________________ व्यवहारस्य विचारा: एवं पि विमग्गंतो जइ न लभिजा उ गीयसंविगं / पासत्थाइसु तो वियडे अणब्भुट्टिएसुं पि॥ // तस्सऽसइ सिद्धपुत्ते पच्छकडे चेव होइ. गीयत्थे / आवकहाए वि लिंगे गेहाविय अणिच्छरुत्तरियं // // तेसि पिय असईए ताहे आलोए देवयसगासे / किइकम्म निसेजविही तहेव सामाइयं नथि // // अरहंतडिमाणं आलोएइ सो पायच्छित्तं जाणओ आलोएत्ता सयमेव पायच्छित्तं पडिवजइ / असइ पाइन्नाइ अभिमुहो अरहंतसिद्धार्ण अंतिए आलोएइ / गीयत्यो य विहारो बीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिो / एत्तो तइयविहारी नाणुण्णाओ जिणवरेहिं // 20 // वायपरायण कुविझो चेइय-तद्दव्व-संजइग्गहणे / / पुबुत्ताण चउण्ड वि कजाण हवेज अण्णयरं // 252 / / 'तद्दव्व' इत्यनेन देवद्रव्यविचारः / व्यवहारद्वितीयोद्देशके / तृतीयोद्देशके यथा गणहारिस्साहारो उवगरणं संथवो य उक्कोसो / सकारो सीसपडिच्छएहिं गिहि-अण्णतित्थीहिं // 46 // गणभृतः आहारादि उत्कृष्टं देयं, ततश्च सत्कार: स्यात् शिष्यादिभिरित्यर्थः / हत्थे पाये कण्णे नासाउटेहिं वजियं जाणे / वामणगमडभकोढिय काणा तह पंगुला चेव // 94 // दिक्खिउ पि न कप्पंति जुंगिया कारणे वि दोसा वा / अण्णायदिक्खिए वा नाउ न करिति आयरिए // 95 // पच्छा वि डंति विगला आयरियत्तं न कप्पर तेसिं / सीसो ठावियवो काणगमहिसो व्व निन्नंमि // 96 // पुव्वं चउदसपुवी इण्हिं जहण्णो पकप्पधारी उ / मज्झिमग पकप्पधारी किं सो उ न होइ गीयत्यो ? // 173 //