं गच्छः / तद्दागणा विरागो-तद्दर्शनात् / अलकइय खइओहडक्कियसुणहेण डंकिओ / तृतीयोद्देशके यथा-पलिच्छन्नो-परिकरित:। कालपुत्तीए-कुलपुत्रतया / पन्नागारं थझ्या / 'चउसु विजणेसु नस्थि दोसो' बालवृद्धप्राममूर्खषु / 'जइ जं (जं जह) सुत्ते भणिय' Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 व्यवहार-पर्यायाः इत्यनेन पूर्वार्द्ध सूचितम् / 'किं कालिया' इत्यनेन पश्चार्द्धम् / अहवा'कुलाइथेरा हिडंति' कुलस्थविरादय इत्यर्थः ।............वीमुंभिएमृते / 'तहेव असंजयएहि जाहि चिट्ठलु ताहि वा सिलोगे' इति तहेवाऽसंजयं धीरो' इत्यादौ दशकालिकश्लोके इत्यर्थः / 'एहि जाहि' इत्यादिना श्लोकतत्त्वार्थ: कथितः / भाष्ये-'पलिया जा होई दिदिवाउ' त्ति / पालिया-परिपाटी। तणवेराईसु-तृणस्थानेषु / गोविसो-गोवृष: प्रधानबलीवर्दः / सूत्रे-'एगराइयाए पडिमाए' प्रतिज्ञया। पभायसंवच्छर-वर्षापर्यन्ते इत्यर्थ: / एस समुक्कसेयत्वे-स्थापनीय: / सो कुटुका-कुडुक्कदेशीयः / आरोगसाला-ओषधादिशाला। कल हमित्ता-वार्तापरिग्रहः / एगंगियं-कट्टमूलं कट्टउलं / वायंतिय ववहारो-वाचनिका व्यवहारः / चतुर्थस्यैते-निच्छियं व विभइउं रित्थ-द्रव्यं / विसुयाविएसु मत्तपसु ऊगाणेसु / 'चाउद्दसीगहो होइ कोइ अहवा वि सोलसिम्गहणं / वत्तं तु अनज्जते हाइ दुरायं तिरायं वा // अस्या अर्थो यथा-कस्यापि मन्त्रस्य चतुर्दश्यां ग्रहणं भवति, अथवा सोलसी-प्रतिपत् तस्यां ग्रहणं कस्यापि भवति, व्यक्तमज्ञायमाने भवति द्विारा विमानं वा इत्यर्थः / 'वा सद्देण चिरंपी महापा(या)णाईनु नाउं अच्छेजा। ओयविए भरहमी जह जाया चक्कवट्टाई॥ अर्थो यथा-नाउं अच्छेजा ज्ञात्वा / यथा ओयविए-प्रसाधिते भरते यथा राजा चक्रवादि द्वादशवर्षाणि राज्याभिषेकं प्राप्त इत्यर्थः / 'जे जत्थ अहिगया खलु अस्ससेणसमासिया रन्नो / तेसिं भरं नसिऊणं भुंजइ भीए अडडाइ' // अर्थो यथा-अस्ससेणसमासिया-अश्वसेनापत्यादयो ये तेषु भरं न्यस्य भुङ्क्ते भोगान् अडडाई विस्तरादिना इत्यर्थ: / 'इय पुवपयाहीए बाहुसनामो देयं मिणे पच्छा / पियइत्ति व अत्थपए मिणइत्ति व दोवि अविरुद्धा' // गाथार्थो यथा-पूर्व Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये पदाधीते बाहुसनामा-भद्रबाहुस्वामी एतद्अधीतं मिणे-परावर्त्तयति, 'मिणे' अस्य व्याख्या पश्चार्द्धन यथा-'पियइ त्ति व अत्थपदे मिणइत्ति व दोवि अविरुद्धा' अर्थपदानि पिबति मिणइत्ति वा द्वौ एका! इत्यर्थ: / अगडसूया-अकृतश्रताः। भाष्ये-'सिण्हाइ परित्ताणं / / इत्यत्र सिण्हा-ओसा / 'गामहिसिमाईणं वालेह कयं गालणाइ अट्टाए वालेयं' इत्यादिकं सूत्रपाठान्तरस्य व्याख्यानमिदं सम्भाव्यते / भाष्ये-'अह सा हीरमाणं तु वट्टेउं जो उ दावर' इत्यर्थो यथा-सा हीरमाण-दीयमानं बट्टेड-परीसेउं परीसवणार्थमित्यर्थः ततो यो दापयेत् इत्यर्थः / 'भत्तट्टिओ व खमओ इयदिणे तासि होइ पट्टः वओ। चरिमे असद्धवं पुण होइ अभत्तटुमुजवणं' // इति गाथाथा यथा-पूर्वदिने भक्तार्थी भुक्तः खमओ-क्षपको वा सन् इत दिनेद्वितीयदिने भवति पट्टयको-तपःप्रारम्भकः / चरिमदिने पुनः अश्रद्धावान् उपोषितो भवति ततो अभक्तार्थ-सोपवासं उद्योतनकमेतदित्यर्थः। ‘पञ्चक्खागमसरिसो होइ परोक्खो वि आगमो जस्से' त्यादी आगम:-परिच्छेदः / 'नवपुवीयगंधहत्थी य' इत्यत्र गधहस्तिन इव गन्धहस्तिनः / 'अंबेव न छुब्भई खीर' ति / यथा अम्बिल मध्ये क्षीरं पतितं विनश्यति / न उ मइलिंति निसेजाइ पीठादिग्रहणे इत्यर्थः / निर्यवकैः-प्रतिजागरकैः / दुगुंछियं वा इगाइ सुराप्रवृतीत्यर्थः / 'पंचविहो ववहारी दुवालसंगस्स नवणीय' ति सार इति तात्पर्यम / 'नक्खत्ते भे पीला चउमासतवं कुणसु सुक्के' इत्यस्यार्थी यथा-यदि प्राणातिपातादीनां श्रवणेन-शब्देन हस्तकर्मणा वा पीडा जाता, तत: चतुर्मासतपः शुक-लघु कुरु इत्यर्थ: / अथ च श्रवणं नक्षत्रमपि हस्तोऽपि नक्षत्रं / 'तित्थोक्काली एत्थं वत्तव्वा होइ आणुपुवीए' इति तित्थुक्का(ग्गा)ली ग्रन्थविशेषः / 'धीरपुरिसपन्नत्तो Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चकल्प-पर्याया: पंचमओ आगमो उ पसत्यो' इत्यत्र आगमो जीतं ज्ञेयम् / भाग्ये"मुहणंतफिडियपाणगे' त्यत्र फिडियाऊ-संघट्टिया मुहुपत्ती / पाणगसंवरण-दिनान्तप्रत्याख्यानम् / 