Book Title: Jainagamo me Syadvada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalaya Ludhiyana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7। मोऽत्थु ण समरणस्स भगवओ महावीरस्स ॥ जैन - शास्त्र-माला - पञ्चमरत्नम् ॥ जैनागमों में स्याद्-वाद संग्राहकजैनधर्मदिवाकर, साहित्य रत्न, जैनागमरत्नाकर, · श्रीमज्जैनाचार्य पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज प्रति १००० प्रथम वार -~ जैन शास्त्रमाला - कार्यालय जैनस्थानक, लुधियाना वीर स० ०४७७ विक्रम स० २००८ C मूल्य लागतमात्र 1) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुवादार्थ दो शब्द I स्थानकवासी जैन-संप्रदाय के अगमाभ्यासी विद्वानों में पूज्य आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज का नाम विशेष उल्लेखनीय है आप आगमों के विशिष्ट अभ्यासी और गम्भीर पर्यालोचक हैं | तत्त्वार्थ सूत्र का जैनागम - समन्वय (जोकि आप के द्वारा संपादित हुआ है) आपके जैनागम-संबन्धि असाधारण चिन्तन और मनन का ही विशिष्ट फल है। इसके अतिरिक्त आप ने आगमों के विवेचनीय विषयों से सबन्ध रखने वाले कतिपय मौलिक और अनुवाद रूप ग्रंथों के निर्माण से स्थानकवासी सप्रदाय के प्रसुप्त कलेवर मे अभूतपूर्व जागृति उत्पन्न करने का भी पर्याप्त श्रेय प्राप्त किया है । आजसे कुछ समय पहले मैने आप से प्रार्थना की थी कि यदि आप जैनागमों मे विभिन्न स्थानों पर विद्यमान मूल पाठों और खासकर स्याद्वाद अनेकान्त-वाद विषय के उल्लेखों को-- उन पर की गई पूर्वाचार्यों की व्याख्या के साथ -एक जगह संगृहीत कर के एक पुस्तक के आकार में प्रकाशित करा देवें तो जैनदर्शन का तुलनात्मक पद्धति से अभ्या स करने वाले विद्यार्थियों और तात्त्विक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से जैनधर्म के मौलिक स्वरूप की गवेषणा करने वाले विशिष्ट विद्वानों के लिये आप की यह पर्व देन होगी । उन्हें इस के लिये अधिक परिश्रम न करना पड़ेगा और यत्न- साध्य वस्तु अनायास ही प्राप्त हो जायगी । इस के सिवाय आर्य संस्कृति के विशिष्ट अग-भूत जैन - संस्कृति मे विद्यमान दार्शनिक विचारों की प्राचीन प्रणाली से अज्ञात मैनेतर विद्वानों को उस के -- Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) विशिष्ट स्वरूप का ज्ञान भी सुलभ हो जायगा इत्यादि, मुझे यह कहते हुए अत्यन्त हर्ष होता है कि मेरी इस उचित प्रार्थना को आपने पूरे ध्यान से सुना और उसके लिये यथाशक्ति प्रयास करने का वचन दिया || ★ बडी प्रसन्नता की बात है कि जिम सग्रह के लिये मैंने आचार्य श्री जी से मानुरोध प्रार्थना की थी वह सुचारु रूप से सम्पन्न हुआ । र आज एक अच्छे रूप में मुद्रित होकर पाठकों के कर कमलो की शोभा बढा रहा है। अन मेरी और मेरे सहचारी अन्य विद्वन्टल जोकि इस विषय से हार्दिक प्रेम रखता है की ओर से आप के इस साधुजनोचित समुचित कार्य के लिये अनेकानेक साधुवाद | मेरी दृष्टि मे विद्वानो के लिये यह वस्तु बड़े काम की है। वे इस से यथाशक्ति यथा-मति लाभ उठाने का अवश्य यत्न करेंगे ऐसी मुझे पूर्ण आशा है | निवेदकहंस राज शास्त्री Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Q स्याद् वाद स्याद्-वाद की मौलिकता, महानता एवं उपादेयना को जानने से पूर्व उस के शाब्दिक अर्थ पर दृष्टिपात कर लेना उचित प्रतीत होता है। ___स्याद्-वाद के निर्माण करने वाले स्याद् और वाद ये दो पद हैं । स्यादु यह अव्ययपद है, जो *अनेकान्त अर्थ मा बोध कराता है, वाद का अर्थ है करन अर्थात् अनेकान्त द्वारा कथन, वस्तुतत्व का प्रतिपादन स्याद्-वाद है । इस अर्थ-विचारणा से स्याद्-वाद का दूसरा नाम अनेकान्तवाद भी होता है। एकान्त-वाद का अभाव अनेकान्नवाद है। एकान्त वाद में किसी भी पदार्थ पर भिन्न दृष्टियों से विचार नहीं किया जाता प्रत्युत एक पदार्थ को एक ही दृष्टि से देखा जाता है जब कि अनेकान्त-वाद प्रत्येक वस्तु का भिन्न २ दृष्टिकोणों से विचार करता है, देखता है, और कहता है। जैन-दर्शन अनेकान्त-वादी है । एकान्त-वाद उपे इष्ट नहीं है । एकान्त-वाद अपूर्ण है, सत्यता को पङ्ग बनाने वाला है और यह लोकव्यवहार का साधक न होकर वाधक बनता है। एकान्त-वाद की व्यवहार-वाधकता उदाहरण ले समझिए एक व्यक्ति दुकान पर बैठा है । एक ओर से एक बालक प्राता है, वह कहता है - पिता जी ,दूसरी ओर से एक बालिका आती है, वह कहती है-चाचा जी |, तीसरी ओर से एक वृद्धा आती है, वह कहती है-पुत्र ।, चौथी ओर से उस का समवयस्क ___*स्याद् इत्यव्ययम् अनकान्त- द्योतक, तत स्याद् वाद - अनेकान्त-वाद । (स्याद्-वाद-सजरी मे मल्लिषेणसूरि) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (y) एक मनुष्य आता है, और कहता है भाई। इतने में एक बालक दुकान के भीतर से निकलता है वह करता है - मामा जी ।, मतलब यह है कोई उस व्यक्ति को चाचा, कोई ताऊ, कोई मामा और कोई पिता कहता है । प्रत्येक एक दूसरे की बात मानने को तैयार नहीं है। पुत्र कहता हूँ- ये तो पिता ही है । वृद्धा कहती हे- नहीं नहीं, यह तो पुत्र ही है । आदि आदि । सभी एकान्त-वादी बने हुए है-एक ही दृष्टि को लेकर तने हुए है। कोई अपना आग्रह छोडने को तैयार नहीं, कहिए इन का निर्णय फँसे हो ? कैसे उन के प्रशान्त मन को शान्त किया जाए ? प्रकान्त-वाद तो उस विवाद का मूल है, वह भला इम मे निर्णायक कैसे बन सकता है ? यहा अनेकान्त बाद का आश्रय करना होगा । अनेकान्तवाद इस विवाद को बडी सुन्दरता से निपटा देता है । देखिएअनेकान्त-वादी लड़के से कहता है-पुत्र । तुम ठीक कहते हो-वे तुम्हारे पिता है, किन्तु यह ध्यान रहे यह तुम्हारे छ न कि सब क्योंकि तुम एनके पुत्र हो । लडकी से कहना है - पुत्रि तुम भी ' गल्त नहीं करती हो, ये तुम्हारे चाचा है, क्योंकि ये तुमार पिता के छोटे भाई है, आदि आदि । 1 कान्तवाद कहता है-एक व्यक्ति में अक धर्म है. परन्तु भिष्ट्रियों से है, न कि केवल एक दृष्टि से विवाद तब होता है, जब एक ही दृष्टि का होता है, और अन्य दृष्टियो कानावर | देखा, नेपालवाद या अपूर्व निर्णय और देसी, एकान्न बाद की तोरन्यवहार-वाधरना स्याबाद के गृह जनाने यादवाडी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त-बादी की दृष्टि मे बोर्ड पर खींची हुई तीन इच- की रेखा मे अपेक्षाकृत वडापन तया अपेक्षाकृत ही रोदापन रहा हुआ है । यदि तीन इच की रेखा के नीचे पांच इच को रेखा खींच दी जाए तो वह (तीन इच की रेखा) पांच इच की, रेखा कीअपेक्षा छोटी और ऊपर दो इच की रेखा खींच दी जाए तो वह ऊपर की अपेक्षा बड़ी है.। एक ही रेखा में, छोटापन तथा बडापन-ये दोनो धर्म अपेक्षा से रह रहे हैं । स्याद्-वादी तीन इंच का रेखा को ' यह छोटी ही ह" अथवा "यह बडी ही है" इन शब्दों से नहीं कह सकेगा। __ ऊपर के विवे वन मे अभी तक स्थूल लौकिक उदाहरणों से स्याद्-वाद को समझाने का प्रयत्न किया गया है। अब जरा दार्शनिक उदाहरणों से स्याद्-वाद की उपादेयता को समझिए । __ जैन दशन कहता है कि प्रत्येक पदार्थ नित्य भी है. और अनित्य भी है। पाठक इस बात से अवश्य विस्मित होंगे और उन्हे सहसा यह ख्याल आएगा क जो पदार्थ नित्य है, वह भला अनित्य कैसे हो सकता है ।, और जो अनित्य है वह नित्य __ कैसे हो सकता है , परन्तु पाठक जरा गंभीर चिन्तन करें और देखें स्याद्-वाद इस समस्या को कैसे सुलझाता है कल्पना कीजिये-एक सोने का कुण्डत है। हम देखते है कि जिस सुवर्ण से वह बना है, उसी से और भी कटक आदि कई प्रकार के आभूषण बन सकते हैं। यदि उस कुण्डल को तोड़ कर हम उसी कुण्डल के सुवर्ण से कोई दूसरा भूषण तैयार करले तो उसे कदापि कुण्डल नहीं कहा जा सकेगा। उसी सुवर्ण के होते हुए भी उस को Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण्डल न कहने का कारण ? उनर स्पष्ट है, उस में अब कुण्डल का प्राकार नहीं रहा। इस सं यह स्वत सिह है कि कुण्डल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है, बल्कि सुवर्ग का एक आकार विगप है। और यह प्राकार विशेष सुवण से मचा भिन्न नहीं है, उमी का एक रूप है। क्योकि भिन्न आकारों में परिवतित सुवा जब कुण्डल कटक प्रादि भिन्न नामों से सम्बाधित होता है तो उस स्थिति में श्राकार मवर्ग से मर्वया भिन कम हो सकता है? श्रव दयना है. कि. एन दाना बस्पों में विनाशी-स्वप कौनमा १ र नित्य मानना यह प्रत्यक्ष कि कुस्टल का याकार स्वरूप विनाशी है। क्योकि वा बनता है गोर विगडना पाले नहीं या बाद में भी नहीं रहेगा। गौर मुण्टल का जो दमग स्वरप सुवर्ग है, वह प्रविनाशी ,क्योरि उम का कभी नाश नहीं होता कुरा टल की निमिनि में पूर्व भी वा या, 'नोर उमके बनने पर भी वर, मौजूद है, जब रहाडल नट जायगा तब भी दामोजूद रहेगा। प्रत्येक दशा में सवर्ण सुवर्णी टेगा । वर्ग अपने आप में न्या- नव है, उसे बनना किराना नाती, एम विवेचन में यह प है कि टल का एक स्वरुप बिनानी है और मग 'दिनानी । फ बनना श्रीर नहाता, परतु दमन मेशा पना रदना है, निन्य राना। "पत 'अनेकान्त-वाद की प्रिो-रटल अपने 'प्रारष्टि से विनष्ट होने पं. पारस नित्य है और मूल वर्ग म्प में अविनाritra नित्य । म एमाली पदार्थ में परम्पर विरोधी टीमने वाले नित्यता र नियता नप धर्मों को सिरहने वाला लिन प्रान्तबाट। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) संसार मे जितने भी एकान्त-वादी विचारक है वे पदार्थ के एक २ अंश-धर्म को ही पूरा पदार्थ समझते हैं। इसी लिये उन का दूसरे धर्म-वालों से विवाद होता है, और कभी कभी तो वे इतने आग्रही होकर लडते-झगडते दिखाई पड़ते है कि मनुष्यता से भी हाथ धो बैठते है। जिस समय राजगृहनगर के चौराहों पर पण्डितों के दल के दल घूमा करते थे, धर्म और सत्य के नाम पर कदाग्रह की पूजा हो रही थी, सभ्यता को मुह छिपाने के लिये भी जगह नहीं मिल रही थी, असल्यता विद्वत्ता के सिंहासन पर बैठी हुई थी, पण्डितों के दलों मे जो आपस मे अनेक तरह से भिड पड़ते थे, बोलाचाली के साथ २ हाथापाई मुक्कामुक्की तक की नौबत भी आजाती थी, ये पण्डित बड़ी तेजी से धर्म-रक्षा के लिये प्राण देने और लेने के लिये प्रतिक्षण तैयार रहते थे, कहीं नित्यवादी अनित्यवादी का मस्तक पत्थर मार कर इसलिये फोड देता कि जब पदार्थ अनित्य (स्थायी न रहने वाले) है तो मस्तक के फूटने से तुम्हारा क्या बिगडा ।, कहीं अनित्यवादी नित्यवादी के मस्तक को इसलिये फोड़ता कि तुम तो कहते हो पदार्थ नित्य (स्थायी ही रहने वाला) है तो फिर रोते क्यों हो ।, इस तरह से एक दूसरे को पछाड़ता, वह दशेनों का युग था, जहां जिस की टक्कर होती वहीं युद्ध का श्रीगणेश हो जाता, पण्डितों के इन भीषण धर्म-द्वन्द्वों से नगर में सर्वतोमखी आतंक छाया हुआ था, जनता धर्मतत्व से ऊब चुकी थी उस से घृणा करने लग गई थी। अब तो वहां किसी शान्ति के पथप्रदर्शक की प्रतीक्षा हो रही थी। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) अहिमा और सत्य के देवता भगवान महावीर स्वामी इसी युग मे ससार में अवतरित हुए थे,जो कि एक विशिष्ट वैद्य के रूप मे श्राधि, व्याधि और उपाधिरूप त्रिताप से सतप्त संसार को शान्ति का अमर सन्देश देने के लिये पधारे थे, उन्हो ने देश के रोग के निदान-मूलकारण को टटोला और अनेकान्तवाद के दिव्य ओपव से उस का उपचार कर उसे शान्त किया। ___भगवान महावीर ने संसार को अनेकान्त-वाद का अमर सन्देश दिया । प्रभु महावीर ने सिह-गर्जना से कहा--हे आग्र्यो परस्पर में लड़ने से कभी शान्ति नहीं होगी। पारस्परिक द्वन्द्वो से कभी किसी की उन्नति नहीं हो पाई है अत परस्पर स्नेह स्थापित करो और परस्पर मे भ्रातृभाव का पोपण करो। विवाद का मूल तुम्हारा एकान्तवादी होना है उसे छोड़ो और अनेकान्त-वादी वनो । किसी भी पदार्थ को एक दृष्टि से मत देखो, उस मे स्थित सभी प्रशों पर गंभीरता से विचार करो। ___ जो कहता है कि आत्मा नित्य ही है, वह भूलता है और जो कहता है कि आत्मा अनित्य ही है, वह भी भूल करता है । वास्तव में प्रात्मा नित्यानित्य है-नित्य भी है, अनित्य भी है। ससारी आत्मा कभी मनुष्यपर्याय (अवस्था) मे तथा कभी पशु आदि पर्यायों में यातायात करती रहती है,एक अवस्था में स्थिरनहीं रहती है, नट की भांति अनेकविध नेपथ्य धारण करती है, इस दृष्टि से यह आत्मा अनित्य है । तथा आत्मा किसी भी मनुष्य आदि पर्याय मे रहे किन्तु वह रहती आत्मा ही है, अनात्मा नहीं बन जाती, ज्ञान दर्शन की अनन्तता से शून्य नहीं हो पाती है, इस दृष्टि से आत्मा नित्य है। आत्मा को नित्यानित्य मानने पर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ही लोक व्यवहार सधता है, और पारस्परिक शाति स्थायी रह सकती है अस्तु । पृथिवी, अप्, तेजस्, वायु और आकाश किसीभी पदार्थ के सभी अशों पर किये गये विचार को ही स्याद्वाद या अनेकान्तवाद कहा जाता है, इसी स्याद्वाद की दिव्य औषधी ने उस समय राष्ट्र के अन्तर स्वास्थ्य को सुरक्षित रखा । स्याद्वाद एक अमर विभूति है, जो सन्देश वाहिका है, तथा प्रेम और शान्ति है । स्वाद-वादी कभी किसी दर्शन से घृणा नहीं करेगा, यदि संसार के समस्त दार्शनिक अपने एकान्त ग्रह को त्यागकर अनेकान्त से काम लेने लगे तो दर्शन - जीवन के सभी प्रश्न सहज मे ही निपट सकते है । स्यादवाद की समन्वय-दृष्टि बडी विलक्षण है। जिस प्रकार जन्म के अन्धे कई मनुष्य किसी हाथी के भिन्न २ अवयवों को ही पूर्ण हाथी समझ कर परस्पर लड़ते हैं । पूंछ पकड़ने वाला कहता है- हाथी तो मोटे रस्से जैसा होता है। सूड पकड़ने वाला कहता है झूठ कहते हो, हाथी तो मूसल जैसा होता है । कान पकड़ने वाला कहता है अरे भाई । यदि आखें नहीं, हाथ तो हैं ही, हाथी तो छाज जैसा होता है। पेट को छूने वाले अन्ध-देवता बोले- तुम सब झूठे हो, बकवादी हो, व्यर्थ की गप्पे हांकने वाले हो, हाथी को तो मैंने समझा है, हाथी तो अनाज भरने वाली कोठी जैसा होता है । मतलब यह है प्रत्येक अन्धा अपने २ पकडे हुए हाथी के एकर अंग को हाथी समझता है एक दूसरे को झूठा कहता है, तथा एक दूसरे से लड़ने मरन के लिये तैयार हो जाता है । सद् भाग्य से वहा कोई शांतिप्रिय, श्राखों वाला अज्जन अमरत्व की की जनिका Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगया, उन जन्मान्धो की तू तू मै मैं को सुन तयों सारी स्थिति समझ कर, उन पर करुणा करता हुआ बोल उठता है-बन्धुयो । क्यों लड २ कर मर रहे हो ? क्यों चर्म-चक्षु खो लेने पर भी आन्तरिक दिव्य चक्षुओ को विनष्ट करने में उद्यत हो रहे हो सुनो, मेरी बात सुनो । मै तुम्हारा विवाद निपटाए देता हूँ, तुम सच्चे होकर भी झूठे हो । तुम ने हाथी को समझा ही नहीं। हाथी के एक २ अवयव को ही तुम हाथी समझ रहे हो । एक दूसरे को मुठलाने की कोशिश मत करो। तुम अपनी २ दृष्टि का आग्रह छोड कर हाथी के समस्त अगो को मिला डालो वस हाथी बन गया । यह ठीक है कि हाथी की पूछ रस्से जैसी मोटी होती है एवं हाथी के कान छाज जैसे होते है परन्तु केवल कान को या पूछ आदि को हाथी समझना या कहना भूल है । सभी अंगों के समुदाय का नाम हाथी है, और यही सत्य है । अपना २ आग्रह छोडो और देखो झगडा अभी निपटा पड़ा है। ठीक इसी प्रकार स्थाद्-वाद भी परस्पर एक दूसरे पर आक्रमण करने वाले दर्शनो को सापेक्ष सत्य मान कर समन्वय कर देता है। उपाध्याय यशोविजय जी ने कितने सुन्दर शब्दों मे स्याद्-वाद का रहस्य प्रकट किया है--* 'सच्चा अनेकान्त वादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता । वह सम्पूर्ण नयरूप दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्य-दृष्टि से देखता है, जैसे कोई पिता अपने * यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तम्यानेकान्तवादस्य क न्यूनाधिकशेमुषी ।। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) पुत्रां को देखता हो । क्योंकि अनेकान्त-वादी की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती । वास्तव मे सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है जो अनेकान्त-वाद का अवलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव रखता है । माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ रहस्य है। यही धर्म-वाद है। माध्यस्थभाव रहने पर शास्त्रों के एक पद का ज्ञान भी सफल है । अन्यथा क्रोड़ों शास्त्रों के पढ़ जाने से भी कोई लाभ नहीं। स्याद्-वाद की अव्यावाध गति है । कहीं पर भी उस की गति स्तभित नहीं होती । जहा देखो वहीं स्याद. वाद आसन जमाए बैठा है। आचार्य-प्रवर श्री हेमचन्द्र सूरि तो यहा तक बोल उठे हैं कि वैयाकरणों के जो विकल्प, वाहुलक आदि हैं वे सब के सब स्याद्-वाद के ही आश्रित है। उन का कहना है कि *व्याकरण की सिद्धि ही स्याद्-वाद से होती है । स्याद्-वाद के विना व्याकरण का कोइ महत्त्व नहीं रहता। तेन स्याद्वादमालब्य, सर्वदर्शनतुल्यतां । मोक्षोद्देशाविशेषेण य पश्यति स शास्त्रवित् ।। माध्यस्थमेव शस्त्रार्थो येन तच्चारु सिध्यति । स एव वर्मवाद स्यादन्यद्वालिशवल्गनम ।। माध्यस्थसहितं त्वेकपद-ज्ञानमपि प्रमा । शास्त्रकोटि. वृथैवान्या, तथा चोक्त महात्मना ।। (अध्यात्मसार) * सिद्धि स्याद्वादात् । १।१२॥ (हैमत्रम) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) स्याद्-वाद के इस अमर मिद्वान्त को दार्शनिक संसार ने बडा मान दिया है, महात्मा गांधी जैसे ससार के महान पुरुपां ने भी इस की महान प्रशसा की है । पाश्चात्य विद्वान डा० थामस आदि ने भी कहा है कि- 'स्याद्-वाद का सिद्धान्त बडा ही गभीर है। यह वस्तु की भिन्न २ स्थितियो पर अच्छा प्रकाश डालता है।" आज चारों ओर, जो पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय तथा धर्मिक विरोध दृष्टिगोचर हो रहे हैं तथा कलह ईर्ष्या, अनुदारता, साम्प्रदायिकता और संकीर्णता आदि दोषों ने मानवसमाज को खोखला बना डाला है, इन सब को शान्त करने का एकमात्र यदि कोई उपाय है तोवह बस स्याद्-वाद ही है। विश्व मे जब भी कभी शान्ति होगी तो वह स्वाद्-वाद से ही होगी यह वात नि सदेह सत्य है। जिस स्याद्-वाद के सम्बन्ध मे उपर कुछ कहा गया है । उस का उद्गम स्थान है-~-जैनागम | जैनागमों मे स्याद्-वाद का बड़ी सुन्दरता से विवेचन मिलता है। विवेचन का ढग भी बडा निराला है । साधारण बुद्धि का धनी भी उसे पढ़ कर गद्गद् हो उठता है । जानकारी के लिये एक उदाहरण देता हूँ__भगवती सूत्र मे लिखा है भगवान महावीर राजगृह, नगरी में विराजमान थे। भगवान के प्रधान शिष्य अनगार गौतम भगवान से एक प्रश्न पूछते हैं । अनगार गौतम बोले भदन्त | जीव शाश्वत (नित्य) हैं या अशाश्वत अनित्य) हैं, भगवान वोले-गौतम | जीव कथञ्चित् शाश्वत हैं, कथश्चित आशाश्वत । गौतम,~भदन्त । जीव कथञ्चित् शाश्वत है, तथा कथञ्चित् अशा अत हैं, यह कहने से अभिप्रेत क्या है ? Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) भगवान, - गौतम । प्रत्येक पदार्थ को अनेक दृष्टियों से देखा जाता है । यदि जीव को द्रव्यत्वेव (द्रव्य की अपेक्षा से) देखते है तो वे शाश्वत हैं, क्योंकि वे किसी भी अवस्था में रहें, किन्तु रहेंगे द्रव्यत्व - विशिष्ट ही; द्रव्यत्व से च्युत नहीं होंगे । यदि अवस्था परिवर्तन की दृष्टि से विचार करते हे तो वे अशाश्वत है । क्योंकि कभी तो वे मनुष्य शरीर को त्याग कर पशु- देहधारी बन जाते है और कभी पशुदेह को छोड कर देवताओं के ससार में जा उत्पन्न होते है- उन में अवस्थाओं का परिवर्तन होता रहता है, वे एक अवस्था मे नहीं रह पाते। इस प्रकार अनेक दृष्टियों से विचार करने पर जीव शाश्वत भी हैं तथा अशाश्वत भी है * । श्री इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जिन से श्री भगवती सूत्र, सूत्रकृताङ्ग, और श्री जीवाभिगम आदिक * सूत्र भरे पड़े है । जोकि स्वतन्त्र अध्ययन से सम्बन्ध रखते है । भते । किं सासया असासया । * प्र० - जीवा उ०- गोयमा । सिय सासया, सिय असासया । प्र० - सेकेण भते । एव वुच्चइ, - जीवा सिया सासया 1 सिय सासया । 1 से ते सिय सासया । उ०- गोयमा । दव्वट्टयाए सासया, भावट्टयाए असासया गोयमा । एव वुचइ - जाव सिय सासया, (भगवती सूत्र ) * प्रस्तुत "जैनागमों मे स्याद् वाद" नामक पुस्तक मे श्री प्रज्ञापना सूत्र का पांचवा पद तथा श्री सूत्र कृत ग जी के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का ५वा अध्याय भी सम्पूर्ण प्रकाशित है ताकि पाठक सुविधापूर्वक स्याद्वाद के स्वरूप को अवगत कर सके 1 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) पर यह स्याद्वाद प्रेमियों की यह चिरकाल से भावना तथा कामना चली आ रही थी कि जैनागमों में जहा कहीं भी लोकोपयोगी स्यादवाद प्रदर्शन करने वाले पाठ है उन का तथा साथ मे उन पाठों पर की गई प्राचीन आचार्यों की संस्कृत टीकायों का भी ग्रह हो जाय । ताकि प्रत्येक जिज्ञासु अपनी जिज्ञासा को एक ही स्थान पर पूर्ण कर सके । काम कोई साधारण काम नहीं था, इस काम के लिये आगमों के मन्थन करने वाले किसी आगमों के मामिक विद्वान की आवश्यकता थी । मै यह वडे गौरव से लिखने लगा हूँ कि मेरे गुरुदेव, जैनधर्म- दिवाकर, साहित्य- रत्न, जैनागमरत्नाकर श्रीमज्जैनाचार्य परमपूज्य,परमश्रद्वेय, श्री आत्मारामजी महाराज के आगमसम्बन्धी विशिष्ट अध्ययन तथा तद्विषयक सतत चिन्तन ने उस आवश्यकता को पूरा कर डाला है । पूज्य श्री जी म० ने अपने आगम स्वाध्याय के बल से जहा कहीं भी स्याद् वाद सम्बन्धी आगमों में पाठ थे उन को एक स्थान पर सकलित कर दिया और साथ मे उन पाठों पर की गई प्राचीन आचार्यों की संस्कृत व्याख्याभी संगृहीतकर दी है । वही सकलन आज " जैनागमों मे स्याद्-वाद" के रूप से पाठकों के कर कमलों मे शोभा पा रहा है । " इस ग्रन्थरत्न मे प्राय आवश्यक सभी स्याद् वाद सम्बन्धी आगम पाठों का सग्रह हे जो कि स्याद्वाद प्रेमी पाठकों की कामना को पूर्णकरने मे कल्प वृक्ष के समान पर्याप्त है । ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है I Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) अन्त में मैं आशा करता हूं कि विद्वहन्द इस सग्रह से प्रावश्य लाभ उठाने का यत्न करेगा । यह अनमोल संग्रह है। एक पाठ टटोलने के लिये ग्रन्थ के सैंकड़ों पृष्ठों को इधर उधर उलटाना पड़ता है । यहा तो आप को प्राय सभी पाठ विना परिप्रम के एक स्थान पर ही मिल सकेगे, इसलिये इस संग्रह से अधिक से अधिक लाभ लेने का उद्योग करें ताकि जैनागमों के मार्मिक वेत्ता और प्राकृत भाषा के अद्वितीय विद्वान संग्राहक पूज्य श्री जी म० का कृत परिश्रम सफल हो सके । ॐ शान्ति , शान्ति , शान्ति । श्रावण कृष्णा ८, २००८, जैन स्थानक, लुधियाना। प्रार्थी ज्ञान मुनि TES FFER, . SSES - - THE HTHHVIRTUTENEPARARIETIES MEHATARLILAILITOTAir HAI ALAM Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (O धन्य-वाद 9 जैनागमों मे स्याद्-वाद के प्रकाशन में जिन दानी महानुभावों ने सहयोग दिया है उन का मैं समाज की ओर से सादर धन्यवाद करता हूँ, और अन्य धनिकों से भी जैन सिद्वान्तों के प्रचार में यथाशक्ति यत्नपूर्वक सहयोग देकर पुण्योपार्जन कर लेने की कामना करता हूँ। दानी महानुभावों के नाम ये हैं१. श्रीमान् लाला ताराचन्द जी जैन जालन्धर छावनी ४००) 16 Kc २. श्रीमान् लाला बली राम जी मालेरकोटला ३००) ३. श्रीमान् चौधरी लक्ष्मीचन्द जी अम्बाला शहर १००) श्रीमान् लाला दिवान चन्द जी जगाधरी १००) ५. श्रीमान लाला बालमुकुन्द जी रावलपिण्डी वाले देहली १००) ६ श्रीमान लाला राम चन्द जी लुधियाना ११०) ७ श्रीमान् लाला कस्तूरी लाल मिल्खी राम जैन मलेरकोटला १०१) ८ श्रीमती भाग्यवन्ती देवी जैन जालन्धर छावनी १०१) ६ श्रीमान् लाला सोहन लाल जुगलकिशोर जैन लुधियाना १०१) १०. श्रीमान् लाला प्रसन्ना मल वृषभान जैन दनौदा ५०) ११. श्रीमान् लाला सोहन लाल जैन हकीम लुधियाना ५०) प्रार्थीमन्त्रीजैन-शास्त्रमाला कार्यालय, लुधियाना. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता नयेषु तनयेष्विव । यस्य सर्वत्र तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी || स्याद्वादमालम्व्य, सर्वदर्शनतुल्यतां । मोक्षोद्द शाविशेषेण, यः पश्यति सः शास्त्रवित | तेन Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोऽत्थुण समणस्स भगवो महावीरस्स जैनागमों में स्याद्वाद श्री सूयगडाङ्ग सूत्र एवमेयाणि जपता, बाला पंडिप्रमाणिणो । निययानिययं संत अयातो अबुद्धिया || Apra -श्री सूयगडाङ्ग सूत्र ॥१|१|२| ४ | टीका - एव लोकद्वयेन नियतिवादिमतमुपन्यस्यास्योत्तरदानायाह । एवमीत्यनन्तरोक्तस्योपप्रदशने । एतानि पूर्वोक्तानि नियतिवादाश्रितानि चचनानि जल्पन्तोऽभिदधतो बाला इव बाला अज्ञा सदसद्विवेकविकला अपि सन्तः पण्डितमानिन आत्मानं पण्डितं मन्तु शील येषा ते तथा किमिति त एवमुच्यन्ते । इति तदाह यतो निययानिययं सतमिति' सुखादिकं किञ्चिन्नियतिकृतम् - अवश्यभाव्युदयप्रापितं तथा च नियतम् - आत्मपुरुपकारेश्वरादिप्रापितं सत् नियति कृतमेवैकान्तेनाश्रयन्ति, अतोऽजानाना सुखदु खादिकारणमबुद्धिका बुद्धिरहिता भवन्तीति तथाहि —-आर्हतानां किचित्सुखदुखादि नियतित एव भवति, तत्कारणस्य कर्मण. कस्मिश्चिदवसरेऽवश्यंभाव्युद्यसद्भावानयतिकृतमित्युच्यते, तथा किचिद नियतिकृतञ्च - पुरुषकारकालेश्वर Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद सम्यक् इतं-गतं सदनुष्ठानतया रागद्व परहितत्वेन समनया वा, तथा चोक्तम्-'जहा पुरणस्य कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थई' इत्यादि, समं वा-धर्मम् उत्-प्राबल्येन आह-उक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थं न पूजासत्कारार्थमिति ॥४॥ मूलम्-संकेज्ज याऽकितभाव मिक्खू, विभज्जवायं च वियागरेज्जा । भासादुयं धम्मसमुहितेहिं, वियागरेज्ज्जा समया सुपन्ने । -श्री सूयगडाङ्ग सूत्र ।।१। १४ । २२ ॥ टीका-साम्प्रतं व्याख्यानविधिमधिकृत्याह-'भिक्षु' साधुर्व्याख्यान कुर्वन्नर्वाग्दर्शियादर्थनिर्णयं प्रति अशकितभावोऽपि 'शंकेत' औद्धत्यं परिहरन्नहमेवार्थस्य वेत्ता नापर' कश्चिदित्येदं गर्व न कुर्वीत किन्तु विषममर्थ प्ररूपयन् साशङ्कमेव कथयेद् , यदिवा परिस्फुदमप्यशङ्कितभावमप्यर्थं न तथा कथयेत् यथा पर शंकेत, तथा विभज्यवाद-पृथगर्थनिर्णयवाद व्यागृणीयात् यदिवा विभज्यवादः-स्याद्वादस्तं सर्वत्रास्खलित लोकव्यवहाराविसंवादितया सर्वव्यापिन स्वानुभवसिद्ध वदेत्, अथवा सम्यगर्थान् विभज्यपृथककृत्वा तद्वादं वदेत, तद्यथा--नित्यवादं द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतया त्वनित्यवादं वदेत, तथा स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावै सर्वेऽपि पदार्था. सन्ति, परद्रव्यादिभिस्तु न सन्ति, तथा चोक्तम्-"सदव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादि*यथा पूर्णस्य कथ्यते तथा तुच्छस्य कथ्यते । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ श्री सूयगडाङ्ग सूत्र चतुष्टयात् ? असदेव विपर्यासान्नचेन्न व्यवतिष्ठते ॥ १॥" इत्यादिक विभज्यवाद वदेदिति । विभज्यवादमपि भाषाद्वितयेनैव ब्रूयादित्याह - भायो - आद्यचरमयो' सत्यासत्यामृषयोद्विकं भाषाद्विक तद्भाषाद्वयं क्वचित्पृष्टो वा धर्मकथावसरेऽन्यढा वा सदा वा 'व्यागुणीयात्' भाषेन, किभूत सन् ? सम्यक् - सत्स्यमानुष्ठानेनोत्थिताः समुत्थिता सत्साधव उद्युक्तविहारिणो न पुनरुडायिनृपमारकवस्कृत्रिमास्तै सम्यगुत्थितै सह विहरन् चक्रवर्तिद्रमकयो समतया रागद्वे परहिंतो वा शोभनप्रज्ञो भाषाद्वयोपेत सम्यग्धर्मं व्यागुणीयादिति ॥ २२ ॥ λ सासयमसासए मूलम् - प्रणादीयं परिन्नाय, अणवदग्गेति वा पुणो । वा, इति दिहिं न धारये ॥ एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो न विज्जई | एएहिं दोहिं ठाणेहिं णायारं तु जाणए || - श्री सूयगडास सूत्र ॥२०५/२,३॥ टीका - नास्य चतुर्दशरज्ज्यात्मकस्य लोकस्य वर्माधर्मादिस्वा द्रव्यस्यादि - प्रथमोत्पत्तिर्विद्यत इत्यनादिकस्तमेवभूत 'परिज्ञाय' प्रमाणन परिच्छिद्य तथा 'अनवदयम्' पर्यवसान च परिज्ञायोभयनयात्मकव्युदासेनैकनयदृष्टयाऽवधारणात्मकप्रत्ययमनाचारं दर्शयति-राश्वद्भवतीति शाश्वतं - नित्य साख्याभिप्रायेणाप्रच्युतानुयन्नस्थिरस्वभाव स्वदर्शने चानुयायिन सामान्याशमवलम्ब्य धर्माधर्माकाशादिष्वनादित्वमपर्यवसानत्य चोपलभ्य सर्वमिद शा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद तथा समुच्छेत्स्यन्ती' श्वतमित्येवभूतां दृष्टिं न धारयेदिति' एवं पक्षं न समाश्रयेत् । विशेषपक्षमाश्रित्य ' वर्त्तमाननारकाः त्येतच्च सूत्रमंगीकृत्य यत्सत्तत्सर्वमनित्यमित्येवंभूतवौद्धदर्शनाभिप्रायेण च सर्वमशाश्वतम् - अनित्यमित्येवंभूतां च दृष्टिं न धारयेदिति ||२|| किमित्येकान्तेन शाश्वतमशाश्वतं वा वस्त्वित्येवभूतां दृष्टि न धारयेदित्याह - सर्वं नित्यमेवानित्यमेव वै ताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामभ्युपगम्यमानाभ्यामनयोर्वा पक्षयोर्व्यवहरण व्यवहारो - लोकम्यैहिकामुष्मिकयो कार्ययो प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणो न विद्यते, तथाहि — अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभाव सर्वं नित्यमित्येव न व्यव - हियते, प्रत्यक्षेणैव नवपुराणादिभावेन प्रध्वसाभावेन वा दर्शनात्, तथैव च लोकस्य प्रवृत्ते, आमुष्मिकेऽपि नित्यत्वादात्मनो वन्धमोक्षाद्यभावेन दीक्षायमनियमादिकमनर्थक मिति व्यवह्रियते । तथैकान्तानित्यत्वे ऽपि लोको धनधान्यघटपदादिकमनागतभोगार्थं न संगृह्णीयात्, तथाऽऽमुष्मिकेऽपि क्षणिकत्वादात्मन प्रवृत्तिर्न स्यात्, तथा च दीक्षाविहारादिकमनर्थक, तम्मान्नित्यात्मके एव स्याद्वादे सर्वव्यवहारप्रवृत्ति, अतएव तयो - नित्यानित्ययो स्थानयोरेकान्तत्वेन समाश्रीयमाणयोरै हिकामुष्मिकाकार्यविध्वंसरूपमनाचार मौनीन्द्रागमबाह्यरूप विजानीयात्, तुशब्दो विशेपणार्थ, कथञ्चिन्नित्यानित्ये वस्तुनि सति व्यवहारो युज्यत इत्येतद्विशिनष्टि, तथाहि - सामान्यमन्वयिनमशमाश्रित्य स्यान्नित्यमिति भवति, विशेषांश प्रतिक्षणमन्यथा च श्रन्यथा च नवपुराणादिदर्शनत स्यादनित्य इति भवति, तथोत्पादव्ययश्रव्याणि चाह - दर्शनाश्रितानि व्यवहाराङ्ग भवति तथा चोक्तम्- घटमौलि सुवर्णा ६ न Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडाङ्ग सूत्र र्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोद माध्यस्थ्य, जनो याति सहेतुकम् ॥ १ ॥' इत्यादि । तदेवं नित्यानित्यपक्षयोर्व्यवहारो न विद्यते, तथाऽनयोर वानाचार विजानीयादिति स्थितम् ॥ ३ ॥ तथाऽन्यमप्यनाचारं प्रतिषेद्धुकाम आह मूलम् - समुच्छिहिंति सत्थारो, सव्वे पाणा अलिसा । गंठिगा वा भविस्संति सासयन्ति व णो वए ॥ एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहोरो ण विज्जइ । एहि दोहिं ठाहिं णायारं तु जाए || - श्री सूयगडाङ्ग सूत्र ॥ २५॥४, ५ टीका -- सम्यक निरवशेषतया 'उच्छेत्स्यन्ति' उच्छेद यास्यन्ति - क्षयं प्राप्स्यन्ति सामस्त्येनोत् - प्राबल्येन सेत्स्यन्ति वा सिद्ध यास्यन्ति, केते ? शास्तार -तीर्थकृत सर्वज्ञास्तच्छासनप्रतिपन्ना वा 'सर्वे' निरवशेषाः सिद्धिगमनयोग्या भव्या', ततश्चोच्छिन्नभव्यं जगत्स्यादिति, शुष्कतर्काभिमानग्रहगृहीता युक्ति चाभिदधतिजीवसद्भावे सत्यायपूर्वोत्पादाभावादभव्यस्य च सिद्धिगमनासभवात्कालस्य चाऽऽनन्त्यादनारतं सिद्धिगमनसभवेन तद्व्ययोपपत्तेर पूर्वायाभावाद्भव्योच्छेद इत्येवं नो वदेत्, तथा सर्वेऽपि 'प्रागिनो' जन्तव' 'अनीदृशा' विसदृशा सदा परस्परविलक्षणा एव, न कथवित्तेषां सादृश्यमस्तीत्येवमध्ये कान्तेन नो वदेत्, यदिवा सर्वे - षां भव्यानां सिद्धिसद्भावेऽवशिष्टा संसारे 'अनीदृशा' अभव्या एव भवेयुरित्येवं च नो वदेत्, युक्ति चोत्तरत्र वक्ष्यति । तथा कर्मा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद त्मको ग्रन्थो येथों विद्यते ते अन्यिका , सर्वेऽपि प्राणिन कर्मग्रन्थोपेता एव भविष्न्तीत्येवमपि नो वदेत् , इदमुक्त भवति--सर्वेऽपि प्राणिन सेत्स्यन्त्येव कर्मावृता वा सर्वे भविष्यन्तीत्येवमेकमपि पक्षमेकान्तिक नो वदेत् । यदिवा-'प्रन्थिका' इति ग्रन्थिकसत्त्वा भविष्यन्तीति. ग्रन्थिभेदं कतुमसमर्था भविष्यन्तीत्येवं च नो वदेत, तथा 'शाश्वता' इति शास्तार. 'सदा' सर्वकालं स्थायिनस्तीर्थकरा भविष्यन्ति 'न समुच्छेत्स्यन्ति' नोच्छेदं यास्यन्तीयेत्व नो वदेदिति ॥ ४ ॥ तदेव दर्शनाचारवादनिपेध वाडमात्रेण प्रदाधुना युक्ति दर्शयितुकाम आह 'एतयोः' अनन्तरोक्तयो स्थानयो तद्यथा शास्तारः क्षयं यास्यन्तीति शाश्वता वा भविष्यन्तीति, यदिवा सर्वे शास्तारस्तदर्शनप्रतिपन्ना वा सेत्स्यन्ति शाश्वता वा भविष्यन्ति, यदिवा सर्व प्राणिनो ह्यनीहशा'-विसदृशा सहशा वा तथा ग्रन्थिकसत्तास्तद्रहिता भविष्यन्तीत्येवमनयो. स्थानयोयंवरहणं व्यवहारस्तदस्तित्वे युक्त रभावान्न विद्यते, तथाहि --यत्तावदुक्तं 'सर्वे शास्तार क्षयं यास्यन्ती' त्येतदयुक्त,क्षयनिबंधनस्य कर्मणोऽभावात्सिद्धानां क्षयाभाव , अथ भवस्थकेवल्यपेक्षयेदमभिधीयते, तदप्यनुपपन्न यतोऽनाद्यनन्तानां केवलिनां सद्भावात् प्रवाहापेक्षया तदभावाभाव । यदप्युक्तम्-'अपूर्वस्यामा सिद्धिगमनसद्भावेन च व्यथसद्भावाद्भव्यशून्य जगत् स्यादित्येतदपि सिद्धान्तपरमार्थावे दिनो वचनं, यतो भव्यराशे राद्धान्ते भविष्यत्कालस्येवानन्त्यमुक्तम्, तच्चेवमुपपद्यते यदि क्षयो न भवति, सति च तस्मिन् आनन्दयं न स्यात्, नापि चावश्यं सव Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडाङ्ग सूत्र स्यापि भव्यस्य सिद्धिगमनेन भाव्यमित्यानन्त्याद्भव्यानां तत्सामञ्चभावाद्योग्य दलिक प्रतिभावत्तदनुपपत्तिरिति । तथा नापि शाश्व - ता एव भवस्थकेवलिन | शास्त्रीणां सिद्धिगमनसद्भावात्प्रवाहापेक्षया च शाश्वतत्व कथञ्चिच्छाश्वता कथचिदशाश्वता इति । तथा सर्वेऽपि प्रणिनो विचित्रकर्मसद्भावान्नानागतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गादिसमन्वितत्वादनीदृशा - विसदृशास्तथोपयोगासंख्येयप्रदेशत्वा मूर्तस्वादिभिर्धर्मे कथञ्चित्सदृशा इति, तथोल्लसितसद्वीर्यतया केचिद्भिनग्रन्थयोऽपरे च तथाविधपरिणामाभावाद् ग्रन्थिकसत्त्वा एव भवन्तीत्येव ं च व्यवस्थिते नैकान्तेनैकान्तपक्षो भवतीति प्रतिषिद्ध', तदेचमेतयोरेव द्वयो स्थानयोरुक्तनीत्याऽनाचार विजानीयादिति स्थितम् । अपि च- श्रागमे अनन्तानन्तास्वत्युत्सर्पिण्यव सर्पिणीषु भव्यानामनन्तभाग एव सिद्धयतीत्ययमर्थ प्रतिपाद्यते, यदा चैवम्भूतं तदानन्त्य तत्कथं तेषां क्षय । युक्तिरप्यत्र - सम्बन्धिशब्दावेतौ, मुक्तिः सँसारं विना न भवति, संसारोऽपि न मुक्तिमन्तरेण, ततश्च भव्योच्छेदे ससारस्याप्यभाव स्यादतोऽभिधीयते नानयोर्व्यवहारो युज्यत इति ॥ ५ ॥ अधुना चारित्राचारमगीकृत्याह - मूलम् - जे केइ खुद्दगा पाणा, अदुवा सन्ति महालया । सरिस तेहिं वरंति, सरिसन्ती यथा वदे || एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववंहारो न विज्जई । एएहिं दोहिं ठाणेहिं ऋणायार तु जाणए ।। - श्री सूयगडाग सूत्र ॥२२५॥६७॥ टीका- ये केचन क्षुद्रका सत्त्वा - प्राणिन एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादयो Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद ऽल्पकाया वा पञ्च न्द्रिया अथवा 'महालया' महाकाया. 'सन्ति' विद्यन्ते तेषां च क्षुद्रकाणामल्पकायानां कुन्थ्वादीनां महानालय - शरीर येषां ते महालया-हस्त्यादयस्तेषां च व्यापादने सदृशं 'वर' मिति वज्र कर्म विरोधलक्षण वा वैरं तत् 'सदृश' समान तुल्यप्रदेशत्वात्सर्व जन्तूनामित्येवमेकान्तेन नो वदेत् तथा 'विसदृशम्'असदृशं तद्वथापत्तौ वरं कर्मबन्धो विरोधो वा इन्द्रिय विज्ञानकायानां विसदृशत्वात् सत्यपि प्रदेशतुल्यत्वे न सदृश वैरमित्येवमपि नो वदेत्, यदि हि वध्यापेक्ष एव कर्मबन्ध स्यात्तदा तत्तद्वशाकर्मणोऽपि सादृश्यमसादृश्यं वा वक्तु युज्येत् न च तद्वशादेव बन्धः अपि त्वध्यवसायवशादपि, ततश्च तीव्राध्यवसायिनोऽल्पकायसत्त्वव्यापादनेऽपि महद्वै रम्, अकामस्य तु महाकायसत्त्वव्यापादनेऽपि स्वल्पमिति ॥ ६ ॥ एतदेव सूत्रेणैव दर्शयितुमाहआभ्यामनन्तरोक्ताभ्यां स्थानाभ्यामनयोर्वा स्थानयोरल्पकायमहाकायव्यापादनापादितकर्मबन्धसदृशत्वासघशत्वयोर्व्यवहरण' व्यव-, हारो नियुक्तिकत्वान्न युज्यते, तथाहि-न वध्यस्य सदृशत्वमसदृशत्वं चैकमेव कर्मबन्धस्य कारणम्, अपितु वधकस्य तीव्रभावो मन्दभावो ज्ञानभावोऽज्ञानभावो महावीर्यत्वमल्पवीर्यत्व' चेत्येतदपि । तदेव वध्यवधकयो विशेषणत्कमबन्धविशेष इत्येव व्यवस्थिते वध्यमेवाश्रित्य सहशत्वासहशत्वव्यवहारो न विद्यत इति । तथाऽनयोरेव स्थानयोः प्रवृत्तस्यानाचारं विजानीयादिति, तथाहि-यज्जीवसाम्यात्कर्मबन्धसदृशत्वमुच्यते, तदयुक्त, यतो न हि जीवव्यापत्त्या हिसोच्यते, तस्य शाश्वतत्वेन व्यापादयितुमश Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडाग सूत्र क्यत्वाद्, अपि विन्द्रियादिव्यापत्त्या, तथा चोक्तम्-"पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बल च, उच्छ वासनि श्वासमथान्यदायु । प्राणा दशैते भगवद्भिक्तास्तेषा वियोजीकरण तु हिंसा ॥