________________ बृहत्कल्पस्य विचारा: निस्सकडे ठाइ गुरू कइवयसहिएयरा वए वसहि / जत्थ पुण अनिस्सकडं पूरिति तहिं समोसरणं // 1805 / / संविग्गेहि य कहणा इयरेहिं अपच्ची न ओवसमो / पवजाभिमुहा वि य तेसु वए सेहमाई वा // 1806 // प्ररित समोसरण अन्नासइ निस्सचेइएमुंपि। इहरा लोगविरुद्ध सद्धाभंगो य सड्ढाणं / / 1807 / / एसेव कमो नियमा सपरिक्खेवे सबाहिरीयंमि / नवर पुण नाणत्तं अतो मासो बहिं मासो // 2034 // बहिर्वसमानलोके क्षेत्रे मासद्वय क्रियते इति / कोटसहिते मासद्वयविचार: कल्पे // पुरओ य मग्गओ या थेरीओ मज्झ हुँति तरुणीओ। अइगमणे निगमणे एस विही होइ कायची / / 2089 // चूर्णिः- पुरओ थेरीओ, मग्गओ वि थेरीओ, मज्झ तरुणीओ, एवं बहुईणं / जहण्णेणं पुण तिषिण निग्गच्छति / एत्थ एगा थेरी पुरओ, एगा मग्गओ, तरुणी मज्झे / मसाइपेसिसरिसी. वसहिखेत्तं च दुल्लभ जोग / एपण कारणेणं दो दो मासा अवरिसासु // 2904 // वतिनीलामिति शेषः / कल्प: / . ओली निवेसणे वा वजि-तु अटंति जत्थ व पविट्ठा / न य वदण न नमण न य संभोसो न वि यदिट्ठी॥ 2216 // ओलीप्रभृतिषु गृहेषु यत्र साधघः प्रविष्टा: तेषु न संयत्यः अटन्ति इत्यर्थ: / 'सो रायावंतिवइ समणाण' // 3283 // इत्यादि कल्पभाष्येऽपि / इति कल्पनथमाद्देशकविचारा: / / द्वितीयस्य उवसगपडिसगसेज्जा आलयवसही निसीहिया ठाणे / एगट्ठवंजणाई ........... // 3295 // उपाश्रयस्येत्यर्थः / / 'सागारिउ त्ति को पुण काहे वा कइविहो व से पिंडो' 3519 // इत्यादि कल्पद्वितीयोद्देशकेऽपि अस्ति / जो तरुणो बलवंतो तस्स कप्पा आयपमाणा, जो पुण थेरो सो रखीणबलोन सक्केइ संकुंचिउ सुविउं ताहे तस्स आयपमाणाउ छ अंगुलाणि अब्भहियं कीरइ /