'एगिदिगंत-वज्जे' इत्यत्र अनन्तकायवर्जितानाम् एकेन्द्रियाणां / 'नेयव्वं जाव खमणं तु' खमणं-उपवासः / भाग्ये-'कारहडिहड्माला' इत्यादौ भास्मिकानाम् आचीर्णमिदं ज्ञेयं / भाष्ये-'उभयमवलम्बमाणं कामं तु गंपि प्ररमो' इत्यत्र उभयं गच्छो धर्मश्चेत्यर्थः / 'वंजणओ पत्थिरोमाणि' अपानरोमाणीत्यर्थः / भाग्ये'वेजवञ्चेव' इति वैयावृत्यं / इति दशमे उद्देशके व्यवहारस्य / इति व्यवहारपर्याया: समाप्ताः / पञ्चकल्पपर्याया यथा-दशविधोऽप्याचार: आलोचनादिः / माल. सणाणि-मालायोग्यपुष्पाणि / 'उवट्टवियारलेवपिंडे य' इत्यत्र उवटुंउपस्थापना / अथवा भैश्यं कल्प्यं गर्हितादगर्हिताद्वा 'गर्हितं द्रव्य'मित्यादि श्लोकसूचा इयं / 'वागए असिसणदुकुल्लाई' इत्यत्र छेदः, 'चम्मे अत्थुरणतलिमकोसाई' इत्यत्र छेदः, 'पट्टे सन्नाह पल्लस्थि पट्टाई' इत्यत्र छेदः, 'पम्हए कप्पासाई' इत्यत्रं छेदः, किमिए मलए' इत्यत्र छेदः, 'पट्टे अंसुगाइ' इत्यत्र छेदः / पिच्चइ-कुट्यते / किचइ-कुत्तिया / सोछिइ-श्रोष्यति / 'अहवा तिठाणाइ' त्रिवर्षपर्यायस्यातिचपलत्वात् श्रुतं न दीयते / जीवपदार्थोऽपदिष्टः-कथितः / भाष्ये-'वागेहिं निष्फनं वागजं सणकमाइयं' इति वल्कलजं सणअर्कादिनि:पत्रं / तिरीडोवृक्षविशेषः / भाग्ये-'मक्खंडियाईयं' वस्त्रमित्यर्थः / भाष्ये-'छेवगमाइमयम्मि' इत्यत्र छेवगं-असिवं / 'पीहगाइया' इति पीहको-स्तनदुग्धंः। कोट्टिवं-अवाच्यस्थानं / चूणिया-पुत्रिका / घोडमाईहिं-स्थानपालकादिभिः / इहेस कच्चिच्चो-नपुंसकः / 'घए गुरुण सव्वाइयं' ति सर्वमापीतं / माउट्ठो-निवृत्तः / 'कासइ देहित्थ अलियउ' कस्यापि। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये . . फेल्लस्स-दरिद्रस्य / इक्षुकरणे-इक्षुक्षेत्रे / 'पिटकादिषु' ग्रन्थविशेषः / वरडाइ गंछकादि 'महाजण-पाउम्गाणि' त्ति / महाजनी-गच्छः / डिंद्रियबंधो-गर्भाधानं / 'ठाणं गाहेइ' आसनं कोविं-योनि: / 'भांड छिन्नेण' लिङ्गेन / पडिगमणाइ-व्रतमोचनादिकं / सिरिमदिरि-अवाच्यसेवनं / दिटुं तो तूहे पडिसेवियाओं तूह-अवाच्यं / वद्वओईश्वरपुत्रः / 'करगया तरंगवइमाई' करगया-कथाविशेषः / अह-नारा एइ-न प्राप्नोति / अंतरवई पउमावई-गर्भवती। 'सेसं च पणयं अणायरणजोगं' षण्णां मध्यात् प्रथम वर्जयित्वा शेषा: पञ्च ततः पञ्चक / 'पुरिसो य उग्गमंतो' इति / वस्त्रोत्पादको नरः / भाष्ये-'पच्छायतिगं उमाहो' इति उग्गहो-पात्रं भाष्ये-'फुडियविविच्चिनहंगुलेि' इति / विगिचिया-वातः / 'लेवाड अरह सारियरक्खट्टा गेण्ह सोहण' इति / सारियरक्खट्टा-सागारिजनरक्षार्थ / 'ससरक्खाए पुढवीए अवेसणिया भरिज्जंति' अवेसणिया-वृषणा: / लाडपरीवाडीर-लाइवाचनायाम् इत्यर्थः / 'दुगचउभंगाइ चारणिया' इति द्विकसंयांगे चत्वारः. त्रिकसंयोगे अष्टौ इत्यादिकम् / भाष्ये-'वासाजोगं तु अंग वासं' इति वासं-क्षेत्रं / 'बार समाओ तत्तिय' त्ति द्वादशवर्षाणि तावन्ति / भाष्ये-'भंगपमाणायामो-विस्तरः / ' भाष्ये-'सुत्तं बार समाओ तेत्तियामेत्ता य अत्थो वि' इति द्वादशवर्षाणि सूत्रम् / भाये'निक्खमणं खलु सरए' इत्यादौ निक्खमणं- निर्गमः / भाष्ये-'इयरं थीबालवुड्ढाई' इति / इतरं-प्राकृतं / भाष्ये-'मीसेइ कोलिपयसं वा' कोलिकपानं / 'गज्जमि य पयसंखा' गधे पदसख्या / 'अन्तो वि होइ भयणा ओमे' इत्यादिगाथायां अन्तः-मध्ये गच्छस्य वसतामपि भजना, यथा-अवमस्य वन्दनं प्रायश्चित्तापत्रस्य च संयत्याध सेहस्य च न वन्दनं देयं / 'बाहिं पि होइ' इति / बहिरपि गच्छाद Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चकल्प-पर्यायाः वसतां भजना, यथा-अजापालकवाचकस्य शिष्यस्य वन्दनं दत्तम् / 'हेट्टटाणट्टिओ वि हु पावयणि' इत्यादिगाथायां अधःस्थानस्थितस्य संयमपतितस्य प्रावचनिकाधर्थन् / अपरपदे-अपवादे कृतयोगी संनिसेवते आद्यनिर्ग्रन्थ इव पूज्यः सः / भाष्ये-'संभुंजणा निसिरणा य' इति / निसिरणा-दानम् / एसो वि कालकप्पो, काउस्सग्गे साय सयं गंमद्धे मो वि कालकप्पो' इत्यादि प्रथमे एसो वि कालकप्पो इत्यत्र परिच्छेदः / तथा कायोत्सर्गे सायं सङ्ख्यायां शतम् उच्छ्वासकानां, यतः ज्ञान-दर्शन-चारित्रसर्वकायोत्सर्गेषु शतम् उच्छवासकानां भवति / 'लोगस्स उज्जोयगर' चतुष्टये एसो वि कालकल्पः ज्ञेयः / 'गांसद्धं' इति प्रभाते अर्द्ध-शतार्द्ध ज्ञेयम् / 'निकाचयतीति अपोहते च' इति एका ज्ञेयो / 'वीरल्लसउणओ परसीयाणं' इति / सींचाणकः, परसिया-आखेटककर्तारः। अद्धं सकड़ी यथा-लिक्प्रिावग्णन् / गरुलपक्खियं स्कन्धद्वये वस्त्राश्चल द्वयक्षेपः / यथा एकत्र स्कन्धे एक:, द्वितीये द्वितीयः / 'खंधपुवत्थं' इति / एकत्र स्कन्धे द्वयोरपि वस्त्राञ्चलयोनिक्षेप: / 'आयामेणं वंदइ संभागो वायए अतरमाणा' इति वचनेन बन्दनां कुर्वन् अशक्त: आयामेण-शरीरप्रणामेन वन्दते इत्यर्थः / 'तरमाणो न वन्दइ' तरमाणा-शक्तः / 'उस्सारकप्पलोगाणुआंग' इत्यत्र उस्सारकप्पा-व्यतिक्रमेण सूत्रदानं / 'सीमट्टिओ वामयाहा वा' इति सीमस्थितो वा हृत्वा वा इत्यर्थः / भाष्ये-'मत्तगभांगा अणट्टाए' इति / मात्रकभोगो निरर्थको न कार्यः। 'उडियभीमाइ नाह' इति उण्डिया वर्णकवृत्ति: / 'चाउरकेण गोरखीरेण' गोक्षीविशेषाऽयं / 'अन्नत्थयगओ ताहे कप्पियारीओ भणई' इति / कप्पियारीआ-परिवेषकः / भाष्ये-'भी खत्तिय ! सहवरगो' इति / भाक्ष्यात असहवर्ग: / भाष्ये-'पढमं ठागुस्सगो तेणं तू नवसु Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये होइ ठाणेसु' इति / प्रथमम्-उत्सर्गपदं तेन नवसु-अष्टौ ऋतुबद्धमासा नवमो वर्षाकालः / भाष्ये-'खेत्तं कालाईयं समणुन्नायं पकप्पम्मि' कालातीतमपि क्षेत्रम् अनुज्ञातं द्विगुणं त्रिगुणं चतुर्गुणं वापीत्यर्थः / भाष्ये-'ते अग्गीयऽबहुस्सुय तिण्ह समाणारओ तरुणो' इति / अगीतार्थोऽबहुश्रुतश्चेत्यर्थः / तरुणस्तु त्रयाणां वर्षाणां आरतः / भाग्ये'अन्नं वेलं न सज्जं भिक्खु ण्हाईहिं संसत्तं' ति / स्नानादि संसक्तम् अन्यस्यां वेलायां न सद्यः स्मारयन्ति / 'फुडरुक्खे अचियत्तं गोणे' तुहः उन्वमाहु पेलेजा' इति / स्फुट रूक्षवचनैः अचियत्तं-अप्रीतिं करोति प्राजनदितगौरिव / 'सज्ज अउ न भन्नइ' अत: सद्यो न भण्यते / कल्लोलछगणहारी न मुञ्चई जायमाणो वि' इति / अग्रेतनगोणादेः न तस्य अशुष्केऽपि छगणे पुन: चोर्य यः करोतीत्यर्थ: / भन्नइ घट्टिज्जतं तुत्थं दुटुं तह तुमंपि' इति / यथा तुत्थ-औषधविशेष: घट्यमानं दुष्टं स्यात्तथा त्वमपि / भाष्ये-'पाणो सो संयुत्तो अइरुचिय कुंकुम तइयं' इति / य: स्मार्यमाणोऽपि न प्रपद्यते, स पाण इव-चण्डाल इवेत्यर्थः / यथा चाऽतिघृष्टं कुङ्कर्म विनश्यति तथा सोऽपि / 'आइपणगं तु तुलंति जाण सेजाइ जाव साहारंति / शय्या-उपधि-स्वाध्याय-आहार-अनुकम्पालक्षणं ज्ञेयम् / अहवादिपणगमूलंगुण पंचेए हुंति दोण्ह तुल्लाउ' इति / पश्चाद्याः मूलगुणाः पञ्चमहाव्रतरूपा: अनुस्वारस्तु प्राकृतत्वात् / वाई पुण उत्तरावहाइन्न / वाई विकट-मदिरा। 'दुगुणतिगुणचउग्गुण बहुगुणा वा खेत्तकालाइकमा' इति / कारणे मासादेरुपर्यपि कल्पते इत्यर्थः / अंतद्धाणहंसाईहि वा उप्पाइंति हंसाईहिं-हिंसादिभिः / आलंबणविशुद्ध सत्तदुए परिहारेजा" इति / ‘पट्टीवंसो दो धारणाइ' इत्येकं सप्तकं, 'वंसगकडणुकंवणे'त्यादि द्वितीयं सप्तकं इत्यर्थः / 'संलीदाए वोसिरणे वोसट्टाए वा' इति / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्ध-पर्याया: संलिखिताया: व्युत्सर्गसमये वा सर्वस्य कृतव्युत्सर्गाया वा अनुशास्तिनिमित्तं इत्यर्थः। चउवग्गो त्ति। असणाइ न य पवयणपीला भवइ-न च प्रवचनपीडा भवति / 'अणाइन्ने पुण वियडाइसु अणुयाइसु मइलणा' अनुचितेषु विकटादिषु इत्यर्थ: / 'अप्पणा अणिवित्ता' अनिवृत्ता इत्यर्थ: / 'गीयत्थेहाइन्ना तं देसीओ न जाणामि' इति / गीताथै राचीर्णा समिति: तां विदेशोऽहं न जाणामि / सीयघरसमो य होइ / माभाई' इति / माभाई-अभयदाता / खाई-तर्हि / भाष्ये'आयरियप्पमाणा गुणप्पमाणं च समणाणं' इति / आयरियप्पमाणाआचारप्रकल्पप्रामाण्यात् / भाष्ये-'निय अणुकंपाए गिहिणं तो नामन वसहा तुम्भे' इति / निर्दयत्वेन अनुकम्पया च गृहिणां विधीयमानया नामन वृषभा भवन्त इति प्रेरकवचनम् / 'भण्णइ सरिसेऽहिगेहिं च' इति / सदृशैरधिकैश्च उज्जुयारेइ-उन्नालयति / 'मासाईए अणुहि वासाईए भवे उवही' इति / मासादूर्ध्व अनुपधि:-ज उपधिर्मासादृर्व ग्राह्यः / 'वासाईए भवे उवहीं' ति / वर्षाकालेऽतीते तु उपधिग्राह्यः मासद्वयस्यामित्यर्थः / 'सुत्तत्थतदुभयाइं संधि अहवा वि पडिपुच्छेए' इति संधिविस्मृतस्य