________________ नि:शेषसिद्धान्तविचार-पर्याये जे भिक्खु उवगरण वहावे गिहि अहव अण्णतित्थीहिं / आहारं वा देजा पडुच्च तं आणमाईणि // 4204 // सत्त उ वासासु भवे दगघट्टा तिण्णि होंति उउबद्धे / जे उ न हणति खेत्तं भिक्खाचरियं च न हरंति // 4244 // थेरुवमा अकंते मत्ते सुत्ते व जारिसं दुक्खं / . एमेव य अव्वत्ता वियणा एगिदियाण तु // 4263 // गिहिनिक्खमण-पवेसे आवाह विवाह विक्कयकए वा गुरुलाघवं कहिंते गिहिणो खलु संपसारीआ // 4362 / / संपसारकः स साधुः स्यादित्यर्थः / जाई कुले विभासा इत्यादि (4412) गाथायां'तुम्नाइ सिप्प णावजग च कम्मेयरावज्ज 'ति / व्याख्या-अनावर्जकं कर्म, इतरत् आवर्जकं शिल्पमित्यर्थः / उग्गाइकुलेसु वि एमेव गणे मंडलप्पवेसाई / देउलदरिसणभासा उवणयणे दंडमाई वा // 4415 // व्याख्या-प्रथमं पदं गतार्थम् / मंडलमालिहियं दटुं मलाइगणेसु हीणाहियं विवरीयं वा तत्थ वि अप्पाणं जाणावेइ / गणेत्ति गयं / सिप्पे अहिणवघडण चिरकयं वा सिप्पयं दट्टै झणाइ-अहो ! देवकुलस्स उवणओ उवसंघारी संवरणेत्यर्थः / पहाणो वा अप्पहाणी त्ति / अहो ! आयामवित्थरे दटुं भणाइ-एवइए दंडे एयस्स उ त्ति / इह दंडो हस्त उच्यते / इति गाथार्थः / कत्तरि पयोयणावेक्ख वत्थु बहुवित्थरेसु एमेव / कम्मेसु य सिप्पेसु य सम्ममसम्मेसु सूइयरा // 4416 // गाथार्थो यथा-कत्तरि-एष कर्ता, पयोयणं-कारणं दविणं तं च अवेक्ख-दृष्ट्वा वत्थु (खा) उस्सियाइ बहुवित्थरं-अणेगभेयं / एतानि दृष्ट्वा सूयया असूयया वक्तीत्यर्थः / / निग्गंथ सक तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा / तेसिं परिवेसणाए लोभेण वणेज को अप्पं // 4420 //