________________ पञ्चकल्पस्य विचारा: चरित्तमणोकरणाइया तिगरणसोही न भवइ / जया पुण पुब्बपवत्ताणि खेतहिरण्ण-दुपयचउप्पयाई जइ भंडं वा चेइमाण लिंगत्था वा चेइयदवं राउलबलेण खायंति, रायभडाइ वा अच्छिदेजा, तया तनियमसंपउत्तो वि साह जइ न मोएइ वावार वा न करेइ, तया तस्स नाणाइ सुद्धी न भवइ, आसायणा य भवइ / ऐवं समुप्पन्ने कब्जे रागाईणं पुत्र अणुसही करेइ, धम्मो वा से कहिजई अणिउछंतस्स अंतद्धाणेग वा अवहरति / ___ इति देवद्रव्यविचारः पञ्चकल्पे // तत्धेगपडिगाहए भत्तं लेवार्ड पि गेण्हंति / पगत्थ व मत्तग दोण्ह पी रित्तगपकप्पो // 1593 // मात्रकं द्वाभ्यामपि रिक्त कार्य इत्यर्थः / चूर्णिणस्तु - दोण्ह वि हिंडंताण एगपडिग्गहे कूर, एगपडिगहे पाणय मत्तया रित्तया / कालपमाणाइक्कमे कुजा पाउरणग अकाले वि / दार। वसई कालाईय असिवादणुवासणं एय॥ 1625 // इति प्रावरणविचार: // गम्भाणं आयाणं करेइ तह साडणच गम्भाणं। अभिजोगवसीकरणे विजाजोगाइहिं कुणइ // 1654 // विच्छिगर्माच्छगभमरे मंडुक्के मच्छए तहा पक्खी / संमुच्छा वेमाई जो जोणीपाहुडेण च // 1655 // पमाइ अकरणिज्जं निकारणे जो करेइ ऊ भिक्खू / सवो सो उक्कप्पो / दारं / एतोऽकप्पं तु वोच्छामि / इति // 1657 // गच्छो सकारणो त्ती गिलाण धुढे य बालमसहाई / तेसट्टा अइरेगं घेप्पड मा होज दुलभं ति / / 1882 // जस्सेव अभिमुहत्ती जं चेव य काउ विहरए पुरो। आयरिय उवझाया तस्सेव य तं तु आलोए / / 1930 //