सन्धान प्रतिपृच्छन्ति वा पते / 'वसणं वाजीमाई' इति / वाजीकरणादिकं-कामोद्रेककरणमित्यर्थः / कुहंडी-अंबिका। इति पञ्चकल्पपर्यायाः समाप्ताः / दशाश्रुतस्कन्धपर्याया-यथा-'द्वाभ्यां कलितो बाल' इति / बालत्वयुवत्वाभ्यामित्यर्थः / 'भोयणदारगरायदिटुंतेण मा वोच्छिजिस्संति' इति / यथा-भोजनादग्रतो बालानां विनष्टपूपादि दीयते इत्यर्थः तथा राजदृष्टान्तो यथा-राजा दुर्भिक्षे लोकानां धान्यं प्रयच्छति इत्यर्थः / 'न याहारोवहिसेजई' इति न च आहारादिनिमित्तं निर्जूढाः / मिस्सठाणं समाभरियाणं-अलङ्कतनराणां / खंधखणियवायपडिसेहणत्थं Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशेषसिद्धान्तविचार-पर्याये स्कन्धक्षणिकवादप्रतिषेधार्थ / गोणसमृगादि-गोनसमृगादि / चक्कय रदंडगो-कुम्भकारदण्डो हि मृत्तिकासवलो भवति / तृतीयदशायांकालियाए रात्रौ / “अगारगं वा भुंजमाणस्स' भक्तरुचिं विनेत्यर्थः / 'ओसन्ने सवपयाणि वि' अवज्ञादीनि कार्याणि / संघट्टित्ता नाणुजाणेह-न अणुजाणावेइ। चतुर्थदशायां-यथा उपगृहातीति उपग्रहःपरिपालनं 'दवपलित्थयस्स' त्ति द्रव्य-शरीरं / 'गोहि गोमिओ' इति / गोभिर्गोमान् गोसङ्ख्यां करोति / 'छप्पन्नं पंचसंजोगा सवत्थ बत्तीसं बत्तीसं भंगा' इति पञ्चकसंयोगा: षट्पञ्चाशत् भवन्ति इत्यर्थः / 'अहवा बहुस्सुओ अभिंतर-बाहिरएहि' इति स्वसमयसूत्रं परसमयसूत्रं चेत्यर्थः / 'चित्रं बह्वर्थयुक्त' इत्यत्र छेदः / 'लिहइ पहारेइ गणेई' त्ति / पाहाडे गणेइ इत्यर्थः / पञ्चमदशायां तु 'जहा तीसे कम्मकारियाए घुसलतीए महत्तरघूयं जायइ' इत्यादि कर्मकरौं काचित् घुसलंतीविरोलंती पादाधी न्यस्तद्रव्यमाहात्म्यात् स्वकीयपुत्रार्थ महत्तरस्यठकुरस्य सत्कां पुत्रीं याचते इत्यर्थ: / कभल्ले गोवेइ कभल-कूर्मकाराटिः। मिच्छादसणसल्ले आयजोगीणं' ति / एतन्निवृत्तये आत्मनो हितास्तेषां / षष्ठयां यथा-सीहपुच्छिज्जति-यथा सिंहस्य मैथुने लिङ्गच्छेदः स्यादाकर्षत: / थामियाणं-बलिष्ठयोः छिन्ननेत्री भवइ-छिन्नलिङ्गो भवति / एवं तस्स पुत्तयाछेतु पोत्रा इत्यर्थ: / सप्तम्यां तु 'सभिक्खुए य अहिगारो' इति / सभिक्खु अध्ययनं दशकालिके / 'वेयावकिलंता अभिन्नरोमो य आयासे' इति / अवश्यकर्तव्ये अभिन्नरोम इव / 'संकगहणे इच्छा इत्यादिकं पच्छित्ते आएसा संकिय' इत्यादिना व्याख्यातमेव / का दुणु इमस्स इच्छा अभितरमहिगउ जीय-का इच्छा अस्य साधा: यया इच्छया मध्ये प्रविष्ट इत्यर्थः / 'असुइणा वागाए किंचि सउणगाइणा' इत्यादि शकुनिगृहखरण्टित: समुद्देशे च Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्शाश्रुतास्कन्ध-पर्यायाः झालनं करोतीत्यर्थ: / अष्टमदशायां-'जइ अत्थपयवियारो' गाहा कंठा 'कुत्तनिहिट्ठा निसीहे' इति / कुत्र निर्दिष्टा गाथा ? निशीथे इत्यर्थ: / 'चयणाईणं छह वत्थूणं-च्यवनादीनि पञ्च षष्ठस्तु गर्भापहारः / 'पणियभूमि वजभूमि' इति / पणियभूमि इत्यस्य पर्यायां वजभूमिरिति / भूमिशब्देन काल उच्यते / पुरिसंतरकालो युगंतरकालश्चत्येका / 'पणपन्नं पावा पणपानं कल्लाणा' इति / पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि पापकर्मप्रतिपादकानि पञ्चपञ्चाशश्च कल्याणप्रतिपादकाति अध्ययनानीत्यर्थः। तत्रैकत्र मरुदेवीवक्तव्यताइत्यादि ज्ञेयं / 'वेसमणकुंडधारिणो तिरियजंभगा देवा' इति कुण्डधारिण इति तेषां नाम ज्ञेयम् / पावाए मज्झिमाए-एकार्थे / ततः हस्तिपालकस्य राज्ञ: सत्कायां रज्जुकसभायां लेखकसभायामित्यर्थः / चंद्रसंवच्छरमधिकृत्यापदिश्यते 'जेण जुगाई सो' इति / येन कारणेन स संवत्सरः युगस्यादौ वर्तते / 'वासाणं सवीसहराए किं निमित? पारण सयऽढाए कडियाई पासेहिंतो कंबियाणि' इति / अर्थस्तु वर्षाकालस्य सत्के सवीसइराएसु दिनेषु गतेषु किंनिमित्तं पर्युषणा क्रियते ? यतः प्रायेण स्वार्थ कृतानि गृहाणीत्यर्थः / 'जहन्नलंद उद उलं-उदका सत् यावता शुष्यति तावान् काल इत्यर्थः / 'भगवओ जम्मनक्खत्तं संकंते' इति / भगवतो जन्मनक्षत्रं सक्रान्त: तत्रादय इत्यर्थः / अचलमाणा-अचलंती / अणुत्तरोववाइयसंपया होत्था' -ये अनुत्तरविमानेषु उत्पत्स्यन्ते इत्यर्थः / 'समणस्स गं भगवओ महावीरस्स नव वाससयाई वीइकंताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं तेणउइमे