१॥” इत्यादि । अपि च भावसव्यपेक्षस्यैव कर्मबन्योऽभ्युपेतु युक्त , तथाहि-वेद्यस्यागमसव्यपेक्षस्य सम्यक् क्रिया कुर्वतो यद्यप्यातुरविपत्तिर्भवति तथापि न वरानुषङ्गो भावदोषाभावाद्, अपरस्य तु सर्पबुद्धथा रज्जुमपि नतो भावदोषात्कर्मबन्धः, तद्रहितस्य तु न बन्ध इति, उक्त चागमे 'उच्चालियंमि पाए', इत्यादि तण्डुलमत्स्याख्यानकं तु सुप्रसिद्धमेव तदेवविधवध्यवधकभावापेक्षया स्यात् सहशत्व स्यादसहशत्वमिति अन्यथाऽनाचार इति ।।७'! पुनरपि चारित्रमधिकृत्याहारविषयानाचाराचारौ प्रतिपादयितुकाम पाहमूलम्- अहा कम्माणि भुजंति, अण्णामपणे सकम्मुणा । उवलितति जाणिज्जा अणुवलित्तेति वा पुणो ॥ एएहिं दोहि ठाणेहि, ववहागे ण विज्जई । एएहि दोहिं ठाणेहि अणायार तु जाणए । - श्री सूयगडाग सूत्र ॥२।५:८,६॥ टीका-साधु प्रधानकारणमाधाय-आश्रित्य कर्माण्याधाकर्माणि, तानि च वस्त्रभोजनवसत्यादीन्युच्यन्ते, एतान्याधाकर्माणि ये भुञ्जन्ते - एतैरुपभोग ये कुर्वन्ति 'अन्योऽन्य' परस्पर तान् । स्वकीयेन कर्मणोपलिप्तान् विजानीयादित्येव नो वदेत् तथाऽनुपलिप्तानिति वा नो वदेत्, एतदुक्त भवति-आधाकर्मापि श्रतोपदेशेन शुद्धमितिकृत्वा भुञ्जान Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद कर्मणा नोपलिप्यते तदाधीको पभोगेनावश्यतया कर्मबन्धो भवतीत्येवं नो वदेत्, तथा श्रुतोपदेशमन्तरेणाहारगृद्ध्याऽऽधाकर्म भुजानस्य तन्निा मेत्तकर्मबन्धसद्भावात् अतोऽनुलिप्तानपि नो वदेत्,यथावस्थितमौनीन्द्रागमज्ञस्य त्वेव युज्यते वक्त म्-आधाकर्मोपभोगेन स्यात्कर्मबन्ध स्यान्नेति, यत उक्तम् - "किंचिन्छुद्ध कल्प्यमकल्प्य वा, म्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या वस्त्र पात्र वा भेषजाद्य वा ॥१॥" तथान्यैरप्यभिहितम्- "उत्पद्येत हि साऽवस्था, देशकालामयान्प्रति। यस्यामकार्य, काय स्यात्कर्म कार्य च वर्जयेत् ॥ १ ॥” इत्यादि ॥८॥ किमित्येव स्याद्वादः प्रतिपाद्यत इत्याह-आभ्यां द्वाभ्या स्थानाभ्यामाश्रिताभ्यामनयोर्वा स्थानयोराधाकर्मोपभोगेन कर्मबन्धभावाभावभूतयोर्व्यवहारो न विद्यते, तथाहि---यद्यवश्यमाधाकर्मोपभोगेनैकान्तेन कर्मबन्धोभ्युपगभ्येत एवं चाहाराभावेनाऽपि कचित्सु तरामनर्थोदय स्यात, तथाहि- क्षु.प्रपीडितो न सम्यगीर्यापर्थ शोधयेत् ततश्च वजन् प्राण्युपमई मपि कुर्यात् मूर्छादिसद्भावतया च देहपाते सत्यवश्यंभावी त्रसादिव्याघातोऽकालमरणे चाविरतिरङ्गीकृता भवत्यार्तध्यानापत्तौ च तिर्यगातेरिति, आगमश्च"सव्वत्थ सजम सजमाओ अप्पाणमेव रक्खेज्जा'' इत्यादिनाऽपि तदुपभोगे कर्मबन्धाभाव इति तथाहि-आधाकर्मण्यपि निष्याद्यमाने पड्जीवनिकायवधस्तद्वधे च प्रतीत कर्मबन्ध इत्यतोऽनयो स्थानयोरेकान्तेनाश्रीयमाणयोव्यवहरण व्यवहारो न यज्यते, तथाऽऽभ्यामेव स्थानाभ्या समाश्रिता या सर्व मनाचार विजानी. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडाङ्ग सूत्र १३ यादिति स्थितम् ॥६॥ पुनरप्यन्यथा दर्शन प्रति वागनाचार दर्शयितुमाह-- मूलम्-जमिदं ओरालमाहार, कम्मग च तहेव य (तमेवतं) सव्यत्य वीरिय अत्थि, णत्थि सव्वत्थ वीरिय ॥ एएहिं दो हिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जई । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए || -श्री सूयगडाङ्ग सूत्र ।।२।५।६०,११॥ टीका-यदि वा योऽयमनन्तरमाहार प्रदर्शित स सति शरीरे भवति शरीर च पञ्चधा तस्य चौदारिकादे शरीरस्य भेदाभेदं प्रतिपादयितुकाम पूर्वपक्षद्वारेणाह--'जमिद' मित्यादि, यदिदसर्वजनप्रत्यक्षमुदारै पुद्गलैर्निवृत्तमौदारिकमेतेदेवोराल निस्सारत्वाद् एतच्च तिर्यड्मनुष्याणा भवति, तथा चतुर्दशपूर्व विदा कचित्सशयादावाह्रियत इत्याहारम्, एतद्ग्रहणाच्च वैक्रियापादानमपि द्रष्टव्य, तथा कर्मणा निर्वृतं कार्मणम्, एतत्सहचरित तैजसमपि ग्राह्यम् । औदारिक क्रियाहारकाणां प्रत्येक तेजसकामेणाभ्या सह युगपदुपलव्धे कस्यचिदेकत्वाऽऽशङ्का स्यादतस्तदपनोदार्थ तदभिप्रायमाह-'तदेवतद' यदेवौदारिक शरीर ते एव तैजसकार्मणे शरीरे, एव वैक्रियाहारकयोरपि वान्य, तदेवभूता सज्ञा नो निवेशयेदित्युत्तरश्लोके क्रिया, तथैतेषामात्यन्तिको भेद इत्येवभूतामपि सज्ञा नो निवेशयेत् । युक्तिश्चात्र--यद्येकान्तेनाभेद एव तत इदमौटारिकमुदारपुद्गलनिष्पन्न तथैततकर्मणा निर्वर्तित कार्मण सर्वस्यैतस्य Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैना म में स्याद्वाद विद्यते' संसारचक्रवालभ्रमरणस्य कारणभूत तेजोद्रव्य निष्पन्नं तेज एव तैजसं आहारपक्तिनिमित्त तैजसलब्धिनिमित्त चेत्येव भेदेन सज्ञानिरुक्त' कार्य च न स्यात् अथात्यन्तिका भेद एव ततो घटवद्भिन्नयोर्देशकालयोरप्युपलब्धि स्यात्, न नियता युगपदुलब्धिरिति एव च व्यवस्थिते कथञ्चिदेकोपलब्धेरभेद कथञ्चिच्च सज्ञाभेदाद्भ े इति स्थितं । तदेवमौदारिकादीनां शरीराणां भेदाभेदौ प्रदर्याधुना सर्वस्यैव द्रव्यस्य भेदाभेदौ प्रदर्शयितुकाम पूर्वपक्ष श्लोकपश्चार्द्धन दर्शयितुमाह - 'सव्वत्थवीरियमित्यादि, सर्व सर्वत्र इतिकृत्वा सांख्याभिप्रायेण सत्त्वरजस्तमोरूपस्य प्रधानम्यैकत्वात्तस्य च सवस्यैव कारणत्वात् अत सर्व सर्वात्मकमित्येवं व्यवस्थिते 'सर्वत्र' घटपटादौ परस्य — व्यक्तस्य 'वीर्य' शक्तिर्विद्यते, सर्वस्यैव हि व्यक्तस्य प्रधानकार्यत्वात्कार्यकारणयोश्चैकत्वाद् अतः सर्वस्य सर्वत्र वीर्यमस्तीत्येवं सज्ञां नो निवेशयेत्, तथा 'सर्वे भावा स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थिता' इति प्रतिनियतशक्तित्वान्न सर्वत्र सर्वस्य 'वीर्य' शक्तिरित्येवमपि सज्ञां नो निवेशयेत् । युक्तिश्चात्र - यत्तावदुच्यते ' सारख्याभिप्रायेण सर्व सर्वात्मकं देशकालाकारप्रतिबधात्त न समानकालोपलब्धि' रिति, तदयुक्त, यतो भेदेन सुखदु खजीवितमरणदूरासन्नसूक्ष्मचादरकुरूपादिकं ससारवैचित्र्यमध्यक्षेणानुभूयते, न च दृष्टेऽनुपपन्न नाम, न च सर्वं मिध्येत्यभ्युपपत्तुं युज्यते, यतो हानिरहप्रकल्पना च पापीयसी । किंच - सर्व १४ - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ श्री सूयगडाग सूत्र थैक्येऽभ्युपगम्यमाने ससारमोक्षाभावतया कृतनाशोऽकृताभ्यागमश्च बलादापतति, यच्चैतत् सत्त्वरजस्तमसां साम्या वस्था प्रकृति प्रधानमित्येतत्सर्वस्यास्य जगत कारणं तन्निरन्तरा सुहृद प्रत्येष्यन्ति, नियुक्तिकत्वाद्, अपिच-सर्वथा सर्वस्य वस्तुन एकत्वेऽभ्युपगम्यमाने सत्त्वरजस्तमसामप्येकत्व स्यात्, तद्भदे च सर्वस्य तद्वदेव भेद इति । तथा यदप्युच्यते-'सर्वस्य व्यक्तस्य प्रधान कार्यत्वात्सत्कार्यवादाच्च मयूराण्डकरणे चञ्चुपिच्छादीना सतामोवोत्पादाभ्युपगमाद् असदुत्पादे चाम्रफलादीनामप्युत्पत्तिप्रसङ्गा' दित्येतद्वाड्मात्रं, तथाहि--यदि सर्वथा कारणे कार्यमस्ति न तह्म त्पादों निष्पन्नघटस्यैव, अपि च मृत्पिडावस्थायामेव घटगता कमगुणव्यपदेशा भवेयु, न च भवन्ति, ततो नास्ति कारणे कार्यम्, अथानभिव्यक्तमस्तीति चेन्न तहि सर्वात्मना विद्यते, नाप्येकान्तेनासत्कार्यवाद एव, तद्भावे हि व्योमारविन्दानामप्येकान्तेनासता मृत्पिण्डादेर्घटादेरिवोत्पत्ति स्यात न चैतदृष्टमिष्टं वा, अपि च एव सर्वस्य सर्वस्मादुत्पत्तं कार्यकारणभावानियम स्याद्, एवं च न शाल्युङ्करार्थी शालीबीजमे. वादद्यात् अपितु यत्किचिदेवेति, नियमेन च प्रेक्षापूर्वकारिणमुपादानकारणादौप्रवृत्ति , अतो नासत्कार्यवाद इति । तदेव सर्वपदार्थानां सत्त्वज्ञयत्वप्रमेयत्वादिभिधर्मे कथञ्चिदेकत्व तथा प्रतिनियतार्थकार्यतया यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थन' सदितिकृत्वा कथञ्चिद्भद इति सामान्यविशेषात्मक वस्त्विति स्थितम् । अनेन च स्यादस्ति स्यान्नास्तीतिभङ्गकद्वयेन रोपभङ्गका अपि द्रव्या Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद ૬ ततश्च सर्व वस्तु सप्तभङ्गोस्वभाव, ते चामो- स्वव्यक्षे त्रकालभावापेक्षया स्यादस्ति, परद्रव्याद्यपेक्षया स्यान्नास्ति, अनयोरेव धर्मयोगपद्येनाभिधातुमशक्यत्वात्स्यादवक्तव्य, तथा कस्यचिदं - शस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षित्वात्कस्यचिच्चशस्य परद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितत्वात् स्यादस्ति च स्यान्नास्ति चेति, तथैकम्यांशस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया परस्य तु सामस्त्येन स्वपरद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितत्यात्स्यादस्ति चावक्तव्य चेति, तथैकस्याशस्य परद्रव्याद्यपेक्षया परस्य तु सामस्त्येन स्वपरद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितत्वात् स्यान्नास्ति चावक्तव्यं चेति, तथैकस्यांशस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया परस्य तु परद्रव्याद्यपेक्षयाऽन्यस्य तु यौगपद्येन स्वपरद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितवात्स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं चेति, इय च सप्तभङ्गी यथायोगमुत्तरत्रापि योजनीयेति ||१०||११|| तदेव सामान्येन सर्वस्यैव वस्तुनो भेदाभेदौ सर्वशून्यवादिमतनिरासेन प्रतिपाद्याधुना लोका लोकयो प्रविभागेनास्तित्वं प्रतिपादयितुकाम आह— यदिवा सर्वत्र 'वीर्य' मित्यनेन सामान्येन वस्त्वस्तित्वमुक्त, तथाहि- - सर्वत्र वस्तुनो 'वीर्य'' शक्तिरर्थक्रियासामर्थ्यमन्तश स्वविषयज्ञानोत्पादन, तच्चैकान्तेनात्यन्ताभावाच्छशविषाणादेरप्यस्तीत्येव संज्ञा न निवेशयेत्, सर्वत्र वीयं नास्तीति नो एव संज्ञां निवेशयेदिति, अनेनाविशिष्ट वस्त्वस्तित्वं प्रसाधितम् इदानीं तस्यैव वस्तुन ई पद्विशेपितत्वेन लोकालोकरूपतयाऽस्तित्वं प्रसाधयन्नाहमूलम् - णत्थि लोए अलोए वा, शेवं सन्नं निवेसए । तिथलो अलोएवा, एवं सन्नं निवेसए । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगबग सूत्र णत्थि जीवा अजीवा वा, णेवं सन्नं निवेसए । अस्थि जीवा अजीवा वा, एवं सन्नं निवसए ।। -श्री सूयगडाग सूत्र २ । ५। १२, १३ ।। टीका-'लोक, चतुर्दशरज्ज्वात्मको धर्मावर्माकाशादिपञ्चा स्तिकायात्मको वा स नारतीत्येवं सज्ञां नो निवेशयेत् । तथा. ऽऽकाशास्तिकायमात्रकस्त्वलोक स च न विद्यते एवेत्वेव सज्ञां नो निवेशयेत् । तदभावप्रतिपत्तिनिबंधनं त्विदं, तद्यथा-प्रतिभास मानं वात्ववयवद्वारेण वा प्रतिभासेतावयविद्वारेण वा १, तत्र न तावदवयव द्वारेण प्रतिभासनमुत्पद्यते, निरशपरमाणूनां प्रति. भासनासंभवात्, सर्वारातीयभागस्य च परमाएवात्मकत्वात्तेषां च छमस्थविज्ञानेन द्रष्टुमशक्यत्वात् , तथा चोक्तम्-"यावदृश्य परस्तावद्भाग. स च न दृश्यते । निरंशस्य च भागन्य, नास्ति छद्मस्थदर्शनम्" ॥ १॥ इत्यादि नाप्यवयविद्वारेण, विकल्प्यमानस्यवयविन एवाभावात्, तथाहि असौ स्वावयवेषु प्रत्येक सामस्त्येन वा वर्तेत ? अशाशिभावेन वा न सामस्त्येना. वयविवहुत्वप्रसङ्गात् , नाप्यंशेन पूर्वविकल्पानतिक्रमणानवस्था. प्रसङ्गात् , तस्माद्विचार्यमाणं न कथश्चिद्वस्त्वात्मभावं लभते, तत. सर्वमेवतन्मायास्वप्नेन्द्रजालमरुमरीचिकाविज्ञानसदृश, तथा चोक्त-'यथा यथाऽर्थाश्चिन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा। यद्यते (तत्) स्वयमर्थेभ्यो, रोचन्ते (ते) तत्र के वयम् १ ॥ १॥” इत्यादि तदेवं वस्त्वभावे तद्विशेषलोकालोकाभावः सिद्ध एवेत्येवं नो संज्ञा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमो मे स्याद्वाद 25 " निवेशयेत् । कित्वरित लोक ऊर्ध्वाप्तिर्य पो वैशाखस्थानस्थितकटि न्यस्तकरयुग्म गुरु-सदृश पंचास्तिकायात्मको वा, तद्वयतिरिक्त वालोको ऽप्यरित, संबन्धिशब्दत्वात्, लोकव्यवस्थाऽन्यपाऽनुपपत्तेरिति भाव युक्तिश्चात्र - यदि सर्व नाति तत सर्वान्त पातित्यात्प्रतिपेधकोऽपि नातीत्यतस्तदभावात्प्रतिषेधाभाव, ऋपि च - सति परमार्थभूते वस्तुनि माया वनेन्द्रजाला दिव्यवस्थाः अन्यथा किमाश्रित्य को वा मायादिकं व्यवस्थापयेदिति १ । अपि च - " सर्वाभावो यवाभीष्टो, युक्यभावेन सिद्वति । साऽस्ति चेत्सैव नस्तत्त्व, ततसिद्धौ सर्वमस्तु सद् ॥ १ ॥" इत्यादि । यदृण्यवयवावयविविभागकल्पनया दूषणमभिवीयते तद्व्यार्हतमतानभिज्ञेन तन्मतं त्येवभूतं, तद्यथानैकान्तेनावयवा एव नाप्यवयव्येव चेत्यत. स्याद्वादाश्रयणात्पूर्वोक्क विकल्पदोपानुपपत्तिरित्यत. कथञ्चिल्लोकोऽस्त्येवमलले कोऽपीति स्थितम् ॥ १२ ॥ तदेव लोकालोकारितत्व प्रतिपाद्याधुना तद्विशेप भूतयोर्जीवाजीवयोरप्तित्वप्रतिपादनायाह – 'गत्पिज वा जीवे' त्यादि, जीवा उपयोगलक्षणा' ससारिणो, मुक्ता वा तेन विद्यते, तथा जीवाच धर्माधर्माकाशपुद् गलकालात्सका गतिस्थित्यवगाह • दानच्छायातपोद्योतादिवर्त्तनालचरणा न विद्यन्त इत्येव संज्ञां - परिज्ञान नो निवेशयेत्, नास्तित्व निबंधन त्विदं - प्रत्यचेणानुप लभ्यमानत्वाञ्जीवा न विद्यन्ते, कायाकारपरिणतानि भूतान्येव धावनवल्गनादिकां क्रियां कुर्वन्तीति । तथाऽऽत्माद्वै तवादमताभिः ܬ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्री सूयगबग सूत्र __ प्रायेण 'पुरुष एवेद' ग्नि सर्व यन्त यच्च भाव्य' मित्यागमात् तथा अजीवा न विद्यन्ते सर्वयैव चेतनाचेतनरूप यात्ममात्र विवर्त्तत्वात् नो एवं सज्ञां निवेशयेत् , किन्त्वम्ति जीव सर्वस्या स्य सुबटु खादेर्निबन्धनभूत स्वसवित्तिसिद्धोऽहप्रत्ययपाह्य , तथा तयतिरिक्ता धर्माका रापुद्गलादयश्च विद्यन्ते, सकलप्राणज्येष्ठेन प्रत्यक्षानुभूयमानत्वातद्गुणाना, भूतचैतन्यवादी च वाच्य ---- कि तानि भवभिप्रेतानि भूतानि नित्यान्यतानित्यानि ? यदि नित्यानि ततोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्किरैकात्वभावत्वान्न कायाकारपरिणति , नापि प्रागविद्यमानय चैतन्यस्य सद्भावो, नित्यत्वाने. । अथा नित्यानिकि तेष्वविद्यमानमेव चैतन्यमुत्पद्यते आहोस्विद्यिमान ? न तावदविद्यमानमतिप्रसङ्गाद्, अभ्युपेतागमलोपाहा, अथ विद्यमानमेव सिद्ध तहि जीवत्वम् । तथाऽऽत्माद्वैतवाद्यपि वाच्य ----यदि पुरुपमात्रमेवेदं सर्व कथं घटपटादिषु चैतन्य नौपलभ्यते ?, तथा तदैक्येऽभेदनिवन्धनानां पक्षहेतुदृष्टान्तानाम भावात्साध्यसाधनाभावः, तस्मान्नैकान्तेन जीवाजीवोभाव , अपितु सर्वपदार्थानां स्याहाहा अयणाजीव स्यजीव स्यदजीव , अजीवोऽपि च स्यादजीव स्यजीव इति, एतच स्पद्वादाश्रयण जीवपदगलयोरन्योऽन्यानुगतयो शरीरप्रत्यक्षतयाऽध्यक्षेणवोपलम्भा दृष्टव्यमिति ॥ १३ ॥ जीवारितले च सिद्धे तन्निवन्धनयो सदसत्क्रियाद्वारा यात योर्धर्माधर्मयोरस्तित्वप्रतिपादनायाह - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२० जैनागमो मे स्वाद मूलम्-णस्थ धम्मे अधम्मे वा, णेवं सन्नं निवेसए । अत्थि धम्मे अधम्मे व, एवं सन्नं निवेसए ।। णत्थि बंधे व मोक्खे वा, णवं सन्नं निवेसए । अस्थि बन्धे व मोक्खे वा, एवं सन्नं निवेसए ।। -श्री सूयगडाग सूत्र २।५।१४,१५॥ टीका-'धर्म.' श्रुतचारित्रात्मको जीवस्यात्मपरिणाम. कर्मक्षेयकारणम् एवमधर्मोऽपि मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगरूप: कर्मबन्धकारणमात्मपरिणाम एव, तावेवभूतौ धर्माधी कालस्भाव. नियतीश्वरादिमतेन न विद्यते इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् -- कालादय एवास्य सर्वस्य जगद्वैचित्रस्य धर्माधर्मव्यतिरेकेणकान्ततः कारणमित्येवमभिप्राय न कुर्याद्, यत त एवैकका न कारणमपि तु समुदिता एवेति, तथा चोक्तम्- "न हि कालादीहितो केवलएहितो जायए किचि । इह मुग्गरं पणाइवि ता सव्वे समुदिया हेऊ ॥१॥" इत्यादि । यतो धर्माधर्मान्तरेण संसारवैचित्र्य न घटामियय॑तो. ऽस्ति धर्म.-.-सम्यग्दर्शनादिकोऽधर्मश्च-मिथ्यात्वादिक इत्येवं सज्ञां निवेशयेदिति ॥ १४ ॥ सतोश्च धर्मावर्मयोबन्धमोक्षसद्भाव इत्येतार्शयितुमाह--बन्ध.--प्रवृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मकतया कर्मपुद्गलानां जीन स्वव्यापारत स्वीकरण स चामूर्तरात्मनो गगनस्येव न विद्यत इत्येवं नो संज्ञां निःशयेत् , तथा तदभावाच्च मोक्षस्याप्यभाव इत्येवमपि संज्ञां नो निवेशयेत् । कथ तर्हि सज्ञां निवेशयेदित्युत्तरार्द्धन दर्शयति अग्ति बन्ध कर्म पुद्गलैंजीवरयेवं सनां Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडाङ्ग सूत्र निवेशयेदिति—यत्त च्यते-अपूर्तस्य मूर्तिमता सम्बन्धो न युज्यत इति तदयुक्तम् , आकाशस्य सर्वव्यापितया पुद्गरपि सम्बन्यो दुर्निवार्य., तगावे तद्व्यापित्यमेव न स्याद् अन्यच्च अस्य विज्ञानस्य हृत्पूरमदिरादिना विकार. समुपलभ्यते न चासो सम्बन्ध मृते अतो यत्किचिदेतत् । अपि च-ससारिणामसुमतां सदा तैजसकामणशरीरसदावादात्यन्तिकम पूर्णत्व न भवतीति । तथा तत्प्रतिपक्षभूतो मोक्षोऽप्यस्ति, तदभावे बन्धस्याप्यभाव स्यादित्यतो ऽशेषवन्धनापगमस्वभावो मोक्षोऽस्तीत्येव च सज्ञां निवेशयेदिति ॥ १५॥ ___बन्धसद्भावे चावश्य भावीपुण्यपापसद्भाव इत्यतस्तदभाव निषेधद्वारेणाहमूलम्-णत्थि पुण्णे व पाव वा, णेव सन्न निवेसए । अत्थि पुण्ण व पाव वा, एव सन्न निवसए ॥ णत्थि आसवे सचरे वा, णेनं सन्न निवेसए । अत्थि आसवे सवरे वा, एव सन्न निवेसए । -श्री सूयगबग सूत्र ॥२।५।१६,१७॥ टीका-'नास्ति' न विद्यते पुण्य, शुभकमप्रकृतिलक्षणं तथा 'पाप' तद्विपर्ययलक्षणं 'नास्ति' न विद्यते इत्येव सजा नो निवेशयेत् । तदभावप्रतिपात्तनिवन्धनं त्विद-तत्र केपाञ्चि नास्ति पुण्यं, पापमेव ह्युत्कोवस्थं सत्सुखदु खनविन्धत, तथा परेषां पाप नास्ति, पुण्यमेव ह्यपचीयमानं पापकाय कुर्यादिति, अन्येषां तभयमपि नास्ति, संसारवैचित्र्यं तु निर्यातस्वभावादिकृत Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनागमो मे स्याद्वाद तदेतदयुक्तं, यत पुण्यपापशब्दौ सम्बन्धिशब्दौ सबधिशब्दानामे. कांशस्य सत्ताऽपरसत्तानान्तरीयका अतो नैकतरस्य सत्तेति, नाप्युः भयाभावः, शक्यते वक्तु , निर्नि बन्धनस्य जगद्वैचित्र्यस्याभावात्। न हि कारणमन्तरेण क्वचित्कार्यस्त्पत्तिष्टा, नियतिस्वभावादिः वादस्तु नष्टोत्तराणां पादप्रसारिकाप्रायः, अपि च तद्वादेऽभ्युप. गम्यमाने सकलक्रियावयथ्यं तत एव सकलकार्योत्पत्तेरित्यतो ऽस्ति पुण्य पाप चेत्येव सज्ञां निवेशयेत् । पुण्यपापे चैवरूपे, तद्यथा-"पुद्गलकर्म शुभ यत्तत्पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम् । यदशुभमथ तत्पापमिति भवति सर्वज्ञनिदि टम् ॥