संवच्छरे गच्छइ' इत्यस्याओं यथा-यदा किल पर्युषणा चतुर्थ्या जाता, तत: पूर्व कालमानमिदमिति वदन्ति वृद्धाः, तस्वं पुन: केवलिनो विदन्ति इति भावार्थ:। आहोहिएण-अभ्यन्त Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये रावधिना / 'पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणियस्स कालगयस्स दुवालस वाससयाई वीइकताई, तेरसमस्सं य वाससयस्स अयं तेयालीसइमे संवच्छरे गच्छई' इत्यस्यार्थो यथा-महावीर कालमानं पूर्वोक्तं 993 एतन्मध्ये जिनान्तरं पार्श्वनाथसत्कं प्रक्षिप्यते इदं 250 ततो यथोक्तं मानं भवति 1243 अङ्क-स्वरूपमिति भावार्थः / अरहओ णं अरिटनेमिस्स कालगयस्स चउरासीई वाससहस्साई वीइकंताई, पंचासीइमयस्स वाससहस्सस्स नव वाससयाई वीइकंताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं तेणउइमे संवच्छरे गच्छइ' इत्यस्याओं यथापार्श्वनाथमानं 1243 अस्य मध्ये नेमिपावा॑न्तरं क्षिप्यते इदं 83720 ततो ययोक्तं मानं भवति 84993 अङ्कस्वरूपत इत्यर्थः / बायालीसवाससहस्सेहिं ऊणिया गच्छइ' इत्यत्र ऋषभकालात् प्रभृति चतुर्थीप्रवृत्तपर्युषणादिनं यावत् कालमानमित्यर्थः / कोडियकाकंदवग्यावच्चसगोत्ताणं' ति कोडियकाकन्दयो: वग्यावच्चं गोत्तं / 'अज्जत्ताप समणा निग्गंथा' इति / साम्प्रतं ये विहरन्तीत्यर्थः / 'अंतरा वि से कप्पइ पजोसवित्तए' पञ्चभिः पञ्चभि: दिनैः कृत्वा इत्यर्थः / 'अत्येगइयाणं एवं वृत्तपुव्वं भवइ दाए भंते' इति सूत्रस्य व्याख्या-केनापि भिक्षा गच्छता एवं पूर्वम् उक्तं स्यात् यथा-अन्यस्य दास्यामि भक्तं न तु स्वयं प्रतिग्रहीष्यामि इत्येको भङ्गक इन्यादिका चतुर्भङ्गी ज्ञेया। चूण तु-'अत्थेगइया आयरिया दाए भंते ! दावे गिलाणस्स मा अप्पणो पडिग्गाहे चाउम्मासगाइसु' इत्यस्यार्थो यथा-सन्ति केचिदाचार्या: तत: शिष्यः प्राह-तान् प्रति-दाए भंते' इति / अस्यार्थस्तु ग्लानस्य दास्यामि न त्वात्मना ग्रहीष्यामि चतुर्मासकादिषु इति चतुर्भङ्गी ज्ञेया इत्यर्थ: / 'तुमं पित्थ भोक्खसि ओयणं दवं पाहिसि' इति / त्वयाऽपि भोक्तव्य आंदनः जलं च पातव्यं ततो बहुतरमपि गृह्णा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्ध-पर्याया: णेत्युक्ते गृह्णातीत्यर्थः / 'अदक्खु वइत्तए' इति / कुलानि विद्यन्ते श्रावकाणां कृतादिविशेषणोपेतानि येषु श्रमणानां नो कल्पते 'अदक्खु वइत्तए'(अ)दृष्ट्रा किश्चनापि भोजनजातं उदितुं याश्चार्थम् यतः। पूर्वक्वथिते जले ओदनं क्षिपित्वा तत्क्षणादेव ओदनं नि:पाद्य यच्छन्तीत्यर्थ: / 'वासावासं प०' इत्यत्र पकारे पर्युषितस्येति क्षयम् / ससित्थे आहारे दोसा अपरिपूए कट्टाइ अगलिते जले काष्ठादि स्यात् / संनिवत्तिउं आत्मानं अन्यत्र चरितुं चारएइ इति 'संनिवत्तिउं' इत्यस्य व्याख्यानं 'अन्यत्र चरितुं चारएई' इत्येतत् सप्तभ्यः अभिग्रहीकृतगृहेभ्यो अन्यत्र भिक्षां कृत्वा पुनः सप्तसु भिक्षां कर्तुं न कल्पते इत्यर्थः / भिगुपुडियालीमृत्तिकापुटानीत्यर्थ: / 'पारणगं वा संधुक्खणाइ अस्थि' संधुक्खणं-येन उदराग्नि: दृढः स्यादित्यर्थ: / 'अहासंनिहिया अणतावणे कुच्छणं पणउ' इति / सार्द्र उपधिर्यदि संनिहिते स्थाने न ताप्यते ततः कुत्सनं पनको वा ऊलि: स्यात् / 'अडगेहिं बंधइ' बन्धविशेषः / अहिगरणंकलह: / वलवाउया-वलव्यापृता: / 'जाणप्पवरे आइट्ट भई तव दुरुहाहि' इति / जानप्रवर: आदिष्टं भद्रं तव समारुह इत्यर्थ: / विगाहापरिव्राजकवत् कश्चित् परिव्राजको ज्ञेयः / 'एगंतरमुप्पाउ अन्नोन्नावरणक्खए जिणाणं' ति / पर: प्राह-एकत्र क्षणे ज्ञानं प्राप्नोति द्वितीये तु दर्शनं अन्योन्यावरणक्षये सति इत्यर्थः / गिलाणवेसं अद्देइ' करोतीत्यर्थः / कोडिल्लगमासुरक्खाइ कहेइ' कथाविशेषौ / 'सहजायगा मित्ताइ' सहजाता: सहजमित्राणि भण्यन्ते / कम्मंता कम्मठाणाएकार्था / पूर्वकृत्यमिति सो यमुद्यत् इत्यादौ गृहस्थावस्थायां गृहिणां कृत्यम् इदं यथा-घोररणमुहं दारभरणं-भार्यापोषणं / पेयकिञ्च-श्राद्धादिकं एतत् स्वरूपेषु स्वर्गषु कीदृशेषु ? 'देहपूयणचिरजीवणदाणतित्थेसु' देहपूजनं रणे इत्येके तीर्थ, चिरजीवनं भार्या प्रति इति द्वितीय Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये तीर्थ, प्रेतकृत्ये दान देयमिति तृतीयम् / अथवा अपत्योत्पादनं कृत्यं / न तस्मात् सांसारिकभावात् जीवोऽर्थान्तरभूतो मृतस्य 'जातिसरणं' ति / यतो मृतस्य जातिजन्मधारणं आश्रय इत्यर्थः / 'संजमघाइमूला: क्रमेण उत्तरगुणा' इति / संयमं प्नन्ति मूलगुणा: तत्क्षणात् उत्तरगुणास्तु क्रमेण घ्नन्ति / 'असुभा मियापुत्ते य गोत्तासे' मृगापुत्रो गोत्रासकश्च / 'तहागएसु दसहा नियाणाणि' तथाप्रकारवस्तूनां विषये दशधा निदानानि ब्रह्मदत्तादीनां / 'गहतित्थादिसु वा वीयारणे' दिति ब्राह्मणानां / 'मालानक्खत्तमालादि'-आभरणविशेषोऽयं / 'बुंभलगाईणि' आभरणविशेषः / वन्धीसमादिटुं खरीप्रभृति / 'निदाने य भवई' निदानं तत् स्थादित्यर्थः / 'कण्हइ रहस्सिय' त्ति / संजया तापसविशेषा इत्यर्थः / 'सिस्नोदरकृते पार्थ' इत्यादौ सिस्नोदरं-मैथुनं / 'जाव पुणो पुत्ते पार्टिति' केचित्तापसाः बालत्वे पञ्चषड् वा वर्षाणि यावत् तपः कृत्वा परिणयन्ति पुत्रकाममुत्पाद्य तानेव पाठयन्ति / 'अन्नयस्स अश्यमाणस्स वा' आगच्छत इत्यर्थः / चेलपेला इव सुसंपरिमुयावस्त्रपेटा इवेत्यर्थः / तेलकेला इव सुसं पडिलवेणं' सुक्केण शुल्केनमूल्येन इत्यर्थः / संवलिथालिया इव-सिंवलिवृक्षफलमिव / 'एस मे आयाए परियाए एस नीहाराए' इति-आत्महिताय परितापाय च गृहमांचनाय चेत्यर्थः / 'पेत्तियं दायं पडिवजई' पैत्रिकपदमित्यर्थः / 'सव्वेसिपि नयाणं' गाहा ज्ञेया। निर्युक्तौ तु कहिया जिणेहिं लोगप्पगासिया भारिया इमे बंधा / साहुगुरुमित्तबंधवसेट्रीसेणावइवहेसु' इत्यत्र लोकप्रकटा भारिका इमे साधुगुरुमित्रबान्धवश्रेष्ठिसेनापतिवधेषु इत्यर्थः / मंगलं इति दशाश्रुतस्कन्धपर्यायाः समाप्ता: इति / गुरुसम्प्रदायत:-'दश्वविणासणे दुविहभेए' इत्यस्य व्याख्यानगाथा यथा-जोग्गं अइयभावं मूलुत्तरभेयओ अहव कटुं / जाणाहि दुवि Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 जीतकल्प-पर्यायाः हमेयं सपक्ख-परपक्खमाई वा // 1 // योग्यं-नवम्, अतीतं-पुराणं, मूलं-स्तम्भादिकं / उत्तरं-वंशादिकं / सपक्षद्रव्यं जिनसत्कं, परपक्षद्रव्यं-तीर्थान्तरीयाणाम् इति गाथार्थ: / कदालिका हस्तिटगकः। जीतकल्पपर्यायाः यथा-आद्य त्रिषु स्कन्दकं छन्दः / 'जस्स मुहनिझरामयमयवसगंधाहिवासिया इव भमरा' इति / यन्मुखनिर्झरामृतमयवशगन्धाधिवासिता: साधवो भ्रमरा इव इत्यर्थः / 'विसेसाविसेसियावस्समि' त्ति विशेषावश्यके / 'अप्पत्तापत्तव्वत्ततितिणिय' त्ति / अपात्र-अप्राप्त-अव्यक्त-तिन्तिणिकादीनामित्यर्थः / तहिं वा अहिगरणभूए इति / पवुच्चंति जीवादओ पयत्था इतिशेषः / 'पढमं ठाणं दप्पी, दप्पो चिय तस्स वी भवे पढम' ति / दर्पः प्रथम स्थानं, तस्यापि प्रथमभेदो दर्प एव, ततः प्रथमे दर्पपदे व्रतषट्क-कायषट्क -अकल्पादिपट्कसञ्चारणेन अष्टादश गाथाः / अकल्पनिरालम्बादिपदेष्वपि प्रत्येकम् अष्टादश गाथा ज्ञेया इत्यर्थः / कल्पिकाया: दर्शनज्ञानादीनि चतुर्विशति: पदानि; तेषु प्रत्येकं व्रतषट्ककायषट्क-अकल्पादिषट्क सञ्चारणात् दर्शने अष्टादश गाथा: / एवं ज्ञाने अष्टादश गाथा: ततः सर्वेऽपि अष्टादशकाः चतुर्विशतिसङ्ख्या: भवन्ति / 'अणुमजिय तं सुओवएसेण' त्ति / विचिन्त्य / 'नक्खत्ते भे पीला' इति / नक्षत्रे श्रवणहस्तलक्षणे श्रुतं हस्तकृतं वा किञ्चित् स्यादित्यर्थः / 'सुक्के मासे' लघुमासे / 'एवं तावुग्घाए' इति लघूनि, अनुराते तु गुरूणि / 'छिदित्तु तयं भाण' इत्यादौ तत् स्थानं सञ्चिछद्य इत्यनेन छेदः प्रतिपादित:, गच्छंतु तवस्स साहुणो मूलं' इत्यनेन मूलं भणितम् 'अव्वावडा व गच्छे' अव्यावृता: गच्छे सन्तु इत्यनेन अनवस्थाप्यम् 'अब्बीया वावि विहरंतु अद्वितीया विहरन्तु इत्यनेन पारं Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये चियं भणितं / 'छब्भागंगुलपणगे' इत्यादौ मासस्य अङ्गुलेति नाम, ततश्च दिनपञ्चके अपनीते अङ्गुलावान्तरनामकस्य मासस्य मध्यात् षड्भागाङ्गुलं छेदो भण्यते / यत: मासः षविभागः क्रियते पञ्चकेन पञ्चकेन दिनानां, तत: मासमध्ये पञ्चकषट्कं भवति इत्यनेन 'छब्भागंगुलपणगे' इति व्याख्यातं / 'दसराए तिभाग' इति / दशरात्रे छेदे त्रिभागी मासस्यापनीयते इत्यर्थः / 'अद्ध पन्नरसे' इति / अर्धछेदे पञ्चदश दिनानि अपनीयन्ते / 'वीसाए तिभागूणं' ति / विंशतितमे छेदे त्रिभागो दिनदशकलक्षणोऽपनीयते इत्यर्थः / 'छब्भागूणं तु पणुवीसे' पञ्चविशतितमे छेदे षष्ठो भागः पञ्चदिनलक्षणोऽपनीयते इति गाथार्थः / 'मासचउमासछक्के' इत्यादौ मासछेदः चतुर्मासछेदः षट्कछेदः एषां नामानि यथासङ्ख्यं अङ्गलं मास नाम, चतुर्मासस्य चउरो इति नाम, छक्कस्य छक्केति नाम, एते सर्वेऽपि छेदपर्याया इत्यर्थः / 'आउत्तनमांकारा' इति / नमस्कारोपयुक्तैर्भाव्यं न किमपि प्रायश्चितमित्यर्थ: / 'अवसेसाऽसुयाणुयोगस्स' अनिष्ठितश्रुतानुयोगस्य / 'पलिउंचियमपलिउंचियं वा' इति-आवयं अनावर्त्य वा इत्यर्थः / 'दस्सुमिलक्खु-वोहियमालवाइ-सकासाओ' इति / दस्युम्लेच्छमानुषापहारकमालवा: चौरविशेषाः, मालवास्तु मालवकदेशपल्लि वासिचौरा: / 'विहारो-सज्झायनिमित्तं जं अन्नत्थ गमणं' स्थण्डिलादौ / 'घडगोलंकयवारगाइट्टियस्स' इति / घटउल्लकवारकस्थितस्य / एगकल्लाणं' ति / निविय०१ पु०१एगा० 1 आयं० 1 अभ०१ द्विकल्याणादौ तु नि० 2 पु० 2 ए०२ आ० 2 अ०२ इत्यादिक्रमेण ज्ञेयं / सुक्कसंनिहिए-शुष्कभक्तसन्निधौ / 'ओहुत्तं पढमभंगी सेसा तिन्नि भंगा इति / दिवा गहियं दिवा भुत्तं इत्यादयश्चत्वारः / 'पिठ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्पपर्यायाः कुक्कसकुक्कसी उक्कंठचिचाई' इति / कुक्कसकुक्कसी सूक्ष्मकणिका इत्यर्थः / 'पिहिए चउभंगा' इति गुरुगुरुणा गुरुलघुना लघुगुरुणा लघुलघुना इति चतुर्भङ्गी इत्यर्थ: / 'अचित्ते अचित्त साहरिए' इति दोषसम्भवात् / 'अह गुरुसाहरिए' इति गुरुगुरुणि संहियते इत्यर्थ: / 'उद्देसिय चरमतिए' इत्यादि गाथा 1 'सोलस उग्गेमदासा' इत्यादि गाथा 2 'अइरं अणंत' इत्यादि गाथा 3 एतस्मिन् गाथात्रये सोलस उग्गमदोसा इति संग्रहगाथा ज्ञेया / अन्यत्त गाथायुगलं 'एयाओ दुवि गाहाओ' इत्यनेन सूचितम् / 'अइरं' ति अनन्तरम् इत्यर्थः / करणपूईउपकरणपूति: / ‘पमेय' त्ति पामिच्च ‘संथवतिग' त्ति संस्तवत्रिकं 'संनाहपट्टो' उपकरणस्योपरि हृदये बध्यते। विच्चए पडिए-विच्युतं पतितम् एकाौँ / 'उग्गमेउं न निवेएइ' उत्पाद्य वस्त्रादिकं न गुरूणां निवेदति / 'सवोवहिं वा अदिन्नं परिभुजई' अदत्तं गुरुभिरित्यर्थ: / * पुरि मत्तए वा चरिमाए' इति / पुरि-पौरुष्यां, मत्तए-मात्रके, चरिमाए-चतुर्थपौरुष्यां / पणगं लहुगं-अइढाइजा दिणा / गुरुगं-पञ्च दिनानि / दसगं लहुगं-अद्धसत्तमदिणा / गुरुगं दशैव / पन्नरसगं लहुगं-सडढबारस दिणा / गुरुगं पञ्चदशैव / वीसगं लहुगं-सङ्घसत्तरस / गुरुगं विंशतिरेव / पंचवीसं लहुगं-सड्ढबावीस / गुरुगं पञ्चविंशतिः / लहुमासो सडूढसत्तवीस / गुरुमासो त्रिंशदेव / एतानि दिनानि ज्ञेयान परमार्थ तु प्रायश्चित्तस्य पवमादे: चिरन्तना जानन्ति / सो य इमो अहागरुयाइ तृतीयभेदोऽपि आदी कृतः / 'लहुससुद्धो वा' इत्यत्र शुद्ध एव न किञ्चिहीयते 'लहुमास भिन्नमासो वीसलहु पक्खुकोसमज्झिमजहन्ना' यथासङ्ख्येन तपो शेयम् / 'पन्नरस दसमं पणगं लहुसुक्कोसाइ तिविहेसो' इति / लहुसपक्षे उत्कृष्टमध्यमजघन्यतया पञ्चदशदशमपञ्चका नियोज्यन्ते / 'असहुस्सेगेगहासणथा' असहस्य एकैकहास: क्रियते / ठाणक्कमेण-स्थानाङ्गप्रोक्तक्रमेण / 'अट्ठमभत्तं अंतो निव्वीयमाई' इति / यन्त्रकोक्तेषु प्रायश्चित्तेषु सर्वेषु निर्विकृतिकार्य अष्टमभक्तान्तं तपो दीयते इत्यर्थः / LAHHHHHHHI Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये 'तिरियायए तेरसघरए काउं हेट्ठा हुत्तो जाव नव. घराई पुनाई' इति / तिरश्चीना: त्रयोदशगृहकात्मका ओलीरूपेण नव श्रेणंयो लिख्यन्ते / 'एएसिं नवण्हं जाई दाहिणेण अन्ते टूठियाणि दोन्नि घरयाई' इति / त्रयोदशगृहकात्मकनवमश्रेणेरधः एकादशगृहात्मका श्रेणी, ततो नषगृहात्मका अधस्तात् श्रेणी, एवं गृहद्वयं गृहद्वयं पुंवद्भिः विद्वभिः श्रेणी लिखितव्या यावत् एकगृहात्मका श्रेणी स्वहस्तदक्षिणभागापेक्षया दक्षिणं गृहद्वयं गृहद्वय उत्साय ते इत्यर्थः / स्थापना चेय पत्रान्तरे लिखिता विद्यते / 'जं पयं जहिं अवराहे ठाविय तहिं चेव अवराहे ताए पंतीए पुरिसावेक्खाए सव्वे पच्छित्तपया चारेयव्या' इति / यत्पदं प्रायश्चित्तलक्षणं यत्रापराधे निरपेक्षादौ तस्मिन्नैव अपराधे तत्र तस्यां पश्तो पुरुषापेक्षया सर्वप्रायश्चित्तपदानि चारयितव्यानि / यथा निरपेक्षपदे सर्वाणि प्रथमपदप्रायश्चित्तानि योज्यन्ते इत्यर्थः / विरइए पुरिसविभागेण पणगाई छम्मासावसाणे निविइयाई अट्ठमभत्ततं पुन्वभणियमेव ' इति सर्वप्रायश्चित्तानां पणगं आदौ छम्मासा अवसाणे / तत: सर्वत्र पणगादौ छम्मासान्ते निर्विकृतिकाद्यम् अष्टमभक्तान्तं दीयते इत्यर्थः / 'अत्थादाणोनेमित्ति उसन्नायरियरुच्चगपरिभग्गवणियपेसणरूवगसउणी' इति। अवसन्नाचा नैमित्तिकः तस्य रुच्चगो-भागिनेवः भग्नव्रत: वणिजां समीपे प्रेषणं व्यवहरकेण उक्त-कि रूपकान् शकुनिका हगति ? इत्येक: / 'बिइओ भंडोलगनउलगं' इति / द्वितीयेन द्रम्म-नउलक: दत्त: / 'एगो घयगुलमंतो अन्नो वसतणकट्टा बाहिं' इति / एकेन सूरिभणितेन घतगृडादिकम् अन्त:-मध्ये ग्रामस्थ क्षिप्तम् / अन्येन व सतृणकाष्ठानि बहि: क्षिप्तानि ग्रामदाहे उपकृतानि, अन्तस्तु घृतादीनि दग्धानि / 'अंतो उ सउणिनिमित्तं' इति / अन्तर्दग्धे गुडादौ पश्चात् सूरिणा उक्तं-किं निमित्तं शकुनिका व्युत्सृजति / ...........पुब्बीभिलासि उवरि सुत्तो 'चावरए' इति / व्यापार करोति इत्यर्थः / अन्नोन्नाहिठाणसेवणत्ति भणियं होइ इति पुतसेवा इत्यर्थः / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावण-पावनं / इति जीतकल्पपर्यायाः समाप्ताः / __.पाक्षिकवृत्तौ- पक्खसंधी-अमावास्या / ' तो कह निज्जुत्तीए णुमइ' इति / आवश्यकनियुक्तिः / 'उत्सन्नवधादिलिङ्गगम्य ' मिति / उत्सन्नं-बाहुल्यतः / अत्र वृद्धसम्प्रदायः-हत्थुत्थरणं-खरडं 1 कोयवओ-बूरठिया 2 पावारो-सलोमपडओ 3 नवओ-जाणं 4 ढगालिधोयपात्ती सदसवत्थं ति भणियं होइ / रालग-कंगू / संवत् 1212 आषाढ वदि 12 गुरौ लिखितेयं सिद्धान्तोद्धारपुस्तिका / ग्रंथान 1670 द्वितीयखण्डः / प्रशस्ति: / शिष्याम्भोजवनप्रबोधनरवेः श्रीधर्मघोषप्रभोः वक्त्राम्भोजविनिर्माता कतिपया: सिद्धान्तसत्का अमी। पर्याया गणिचन्द्रकीर्तिकृतिना सञ्चिन्त्य सम्पिण्डिताः स्वस्य श्रीविमलाख्यसूरिंगणभृच्छिष्येण चिन्ताकृते // 1 // अस्ति श्रीमदखर्वपर्वततिभिः सर्वोदयः क्ष्मातले छायाछन्नदिगन्सरः परिलसद्भव्यावलीसङ्कुलः / सेवाकारिनृणां नवीनफलदोऽध्यश्रान्तसान्द्रद्युतिनिश्छिद्रः सरलत्वकेतुनिकरः प्राग्वाटवंशः सताम् // 2 // मौक्तिकहारसङ्काश: समा....व नीहिलः / श्रावकगुणसंयोगान्नराणां हृदये स्थितः // 3 // समजनि धनदेवः श्रावकस्तस्य सूनुः प्रथितगुणसमुद्रोऽमन्दवाणीविलासः / गगनवलयरङ्गत्कीर्तिचन्द्रोदयेऽस्मिन् लगति न च कलङ्कः रञ्जनं यस्य सत्के // 4 // Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 . . तस्य च भार्येन्दु........मती........पुत्रः गुणरत्नैकरोहणाचल: धर्मचटनगुममलयकीर्ति-सुधाधवलितसमस्तविश्ववलयो यशोदेवश्रेष्ठीतस्य च 'आम्बीति नाम्ना जनवत्सलाऽभूद, भार्या यशोदेवगृहाधिपस्य / यस्या: सतीनां गुणवर्णनाया माद्यैव रेखा क्रियते मुनीन्द्रः // तयोश्च पुत्रा उद्धरण आम्बीगवीरदेवाख्या बभूवुः / सोलीलोलीसोखीनामानश्च पुत्रिकाः सञ्जझिरे / अन्यदा च सिद्धान्तलेखनबद्धादरेण जिनशासनान्वरञ्जितचित्तेन यशोदेवश्रावकेण सिद्धान्तविचारपर्यायपुस्तिका लेखयामास / पूज्यश्रीविमलाख्यसूरिंगणभृच्छिष्यस्य चारित्रिणो योग्याऽसौ गणिचन्द्रकीर्तिविदुषो विद्वज्जनानन्दनी / शास्त्रार्थस्मृतिहेतवे परिलसज्ज्ञानप्रपा पुस्तिका भक्तिप्राश्चितयत्युपासकयशोदेवेन निर्मापिता // 14 // यावश्चन्द्ररवीनभस्तलजुषौ यावञ्च देवाचलो यावत्सप्तसमुद्रमुद्रितमही यावन्नभोमण्डलम् / यावत्स्वर्गविमानसन्ततिरियं यावच्च दिग्दन्तिनस्तावत् पुस्तकमेतदस्तु सुधियां व्याख्यायमानं मुदे // 1 // इति प्रशस्ति: समाप्ता। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: नाममोद्धारकग्रंथमालाना एक कार्यवाहक शा. रमणलाल जयचन्द्र कपडवंज (जि. खेडा) द्रव्यसहायक : रु. 2500-00 श्री शांतिनाथजी जैन देहरासर ट्रस्ट, नवापरा सुरत. मुद्रक : सहयोग प्रिन्टिंग प्रेस, जवाहर रोड-बीलीमोरा. . Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: मागमोद्धारकग्रंथमालाना एक कार्यवाहक शा. रमणलाल जयचन्द्र कपडवंज (जि. खेडा) द्रव्यसहायक: रु. 2500-00 श्री शांतिनाथजी जैन देहरासर ट्रस्ट, नवापरा सुरत. मुद्रक : सहयोग प्रिन्टिंग प्रेस, जबाहेर रोड-बीलीमोरा.