१॥” इति ॥१६॥ न कारणमन्तरेण कार्यस्योत्पत्तिरत पुण्यपापयोः प्रागुक्तयोः कारणभूतावाश्रवसव तत्प्रतिवेधनिषेधद्वारेण दर्शयितुकाम आहआश्रवति-प्रविशति कर्म येन स प्राणतिपातादिरूप आश्रवःकम पादानकारणं, तथा तन्निरोध. संवरः एतौ द्वावपि न स्त इत्येवं सज्ञां नो निवेशयेत्, तदभावप्रनिपत्त्याशकाकारण त्विद-काय. वाडमनः कर्मयोग स आश्व इति, यथेदमुक्त तथेदमप्युक्तमेव'उच्चालियमि पाए' इत्यादि, ततश्च कायादिव्यापारण कर्मबन्धो न भवतीति, युक्तिरपि-किमयमाश्रव आत्मनो भिन्न उताभिन्नः ? चदि भिन्नो नासावाश्रवो घटादिवद्, अभेदेऽपि नाश्रवत्वम्, सिद्धात्मनामपि आश्रव प्रसङ्गात्, तदभावे च तन्निरोधलक्षणस्य सवरस्यप्यभाव' सिद्ध ग्वेत्येवमात्मकमध्यवसायं न कुर्यात् । यतो यत्तदनैकान्तिकत्वं कायव्यापारस्य 'उच्चालियमि पाए' इत्यादि. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडास सूत्र २३ नोक्त' तदस्माकमपि सगतमेव, यतो नह्यस्माभिरप्युपयुक्तस्य कर्मबन्धोऽभ्युपगम्यते, निरुपयुक्तस्य त्वस्त्येव कर्मबन्ध, तथाभेदाभेदोभयपक्षसमाश्रयणात्तदेकपक्षाश्रितदोषाभाव इत्यस्त्याश्रवसद्भाव, तन्निरोधव संवर इति उक्त च - "योग शुद्ध पुण्याश्रवस्तुपापस्य तद्विपर्यास । वाक्कायमनो गुप्तिर्निराश्रव संवरस्तूत ||१|| " इत्यतोऽस्त्याश्रवस्तथा संवरश्वेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥ १७ ॥ आश्रवसवरसद्भावे चावश्यभावी वेदनानिर्जरासद्भाव इत्यतस्तं (तत्) प्रतिपेधनिषेधद्वारेणाह मूलम् - णत्थि वेयणा णिज्जरा वा, शेव सन्नं निवेसए । थि वेणा णिज्जरा वा, एवं सन्न निवेसए || त्थि किरिया करिया वा, शेव सन्न निवेसए । for after किरिया वा, एव मन्न निवेस । - श्री सूयगडान सूत्र ॥ २५११८, १६ ॥ C टीका - - वेदना - कर्मानुभवलक्षणा तथा निर्जरा - कर्म पुद्गलशाटनलक्षणा एते द्वे अपि न विद्यते इत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् । तद्भावं प्रत्याशंकाकारणमिदं तद्यथा - पल्योपमसागरोपमशतानुभवनीयं कर्मान्तरमुहूर्तेनैव क्षयमुपयातीत्यभ्युपगमात्, तदुक्तम् - "जं श्ररणारणी कम्मं खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं राणी तिहि गुत्तो खवेइ ऊसासमित्ते || १ ||" इत्यादि । तथा चपकश्रेण्यां च झटित्येवं कर्मणो भस्मीकरणाद्यथाक्रमचद्वस्य चानुभवनाभावे वेदनायां श्रभाव तद्भावाच्च निर्जराया अपी " Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनागमों मे स्याद्वाद त्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् । किमिति १ यत कस्यचिदेव कर्मण एवमनन्तरोक्तया नीत्या क्षपणात्तपसा प्रदेशानुभवेन च अपरस्य तृदयोदीरणाभ्यामनुभवनमित्यतोऽस्ति वेदना, यत आगमोऽप्येवंभूत एव, तद्यथा-"पुट्विं दुच्चिएणाणं दुष्पडिकंताणं कम्मासं वेइत्ता मोक्र्खा, णत्थि अवेइत्ता" इत्यादि, वेदना सिद्धौ च निर्जरा ऽपि सिद्धैवेत्यतोऽस्ति वेदना निर्जरा चेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥ १८ ॥ वेदनानिर्जरे च क्रियाऽक्रियायत्ते, ततस्तत्सद्भाव प्रतिषेधनिषेधपूर्वक दर्शयितुमाह-क्रियापरिस्पन्दलक्षणा तद्विपर्यस्ता त्वक्रिया, ते द्वे अपि 'न स्तो', न विद्यते, तथाहि-सांख्यानां सर्वव्यापित्वादात्मन आकाशस्यैव परिस्पन्दात्मिका क्रिया न विद्यते, शाक्यानां तु क्षणिकत्वात्सर्वपदार्थानां प्रतिसमयमन्यथा चान्यथा चोत्पत्ते पदार्थसत्तैव, न तद्वयतिरिक्ता काचित्क्रियाऽस्ति, तथा चोक्तम्"भूतियैषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते” इत्यादि, तथा सर्वपदार्थानां प्रतिक्षणमवस्थान्तरगमनात्सक्रियत्वमतोऽक्रिया न विद्यते, इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् , किं तर्हि, अस्ति क्रिया अक्रिया चेत्येवं संज्ञां निवेशयेत् , तथाहि-शरीरात्मनोर्देशाद्देशान्तरावाप्तिर्निमित्ता, परिस्पन्दात्मिका क्रिया प्रत्यक्षेणैवोपलभ्यते, सर्वथा निष्क्रियत्वे चात्मनोऽभ्युपगम्यमाने गगनस्येव वन्धमोक्षाद्यभाव , स च दृष्टेष्टवाधितः, तथा शाक्यानामपि प्रतिक्षणोत्पत्तिरेव क्रियेत्यतः कथं क्रिन्याया अभाव ? अपि च-एकान्तेन क्रियाऽभावे संसारमोक्षा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ श्री सूयगडाङ्ग सूत्र जाव' स्यादित्यतोऽस्ति क्रिया, तद्विपक्षभूता चाक्रियेत्येवं सज्ञा निवेयेदिति ।। १ ।। तदेवं सक्रियात्मनि सति क्रोधादिसद्भाव इत्येतदर्शयितुमाहमूलम्-णत्थि कोहे व माणे वा, णेव सन्न निवेसए । अत्थि कोहे व माणे वा एवं सन्न निवेसए । णस्थि मोया व लोभे वा, णव मन्न' निवेसए । अत्थि माया व लाभे चा, एव सन्न निवेसए । णत्थि पेज्जे व दोसे वा, व सन्न निवेसए । अत्थि पेज्जे व दोसे वा, एव सन्न निवेसए । -श्री सूयगडाङ्ग सूत्र ।।२।५।२०,२१,२२।। टीका--स्वपरात्मनोरप्रतीतिलक्षण क्रोध , स चानन्तानयन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसज्वलनभेदेन चतुर्धाऽऽगमे पठ्यते, तथैतावद्भद एव मानो गर्व , एतौ द्वावपि 'न स्तो' न विद्यते तथाहि क्रोध केपाञ्चिन्मतेन मानाश एव अभिमानग्रहगृहीतत्य तत्कृतावत्यन्तक्रोधोदरदर्शनात, क्षपकरेण्यां च भेदेन क्षपणानभ्युपगमात्, तथा किमयमात्मधर्म आहोस्वित्कर्मण उतान्यस्येति ? तत्रात्मधर्मत्वे सिद्वानामपि क्रोधोदयप्रसङ्ग , अथ कर्मणस्ततस्तदन्यकपायोदयेऽपि तदुदयप्रसङ्गात् मूर्तत्वाच्च कर्मणो घटस्येव तदाकारोपलब्धि स्यात् अन्यधर्मत्वे त्वकिञ्चिकरत्वसतो नास्ति क्रोध इत्येव मानाभावोऽपि वाच्य इत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत, यत कपायकर्मोदयवर्ती दप्टोप्ट कृतभ्रु कुटी Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जनागमों में स्याद्वाद भङ्गो रक्तवदनो गलत्स्येद्रबिन्दुसमाकुल क्रोधामातः समुपलभ्यते, न चासौ सानांश, तत्कार्याकरणात् यथा परनिमित्तोत्थापितत्वाच्चेति, तथा जीवकर्मणोरुभयोरप्यय धर्म , तद्धर्मत्वे च प्रत्येकविकल्पदोषानुपपति , अनभ्युपगान, ससार्यात्मनां कर्मणा सार्द्ध पृथग्भवनासावात्तदुभयस्य च नरसिंहवद्वरत्वन्तरत्वादत्यतोऽस्ति क्रोधो मानश्चेत्येव सज्ञा निवेशयेत् ॥ २०॥ साम्प्रतं मायालोभयोरस्तित्व दर्शयितुमाह-अत्रापि प्राग्वन्मायालोभयोरभाववादिनं निराकृत्यास्तित्वं प्रतिपादनीयमिति ।। २१ ॥ साम्प्रतमेपामेव क्रोधादीना समासेनास्तित्वं प्रतिपादयन्नाहप्रीति लक्षणं प्रेम-पुत्रकलत्रधनधान्यात्मीयेषु रागस्तद्विपरीतस्त्वात्मीयोपधातकारिणि द्वेष , तावेतौ द्वावपि न विद्यते, तथाहिकेपाञ्चिदभिप्रायो यदुत-मायालोभावेवावयवौ विद्यते, न तत्समुदायरूपो रागोऽवयव्यस्ति, तथा क्रोधमानावेव स्त , न तत्समुदायरूपोऽवयबी द्वेप इति, तथाहि-अवयवेभ्यो यद्यभिन्नोऽवयवी तर्हि तदभेदात्त एव नासौ अथ भिन्न पृथगुपलम्भ स्याद् घटपटवदित्येवमसद्विकल्पमूढतया नो संज्ञा निवेशयेत्, यतोऽवयवाघयविनो कथञ्चिद्भद इत्येवं भेदाभेदाख्यतृतीयपक्षसमाश्रयगात्प्रत्येकपक्षाश्रितदोपानुपपत्तिरिति, एवं चास्ति प्रीतिलक्षणं लेमाप्रीतिलक्षणश्च द्वेप इत्येव संज्ञां निवेशयेत् ॥ २२ ॥ साम्प्रतं कपायसद्भावे सिद्ध सति तत्कार्यभूतोऽवश्यंभावी संसारसद्भाव इत्येतत्प्रतिपेनिपेधद्वारेए. प्रतिपादयितुमाह Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडाङ्ग सूत्र मूलम् - णत्थि चाउरते संसारे, शेवं मन्नं निवेस | त्थि चाउरते संसारे, एवं सन्नं निवेस ॥ थि देवो व देवी वा, शेवं सन्नं निवेस | थि देवो व देवी वा एव सन्न निवेसए || २७ - श्री सूयगडाङ्ग सूत्र || २५२३, २४ ॥ नरकतिर्थड्नरामर टीका - चत्वारोऽन्ता — गतिभेदा " लक्षणा यस्य सलारस्यासौ चतुरन्त ससार एव कान्तारो भयैकहेतु त्वात् स च चतुर्विधोऽपि न विद्यते, अपितु सर्वेषा समृतिरूपत्वात्कर्मबन्धात्मकतया च दुखैकहतुत्वादेकविध एव, अथवा नारकदेवयोरनुपलभ्यमानत्वात्तिर्यड् मनुष्ययोरेव सुखदुखोत्कर्पतया तद्व्यवस्थानाद द्विविध ससार द्विविध ससार पर्यायन याश्रयणात्वनेकविव अतश्चतुर्विध्य न कथचिद्र घटत इत्येवं सज्ञा नो निवेशयेद्, अपितु अस्ति चतुरन्त ससार इत्येव सज्ञा निवेशयेत् । यतुक्तम् — एकविध ससार तन्नोपपद्यते यतोऽध्यचेण तिर्यड्मनुष्ययोर्भेद समुपलभ्यते, न चासावेकविधत्वे ससारम्य घटते, तथा सभवानुमानेन नारक देवानाम' यस्तित्वाभ्युपगमाद् द्वैविध्यमपि न विद्यते, सभवानुमान तु— सन्ति पुण्यपापयो प्रकृष्टफलभुज, तन्मध्यफलभुजा तिर्यड्मनुष्यारणा दर्शनाद्, अत सम्भाव्यन्ने प्रकृष्टफलभुजो, ज्योतिषा प्रत्यक्षेणैव दर्शनाद्, अथ तट्टिमानानामुपलम्भ एवमपि तदधिष्ठातृभि कैश्चिद्भवितव्यमित्यनुमानेन Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद गम्यन्ते, ग्रहगृहीतवरप्रदानादिना च तदस्तित्वानुमिति , तद्स्तित्वे तु प्रकृष्टपुण्यफलभुज इव प्रकृष्टपापफलभुग्भिरपि भाव्यमित्यतोऽस्ति चातुर्विध्यं संसारस्य पर्यायनयाश्रयणे तु यदनेकविधत्वमुच्यते तदयुक्त', यतः सप्तपृथिव्याश्रिता अपि नारका. समानजातीयाश्रयणादेकप्रकारा एव, तथा तिर्यञ्चोऽपि पृथिव्यादय स्थावरास्तथा द्वित्रिचतु पञ्चेन्द्रियाश्च द्विषष्टियोनिलक्षप्रमाणा सर्वेऽप्येकविधा एव, तथा मनुष्या अपि कर्मभूमिजाकर्मभूमिजान्तरद्वीपंकसमूर्च्छनजात्मकभेदमनादृत्यैकविध-' त्वेनैवाश्रिता तथा देवा अपि भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभेदेन भिन्ना एफविधत्वेनैव गृहीता, तदेवं सामान्यविशेषाश्रयणाच्चातुर्विध्य संसारस्य व्यवस्थितं नैकविधत्व, संसारवैचित्र्यदर्शनात् , नाप्यनेकविधत्वं सर्वेषां नारकादीनां स्वजात्यनतिक्रमादिति ।। २३ ।। २४ ॥ सर्वभावना सप्रतिपक्षत्वात्ससारसद्भावे सति अवश्य तद्विमुक्तिलक्षणया सिद्धयापि भवितव्यमित्यतोऽधुना सप्रतिपक्षां सिद्धि दर्शयितुमाहमूलम्-णत्थि सिद्धि अमिद्धि वा, णवं सन्नं निवेसए । अस्थि सिद्धि प्रसिद्धि वा, एव सन्नं निवेसए ॥ णत्यि सिद्धि नियं ठाणं, णेवं सनं निवेसए । अत्थि सिद्धि निय ठाण, एवं सन्नं निवेसए । श्रा सूयगडाङ्ग सूत्र २।५।२५,२६ ।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगबाग सूत्र टीका - सिद्धि अशेषकर्म च्युतिलक्षणा तद्विपर्यस्ता चासिद्धिर्नास्तीत्येवं नो संज्ञां निवेशयेद्, अपि त्वसिद्ध - संसारलक्षणायाश्चतुर्विध्येनानन्तरमेव प्रसाधिताया अविगाने नाम्तित्व प्रसिद्ध, तद्विपर्ययेण सिद्ध रण्यम्तित्वमनिवारितमित्यतोऽस्ति सिद्धिरसिद्धिर्वेत्येव संज्ञां निवेशयेदिति स्थितम, इदमुक्तं भवति - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकस्य मोक्षमार्गस्य सद्भावाकर्मक्षयस्य च पीडोपशमादिनाऽध्यक्षेण दर्शनात कायचिद्रात्यन्तिककर्महानिसिद्ध रम्ति सिद्धिरिति, तथा चोक्तन"दोपावरणयोर्हानिर्नि शेपाऽस्त्यतिशायिनी । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मक्षय ॥ १ ॥" इत्यादि, एव सर्वज्ञ सद्भावो - ऽपि सभवानुमानाद्द्रष्टव्य, तथाहि अभ्यस्यमाना या प्रज्ञाया व्याकरणादि[ना]शास्त्र संस्कारेणोत्तरोत्तरवृद्रया प्रज्ञातिशयो तत्र कस्यचिदत्यन्तातिशयप्राप्ते सर्वज्ञत्वं स्यादिति सभवानुमान, न चैतदारांनीयम, तद्यथा - तापमानमुदकमत्यन्तोष्णतामियान्नाग्निमाद्भवेन, तथा “दशहस्तान्तर व्योम्नि यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनमसो गन्तु शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥ १ ॥” इति दृष्टान्तान् पोरलाम्यात्, तथाहि - ताप्यमानं जलं प्रतिक्षण क्षयं गच्छेन प्रज्ञा तु दिवर्धते, यदिवा प्लोप पब्वेरव्याहुतमग्नित्वं, तथा 'जवनविषयेऽपे पूर्वमर्यादाया अनति#मायोजनोत्लवनाभाव, तत्परित्यागे चोत्तरोत्तर वृद्धवा दृष्ट Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमो मे स्याद्वाद प्रज्ञाप्रकर्षगमनवद्योजनशतमपि गच्छेदित्यतो दृष्टान्तदान्तिकयोरसाम्यादेतन्नाशंकनीयमिति स्थितम्, प्रज्ञावृद्धश्च वाधकप्रमाणाभावादस्ति सर्वज्ञत्वप्राप्तिरिति । यदिवा अब्जनभृतसमद्गकदृष्टान्तेन जीवकुलत्वाज्जगतो हिंसाया दुर्निवारत्कात्सिद्धयाभाव , तथा चोक्तम् “जले जीवा स्थले जीवा, आकाशे जीवमालिनि । जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसक ? ॥ १॥" इत्यादि, तदेवं सर्वस्यैव हिंसकत्वात्सिद्धयभाव इति, तदेतद्युक्त, तथाहि-सदोपयुक्तस्य पिहिताश्रवद्वारस्य पंचसमितिसमितम्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य सर्वथा निरवद्यानुष्ठायिनो द्विचत्वारिंशदोषरहितभिक्षाभुज ईर्यासमितस्य कदंचिद्रव्यत प्राणिव्यपरोपणेऽपि तत्कृतबन्धाभावः, सर्वथा तस्यानवद्यत्वात, तथा चोक्तम्"उच्चालियंमि पाए” इत्यादि प्रतीतं, तदेवं कर्मभावत्सि? सद्भावोऽव्याहत , सामग्रथमावादसिद्धिसद्भावोऽपीति ॥ २५ ॥ साम्प्रत सिद्धानां स्थाननिरूपणायाह-रणत्थि सिद्धी' इत्यादि सिद्ध-अशेपकर्मच्युतिलक्षणाया निजं स्थानं-ईषत्प्राग्भाराख्यं व्यवहारतो, निश्चयस्तु तदुपरि योजनक्रोशपड्भाग , तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात्स नास्तीत्येवं सज्ञा नो निवेशयेत् , यतो बाधकप्रमाणासावात साधकस्य चागमस्य सद्भावात्तत्सत्ता दुर्निवारेति । अपिच-अपगता शेयकल्मषाणां सिद्धानां केनचिद्विशिष्टेन म्थाने भाव्यम, तचतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्याप्रभू Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगवन सूत्र दृष्टव्य, न च शक्यते वक्तुमाकाशवत्सर्वव्यापिन सिद्धा इति, यतो लोकालोकव्याप्याकाश, न चालोकेऽपरद्रव्यस्य राभव , तम्याकाशमात्ररूपत्वात् लोकमात्रव्यापित्वमपि नास्ति, विकल्पानुपपत्ते, तथाहि-सिद्वावस्थाया तेषा व्यापित्वमभ्युपगतमुत प्रागपि १, न तावत्सिद्धावस्थाया, तद्व्यापित्वसवने निमित्ताभावान्, नापि प्रागवस्थाया, तद्भावे सर्वसंसारिणा प्रतिनियतसुखदु खानुभवो न स्यात्, न च शरीराबहिरवन्यितमवस्थानमस्ति, तत्सत्तानिवन्धनस्य प्रमाणस्याभावात्, अत सर्वव्यापित्व विचार्यमाणं न कथञ्चिद् घटते, तदभावे च लोकाग्रमेव सिद्धानां स्थानं, तद्गतिश्च 'कर्मविमुक्तस्योर्ध्वं गति' रितिकृत्वा भवति तथा चोक्तम् "लाउ एरंडफले अग्गी धूमे य उसु धणुविमुक्के । गइ पुन्वपओगेण एव सिद्धाणवि गईश्रो ॥१॥" इत्यादि । तदेवमस्ति सिद्धिस्तम्याश्च निज स्थानमित्येव मज्ञा निवेशयेदिति ।। २६॥ __ साम्प्रतं सिद्ध साधकानां साधना तत्प्रतिपक्षभूतानामसाधूनां चास्तित्वं प्रतिपादयिपु पूर्वपक्षमा मृलम्-णत्थि साह असाह वा, णेवं सन्न निवेसए । अत्यि साहू असाहू वा. एवं सन्न निवेसए । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमो मे स्याद्वाद त्थि कल्ला पावे वा, वंसन्न निवेस । किल्ला पावे वा, एव सन्न निवेस ॥ - श्री सूयगडाङ्ग सूत्र २।५।२७,२८ ।। ज्ञानदर्शनचारित्रक्रियोपेतो सम्पूर्णस्य रत्नत्रयानुष्ठानस्या टीका' नास्ति' न विद्यते मोक्षमार्गव्यवस्थित साधु, भावात्, तदाबाच्च तत्प्रतिपक्षत्वादेतद्व्यवस्थानस्यैकतराभावे द्वितीयस्याप्यभाव इत्येव मज्ञां नो निवेशयेत, अपि तु अस्ति साधु, लिरे प्राक्साधितत्वात्, सिद्धिसत्ता च न साधुमन्तेरण, छात साधु सिद्धि तत्प्रतिपक्षभूतस्य चासाधोरिति । यश्च सम्पूर्ण रत्नत्रयानुष्ठानाभाव प्रागाशंकित स सिद्धान्ताभिप्रायमबुद्ध्यैव, तथाहि — सम्यग्दृष्ट रुपयुक्तस्य सत्सयमवत श्रुतानुसारेणाssहारादिकं शुद्धबुद्ध्या गृहत क्वचिदज्ञानादनेष णीयग्रहणसम्भवेऽपि सततोपयुक्ततया सम्पूर्णमेव रत्नत्रयानुष्ठानमिति, यश्च भक्ष्यमिदमिद चाभक्ष्यं गम्यमिदमिदं चागम्यं प्रासुकमेषरणीयमिदमिदं च विपरीतमित्येवं रागद्वेषसभवेन समभावरूपस्य सामयिकस्याभाव कैश्विच्चोद्यते तत्तेपां चोदनमज्ञानविजृम्भरणात्, तथाहि—न तेपां सामायिकवतां साधून रागद्वेपतया भक्ष्याभक्ष्यादिविवेक. अपितु प्रधानमोक्षाङ्गस्य सच्चारित्रस्य साधनार्थम् अपि च- उपकारापकारयो समभावतया सामायिक न पुनर्भक्ष्याभक्ष्ययो समप्रवृत्त्येति ॥ २७ ॥ तदेवं मुक्ति ३२ 1 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडाग सूत्र ૩૩ मार्गप्रवृत्तस्य साधुत्वमितरस्य चासाधुत्व प्रदर्श्याधुना च सामान्येन कल्याणपापवतो सद्भावं प्रतिपेधनिषेधद्वारेणाह - ' रात्थि कल्लारण पावे वा' इत्यादि, यथेष्टार्थफत सम्प्राप्ति कल्याण तन्न विद्यते, सर्वाशुचितया निरात्मकत्वाच्च सर्वपदार्थानां बौद्धाभिआये तथा तदभावे कल्याणवाव न कश्चिद्विद्यते, तथाऽऽत्माद्वैतवाद्यभिप्रायेण 'पुरुष एवेद सर्व' मिति कृत्वा पाप पापवान् वा न कश्चिद् विद्यते तदेवमभयोरप्यभाव तथा चोक्तम्“विद्याविनयसम्पन्ने, ब्राह्मणे गवि , J हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता समदर्शिन ॥ १॥" इत्येवमेव कल्याणपापकाभावरूपां सन्ना नो निवेशयेद्, अि स्वस्ति कल्याणं कल्याणवाच विद्यते, तद्विपर्यस्तं पापं तद्वाच विद्यते, इत्येव सज्ञां निवेशयेत्, तथाहि--नैकान्तेन कल्यारणाभावो यो बौद्धरभिहित, सर्व पदार्थानामशुचित्वासम्भवात् सर्वाशुचित्वे च बुद्धस्याप्यशुचित्वप्राप्ने, नापि निरात्मान स्वद्रव्यक्षेत्र - कालभावापेक्षया सर्वपदार्थाना विद्यमानत्वात् परद्रव्यादिभिस्तु न विद्यन्ते सदसदात्मकत्वाद्वस्तुन तदुक्तम् — "स्त्रपरसत्ताव्युदासोपादानापायं हि वस्तुनो वस्तुत्व" मिति तथाऽऽत्माद्वैतभावाभावात्पापाभावोऽपि नास्ति श्रद्वैतभावे हि मुखी दुखी सरोगो नीरोग सुरूप कुम्पो दुर्भग सुभगोऽर्थवान् दरिद्रन्तथाऽयमन्तिकोय तु दान इत्येवमादिको जगद्वैचित्र्यभावोऽध्य नसिद्धी 電 - 9 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैनागमों में स्याद्वाद ऽपि न स्यात् । यच्च समदर्शित्वमुच्यते ब्राह्मणचाण्डालादिपु तदपि समानपीडोत्पादनतो द्रष्टव्यं न पुन कर्मापादितवैचित्र्यभावोऽपि तेषां ब्राह्मणचाण्डालादीनां नास्तीति, तदेव कथचिकल्याणमस्ति तद्विपर्यस्तं तु पापकमिति । न चैकान्तेन कल्याणं कल्याणमेव, -यत केवलिनां. प्रक्षीणघनघतिकर्मचतुष्टयानां सातासातोदयसद्भावात्तथा नारकाणामपि, पंचेन्द्रियत्वविशिष्टज्ञानादिसद्भावान्नैकान्तेन तेऽपि, पापवन्त इति तस्मात्कः चित्कल्याणं कञ्चित्पापमिति स्थितम् ॥ २८॥ तदेव कल्याणपापयोरनेकान्तरूपत्वं प्रसाध्यैकान्तं दूपयितुमाह मला-कल्लाणे पावए वावि, ववहारो ण, विज्जइ.। जं वेरं तं न जाणन्ति, समणा बाल पंडिया । असेस अक्खयं वावि, सव्वदुक्खेति वा पुणो । वज्झा पाणा न वज्झत्ति, इति, वायं न नीसरे ॥ दीसति. समियायारा, भिक्खुणो साहुजीवियो। एए मिच्छोवजीवंति, इति, दिहिं. नं धारए || -श्री सूयगडाग सूत्र २।५।२६,३०,३१।। टीका-कल्य-सुखमारोग्यं शोभनत्वं वा तदणतीति कल्याण तदम्याम्तीति कल्याणो मत्वर्थीयाच्त्ययान्तोऽशादिभ्योऽजित्यनेन, कल्याणवानिति यावत्। एवं पापकशब्दोऽपि मत्वर्थीयाच्प्रत्ययान्तो नप्रव्य । तदेव सर्वथा कल्याणवानेवायं तथा पापवानेवायमित्येवंभूतो Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सृयगडाङ्ग सूत्र व्यवहारो न विद्यते, तदेकान्तभूतस्यैवाभावात्, तदभावम्य च सर्ववस्तूनामनेकान्ताश्रयेण प्राप्रसाधितत्वादिति । एतन्च व्यवहाराभावाश्रयण सर्वत्र प्रागपि योजनीयम् , तद्यथा-सर्वत्र वीर्यमम्ति नास्ति वा सर्वत्रवीर्यमित्येवंभूत एकान्तिको व्यवहारो न विद्यते, तथा नाम्नि लोकोऽलोको वा तथा न सन्ति जीवा अजीवा इति चेत्येवभूतो व्यवहारो न विद्यत इति सर्वत्र सम्बन्धनीयम् । तथा वैर-चत्रं तद्वत्कर्म वैर विरोधो वा वैर तये न परोपघातादिनैकान्तपक्षसमाश्रयणेन वा भवति तत्ते 'श्रमणा' तीर्थिका वाला इव रागद्वेपकलिता 'पण्डिता' पण्डिताभिमानिन शु-कतर्कदध्माता न जानन्ति, परमार्थभूतम्याहिंसालक्षणम्य धर्मस्यानेकान्तपनस्य वाऽनाश्रयणादिति । यदिवा यद्वैर तने श्रमणा वाला पण्डिता वा न जानन्तीत्येव वाच न निसृजेदित्युतरेण सम्बन्ध , सिमिति न निमृजेत ? यतन्तेऽपि किञ्चिन्जानन्त्येव । अपि च तेपा तन्निमितकोपोत्पत्ते , यन्चैवभूतं वचम्तन्न वान्य, यत उक्तम्-"अप्पत्तिय जेण मिया, श्रामु कुत्पिन्न वा परो। मवमो त ण भामेजा, भास अहियगामिगि ॥ २॥' इत्यादि ।। २६ ॥ ___ 'प्रपरमपि वाकमयममधिकृत्यार- 'ग्रसेम मित्यादि, ग्यशेष यन्नं तत्मात्याभिप्रायेण मनन नित्यमित्यवं न प्रयान. प्रत्यर्थ प्रतिममय चान्यथाऽन्यवाभावदर्शनान न ग्वामित्व. भूना पैकत्वमाधकान्य प्रत्यमितानन्य न नमुन जीत कंगनबाद. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ३६ जैनागमों में स्याद्वाद ष्वपि प्रदर्शनात, तथा अपिशब्दादेकान्तेन क्षणिकमित्येवमणि वाचं न निसृजेत्, सर्वथा क्षणिकत्वे पूर्वस्य सर्वथा विनष्टत्वादुत्तरम्य निर्हेतुक उत्पाद. स्यात्, तथा च सति नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणा' दिति । तथा सर्वं जगदुदु खात्मकमित्येवमपि न ब्रूयात सुखात्मकस्यापि सम्यग्दर्शनादिभावेन दर्शनात् तथा चोक्तम्—' तरणसंथारनिसरणोऽवि मुणिवरो भट्टरागमयमोहो । ॐ पावइ मुत्तिसु कत्तो तं चक्काट्टीवि १ ॥ १n " इत्यादि तथा वध्याश्चौरपारदारिकादयोऽवध्या वा तत्कर्मानुमतिप्रसङ्गादित्येवंभूर्ती वाचं स्वानु ठानपरायण साधु परव्यापारनिरपेक्षो न निसृजेत् तथाहि सिंहव्याघ्रमार्जारादीन्परसत्त्व व्यापादनपरायणान् दृष्ट्रा मध्यस्थ्यमवलम्बयेत, तथा चोक्तम् — “मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेध्विति," (तत्वा अ० सू०६) एवमन्योऽपि वाक्संयमो द्रष्टव्य तद्यथा— अमी गवादयो वाह्यान वाह्या वा तथाऽमी वृक्षादयछेद्या न छेद्या वेत्यादिक वचो न वाच्यं साधुनेति ॥ ३० ॥ श्रयमपरो वाक्संयमप्रकारोऽन्तकरणशुद्धिसमाश्रित प्रदर्श्यते— 'दीसन्ती' त्यादि, 'दृश्यन्ते " समुपलभ्यन्ते स्वशास्त्रोक्तेन विधिना ' निभृत - रायत श्रात्मा येषां ते निभृतात्मान कचित्पाठ 'समियाचार' त्ति सम्यक् — स्वशास्त्रविहितानुष्ठानादविपरीत आचार - अनष्टानं येषां ते सम्यगाचारों, सम्यग्वा - इतो व्यवस्थित आचारो येषां ते समिताचारा, के ते? – भिक्षणशीला भिक्षवो भिक्षामात्रवृत्तय, तथा साधुना विधिना जीवितु ं शीलं येषां ते साधुजीविनः, तथा हि - ते न कस्यचिदुपरोधविधानेन जीवन्ति तथा चान्ता दान्ता - २ } ܆ ر 3 1 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडाङ्ग सूत्र ३७ श्री जितक्रोधा सत्यगंधा दृढव्रता युगान्तरमाह । परिमिते दकपायिनो मौनिन सदा तायिनो विविक्तं शन्तध्यानाध्यासिन कुन्यास्तानेवंभूतानवधार्यापि 'सरागा श्रपि वीतरागा इव चेन्ते' इति मत्यैते मिथ्यात्वोपजीविन इत्येवं दृष्टिं न वारयेत : नैव भूतमभ्यवसायं कुर्यान्नध्येव भूतां वाचं निसृजे यथैने भ श्योपचारप्रवृत्ता मायाविन इति छद्मम्प्रेन हार्वाडशिनैवंभूतम्य निश्चयश्च कतुमशक्यचादित्यभिप्राय, ते च स्वयूच्या वा भवेयुस्तीर्थान्तरीया वा तावुभावपि न वक्तव्यो साबुना या उक्कम - "यावत्परगुणपरदोपकीर्तने व्यापृतं मनो भवति । तावद्वरं विशुद्ध ध्याने व्यग्र मन कर्तुम ॥ १ ॥ " इत्यादि ॥ ३१ ॥ , किश्व न्यत - मृतम् - दविणाए पडिल भो अस्थि व रात्थि चा पुणां । न वियागरेज्ज मेहावी सतिमग्गं च वृहत् ।। इच्चे एहिं ठाणेहिं जियदिहहिं संजए । धारयन्ते उ अप्पा, ग्रामोक्खाए परिवएज्जामि ॥ चि वेमि || - श्री नृपगडा पत्र २०१३२, ३३ ॥ टोका दान दक्षिणा तम्या प्रतिलम्भ:- प्राप्ति में दानलाभोरमाद्देशादग्निनानि वेत्येवं न व्याग्रणीयान नेमावी- ताञ्यवस्थित । यदेव स्वयम्य तीर्थान्तरीयन्य वादाने यो लाभ स तान् गनपति ܢ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे म्याद्वाद नास्ति वेत्येवं न ब यादेकान्तेन, तद्दानग्रहणनिषेधे दोषोत्पत्तिसभवात , तथाहि तदाननिषेधेऽन्तरायसंभवस्तवैचित्यं च, तदानानुमतावध करणोद्भव इत्यतोऽस्त दान नास्ति वेत्येवमेकान्तेन न ब यात । कथ तर्हि बयादिति दर्शयांत-शान्ति - मोक्षस्तस्य मार्ग -सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकस्तमुपबृहयेद् वधयेत् , यथा मोक्षमार्गाभिवृद्धिर्भवति तथा ब्रूयादित्यर्थ , एतदुक्त भवति पृष्ट केनचिद्विधिप्रतिपेधमन्तरेण देयप्रतिग्राहकविपय निरषद्यमेव ब यादित्येवमादिकमन्यद प विविधधर्मदेशनावसरे वाच्यं तथा चोक्तम् - सावजाणवजाण वयणाणं जो न . जाणइ बिसेम" इत्यादि सान्तसध्ययनार्थमुपसजिघृक्षुरांह'इच्च महि', मित्यादि, इत्य तरेकान्तनिषेधद्वारेणानेकान्तविधायिभि स्थानैर्वाकमयमप्रधानैः समस्ताध्ययनोक्त रागद्वपरहितैर्जिष्टे --उपलब्धेन बमतिर्विकल्पोत्यापित सयत -सत्सयमवानात्मान धारयन् - एभि स्थानैरात्मान वतयन्नामोक्षाय -अशेषकमक्षयाख्य मोक्ष यावत्परि --समन्तात्सयमानुष्ठाने बजे गच्छेस्वमिति विधेयम्योपदेश । इति परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् । नया अभिहिता अभिधाम्यमानलक्षणाश्चेति ।। ३३ ।। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ठाणांग सूत्र • मृतम् - जदत्थि गं लोगे त सव्वं दुपारं तं जहाजावच्चैव जीवच्चेव । तसे चैव थावरे चैव १, जाणियच्चेव अजोणियच्चेव २ मा उयच्चैव श्रणाउयच्चैव ३, महदियच्चैव प्रणिदिएच्चेच ४, सवेयगा चैव, अवेयगा चैव ५ सुरूवि चेव पीगल्ला चैत्र ७, 1 रवि चैव ६ सपोगल्ला चेव संसारसमान्नगाचैव यमसारसमावनगा चेच, सासया चैव श्रमाया चेत्र है || - श्री स्थानाङ्ग सूत्र स्थान र उदेश १ सूत्र ५७ ॥ टीका-स्य च पूर्वसूत्रेण सहाय सम्बन्ध - पूर्वे तम 'एक गुणम्चा पुढला अनन्ता तत्र किमनेकगुणम्ना श्रपि पुद्गला भवन्ति येन ते एकगुरणा सततया विशियन्त इतेि ? उच्यते भवन्त्येव, यतो 'जटली त्यादि, परम्परनसम्बन्धस्तु -- 'श्रुतं मयाऽयमता भगवतैवारयतमे श्रात्मे' त्यादि - दमपरमाख्यात 'जदत्थी' त्यादि, महितादिचर्च पृवत्. 'यद्' जीवादिकं वस्तु प्रस्ति' विद्यते, शमिनिवारपालमारे, क्य चित्पाठो जत्थि चरण ते तत्रानुस्वार यागाभिपन्नग्ध 1 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद एवं चास्य प्रयोग ---अस्त्यात्मादिवस्तु, पूर्वाध्ययनप्ररूपितत्वात् , यच्चास्ति 'लोके' पञ्चास्तिकायात्मके लोक्यते-प्रमीयत इति लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपे वा तत् 'सर्व' निरवशेष द्वयो पदयो स्थानयो पज्ञयोर्विषतिनातुनद्विपये यज़न गयोरवतारो यस्य तत् द्विपदावतारमिति, 'दुपडोयारं' ति क्वचित् पठ्यते, तत्र द्वयो प्रत्यवतारो यस्य तत् द्विप्रत्यवंत रमिति, स्वरूपवत् प्रतिपक्षवच्चेत्यर्थ , 'तद्यथे' त्युदाहरणोपन्यासे, जीवच्चेव अजीवच्चेत्ति, जीवाश्चैवाजीवाश्चैव, . प्राकृतत्वात संयुक्तपरत्वेन हस्त्र , चकारौ सच्चयार्थों, एवकाराववधारणे, तेन च राश्यन्तरापोहमाह, नो जीवाख्यं राश्यन्तरमस्तीति चेत् , नैवम् , सर्वनिषेधकत्वे नोशन्दस्य नोजीवशन्देनाजीव एवं प्रतीयते, . देशनिषेधकत्वे तु जीवदेश एव प्रतीयते; न च देशो देशिनोऽत्यन्तव्यतिरिक्त इति जीव एवासाविति, चेय' इति वा एवकारार्थ 'चिय चय एवार्थ इति वचनात् , ततश्च जीवा एवेति विवक्षितवस्तु अंजीवा एवेति च तत्प्रतिपक्ष इति, एवं सर्वत्र, अथवा 'यदस्ति' अस्तीति यत सन्मानं यदित्यर्थ तद् द्विपदावतारं-द्विविधं, जीवाजीवभेदादिति, शेपं तथैव । अथ त्रसेत्यादिकया नवसूत्र्या जीवतत्त्वस्यैव भेदान् सप्रतिपक्षानुपदर्शयति--तसे चेवे' त्यादि, तत्र त्रसनामकर्मोदयस्त्रस्यन्तीति बसा.-द्वीन्द्रियादय स्थावरनामकर्मोदयात तिष्ठतीत्येवशीला स्थावरा -पृथिव्यादय, सह योन्याउत्पत्तिस्थानेन सयोनिका -ससारिणस्तद्विपर्यासभूतां अयोनिका-सिद्धा, सहायुपा वर्तन्ते इति सायुषस्तदन्येऽनायुप - सिद्धा, एवं सेन्द्रिया -संसारिण, अनिन्द्रिया -सिद्धादय , Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ठागांग सूत्र सवेदका --स्त्रीवेदाा दयवन्न . अवेदका सिट्टाढय सहम्पण - मूर्त्या वर्तन्त इति ममामान्ते इन्प्रत्यये मति मा.पिरण सम्धानवर्णादिमन्तः मशरीरा इत्ययं न पिणो अरूपिणी-मुना मपुद्गला कर्मादिपुर लवन्तो जीवा ययुगला -मिट्ठा समार भवं समापन्नका ---याश्रिता सपारसमापन्नका -ससारिण , तदितरे मिट्ठा शाश्वता -मिट्ठा जन्ममरणादिरहितत्वान, अशाश्वता --ससारिणस्ता तत्वादिति ॥ एव जीवतत्त्वम्य द्विपदावतार निम्प्याजवतत्त्वस्य ते निरुपयन्नाहमनम् - योगामा चेव, नो अगासा चेत्र । धम्मे चेव अधम्मे चेव ॥ (सूत्र ५८) बधे चेव. मोक्खे चेव १ पुन्ने चव पापे चर ॥२॥ पासवें चेव मवरे चेव ॥३॥ चे यणा चेव निजरा चेव ।। ४ ।। (मत्र ५६) ~श्री धानाइ मृतधान : ॥ टीका-प्राकाश व्योम नोग्राफाश-नदन्य द्वाग्निवायादि, धर्म - धर्मास्तिकायो गत्युपष्ट भगुण तदन्योऽधर्म-अधाग्नि. काय स्थिन्युपष्टम्भरण । मविपक्षर धादिनन्य मृगाणि चारि प्रायदिति । मूलम् -मत्त मलनया ५० त०-नेगमे मगहे पहारे उज्जुमुते मरद, ममभिदं एवंभूने । --भीमानाग नाचान , दश: । । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद ४० - 7 91 एवं चास्य प्रयोग – अत्यात्मादिवस्तु, पूर्वाध्ययनप्ररूपितत्वात्, यच्चारित 'लोके' पचास्तिकायात्मके लोक्यते— प्रमीयत इति लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपे वा तत् 'सर्व' निरवशेषं द्वयो पदयोत्थानयो पतयोर्विस्तिद्विपर्ययक्ष एयोरवतारो यस्य तत् द्विपारमिति, 'दुपडोयार' ति क्वचित् पठ्यते, तत्र द्वो प्रत्यवतारो यस्य तत् द्विप्रत्यवंत रमिति, स्वरूपवत् प्रतिपक्षवच्चेत्यर्थ, 'तद्यथे' त्युदाहरणोपन्यासे, जीवच्चेव श्रजीव - च्चेत्ति, " जीवाश्चैवाजीवाश्चैव प्राकृतत्वात् सयुक्तपरत्वेन ह्रस्व, चकारौ समुच्चयार्थी, एवकाराववधारणे, तेन च राश्यन्तरापोह - माह, नो जीवाख्य रशियन्तरमस्तीति चेत्, नैवम्, सर्वनिषेधकत्वे नोशन्दस्य नोजीवशब्देनाजीव एव प्रतीयते, देशनिषेधकत्वे तु जीवदेश एव प्रतीयते; न च देशो देशिनोऽत्यन्तव्यतिरिक्त इति जीव एवासाविति, 'चेय' इति वा एवकारार्थ 'चिय चय एवार्थ ' इति वचनात् ततश्च जीवा एवेति विवक्षितवस्तु अजीवा एवेति च तत्प्रतिपक्षं इति, एवं सर्वत्र, अथवा 'यदस्ति अस्तीति यत् सन्मानं यदित्यर्थ तद् द्विपदावतारं - द्विविधं, जीवाजीवभेदादिति, शेषं तथैव । अथ त्रसेत्यादिकया नवसूत्र्या जीवतत्त्वस्यैव । भेदान् सप्रतिपक्षानुपदर्शयति---' तसे चेवे' त्यादि, तत्र नाम कर्मोदयस्त्रम्यन्तीति सा द्वीन्द्रियादय स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठतीत्येवशीला स्थावरा - पृथिव्यादय, सह योन्याउत्पत्तिस्थानेन सयोनिका - ससारिणस्तद्विपर्यासभूत अयोनिका - सिद्धा, सहायुपा वर्तन्ते इति सायुषस्तदन्येऽनायुप सिद्धा, एव सेन्द्रिया - ससारिण, अनिन्द्रिया - सिद्धादय, " THERE ARE RE - - Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 श्री ठाणांग सूत्र सवेदका - स्त्री वेदाद्युदयवन्त, अवेदका सिद्धादय, सहरूपेणमूर्त्या वर्तन्त इति समासान्ते इन्प्रत्यये सति सरूपिण संस्थानवर्णादिमन्त सशरीरा इत्यर्थ न रूपिणो अरूपिणो - मुक्ता समुद्रला कर्मादिपुदलवन्तो जीवा पपुला सिद्धा संसारं भव समापन्नका - आश्रिता संसारसमापन्नका -- संसारिण, तदितरे सिद्धा शाश्वता - सिद्धा जन्ममरणादिरहितत्वात्, अशाश्वता - संसारिणस्तद्युक्तत्वादिति ॥ एवं जीवतत्त्वस्य द्विपदावतार निरूप्याजीवतत्त्वस्य ते निरूपयन्नाह - सूजम्- गासा चेव, नो अगासा चैव धम्मे चेव अधम्मे चेव || (सूत्र ५८ ) बधे चैत्र, मोक्खे चेव १ पुन्ने चैव पापे चैव ॥ २ ॥ आसवे चेव संवरे चैव ॥ ३ ॥ चेयणा चेव निज्जरा चेव || ४ || (सूत्र ५६ ) - श्री स्थानाङ्ग सूत्र स्थान २ उद्देश १ || टीका - आकाश व्योम नोआकाश - तदन्यद्वर्मास्तिकायादि, धर्म - धर्मास्तिकायो गत्युपष्टम्भगुण तदन्योऽधर्म-अधर्मास्तिकाय स्थित्युपष्टम्भगुण । सविपक्षवन्धादितत्त्व सूत्राणि चत्वारि प्राग्वदिति । - ४१ - मूलम् - सत्त मूलनया प० त० - नेगमे सौंगहे चवहारे उज्जुसुते सद्द े समभिरू एवंभूते - श्री स्थानाग सूत्र स्थान ७, उद्देश ३, सूत्र ५५२ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनागमों मे स्याद्वाद टीका-‘सत्त मूले त्यादि, मूलभूता नया मूलनया , ते च सप्त उत्तरनया हि सप्तशतानि, यदाह-"एक्केको य सय वेहो सत्तनयसया हवति एवं तु । अन्नोऽवि य आरसो पंचेव सया नयाण तु ॥१॥" [एकैक शतविध. एवं सप्तनयशतानि भवन्ति अन्योऽपि चादेशो नयानां पचव शतानि ॥१॥] तथा-'जावइया वयणपहा तावइया चेव हुति नयवाया । जावइया नयवाया तावइया चेव परसमय ॥२॥" त्ति, [यावन्तो वचनपन्थान 'तावन्तश्चैव भवन्ति नयवादा. यावन्तो नयवादास्तावन्तश्चैव परसमया इति ॥१॥] तत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्येकधर्मसमर्थनप्रवणो बोधविशेषो नय इति, तत्र ‘णेगमे' त्ति नैकर्मानैर्महासत्तासामान्यविशेषविशेषज्ञानैमिमीते मिनोति वा नैकम., आह च-“णेगाई माणाई' सामन्नोभयविसेसनाणाई । जं तेहिं मिणइ तो णेगमो यो रोगमाणोत्ति ॥१॥" [नैकानि मानानि सामान्योभयविरोपज्ञानानि यतैर्मिनोति ततो नैगमो नयो नैकमान इति ॥१] इति निगमेषु वा-अर्थवोधेषु कुशलो भवो वा नैगम , अथवा नैके गमा.-पन्थानो यस्य स नैकगमः, आह च-'लोगत्थनिवोहा वा निगमा तेसु कुसलो भवो वाऽयं । अहवा ज णेगगमो णेगपहा णेगमो तेणं ॥ १॥” इति ॥ [लोकार्थनिबोधा वा निगमास्तेपु कुशलो भवो वाऽयं । अथवा यत नैकगमोऽनेकपथो नैगमस्तेन ॥ १ ॥] तत्रायं सर्वत्र सदित्येवमनुगताकाराववोधहेतुभूता महासत्तामिच्छति अनुवृत्तव्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च सामान्य Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ठाणांग सूत्र विशेष द्रव्यत्वादि व्यावृत्ताववोधहेतुभूतं च नित्यद्रव्यवृत्तिमन्त्यं विशेषमिति, आह–इत्थं ता य नैगम सम्यग्दृष्टिरेवास्तु सामान्यविशेषाभ्युपगमपरत्वात साधुवदिति, नैतदेवं, सामान्यविशेषवस्तूनामत्यन्तभेदाभ्युपगमपरत्वात्तस्येति, आह च भाष्यकार --"ज सामन्नविसेसे परोप्पर वत्थुओ य सो भिन्ने। मन्नइ अच्चतमओ मिच्छादिट्ठी कणादोव्व ॥ १॥ दोहिवि नएहिं नीय सस्थमलएण तहवि मिच्छत्त । जं सविसयपहाणतणेण अन्नोन्ननिरवेक्खा ॥२॥" इति [यत्परस्पर वस्तुनश्च सामान्यविशेषौ भिन्नो अत्यन्त मनुतेऽतो मिथ्यादृष्टि कणाद इव ॥ १॥ उलूकेन शास्त्रं द्वाभ्यां नयाभ्यां नीतमपि मिथ्यात्व यत्स्वविषयप्रधानत्वेनान्योऽन्यनिरपेक्षौ (अङ्गीकृतौ) ॥२॥] इति १, तथा संग्रहण भेदाना संगृह्णाति वा भेदान सगृह्यन्ते वा भेदा येन स सग्रह , उक्तञ्च - 'सगहण संगण्हइ सगिज्झते व तेण ज भेया । तो सगहोत्ति"[सग्रहण सगृह्णाति संगृह्यते वा तेन यस्माद्भदास्तत स्ग्रह ॥] एतदुक्त भवति-सामान्यप्रतिपादनपर. खल्पय सदित्युक्त सामान्यमेव प्रतिपद्यते न विरोप, तथा च मन्यते-विशेषा. सामान्यतोऽर्थान्तरभूता. स्युरनन्तरभूता वा ?, यद्यर्थान्तरभूता न सन्ति ते, सामान्यादर्थान्तरत्वात खपुष्पवत्, अथानान्तरभूता सामान्यमात्र ते, तदव्यतिरिक्तत्वात् , तत्स्वरूपवदिति, आह च--"सदिति भणियमि जम्हा सव्वत्थाणुप्पवत्तए बुद्धी । तो सव्वं तम्मत्त नत्थि तदत्यंतरं किंचि ॥ १ ॥ कुम्भो भावाऽणना जइ तो भावो अहऽन्नहाऽभावो । एवं पडादशोऽविहु भावाऽनन्नत्ति तम्मत्त ॥२॥” इति, [सदिति भणिते यस्मात्सर्वत्रानुप्रवर्तते बुद्धि. तत' सर्व तन्मात्र नास्ति Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनागमों में स्याद्वाद तदर्थान्तरं किंचित् ॥ १॥ कुम्भो भावादनन्यो यदि ततो भावोऽथान्यथाऽभाव एवं पटादयोऽपि भावादनन्या इति तन्मात्रं (सर्व) । २॥ इति २. तथा व्यवहरणं व्यवहरतीति वा व्यवह्रियते वा-अपलप्यते सामान्यमनेन विशेषान् वाऽऽश्रित्य व्यवहारपरो व्यवहार आह च-'ववहरण ववहरए स तेण ववहीरए व सामन्नं । ववहारपरो य जो विसे पो तेण ववहारो ॥ १॥" इति, [व्यवहरण व्यवहरति व्यपहरति वा सामान्य व्यवहारपरो यतश्च विशेषतनेन व्यवहार ॥ १॥] अय हि विशेषप्रतिपादनपर सदित्युक्त विशेषानेव घटादीन् प्रतिपद्यते, तेषामेव व्यवहारहेतुत्वात् , न तदतिरिक्त सामान्य, तस्य व्यवहारापेतत्वात् , तथा च-सामान्य विशेषेभ्यो भिन्न भिन्न वा स्यान् ?, यदि भिन्न विशेषव्यतिरेकेणोपलभ्येत , न चोपलभ्यते, अयाभिन्न विशेषमात्रं ततदव्यातरिक्त वात्त स्वरूपवदिति आह च- 'उवलंभववहाराभावाप्रो त(नि)व्विसेसभावाओ । तं नत्यि खपुप्फमिव सन्ति विसेसा सनचव ॥ १॥" इति, [उपलम्भव्यवहाराभावात्तद्वि. (निर्वि)शेपभावात् तन्नास्ति खपुष्पमित्र विशेपा. सन्ति म्बप्रत्यक्षं ॥ १ ॥] तथा लोकसंव्यवहारपरो व्यवहार , तथाहिअसो पञ्चवर्णेऽपि भ्रमरादिवस्तुनि बहुतरत्वात कृष्णत्वमेव मन्यते, श्राह च-"बहुतरप्रोत्तिय तं चिय गमेइ सतेवि सेसए मुयइ । संववहारपरतया ववहारो लोगमिच्छन्तो ।।१।।" [सव्यवहारपरतया लोकमिन्छन व्यवहारो बहुतरत्वादेव तं गमयति सतोऽपि Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ठाणांग सूत्र शेषकान्मुञ्चत्येव ॥ १ ॥] इति ३, तथा ऋजु - वक्रविपर्ययादभिमुखं श्रुत ज्ञान यस्यासौ ऋजुभुन, ऋजु वा वर्त्तमानमतीतानागतवक्रपरित्यागाद्वस्तु सूत्रयति - गमयतीति ऋजुसूत्र, उक्तं च-" उज्जु रिउ सुय नारणमुज्जु सुयमम्स सोऽयमुज्जुसु । सुत्तयइ वा जमुज्जु ं वत्थु तेगुज्जुपुत्तोत्ति ॥ १ ॥" [ ऋतु - प्रवक्र श्रुतं - ज्ञान ऋजुश्रुतमस्य सोऽयमृजुश्रुत सूत्रयति वा यदृजु वस्तु तेन ऋजुसूत्र इति ॥ १ ॥ |] य हि वर्त्तमान निजक लिंगवचननामादिभिन्नमप्येक वस्तु प्रतिपद्यते, शेषमवस्त्विति, तथाहिअतीत मेन्यद्वा न भावो, विनष्टानुत्पन्नत्वाददृश्यत्वात्ख नुष्पवत्, तथा परकीयमध्यवस्तु निष्फलत्वात् खकुसुपवत्, तस्माद्वर्तमानं स्व वस्तु, तच्च न लिङ्गादिभिन्नमपि स्वरूपमुन्झति, लिङ्गभिन्न तटस्टी तटमिति वचनभिन्न नापो जजं नामादिभिन्न नामस्थापनाद्रव्यभावभिन्न, आह् च - " तम्हा निजग रुपयकालीय लिंगवयरणभिन्नपि । नामादिभेयविहिय पडिवज्जइ वत्थुमुज्जुहुय ॥ १ ॥" त्ति [तस्मान्निजक साम्प्रतकालीन लिंगवचनन्निमपि नामादिभेदवदपि प्रतिपद्यते ऋजुसूत्रो वस्तु ॥ १ ॥] इति ४, तथा शान शपति वा असो शप्यते वा तेन वस्त्विति शब्दस्तस्यार्थ परिग्रहादभेदोपचारान्नयोऽपि शब्द एव, यथा कृतकत्वादिलक्षण हेत्वर्थ हेतुरेवोच्यत इति, प्रतिपादकं पद “सवणं सवइ स तेण व सप्पए वत्थु जं तो Sत्थपरि व सदोत्ति हेतुव्व ॥ १ ॥” आह च ४५ - सद्दो | तस्सइति [ शपनं Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद श.प ते स तेन वा शप्यते वरतु यत्तत शब्द । तस्यार्थयरिग्रहात् नयोऽपि शब्द इति हेतुरिव हेत्वर्थप्रतिपादक ॥ १॥] अयं च नामस्थापनाद्रव्यकुम्भा न सन्त्येवेति मन्यते, तत्कार्याकरणात खपुष्पवत , न च भिन्नलिंगवचनमेकं, लिंगवचनभेदादेव, स्त्रीपुरुषवत कटा वृक्ष इन्यादिवत , अतो घट कुट कुम्भ इति स्वपर्यायध्वनिवाच्यमेकमेवेति, आह च-"तं चिय रिउसुत्त मय पच्पन्नं विसेसियतरं सो। इन्छइ भाव वडं चिय जं न उ नामादो तिन्नि ॥ १॥" [तदेव ऋजुसूत्रमतं प्रत्युत्पन्नं विशेषिततर स इच्छति भावघटमेव (मनुते) नैव नामादीस्त्रीन यत ॥१॥] इति ५, तथा नानार्थेपु.नानासंज्ञासमभिरोहणात समभिरुढ , उक्त च-“जज सन्न भासइ तं त चिय समभिरोहए जम्हा। सन्न तरत्थविमुहो तो क(न)ओ समभिरूढोत्ति ॥ १॥" [यां या संज्ञा भाषते तां तां समभिरोहत्येव यस्मात सज्ञान्तरार्थविमुखस्ततो नय समभिरूढ इति ॥ १ ॥] अय हि मन्यते-घटकुटादय शन्दा भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वाद्भिन्नार्थगोचरा, घटपटादिशन्दवत , तथा ) च घटनात् घटो वि शष्टचेटावानर्थो घट इति, तथा 'कुट कौटिल्ये कुट नान् कुट , कौटिल्ययोग्यात् कुट इति, घटोऽन्य कुटोऽप्यन्य। ग्वेति ६, तथा यथा गब्दार्थ एवं पदार्थो भून समित्यर्थोऽन्यथाभृतोऽसन्नितिप्रतिपत्तिपर एवं जूतो नय , आह च-एव जहसदत्यो म तो भयो । तयऽलहाऽभयो । तेणेषभूयन प्रो सदस्थपरो Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ठाणाग सूत्र विसेसेण ॥१॥" इति, [एव यथाशब्दाथ स्तथा भूत सन्नन्यथाऽभूत तत (असन् ) तेनैवभूतन्य विशेषेण शब्दार्थ पर ॥१] अय हि योषिन्मस्तकव्यवस्थित चेष्टावन्तमेवार्थ घटशब्दवाच्य मन्यते, न स्थानभरणादिक्रियान्तरापन्नमिति, भवन्ति चात्र श्लोका ---"शुद्ध द्रव्य समाश्रित्य, संग्रहस्तद्। शुद्धित । नैगमव्यवहारौ स्त , शेषा पर्यायमाश्रिता ॥ १ ॥ अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्यमेवेति, मन्यते नैगमो नय ॥ २ ॥ सद्रपतानतिक्रान्तस्वस्वभावमिद जगत् । सत्तारूपतया सर्व सगृह्णन् सग्रहो मत ॥ ३ ॥ व्यवहारस्तु तामेव, प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वात् ,व्यवहार यति देहिन. ॥ ४ ॥ तत्र सूत्रनीति स्यात् , शुद्धपर्यायसंस्थिरता । नश्वरस्यैव भावस्य, भावात स्थितिषियोगत ॥ ५॥ अतीतानागताकारकालसस्पर्शवर्जितम् । वर्तमानतया सबमृजुसूत्रेण सूत्र्यते ॥६॥ विरोधिलिङ्गसख्यादिभेदाद्भिस्त्रिभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं, शब्द प्रत्यवतिष्ठते ॥ ७॥ तथाविधस्य तस्यापि, वस्तुन. . क्षणवृत्तिन ब्रूते समभिडस्तु, सज्ञाभेदेन भिन्नताम् ॥ ८ ॥ एकस्यापि ध्वनेर्वाच्य, सदा तन्नोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वादेवभूतोऽभिमन्यते ॥ ६ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र मूलम्-रायगिहे नगरे समोसरणं, परिसा निग्गयो जाव एवं वयामी--जीवे णं भन्ते ! सयंकडं दुक्खं वेदेइ १, गोयम ! अत्थेगइय वेएइ अत्येगइयं नो वेएइ, से केण हुण भते । एवं वुच्चय--अत्थेगइय वेदेइ अत्थेगइयं नो वेएइ ?, गोयमा ! उदिन्न · चेएइ अनुदिन्न नो वएइ, से तेणहणं एवं वुच्चइ अत्थेगइय वेएइ अत्थेगतिय नो वेएइ, एवं चउव्वीसदडएण जीव वेमाणिए ॥ जीवा णं भंते । सयकडं दुक्ख वेएन्ति ?, गोयमा ! अत्यंगइयं यति अत्थे ाइय णो वेयंति, से केणणं?, गोयमा! उदिन्नं वेयन्ति नो अणुदिन्नं वेयन्ति,से तेणहणं,एवं जाव वेमाणिया II जीव णं भंते ! सयंव ड आउय एइ ? गोयमा ! अत्थेगइय वेएइ अत्थेगइय नो वेएइ जहा दुक्खेण दो दंडगा तहा आउएणवि दो दंडगा एगत्तपुहुत्तिया, एगत्तेणं जाव वेमाणिया पुहुत्ते णवि तहेव !! _श्री भगवती सूत्र शतक १, उहेश २, सूत्र २० ।। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भावती सूत्र टीका--'रायगिहे' इत्यादि पूर्ववत् , 'जीवे ण' मित्यादिन्तत्र 'सयकडं दुक्ख'ति यत्परकृतं तन्न वेदयतीति प्रतीतमेवात स्वयकृतमिति पृच्छति स्म 'दुक्खंति सासारिक सुखमपि वस्तुतो दु खमिति दुखहेतुत्वाद् 'दु ख' कर्म वेदयतीति. काकुपाठान् प्रश्न, निर्वचनं तु यदुदीर्णं तद्वेदयति, अनुदीर्णस्य हि कर्मणो वेदनमेव नास्ति तस्मादुदीर्ण वेदयति, नानुदीर्णं, न च बन्धानन्तरमेवोदेति अतोऽवश्य वेद्यमप्येक न वेदयति इत्येवं व्यरदिश्यते, अवश्य वेद्यमेव च कर्म “कडाण कम्माण ण मोक्खो अत्थि" इति वचनादिति । एवं 'जाव वेमागिए' इत्यनेन चतुविंशतिदण्डक' सूचित , स चैवम् ---'नेरइए णं भन्ते ! सयंकड' मित्यादि । एवमेकत्वेन दण्डक , तथा बहुत्वेनान्य , स चैवम्'जीवा णं भत्ते ! सयकड दुक्खं वेदती'त्यादि तथा 'नेरइयाणं मते ! सयकडं दुक्ख'मित्यादि, नन्वेकार्थे योऽर्षे वहुत्वेऽपि स एवेति किं बहुत्वप्रश्नेन ? इति, अत्रोच्यते, कचिद्वस्तुनि एकत्ववहुत्वयोरर्थविशेषो दृष्टो यथा सम्यकत्वादेः एक जीवमाश्रित्य षट्षष्टिसागरोपमणि साधिकानि स्थितिकाल उक्तो नानाजीवानाश्रित्य पुन सर्वाद्धा इति, एवमत्रापि सभवेदिति शङ्कायां बहुत्वप्रश्नो न दुष्ट अव्युत्पन्नमतिशिष्यव्युत्पादनार्थत्वावति ॥ अथायु प्रधानत्वान्नारकादिव्यपदेशस्यायुराश्रित्य दण्डकद्वयम्एतस्य चेयं वृद्धोक्तभावना~यदा सप्तमक्षितावायुद्धं पुनश्च Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद कालान्तरे परिणामविशेषात्तृतीयधरणीप्रायोग्य निर्वतितं वासुदेवेनेव तत्तादृशमङ्गीकृत्योच्यते-पूर्वबद्ध कश्चिन्न वेदयति, अनुदीर्णत्वात्तम्य, यदा पुनर्यत्रैव बद तत्रैवोत्परते तदा वेदयतीत्युच्यते, तथैव तस्योदितत्वादिति ।। मूलम्-से नूणं भते ! अस्थित्त अत्थित्त परिणमइ नत्थितं नत्थित्ते परिण मइ ?, हता गोयमा । जाव परिणमइ ।। जए भंते । अत्थित्त अत्थित्त परिणमइ नत्थिर नत्थित्त परिणमइ तं कि पयोगसा वीससा ?, गोयमा । पयोगसावि तं, बीससावि तं । जहा ते मंते ! अत्थित्त अत्थित्त परिणमइ तहा ते नत्थितं नत्थित्ते परिणमइ ? जहा ते नत्थितं नत्थित्ते परिणमइ, तहा ते अत्थितं अत्थिो परिणमइ १, हंता गोयमा ! जहा मे अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ तहो मे नत्थिचे नत्थित्त परिणमइ, जहा मे नत्थितं नत्थिचे परिणमइ तहा मे अत्थित्त अस्थित्त परिणमइ ॥ से 'हाणं मंते ! अत्थितं अत्थिते गमणिज्ज १, जहा परिणमइ दो आलावगा तहा ते इह गमणिज्जेण वि दो पालावगा माणियव्या जाव जहा मे अत्थितं अत्थिते गमणिज्ज ।। -व्याख्या प्र० शत० १, उ० ३ सूत्र ३२ ।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र दीका-'से गुणमित्यादि 'अस्थित्तं अत्थित्ते परिणमई' त्ति, अस्तित्व----अगुल्यादे अङ्ग ल्यादिभावेन सत्त्वम् , उक्तञ्च–“सर्वमस्ति स्वरूपेण, पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वभावानामेकत्वं सम्प्रसज्यते ॥ १॥" तच्चेह ऋजुत्वादिपर्यायरूपमवसेयम् , अङ्ग ल्यादिद्रव्यास्तित्वस्य कथञ्चिदृजुत्यादिपर्यायाव्यतिरिक्तत्वात् अस्तित्वे-अङ्ग ल्यादेरेवांगुल्यादिभावेन - सत्त्वे वक्रत्वादिपर्याय इत्यर्थ 'परिणमति' तथा भवति, इदमुक्त भवति-द्रव्यस्य प्रकारान्तरेण सत्ता प्रकारान्तरसत्तायां वर्त्तते यथा मृद्रव्यस्य पिएडप्रकारेण सन्ना घटप्रकारसत्तायामिति । 'नत्थिा नत्थित्ते परिणमइ'त्ति नास्तित्वं-अ गुल्यादेरंगुष्ठादिभावेनासत्त्व तच्चांगुष्ठ दिभाव एव, ततश्चागुल्यादेर्नास्तित्वमगुष्ठाद्यस्तित्वरूपमगुल्यादेर्नास्तित्वे अंगुष्ठादे पर्यायान्तरेणास्तित्वरूपे परिणमनि, यथा मृढो नास्तित्वं तन्त्वादिरूप मृन्नास्तित्वरूपे पटे इति, अयवाऽस्तित्वमिति-धर्मधर्मिणोरभेदात् सद्वस्तु अस्तित्वेसत्त्वे परिणमति, तत्सदेव भवति, नात्यन्तं विनाशि स्याद् विनाशम्य पर्यायान्तरगमनमात्ररूपत्वात् , दीपादिविनाशस्यापि तमिस्रादिरूपतया परिणामात तथा 'नास्तित्वं' अत्यन्ताभावरूपं यत् खरविपाणदि तत् 'नास्तित्वे' अत्यन्ताभाव एव वर्तते, नात्यन्तमसत सत्वमस्ति, खरविषाणस्येवेति, उक्त च-"नासतौ जायते भावो, नाभावो जायते सत ।” अथवाऽस्तित्वमिति Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद धर्मभेदात सद् 'अस्तित्वे' सत्त्वे वर्त्तते, यथा पट पटत्व एव, नास्तित्वं चासत् 'नास्तित्वे वर्त्तते, यथा अपटोऽपटत्व एवेति ।। अथ परिणामहेतुदर्शनायाह -'ज णमित्यादि अस्थित्तं अस्थित्ते परिणमइ' त्ति पर्याय पर्यायान्तरतां यातीत्यर्थ 'नस्थित नत्थित्ते परिणमई' त्ति वस्त्वन्तरस्य पर्यायस्तत्पर्यायान्तरतां यातीत्यर्थ , 'पोगस' ति सकारस्यागमिकत्वात 'प्रयोगेण' जोवव्यापारेण 'वीसस' ति यद्यपि लोके विश्रसाशब्दो जरापर्यायतया रूढस्तथाऽपीह स्वभावार्थो दृश्य , इह प्राकृतत्वाद् 'वीससाए'त्ति वाच्ये 'वीससा' इत्युक्तमिति, अत्रोत्तरम्-'पयोगसावि तंति, यथ शुभ्राभ्रमशुभ्राभ्रतया, नास्तित्वस्यापि नास्तित्वपरिणामे प्रयोगविश्रसयोरेतान्येवोदाहरणानि, वस्त्वन्तरापेक्षया मृत्पिण्डादेस्तित्वस्य नास्तित्वात् , सत्सदेव स्यादिति व्याख्यानान्तरेऽप्येतान्येवोदाहरणानि पूर्वोत्तरावस्थयो सद्रूपत्वादिति, यदपि -'अभावोऽभाव एवं स्याद्' इति व्याख्यात तत्रापि प्रयोगेणापि तथा विरसयाऽपि अभावोऽभाव एव स्यात् न प्रयोगादे साफल्यमिति व्याख्येयमिति ॥ अथोक्तहेत्वोरुभयत्र समता भगवदभिमतता च दर्शयन्नाह-'जहा ते' इत्यादि, 'यथा' प्रयोगविश्रसाभ्यामित्यर्थ. 'ते' इति तव मतेन अथवा सामान्येनास्तित्वपरिणाम प्रयोग वप्रसाजन्य उक्त सामान्यश्च विधि क्वचिदतिशयवति वस्तुन्यन्यथाऽपि स्याद् अतिशयवाश्च भगवानिति तमाश्रित्य परिणामान्यथात्वमाशंकमान आह-'जहा ते' इत्यादि 'ते' इति तव Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र सम्बन्धि अस्तित्व, शेष तथैवेति ॥ अथोक्तस्वरूपस्यैवास्य सत्यत्वेन प्रज्ञापनीयतां दर्शयितुमाह-से गुण मित्यादि, अस्तित्वमस्तित्वे गमनीय सद्वस्तु सत्यत्वेनैव प्रज्ञापनीयमित्यर्थ , 'दो आलावग' त्ति' से णणं भते । अत्थित्त अत्यित्ते गमणिज्ज'मित्यादि 'पोगसा वि तं वीससावि त' इत्येतदन्त एक , परिणामभेदाभिधानात्, 'जहा ते संते । अत्थित्त अस्थित्ते गमणिज्ज'मित्यादि 'तहा मे अत्यित्त अत्थित्ते गमणिज्ज'मित्येतदन्तस्तु द्वितीयोऽस्तित्वनास्तित्वपरिणामयो समताऽभिधायीति ।। मूलम् - जीवे णं भन्ते गन्भं वक्कममाणे किं सइंदिए वक्कमइ अणिदिए वक्कमइ ? गोयमा । सिय सइदिए वक्कमइ, सिय अणिदिए वक्कमइ, से केणहणं० ?, गीय मा। दव्विदियाई पडुच्च अणिदिए वक्कमइ, भाविदियाइ पडुच्च सइदिए वक्कमइ, से तेणहणं० । जीवे ण भन्ते । गम्भ वक्कममाणे किं ममरीरी वक्कमह असरीरी वक्कमइ गोयमा। सिय ससरीरी व० सिय असरीरी वक्कमइ, से केण?ण ? गोयमा ! अोरालियवेउव्वियाहारयाइ पडुच्च असरीरी व० तेयाकम्मा० ५० सस० वक्क० से तेणणं गोयमा ।। -व्याख्या प्रज्ञप्ति प्रथम शतक, उद्देश्य ७, सूत्र ६१ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद टीका-'गन्म बक्कमसाणे' ति गर्ने व्युत्क्रासन गर्भ उत्पद्यमान इत्यर्थ 'दपिदियाइ' ति निवृत्युपकरणलक्षणानि, तानि हीन्द्रियपर्याप्तौ सत्या भविष्यन्तीत्यनिन्द्रिय उत्पद्यते, 'भाविं देयाई" त लब्ध्युपयोगलक्षणानि, तानि च ससारिण' सर्वावस्थ भावीनीति। 'ससरीरित्ति सह शरीरेणेति सशरीरी इन्समासान्तभावात् , 'असरीरि'त्ति शरीरवान शरीरी, तन्निषेधादशरीरी 'वक्काइ' ति, व्युत्क्रामति - उत्पद्यत इत्यर्थ । मूलम्-पुरिसे णं मते । कच्छंमि वा १ दहसिवा २ उदगंसि वा ३ दवियसि वा ४ वलयसि वा ५ नूमंसि वा ६ गहणंमि वा ७ गहणविदुग्गसि वा ८ पव्ययंसि वाह पव्ययविदुग्गसि वा १० वर्ण सि वा ११ वणविदुग्गंसि वा १२ मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गता एए मिएत्तिकाउं अजयरस्स मिस्स वहाए कूडपास उद्दाइ, ततो श मंते ! से पुरिसे कतिकिरिए पणते ?, गायमा ! जाव च ण से पुरिसे कच्छंसि वा १२ जाच कूडपास उदाइ ताव च ण से पुरिसे सिय तिकि० लिय चउ० मिय पव० से कंणहण सिय तिमिय च सिय प०१, गायमा । जे भविए उद्दवणयाए णो वंधणयाए णो मारणयाए तावं च णं से पुरिसे काइयाए अहिगरणियाए पाउमियाए तिहिं किरियाहिं पुटठे, जे मविप उवणयाएवि बंधणयाएवि णो मार Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र 1 गयाए ताव च गं से पुरिसे काय ए हिगरणियाए पाउसियाए परिवावरियाए चउहि किरियाहिं पुट्ठ े, जे भविए उदवण्याएव बंधण्याए वि मोरया वि ताव चरण से पुरिसे काइयाए गिरशियाए पाउसियाए जाव पंचहि पुटठे से तेराटठे जाव पंच करिए, (सू० ६५ पुरिसे भते ! कच्छसि वा जाव वणविदुग्गसि वा तण इ ऊसवियं २ अगणिकाय निस्मरइ ताव च णं से भते । से पुरिसे कति किरिए १, गोयमा । मिय ति किरिए, सिय चउ कि० सिय पंच०, से केटठे ? गोयमा । जे भविए उस्मवण्याए तिहिं, उसवणयाए विनिस्सिरण्याएव नो दहण्याए चउहिं, जे भविए उस्सवण्याए वि निस्सिरणयाए वि दहणयाए वि तावं च से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुठे, से ते ० गोयमा १० || ६६ | ५५ -पुरिसे भंते, कच्छंसि वा जाव वणविदुग्गंसि वा मियवित्तीय मिएस कप्पे मिय पणिहासो मियवहाय गता एए मिएचिकाउ अन्नयरस्स मिस्स वहाय उस निसिरइ, ततो रणं भंते । से - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद परिसे कइ किरिए १, गोयमा । सिय ति किरिए, सिय चउ किरिए सिय पंच किरिए, से केणटठणं ?, गोयमा ! जे भविए निस्सिरणयाए नो विद्ध सणयाए वि नो मारणयाए तिहिं, जे भविए निस्सिरणयाए वि द्धिसणयाए वि नो मारणयाए चउहिं, जे मविए निस्सिरणयाए वि विद्धसणयाए वि मारणयाए वि तावं च ए से पुरिसे जाव पंचहि किरियाहिं पुटठे, से तेर्ण गोंयमा ! सिय ति किरिए सिय चउ किरिए मिय पंच किरिए ॥६७|| पुरिसेणं भंते ! कच्छंरि वा जाव अन्नयरस्स मियस्स वहाए अाययकन्नाययं उसु आयामेत्ता चिटिठज्जा, अन्नयरे पुरिसे मग्गो आगम्म सयपाणिणा असिणा सीसौं छिन्देज्जा से य उसु ताए चेव पुव्यायामणयाए तं विधेज्जा सेण भंते ! पुरिसे किं मियवेरेण पुढे परिसवेरेणं पुटठे १ गोयमा! जेमिय मारेइ से मियवेरेण' पुटठे, ने पुरिस' मारेइ से पुरिसवेरेण पुढे, से केणटठेण भते ! एव बुच्चइ जाव से पुरिसे वरेणं पुटठे ? से नूण गोयमा । कज्जमाणे कडे सांधिज्जमाणे संधिए निवत्तिज्जमाणे निवत्तिए निसिरिज्ज Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र नाणे निसिहति वक्तवं सिया ?, हवा भगवं कज्जमाणे कडे जाच चिसित्ति चचव्वं सिया, से तेणणं गोयमो ! जे मियं मारेइ से मियवेरेणं पुढे, जे पुरिस मारेइ से युरिसवेरेण पुढे, ।। अंतो छएहं मासाणं मरइ काइयाए जार पंचहिं किरियाहि पुटठे, वाहिं छएह मासाण मरइ काड्याए नार परियावणियाए चउहि किरियाहिं 'पुढे ॥ -श्री भगवती सूत्र, शतक प्रथम, उद्देश ८ सूत्र ६८॥ टीका-'कच्छसि पशि 'कच्छे' नदीजलपरिवेष्टिते वृक्षादिमति प्रेदेशे दहंसि वति हदे प्रतीत्वे 'उदगसि वत्ति उदकेजलाश्रयमाचे 'दवियसि वत्ति 'द्रविके' तृणादिद्व्यसमुदाये बलयंसि वत्ति वलये वृताकारनद्याद्य दककुटिलगतियुक्तपदेशे 'नूमसि वत्ति 'नूमे' अवतमसे 'गहणेसि वत्ति 'गहने' वृक्षवल्लीलतावितानवीरुत्समुदाये 'महण विदुग्गसि च'त्ति गहनविदुर्गे, पर्वतैकदेशावस्थितवृक्षवल्ल्यादिसमुदाये पव्वयसि व' त्ति पर्वते 'पव्वय विदुग्गंसि वत्ति पर्वतसमुदाये 'वणंसि वत्ति 'वने एकजातीयवृक्षसमुदाये 'वरणविदुग्गसि वत्ति नानाविधवृक्षसमूहे 'मिगविचीर'ति मृगै-हरिणैचि-जीविका यस्य स मृगवृत्तिक, स च मृगरक्षकोऽपि स्यादिति अंत आह - मियसंकप्पे'त्ति मृगेषु संकल्पो-वधाध्यवसायः छेदन कर Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद यस्यासो मृगसकल्प, स च चलचित्ततयाऽपि भवतीत्यत 'मिगवहाए" " आह - 'मियपरिहारो' त्ति मृगव वैकाग्रचित्त ति सृगवधाय 'गंत'त्ति गत्वा कच्छादाविति योग 'कूडपास' ति कूट च - मृगग्रहणकारण गर्त्तादि पाशश्च तद्बन्धनमिति बूटपाशम 'उहाइप्ति मृगवधायोद्ददाति, रचयतीत्यर्थ, 'तत्रो ' ति तत कूटपाशकरणात् 'कइकिरियत्ति कति केय १, क्रियाश्च कायिक्यादिका 'जे भविएत्ति यो भव्यो योग्य क्र्तेति यावत् 'जाव च 'स्ति शेप, यावन्त कालमित्यर्थ कया कर्त्ता इत्याह-'उदवण्याए'त्ति कूटपाशधारणताया, ताप्रत्यश्वह स्वार्थिक, 'ताव च 'ति तावन्त काल 'काइनायत्ति गमनादेकायचेष्टारुपया 'हिरण्याए'ति, निवृत्ता या सा तथा तया पाउसिनाएं'न्ति प्रद्वेषो -मगेपु दुष्टभावस्तेन निर्वृत्ता प्रापिकी तथा 'तिहि कि.रेयाहिं'ति क्रियन्त इति क्रिया - चेाविशे.पा, 'पारिताव याए ति परितापनप्रयोजना पारितापनिकी, सा च बद्ध े सति मृगे भवति प्राणातिपातक्रिया च वातिते इति १ || 'ऊविरन्ति उत्सर्प असि.क्कउपेत्यर्थ कर्वीकृत्येति वा 'निसिरइ'त्ति निसृजति -- क्षिपति यावदिति शेष २ । 'उसु 'ति वारणम् 'आययकरणायत्तं 'ति कर्ण यावदायत आकृष्ट कर्णायत आयतं प्रयत्नवद यथा भवती स्वयं कर्णायत आयत यतस्त्म 'श्रायामेत्त'त्ति 'आयम्य' अधिकरणेन–हूपाशरूपेण ५८ 1 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र आकृष्य 'मग्गओ'त्ति पृष्ठत 'सययारिगरण'त्ति 'स्वकपाणिना' स्वकहम्तेन 'पुव्यायामरणयार'त्ति पूर्वाकर्षणेन, ‘से ण भंते । पुरिसे'ति 'स' शिरच्छेता पुरुष 'मियवेरेणं'त्ति इह वैरं वैरहेतुत्वाद् वध पापं वा वैरं वैरहेतुत्वादिति, अथ शिरच्छेतृपुरुपहेतुकत्वादिपु निपातस्य कथं धनुर्द्वरपुरुषो सृगवधेन स्पृष्ट इत्याकूतवतो गौतमस्य तदभ्युपगतमेवार्थमुत्तरतया प्राहक्रियमाण धनु काण्डादि कृतमिति व्यपदिश्यते ?, युक्तिस्तु प्रागवत्, तथा सन्धीयमान-प्रत्यञ्चायामारोप्यमाण काण्डं धनुर्वाऽऽरोप्यमानप्रत्यच्च 'सन्धितं' कृतसन्धान भवति ?, तथा 'नित्यमान' नितरा दत्त लीक्रियमाण प्रत्यञ्चाकर्षणेन निवृत्तित-वृत्तीकृत मण्डलाकार कृत भवति ?, तथा निसृज्यमारणे' निक्षिप्यमाणं काण्ड निसृष्ट भवति ,यदा च निसृष्ट तदा निमृज्यमानताया धनुर्द्ध रेण कृतत्वात् तेन काण्डं निसृष्ट' भवति, काण्डनिसर्गाञ्च मृगम्तेनैव मारित', ततश्चोच्यते- 'जे मिय मारेइ' इत्यादीति ॥ ३॥ इह च क्रिया प्रक्रान्ता, ताश्चानन्तरोक्त मृगादिवधे यावत्यो यत्र कालविभागे भवन्ति तावतीस्तत्र दशयन्नाह-'अन्तो छण्ह'मित्यादि, परमासान यावत् प्रहारहेतुकं मरण परतस्तु परिणामान्तरापादितमितिकृत्वा षण्मासादूर्ध्वं प्राणातिपातक्रिया न स्यादिति हृदयम्, पतञ्च व्यवहारनयापेक्षया प्राणातिपातक्रियाव्यपदेशमात्रोपदर्शनार्थमुक्तम् , अन्यथा यदा कदाऽप्यधिकृतं प्रहार हेतुक मरणं भवति तदैव प्राणातिपातक्रिया, इति ४ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० . जैनागमों मै स्याबाट मूलम्-दो भते ! पुस्सिा सरिसया सरित्तया सरिव्यय सरिसभंडमत्तोवगरणा अनमन्नेण सद्धिं संगामं संगामेन्ति, तत्थ ण एगे पुरिसे पराइणइ एगे पुरिसे पराडज्जड, से कहमयं भते ! एव ?, गोयमा सवीरिए पराइणइ अवीरिए पराइज्जइ, से केणठेण जाव पराइज्नइ ?, गोयमा ! जस्स णं बोरियज्झाई कम्माई णो बद्धाई पुट्ठोइ जाव नो अभिममन्नागयाइ नो उदिन्नाई उवसंताई भवन्ति से णं पराइणइ, जस्स एं वीरियवज्झाई कामाई वद्धाइ जाव उदिन्नाई नो उपसंताई भवन्ति से ण पुरिसे पराइजइ से तेणटठेणं गोयमा! एवं बुच्चइ सवीरिए पराइणइ. अवीरिए पराउजइ ।। -श्री भगवती सूत्र १६७० टीका-'सरिमयति सहशको कौशलप्रमाणादिना 'सरित्यत्ति 'सदृक्त्वचौ, सदृशच्छा सरिव्वय' त्ति सहग्वयसौ समानयौवनाद्यवस्थौ 'सरिसभंडमत्तोबगरण'ति भाण्र्ड-भाजन मन्मयादि मात्रो-मात्रया युक्त उपधि म च कम्यिभाजनादिभोजनभाण्डका भाण्डमात्रा वा--गणिमादिद्रव्यरूप परिच्छेदः उपकरणानि अनेकवाऽऽवरणप्रहरणादीनि तत सहशानि भाण्डमात्रोपकरणानि ययोस्तौ तथा, अनेन च समानविभूतिकर्व Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र तयोरभिहित, 'सवीरिएत्ति सवीर्यः 'वीरियवज्झाइति वीय वध्यं येषा तानि तथा ॥ मूलम्-जीवा f भंते ! किं सवीरिया अबीरिया १, गोयमा ! सवोरियावि अवीरियावि, से केणठेण? गोयमा ! जीवा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-संसारसमावन्नगा य असंसारसमावन्नगा य, तत्थ ण जे ते असांसारममावन्नगा ते णं सिद्धा, सिद्धा ण अवीरियो, तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दुषिही पनत्ता, तंजहा--सेलेसिपडिवनगा य असेलेसिपडिवनगो य, तत्थ ण जे ते सेलेसिपडिवन्नगा ते ण लद्धिवीरिएणं सवीरिया करणवीरिएणं अवीरिया, तत्थ णं जे ते असेलेसिपडि वन्नगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया करणवीरिएण सवोरियावि अबीरियावि, से तेणठेणं गोयमा । एच वच्चइ -जीवा दुविहा पएणत्ता, तंजहासवीरियावि अवीरियावि । नेरडया णं भते ! किं सवीरिया अधीरिया ? गोयमा ! नेरइया लद्धिवीरिएणवि सवीरिया करणवीरिएण मवीरियावि अबोरियावि! से केणठेण, गोयमा ! जेसिण नेरइयाण अत्थि उट्ठाणे कम्मे वले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे ते ण नेरडया लद्धिवीरिएणवि Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैनागमों मे स्याद्वाद सपीरिया करणवीरिएणवि सीरिया, जेमि ण नेरडया ण नत्थि उटठाण जाव परक्कमे ते ण नेरझ्या लद्धिवीरिएण सवारिया करणवीरिएण अवीरिया, से तेणटठेण०, जहा नेरइया एव जाब पचिंदियतिरिकखजोणिया. मणुस्मा जहा अोहिया जीवा, नवर सिद्धवज्जा भाणियव्या, चाणमतरज इमवेमाणिया जहा नेरइयो, सेव भंते ! सेवं भंते 'त्ति ॥ __-श्री भगवती सूत्र १८।७१॥ टीका-सिद्वाण 'अवीरिय'ति सकरणवीर्याभावादवीर्या सिद्वा 'सेलेसियडिवन्नगा यत्ति शीलेश -सर्वसंवररूपचरणप्रनुस्तम्येयमवस्था, शैलेशो वा - मेरुस्तस्येव याऽवस्था स्थिरतासाधात्सा शैलेशी, सा च सर्वथा योगनिरोधे पंचहग्वाक्षरोच्चारकालमाना ता प्रतिपन्नका ये ते तथा, 'लद्धिवीरिरण सवीरिय' त्ति बीयान्तरायनयनयोपशमतो या वीयम्य लब्धि सैव तद्धतुत्याद्वीर्य लन्धिवीर्यतेन मवीर्या , एतेपा च क्षायिकमेव लब्धिवीर्य 'करणवीरिण्ण' ति लब्धिवीर्यकार्यभूता क्रिया करण तद्र पं करणवीर्यम , 'करणवीरिगण सबोरियावि अधीरियावि' त्ति तत्र मवीर्या' उत्थानादिक्रियावन्त. अवार्यास्तूत्थानादिक्रियाविकला , ते चापर्याप्त्यादिकालेऽवगन्तव्या इति । 'नवरं सिद्ववज्जा भाणियव्य त्ति, अधिकजीवेषु मिट्ठा सन्ति मनुध्येपु तु नेति, मनुष्यदण्डके बीयं प्रति सिद्वन्वरूप नाव्येयमिति ।। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सत्र मृलम् - खदयाति समण भगवं महावीरे खंदय कच्चाय० एवं वगमी--से नूण तुम खदया ! सारथीए नयरीए पिंगलए ण णियठेणं वेसालियसावरण इणमक्खेव पुच्छिए मागहा। कि सते लोए अणते लोए एव त जेणेव मम अंतिए तेणे व हव्यमागए, से नूणं खंदया । अयमठे समटठे ? हता अत्थि, जेविय ते खंदया । अयमेयारूवे अब्मथिए चिन्तिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था- - कि सते लोए अणते लोए ' तस्सविय णं अयमटठे एवं खलु मए खंदया । चउविहे लोए पन्नत्ते, तंजहा--दव्वो खेत्तो कालो भावओ। दव्यत्रो ण एगे लोए सते ?, खेतो रणं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीअो आयामविक्खंभेण, असंखेज्जायो जोयणकोडाकोडीनो परिक्खेवेण प० अत्थि पुण मअन्ते?, कालो ण ले ए ण कयावि न ग्रामी न कयावि न भवति न कयावि न भविसति मुविसु य भवति य मविस्सड य धुवे णितिए सासते अक्खए अव्वए अवटिए णिच्चे. णत्थि पुण से अन्ते ३, भावप्रो ण लोए अणता वएण पज्जवा गध० रम० Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद फासपजवा, अणंता ठाणपज्जवा अणता गरुयलहुयपज्जवा, अणता अगरुयलहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते ४, से खदगा! दव्यत्रो लोए सअन्ते खेतो लोए सअन्ते कालतो लोए अणते भावों लोए अणते । जेवि य ते खंदया ! जाव सअन्ते जीवे अणंते जीवे, तस्सवि य ण अषमठे --एव खलु जाव दव्यत्रो ण एगे जीवे सअन्ते, खेत्तत्रा ण जीवे असंखेज्जयएसिए असंखेज्जपदेसोगाढे अत्थि पुण से अन्ते,, कालो णं जीवे न कयावि न आमि जाव निच्चे नत्थि पुण से अते, भावो णं जीवे अणता णाणपज्जवा अणता दसणप० अणंता चरितप० अणंता अगुरुलहुयप० नत्थि पुण से अन्ते, सेनं दव्वयो जीवे सअन्ते खेतो जीवे सअन्ते कालो जीवे अणते, भावो जीवे अणते । जेवि य ते खदया ! पुच्छो० (इमेयारूवे चिंतिए जाव सअन्ता सिद्धि अणंता सिद्धी) तस्स वि य ण अयमढे खदया ! मए एवं खलु चउब्विहा सिद्धी पएण०, त०-दव्बो ४, दव्यत्रो ण एगा मिद्धी खेतेश्रो ण सिद्धी पणयाली जोयणसयसहस्साई आयामविक्खभेण एगा जोयणकोडी बायालीस च जोयणसयसहस्साई तीस च जोयण Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '६५ श्री भगवती सूत्र सहस्साई दोन्नि य अउणापन्नजोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेण अत्थि पुण से अन्ते, कालो गणं मिद्धी न कयावि न आसि, भावो य जहा लोयस्स तहा भाणियव्या, तत्थ दव्वो सिद्धी सअन्ता खे० सिद्धी सअन्ता का० सिद्धी अणंता मावो सिद्धी अणता । जेवि य ते खंदयो । जाव कि अणते सिद्ध तं चेव जाव दव्यत्रो णं एगे सिद्ध सअन्ते, खे० सिद्धे असंखेज्जपएसिए असंखेज्जपदेसोगाढे, अत्थि पुण से अन्ते, कालो णं मिद्धे सादीए अपज्जवमिए नत्थि पुण से अन्ते,भा० सिद्ध अणंता णाणपज्जवा, अणंता दंसणपज्जवा जाव अणता अगुरुलहुयप० नत्थि पुण से अन्ते, सेत्तं दव्यो सिद्ध सअन्ते खेत्तत्रो मिद्धे सअन्ते का० सिद्ध अणते भा० सिद्ध अणते । जेवि य ते खंदया। इमेयारूवे अमथिए चितिए जाच समुपज्जित्थाकेण चा मरणेणं मरमाणे जीवे वडढति वा हायति चा?, तस्सवि य णं अयम एवं खल खंदया ! मए दुविहे मरणे पएणचे, तंजहा-बालमरणे य पडियमरणे य. से कि त बालमरणे १, २ दुवालमविहे प०, त० वलयमरणे वसहमरणे अतो Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैनागमों मे स्याद्वाद सल्लमरणे नव्भवमरणे गिरिषडणे तरुपडणे जलपवेसे जलाप० विसभक्खणे सत्थोवाडणे वेहा से गिद्धपट्ट े । इच्चेतेणं खंदया ! दुवालसविणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे श्रृणं तेहिं नेरइयभवग्गहणे हिं अप्पाणं संजोएडं तिरियमणुदेव० अणाइयं च णं. वदग्गं दीनद्धं चाउरंतसंसार कतारं अणुपरियट्ट, सेत्तं सरमाणे asas २, सेत बालमरणे । से किं त पंडियमरणे १, २, दुविहे प० त०पावगमणे यच्चक्खाणे य । से किं त पावगमणे १, २ दुविहे प० त०--नीहारिमे य अनीहारिमेय नियमा अप्पडिकमे से पाचोवगमणे । से किं त भत्तपच्चक्खाणे ?, २ दुविहे प० त० - नीहारिमेय अनीहारिमे य नियमासपडिक्कमे, सेत्त भत्तपच्चकखाणे । इच्चेते खंदया ! दुविहेणं पंडियमरणेण मरमाणे जीवे तेहिं नेर यभवग्गह रोहिं अप्पाणं विसंजोर इ जाव वीईवयति, सेतं मरमार्ग हायइ, सेचं पंडियमरणे । इच्चेपण खंदया ! दुविहेण मरणेणं मरमाणे जीवे वडहूड् वा हायति वा ॥ - श्री भगवती सूत्र २२१६२॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र टीका- 'दव्वओ ण एगो लोर सअन्ते त्ति पञ्चान्तिकायमयैकाव्यत्वाल्लोकस्य सान्तोऽसो, 'यायामविक्खभण' ति आयामोदैर्ध्य विष्कम्भो-विन्तार ‘परिक्खेवेण'ति परिधिना 'भुवि यति अभवन इत्यादिभिश्च पदै पूर्वोक्तपदानामेव तात्पर्यमुक्त 'धुवे' ति ध्रुवोऽचलत्वात स चानियतरूपोऽपि स्यादत आह'णियए'त्ति नियत रकस्वरूपत्वात , नियतरूप काढाचित्कोऽपि स्थादत आह—'सामति अाह-'अक्खर त्ति अक्षयोऽविनाशित्वात अय च बहुतरप्रदेशापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह - 'अव्वर'त्ति अव्ययस्तत्प्रदेशानामव्ययत्वात , अयं च द्रव्यतयाऽपि स्यादित्याह-'अवविपत्ति अवस्थित पर्यायाणामनन्ततयाऽवस्थितत्वात , किमुक्त भवति ?- नित्य इति, वण्णापजा त्ति वर्णविरोपा एकगुणकालत्वादय., एवमन्येऽपि गुरु लघुपर्यदास्तविशेपा बादरस्कन्धानाम, अगुरुलघुपर्यवा अणूना सूक्ष्मस्कन्धानाममूर्नाना च, नाणपजबत्ति ज्ञानपर्याया ज्ञानवि रोपा बुद्विकृता वाऽविभागपारच्छेदा , अनन्ता गुरुलघुपर्याया प्रादारिकादिशरीराण्याश्रित्य, इतरे तु कार्मणादिद्रव्याणि जावस्वरूप चाश्रित्येति । जैवि' य ते सदया । पुन्छत्ति अनेन समन मिद्विप्रनसूत्रमुपलक्षणत्वाचोवारम्वाशश्च सचिन तव द्वयमप्येवम्- 'जेवि य त खंदया नगारले जार कि. मता सिद्धी तत्सवि च णं अयनहें, एवं Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनागमों मे स्याद्वाद __ खलु मए खंदया । चउविहा, सिद्धी पएणता, तजहा-दव्यश्री खेत्तो कालो भावोत्ति, दव्यत्रोण एग्गा सिद्धि'त्ति, इह. सिद्विर्यद्यपि परमार्थत. सकलकर्मक्षयरूपा सिद्धाधाराऽऽकाशदेशरूपा वा तथाऽपि सिद्धाधाराकाशदेशप्रत्यासन्नत्वेनेषत्प्राम्भारा, पृथिवी सिद्विरुक्ता, 'किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेण' ति किञ्चिनन्यूनगव्यूतद्वयाधिके द्व' योजनशते एकोनपञ्चाशदुत्तरे भवत इति । 'वलयमरणे'त्ति वलतो-बुभुक्षापरिगतोन वलवलायमानस्य-सयमाद्वा भ्रश्यतो ( यत ) मरणं तद्वलन्मरणं, तथा वशेन-इन्द्रियवशेन ऋतस्य-पीडिताय दीपकलिकारूपाक्षिप्तचक्षुप शलभस्येव यन्मरण तद यशार्तमरण, तथाऽन्त शल्यस्य दव्यतोऽनुवृततोमरादे भावत सातिचारस्य यन्मरणं तदन्त - शल्यमरणं, तथा तम्म भवाय मनुष्यादे सतो मनुष्यादावेव वद्धायुपो यन्मरणं तत्तद्भवमरणं, इह च नरतिरश्चामवेति, 'सत्योवाडणे'त्ति शस्त्रेण-सुरिकादिना अवपाटन-विदारणं देहस्य यम्मिन्मरणे तच्छन्त्रावपाटनम् , 'वेहाणत्ति विहायसि - आकाशे भवं वृक्षशाखाधु द्वन्धनेन यत्तन्निरुक्तिवशाद्वैहानस, गिद्धपत्ति गृध्र पनिविशेपेद्वा -मासलुब्धै शृगालादिभि. स्पष्टस्य यत्त अस्पृष्टं वा गृध्रर्वा भक्षितम्य-स्पृष्टस्य यत्ता भ्रम्हम् । 'दुवालस बिहेण बालमरणे ण"त्ति उपलनणत्वादन्यानपि गलमरणान्त पातिना मरणेन म्रियमाण इति 'वडढड वड्ढईत्ति Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र संसारवर्द्धनेन भृशं वर्धते जीव, भृशार्थे इति । 'पावगमणे 'त्ति अस्पन्दतयाऽवस्थानं पादपोमगमन, इदं च चतुर्विधा - हारपरिहारनिष्पन्नमेव भवतीति । 'नीहारिमेय'त्ति निर्धारेण विवृत्त यतन्निहरिम प्रतिश्रये यो म्रियते तस्यैतत, तत्कडेवरस्य निर्धारणात, अनिर्धारिस तु योsटव्यां म्रियते इति । यच्चान्यत्रेह स्थाने इगितमरणमभिधीयते तद्भक्तप्रत्याख्यानन्यैव विशेष इति नेह भेदेन दर्शितमिति । इद हि द्विर्वचनं पादपस्येवोपगमनम् - मृनम्-ग्रह मंते । श्रोदणे कुम्मासे सुरा एए ण किमरी - राति वत्तव्यं मिया १, गोयमा । श्रदणे कुम्भासे सुराए य जे घणे दव्वे एए णं पुव्वभावपकवण' पडुच्च वरणस्सजीवसरीरा तो पच्छा सत्थातीया सत्यपरिणामिश्रा श्रगणिज्भा मिश्रा श्रगणिज्भूसिया गशिसेविया श्रगणिपरिणामिया अगणिजीवमरीरा वचव्वं सिया, सुराए च जे दवं एए पुव्वभाव पन्नवण पटुच्च ब्राउजीवमरीग, तयो पच्छा सत्यातीया जाव अगणिकायमरीराति वचव्वं सिया | ग्रहन्नं भंते । ए तवे तउए सीमए उबले किसरीराड वत्तव्यं मिया १, एतं तउए मीमए उबले कसट्टिया, कमट्टिया एए गोयमा । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों से स्याद्वाद एए ण पुव्व भावपन्नवण पडुच्च पुढविजीवसरीर तो पच्छा, सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीराति वत्तव्वं सिया। अहरण भंते ! अही अहिज्झामे चम्मे चम्मज्झामे र मे २ सिंगे २ खुरे २ नखे २ एते ण किमरीराति वत्तव्यं सिया ?, गोयमा ! अट्ठी चं मे रोमे सिंगे खरे नहे एए ण तसपाणजीवसरीरा अहिज्झामे चम्मझामे रोमज्झामे सिग० खर० णहज्झामे एए ण पुयभावपण्णवण पडुच्च तसपाणजीवसरीरा तो पच्छो सत्थातीया जाव अगणिजीवत्ति वत्तव्य सिया । अह भंते ! इंगाले छारिए भुसे गोमए एस ण किंसरीरो वत्तव्वं सियो ? गोयमा । इंगाले छारिए भुसे गोमए एए ण पुव्वभावपएणवण पडुच्च एगिदियजीवमरीरम्पयोगपरिणमियावि जाव पंचिंदियजीवसरीरप्पयोगपरिणामियावि तो पच्छा सत्थातिया जाव गणिजीवसरीराति वत्तव्य सिया ॥ -श्री भगवती सूत्र ५।२।१८१ ॥ टीका-'अहे' त्यादि, ए ण' ति एतानि णमित्यलकारे _ 'किंसरीर'त्ति केपा शरीराणि किशरीराणि ? 'सुराए य जे घणे'त्ति Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र ७१ सुरायां द्व े द्रव्ये स्याता - घनद्रव्य द्रवद्रव्य च तत्र यद् घनद्रव्य 'पुव्वभावपन्न वरण पडुच्चन्ति श्रतीतपर्यायप्ररूपणामङ्गीकृत्य वनस्पतिशरीराणि, पूर्वं हि ओदनादयो वनस्पतय 'तम्रो पच्छत्ति वनस्पतिजीवशरीरवाच्यत्वानन्तरमग्निजीवशरीराणीति वक्तव्यं म्यादिति सम्बन्ध, किम्भूतानि सन्ति ? इत्याह – 'सत्यातीय'त्ति शस्त्रत्रेण —— उदूखलमुशलयन्त्रकादिना करणभूतेनातीनानि - श्रुतिक्रान्तानि पूर्व पर्यायमिति शत्त्रातीतानि 'सत्थपरिणामिय'त्ति शात्रेण परिणामितानि - कृनानि नवपर्यायाणि शम्त्रपरिणामितानि, ततश्च 'अगणिकामिय'त्ति वन्हिना ध्यामितानि - श्यामीकृतानि स्वकीयवर्णत्याजनात, तथा 'अग णिज्भूसिय'त्ति अग्निना शोषिताति पूर्वस्वभावक्षयरणात् श्रग्निना सेवितानि वा 'जुपी प्रीतिसेवनयो' इत्यस्य धातो प्रयोगात् 'अगणिपरिणामियाइ'त्ति सजानाग्निपरिणामानि उप्योगादिति, श्रथवा 'सत्यातीता' इत्यादी शस्त्रमग्निरेव 'गरिमा मिया' इत्यादि तु तद् व्याख्यानमेवेति 'ज्वन्ते'त्ति दह दग्धपापाण. 'कसट्टिय' सि क (पप), 'यहिज्यामिति श्रधि च तद्वयाम च- प्रग्निना ध्यामलीकृतम् - श्रापादितपर्यायान्तरमित्यर्थ, 'हू गाले' इत्यादि, 'प्रहार' निर्ज्वलितेन्धनम् धारिणत्ति क्षारक - भम्म, 'कुमेत्ति घुस 'गोमयत्ति हनन, दह् च वृत्त्या दग्धावस्था धन्यवाऽग्निस्यादिति । एन प्यामितादिवच्च माविशेषाणामनुपपत्ति Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम मे स्याद्वाद ,, पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्यै केन्द्रियजीवै. शरीरतया प्रयोगेणस्वव्यापारेण परिणामिता ये ते तथा एकेन्द्रियशरीराणीत्यर्थ, 'अपि समुच्चये, यावत्करणाद् द्वीन्द्रियजीवशरीर परिणामिता अपीत्यादि दृश्य, द्वीन्द्रियादिजीवशरीरपरिणतत्वं च - यथासम्भपमेव न तु सर्वपदेष्विति, तत्र पूर्वसङ्गारो भम्म चैकेन्द्रिया दशरीररूपं भवति, एकेन्द्रियादिशरीराणामिन्धनत्वात, बुसं तु यवगोधूमहरितावस्थायामेकेन्द्रियशरीरम, गोमयस्तु तृणाद्यवस्थायामेकेन्द्रियशरोरम, द्वीन्द्रियादीनां तु गवादिभिर्भक्षणे द्वीन्द्रियादिशरीरमिति ॥ ७२ मूलम् - अन्न उत्थिया ण' भते ! एवमातिक्खंति जाव परुवेति सव्वे पाणी सव्वे भूया सव्वे जीवा सच्चे सत्ता एवभूय वेद वेदेंति से कहसेय भंते! एव १, गोयमा । जरण ते अन्न उत्थिया एवमातिक्खंति जाव वेदेंति जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमासु, श्रहं पुण गोयमा ! एवमातिक्खामि जाव परूवे मित्थेगड्या पाणा भूया जीवो मत्ता एवंभूय वेद वदेत त्या पाण भूया जीवा सत्ता नेवंभूयं वेदणं वेदेति, से केाटेा अत्थेगतिया ! त चैव उच्चारेयव्वं, गोयमा ! जे पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा तहा वेद' वेदेति ते ण ं Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र ভ याणा भूया जीवा सत्ता एवभूय वेदां वर्देति, जेणं प्राणा भृया जीवा सत्ता वहा कडा कम्मा जो तहा वेदण' वेदेति ते पाणा भूया जीवा सत्ता अनेवंभूय चेंदण चेति स तेाट्ठे तव । नेरझ्या भते ! कि एवभृय वेद वेदेति अनेवभूय वेद वेदेति १, गोयमा ! नेरइया णं एवभूयं वेदण वेदेति अवभृयपि च देणं वदेति । से पट्टे तं चैव ९, गोयमा । जे गं नेरड्या जहा कडा कम्मा तहा चयेण नेरइया एवंभूय चोदणं चढेंति जे जहा कडा कम्मा यो तहा च ेदरणं चदेति ते नेरइयर, अनेवभृयं वेदणं वदेति से तेराट्ठेणं, एव जाब वेमारिया संसारमडल नेयव्व ॥ वर्देति ते पं प नेरतिया -श्री भगवती सूत्र ५२०२ ।। टीका-तत्र च 'एवंभूय वैयरणं ति यथाविधं कर्म निवद्धसेव प्रकारतयोत्पन्ना 'वेदना' मातादिकर्मोदयं 'वेदयति' अनुअवन्ति, मिथ्यात्वं चैतद्वादिनामेवं न हि यथा वद्ध तथैव म कर्मानुभूयने, 'आयु. कर्मरणे व्यभिचारान, तथाहि - दीर्घकालाशुभवनीयस्याप्यायु कर्मणोऽल्पीयमाऽपि कालेनानुभवो भवति, कथमन्यथाऽपमृत्युव्यपदेश सर्वजनप्रसिद्ध न्यात १. वयं वा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैनागमों में स्याद्वाद महासंयुगादौ जीवलक्षाणामप्येकदैव मृत्युरूपपद्य तेति ?, 'अणेवंभूयपि'त्ति यथा बद्ध कर्म नैवभूता अनेवभूता अतस्तां, श्रूयन्ते ' ह्यागमे कर्मण स्थितिविघातरसघातादय इति, एवं जाव वेमाणिया संसारमंडलं नेयव्य'त्ति 'एव' उक्तक्रमेण वैमानिकावसानं ससारिजीवचक्रवालं - नेतव्यमित्यर्थ ॥ मूलम्-जीवा णं भंते ! किं महावेयणा महानिज्जरा १ महा वेदणा अप्प निज्जरा २ अप्पवेदणा महानिज्जरा ३ अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा ४ १ गोयमा ! अत्थेगइया जीवा महावेदणा महानिज्जरा १ अत्थेगतिया जीवा महावेदणा अप्पनिज्जरा २ अत्थेगतिया जीवा अप्पवेदणा महानिज्जरा ३ अत्थेगतिया जीवा अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा ४ । से केणठणं०१, गोयमा ! पडिमापडिवन्नए अणगारे' महावदणे महानिज्जरे, छठ्ठसत्तमासु पुढवीसु नेरइया महावेदणा अप्पनिज्जरा, सेलेसिं पडिवन्नए अणगारे अप्पदणे महानिज्जरे, अपुत्तरोववाझ्या देवा अप्पवेदणा अप्पनिन्जरा, सेवं भते २ त्ति ॥ -श्री भगवती सूत्र ६।२२३शा मूलम्-वत्थस्स णं भंते । पोग्गलोवचए कि सादीए सपज्जवसिए ? सादिए अपज्जवसिते २० अणादीए Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र ७५ सपज्ज० ३ प्रणा० अपज्ज० ४ ?, गोयमा । वत्थस्म णं पोग्गलोवचए सादीए सपज्जवसिए नो सादीए अप० नो अणा०म० नो अणा० अप०॥ जहाँ रण भते । ‘वत्थस्स पोग्गलोवचए सादीए मपज्ज० नो मादीएं अप० तो अणा० सप० नो अणा० अप० तहा गं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतियाण जीवाणं कम्मोवचए सादाए सपज्जवमिए अत्थे० अणादीए सपज्जव'. मिए अत्थे० अणादीए अपञ्जवसिग नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए मादीए अप० । से केण० १, गोयमा। ईरियावहियाबंधयस्म कम्मोपचए मादीए मप० भवमिद्धियस्स कम्मोवचाए अणादीए मपज्जवमिए अभवमिद्धियम्स कम्मावचए अणादीए अपजवमिण, से तेण हरण गोयमा ! एवं :बुच्चति अत्थे० जीवाण कम्मोवचए मादीए नो चव जीवाण कम्मोवचए मादीय अपज मिए, चन्थे ग् भने । किं माढाए सपजवमिए चउभगा ?, गोयमा ! वन्ध मादीए नपज्जवमिए अबन्नेमा तिन्निवि पडिनेहेयध्या । जहा रणं भने ' बन्धे नादीए मपजवनिए नो मादीए अपन० नो अगादोए मप० नो Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद अनादी अपज्जवसिए तहाँ णं जीवाणं किं सादीया सपज्जवसिया ?, चउभंगो पुच्छा, गोयमा ! अथेतिया सादीया सपज्जवसिया चत्तारिवि भाणियन्त्रा । से केह गं० १, गोयमा ! नेरतिया तिरिक्खजोशिया मनुस्सा देवा गतिरागति पहुच्च सादीया सपज्जवसिया सिद्धि द्धा गतिं पडुच्च सादीया पज्जवसिया, भवसिद्धिया लद्धिं पहुच गादीया सपज्जवसिया अभवसिद्धिया संसार पड़चणादीया अपज्जवसिंया, से तेराह गं० ॥ - श्री भगवती सूत्र ६१२/२३५ ॥ कु टीका - सादिद्वारे 'ईरियावहियववस्ते' त्यादि, ईर्याथोगमनमार्गस्तत्रभवमैर्यापथिकं केवलयोग प्रयोगप्रत्ययं कर्मेत्यर्थः तद्वंधकस्योपशान्तमोहम्य क्षीणमोहस्य सयोगिकेच निश्च त्यर्थ ऐर्यापथिककर्मणो हि पूर्वस्य बन्धनान् सार्दित्य, अयोग्यवायां श्रेणिप्रतिपाते वाऽवन्धनात् सपर्यवसितत्वं, 'गतिरागई. पडुच्च' ति नारकादिगतौ गमनमाश्रित्य सादय श्रागमनमाश्रित्य सपर्यवसिता इत्यर्थः 'सिद्धा गई' पहुच्च साइया प्रपजवसिय त्ति, इहाक्षेप परिहारावेवम् - "सांईग्रपज्जवसिया सिद्धा न य नाम ती कालंमि । श्रसि कयाइवि सुरणा सिद्धी सिद्ध हिं सिद्धते ॥ १॥ सव साइ सरीरं न य नामादि मय देहसम्भावो । कालारणाइ 39 , Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र तो जहा व राई दियाई ॥ २ ॥ सत्रो मार्ट सिद्धो न यादिमो विजई तहा त च । सिद्धी सिद्धा सया निट्टा रोहपुच्छार ॥ ३ ॥ "त्ति, 'त चति तच्च सिद्धानादित्त्वमिष्यते. यतं 'सिद्धी सिद्धा ये'त्यादीति । 'सर्वसिहिया लहिमित्यादि, भवसिद्धिकांना भव्य वलब्धि द्विवेऽपैनीतिकृत्वाऽनादिः सपर्यवसिता चेति || मृनम्-ममणोवासगस्म भते ! पुञ्चामेव तमपणिममारमे पच्चक्खाए भवति पुढविसमारंभे श्रपचक्खाए भव से ग पुढवि खणमाणेऽरणयर तसं पाण विहिंसेज्जा से या मंते । तं चयं श्रतिचरति १, शशी तिराह े समह े, नो खलु से तमन प्रतिवायाए श्राउट्टति || ममणोवामवस्य गं भंते! पुयामेव चणम्ससमारभे पच्चक्खाए से य पुत्रवि खणमा अन्नरस्त रुक्खस्स मूल हिंदेज्जा से गं मते तवय अतिचरति, यो तियह नमटूडे, ना . खलु तरम ग्रवाय।ए आउट्टति || · ७ঙ - श्री भगवती सूत्र ॥ ६३ ॥ धनोतु टीकासे नग्न पतियावा पानमाम्य परशतयार न 'पासमारंभेमि Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ७८ जैनागमों मे स्याद्वाद सङ्कल्पवधादेव च निवृत्तोऽसौ, न चैप तस्य संपन्न इति नासावतिचरति व्रतं ॥ मूलम्-से गुणं भंते ! मव्यपाणेहि सव्वजीवेहिं सव्वसत्तेहिं पञ्चवखायमिति वदमाणस्स सुपञ्चक्खायं भवति दुपञ्चक्खायं भवति, गोयमा । जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चकवायमिति वयमाणस्स णो एव अभिसमन्नागयं भवति इमे जीवा इमे अजीवा इमे तसो इमे थावरा तस्स ण सव्वपाणेहिं जाव सचमत्तेहिं पच्चकवायमिति वदमाणस्स णो सुपञ्चक्खायौं भवति दुपच्चक्खायं भवनि एवं खल से दुपञ्चरवाई सब्चपाणे जाव मव्वसत्तेहिं पञ्चकवायमिति वदमाणो नो सच्च भासं भासइ मोस भासभामइ, एव खल से मुसावाई सव्वपाणेहि जाव सव्वसहिं तिविह तिविहेणं असंजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंबुडे एगंतदडे एगतबाले यावि भवति, जस्स णं सव्वपाणे जाव सव्वसत्तेहि पञ्चक्खायमिति वदमाणस्स एव अमिसमन्नागय भवइ-इमे जीवा इमे अजीवा इमे तसा इमे थावग तस्स णं सव्वपाणेहि जाव सब्बसनहिं पञ्चखायमिति बदमाणस्स सुपच्चक्खायं Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र भवति नो दुपच्चकवाय भवति, एवं ग्वल से सुपच्चक्खाई सव्वपाणेहि जात्र सव्वमोहिं पच्चकवायमिति वयमाणे सच्च माम मामड नो सोमं माम मामड, एव खलु से नच्चवादी सव्वपारोहि जाच सव्वमतेहि तिविह तिविहे मजयविरय पडिहयपच्चक्खाय पाचकम्मे किरिए मवुड एगंतपंडि यावि भवति, से ते देणं गोयमा ! एव बुच्चड जाव मिय दुपच्चासाय मवति ॥ ॐ - श्री भगवती सूत्र २' || टीका - `से नूण'मित्यादि, 'सिय सुपचक्याथ सिय दुपच्यवराय' इति प्रतिपाय यत्प्रथम दुष्प्रत्याख्यानत्ववर्णनं कृत तययासंख्यन्यायत्यागेन यथाऽऽसनतान्यायमकृत्येति द्रष्टव्य, atra arataय भवतित्ति 'नो नैव 'ए' इति वच्यमाण प्रारमभिसमन्वागत-वगतं स्थान, 'नो भवति 11 य मव्व नाभावेन परिपालनात् प्रत्याग्यानाभाव पागनिसर्वप्रानिदितानुमतिभेड भिन्न योनमात्यतिविरंग नविन मनोवायलचीन पनजरियाउतर दिया-नेपाल याता च पापानि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों से स्याद्वाद कर्माणि येन स तथा तत, संयतादिपदानां कर्मधार्यस्ततस्तन्निपेधात् असयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, अत एव 'सकिरिएत्ति का यक्यादिक्रियायुक्त सकर्मबन्धनो वाऽत एव 'असंवुडे ति असंवृताश्रबद्वार अत एव 'एगंत इंडे 'त्ति एकान्तेन – सर्वथैव परान् दण्डयतीत्येकान्तदण्ड, अत एव 'एकान्तवाल' सर्वथा बालिशोऽज्ञ इत्यर्थं ॥ मूलम् -जीवाणं भंते ? किं सासया असासया ? गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय सासया । से केठेणं भंते ! एव वुच्चइ - जीवा सिय सासया सिय असासया १, गोयमा ! दव्वट्ट्याए सासया भावटूट्टयाए सासया, से तेणट्ठणं गोयमा ! एवं बच्चइ - जाव सिय सासया । नेरइया णं भंते ! किं सासया साया ?, एवं नहा जीवा तहा नेरइयावि, एवं जाव वेमाथिया जाव सिय सासया सिय सासया । सेव भते ! सेव भते ! || - श्री भगवती सूत्र ||७|२|२७४|| टीका- 'वट्टयाए 'ति जीवद्रव्यत्वेनेत्यर्थ' 'भावट्टयाए 'त्ति नारकादिपर्यायत्वेनेत्यर्थ ॥ मूलम् - नेरड्या णं भते ! किं सासया असासया ?, गोयमा ! मिय सासया सिय सासया, से केणट्टा भंते ! Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र -- एवं बुचड़ नेरहया मिय सागवा, मिय अमागया?. गोयमा । ग्रनोच्छित्तिणवट्ट्याए मागया वोच्छि तिणवठवाए असामया, से तेराट्ठे जाव सिय माया सिय माया, एव जाव वैमाणिया जाव सिय सासया । येवं मते । सेवं भंते त्ति || -श्री भगवती सूत्र ||अन् टीका वन्हिचियापत्ति श्रव्यवच्छित्तिवाना नयोऽव्यवच्छित्तिनयस्नम्यार्थी द्रव्यमव्यवन्द्रित्तिनयास्तव भावस्तत्ता तयाऽव्यवन्द्रिचिनयार्थ तया-द्रव्यमाश्रित्य शावना इत्यTM 'वोच्छिनिगाह या त्ति व्यवस्थित्तिप्रधानो यो नयस्तस्य योऽर्थ - पर्यायल तणस्तस्य यो भाव मा व्यवचिनयाता तया २ पर्यायानाश्रित्य प्रशाधना नारका इति ॥ ↑ - 1 गांवमा । मृनम् - जीवेशं भने कि पांगली पोग्गले जीवे पोग्गलीचि पोग्गलेन से केप मंते ! एवं युच्चर जीवे पोग्गलीवि पोग्गलेवि ? गोयमा । से जहा नामए ने छत्तीटें दंडी घडेग घटी पटें पडी करे की एवामेव गोवमा । जीवनि मोहटियन विवदियवादिय जिन्निडियफामिडियाद पाच पोग्गली. जीव पड़ोगले नेप गोरमा एवं उपजी पोवीर पोले । O , Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर जैनागमों में स्याद्वाद नेरइए णं भंते ! किं पोग्गली०१, एवं चेव, एव जाव वेमाणिया नवरं जस्स, जइ इंदियाई, तस्स तइवि भाणियव्वाई । सिद्ध णं भते ! किं पोग्गली पोग्गले ?, गोयमा ! नो पोग्गली पोग्गले, से केणहेणं भंते ' एवं वुच्चइ जाव पोग्गले १, गोयमा ! जीवं पडुच्च, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ सिद्ध नो पोग्गली पोग्गले । सेवं भंते ! सेवं भंते ति ॥ -श्री भगवती सूत्र दा२।३६१ ।। टीका-'पोग्गलीवित्ति पुद्गला -श्रोत्रादिरूपा विद्यन्ते। यस्यासौ पुद्गली, 'पुग्गलेवित्ति पुद्गल इति सज्ञा जीवस्य । ततस्तद्योगात पुद्गल इति । एतदेव दर्शयन्नाह ‘से केणढण' मित्यादि । मृलम्-तए ण से जमाली अणगारे अन्नया कयावि तामो रोगायंकाो विप्पमुक्के हट्ट तु जाए अरोए वलियसरीरे सावत्थीओ नयरीत्रो कोहयाओ चेहयारो पडिनिक्खमइ २ पुवाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे जेणेव चंपानयरी जेणेव पुन्नभद्दे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेच उवागच्छइ २ समणस्स मगवो महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं मगवं महावीरं एवं वयासी Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती मृत्र जहा णं देवाणुप्पियाणं बहवे अनेवामी ममणा निग्गंथा छउमत्या भवेत्ता छउमन्यावक्मणण प्रवक्ता णो खलु ग्रह नहीं छउमन्ये मवित्ता छउमत्थावकामणेण अवमिए अहन्न उप्पन्नणारणदनणधरे अरहा जिगे केवली भविता केवलिअवस्कमणणं अवक्कमिए, तए णं भगवं गोयमे जमालि अणगार एवं वयामी-एो खल जमाली ?, कंवलिम्स णाणे वा दंगणे वा सेलमि वा थमंसि वाभामि वा आवग्ज्जिड वा णिवाग्जिट वा, जट ण तुम जमाली। उपन्नणाणदंगणधर अरहा जिर्ग केवली भविचा केवलि प्रवक्कमणेग्ण अवक्कने तो णं इमाई दा वागरणाई वागरेहि-मामाए लोए जमाली । अगामा लोए जमानी . मामा जीव जमाली। श्रमामय जीवे जमाली :. त से जमाली 'अणगारे भगवया गोधमण एवं जनमा संकिए करिवाए जाब कन मनमायन्ने जाए याति होत्या. गणो चापनि भगवत्री गोयमम्म किंचिति पमोक्षमार विपना तुमिए चिटटट जमानानि ममणे भगवं महावीरे उमालि गाय वयानी - सन्धि रण जमाली मन यह संदेवानी माता Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैनागमों मे स्याद्वाद निग्गंथा छउमत्था जे णं एयं वागरणं वागरित्.ए, जहाणं अहं, नो चेव ण एयप्पगारं भासं भासितए जहा णं तुमं; सासए लोए जमाली ! जन्न कयावि णासि ण कयावि ण भवति ण कदावि ण भविस्सइ भुवि च भवइ य भविस्सइ य धुवे णितिए सासए अक्खए अव्वए अवटिठए णिच्चे, असासए लोए जमाली ! जत्रो अोसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ उस्सप्पिणी भविचा ओसप्पिणी भवइ, सासए जीवे जमाली ! ज न कयाइ णासि जाव णिच्चे असासए जीवे जमाली जन्न नेरइए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवइ तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ मणुस्से भवित्ता देवे भवइ ।। -श्री भगवती सूत्र ६।३३।३८७ ।। टीका- न कयाइ नासी'त्यादि तत्र न कदाचिन्नासीदनादित्वात न कदाचिन्न भविध्यति अपर्यवसितत्वात् , किं तर्हि १, 'भविं चेत्यादि ततश्चाय त्रिकालभावित्वेनाचलत्वादेव शाश्वत प्रतिक्षणमप्यसत्त्वम्याभावात शाश्वतत्वादेव 'अक्षयः' निर्विनाश , अक्षयत्वादेवाव्यय प्रदेशापेक्षया, नित्यम्तदुभयापेक्षया, एकार्था वैते शब्दा ॥ मृलम्-मुत्राचं मते ! साहू, जागरियत्त साहू ? जयंती ! Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवनी मृत उत्थेगटयाणं जीवाणं सुनन माह अन्धेगतियारण जीवारा जागग्विन माह से कंगण मने ! एवं युच्चड अत्धेगव्याण जाच माह १, जयंती । जे इमे जीवा अहम्मिया यहम्माणुया अहम्मिटा अहम्म खाई ग्रहम्मपलोई अहम्मपत्नजमाणा ग्रहम्म समुदायारा हम्मेणं चेव विनि कप्पमागा विहर्गनि पानि ण जीवाण सुत्तन माह, एए ण जीवा मुत्ता नमागा नो बहाणं पागभूय जीवन नाणं दव खगया मायणयाए जाच पग्यिावण्याप वट्टनि. पण जीवा सुत्ता नमाणो सप्पाणं या परं वा तदुभयं या नी बहहिं अहम्मियाहि माजोयणादि मंजोग लागे भवंति, एपनि जीवारगं मुत्तन माह जयती। जटमे जाया धम्मिया धम्माणुया जाय धम्मेणं चर पिनि कापमाणा विहरनि एमिग जीवाग जागाग्य माह पए ण जीचा जाग नमागा वगं पाया जाव मचाण मरणयाए नाव अपरियायनियाए यह नि. ने गंजीचा जागग्गामा शप्पा परं या नद व वा हि धम्मियात पाहिं गंडाएनागे नि. पा र कोदा जागामाला धम्मजागस्थिर पर डागरमागे पति, Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद निग्गंथा छउमत्था जे णं एयं वागरणं वागरि,ए, जहा णं अहं, नो चेव णं एयप्पगारं भासं भासित्तए जहा णं तुमं; सासए लोए जमाली ! जन्न कयावि णासि ण कयावि ण भवति ण कदावि ण भविस्सइ भुवि च भवइ य भविस्सइ य धुवे णितिए सासए अक्खए अव्वए अवटिठए णिच्चे, असासए लोए जमाली ! जो प्रोसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ उस्सप्पिणी भविता ओसप्पिणी भवइ, सासए जीवे जमाली । ज न कयाइ णासि जाव णिच्चे असासए जीवे जमाली जन्नं नेरइए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवइ तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ मणुस्से भवित्ता देवे भवइ ।। -श्री भगवती सत्र ६।३३३३८७ ।। टीका- न कयाइ नासीत्यादि तत्र न कदाचिन्नासीदनादित्वात् न कदाचिन्न भविष्यति अपर्यवसितत्वात् , किं तर्हि १, 'भविं चेत्यादि ततश्चायं त्रिकालभावित्वेनाचलत्वादेव शाबत प्रतिक्षणमप्यसत्त्वम्याभावात शाश्वतत्वादेव 'अक्षयः' निर्विनाश , अक्षयत्वादेवाव्यय प्रदेशापेक्षया, नित्यस्तदुभयापेक्षया, कार्था वैते शब्दा ॥ मूलम्-मुत्त भते । साहू, जागरियत्तं साहू ? जयंती ! Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तच साहू अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्त साहू, से केण?ण भंते ! एवं बुच्चइ अत्थेगइयाण जाच साहू ?, जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया अहम्माणुया अहम्मिट्ठा अहम्मक्खाई अहम्मपलोई अहम्मपलजमाणा अहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति एएसि ण जीवाण सुत्तत्तं साहू, एए ण जीचा सुत्ता समाणा नो बहूणं पाणभूयजीवसत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाच परियावणयाए वदति, एए णं जीवा सुत्ता समाणो अप्पाणं वा परं चा तदुभयं वा नो बहूहिं अहम्मियाहिं सांजोयणाहिं संजोएत्तारों भचंति, एएसि जीवाणं सुत्तत्त साहू, जयंती। जे इमे जीवा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चैव वित्ति कप्पेमाणा विहरति एएसिणं जीवाणं जागरियत्तं साह, एए णं जीवा नागरा समाणा बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए जाव अपरियाचणियाए वट्ट ति, ते णं जीवा जागरमाणा अप्पाणं वा परं वा तदु:य वा बहुहिं धम्मियोहिं संजोयणाहिं संजोएतारो भवति, एए णं जीवा जागरमाणा धम्मजोगरियोए अप्पाण जागरइचारो भवंति. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जैनागमों मे स्याद्वाद एएसि ण जीवाण जागरियां साहू, से तेराट्ठे जयंती | एव वच्च अत्थे गइया जीवाण सुत्ततं त्या जीवाण जागग्यित्तं साहू || बलि - यत्त भते ! साहू दुब्बत्तियत्त साहू १, जयती ! अत्थेगइयो जीवाण बलियत्तं साहू अत्थेगइयाण जीवा दुब्बलियत साहू, से केह ेण भंते! एवं बुच्चइ जाव साहू, जयती । जे इमे जीवा अहम्मिया जाव विहरति एएमि णं जीवाण दुब्बलियत साहू, एए गं जीवा एवं जहा सुत्तस्स तहा दुव्वलियम्स वचव्या भाणियव्वा, वलियम्स जहा जागरस्स तहा भाणियव्वं जाव संजोएत्तारो भवंति, एएसि णं जीवाण बलियतं साहू, से तेणट्टेण जयति ! एव वुच्चइ तं चैव साहू || दत्त भते ! साह आलसियत्तं साहू ?, जयती ! श्रत्थेगनियाणं जीवा दक्खत्त साहू अत्थेगतियाां जीवाणं आलसियत साहू, से केणटणं भते ! एव बुच्च तं चैव जाव साहू ?, जयती ! जे इमे जीवा ग्रहम्मिया जाव विहरति एएसि णं जीवाणं आमियत साहू, एए एां जीवा बालसा समाणा नो बहूणं जहा मुत्ता ग्रालसा मोशियव्या, जहा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ श्री भगवती सूत्र जागरा तहा दक्खा भाणियच्या जाव संजोएत्तारो मवति, एए णं जीवा दक्खा समाणा वहूहिं पायरियवेयावच्चेहिं जाव उवज्झाय० थेर० तवस्सि० गिलाणवेया० सेहवे० कुलवेया० गणवेया० संघवेया० सोहम्मिययावच्चेहिं अत्ताण संजोएत्तारो भवंति, एएसि ण जीवाण दक्वत्तं साहू, से तेणटठेण तं चेव जाव सोहू ॥ -श्री भगवती सूत्र १२।२।४४३॥ टीका-तत्र च ‘सुत्तत्त'त्ति निद्रावशत्वं 'जागरियत्त'त्ति जागरण जागर सोऽस्यास्तीति जागरिकस्तद्भावो जागरिकत्वम् 'अहम्मिय'त्ति धर्मेण-श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकास्तन्निपेधादधामिका , चुत एतदेवमित्यत अाह-'अहग्माणुया' धर्मश्रुतरूपमनुगच्छन्तीति धर्मानुगास्तन्निषेधादधर्मानुगा, कुत. एतदेवमित्यत आह --'अहम्मिट्ठा' धर्म -श्रुतरूप एवेष्टो-वल्लभ पूजितो वा येषां ते धर्मेष्टा धर्मिणां वेष्टा अतिशयेन वा धर्मिणो धर्मिष्ठास्तन्निषेधादधमिठा अधर्मीष्टा अधम्मिष्ठा वा, अत एव 'अहम्मक्वाई' न धर्ममाख्यान्तीत्येवशीला 'अधर्माख्यायिन अथवा न धर्मात ख्यातिर्येपा ते अधर्मख्यातय , 'अहम्मपलोइ' ति न धर्ममुपादेयतया प्रलोकयन्ति ये तेऽधर्मप्रलोकिन , अहमम्मपलज्जण'त्ति न धर्मे प्ररप्यते-श्रासजन्ति ये तेऽधर्म Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद प्ररञ्जना, एवच ‘अहम्मसमुदाचार'त्ति न धर्मरूप – चारनिात्मकः समुदाचार - समाचार सप्रमोदो वाऽऽचारो येषां ते तथा, अत एव 'अहम्मेण चेवेत्यादि, 'अधर्मेण' चारित्रश्रुतविरुद्धरूपेण 'वृत्ति' जीविकां 'कल्पयन्त ' कुर्वारणा इति ॥ अनन्तरं सुप्तजाग्रतां साधुत्वं प्ररूपितम अथ दुर्बलादीनां तथैव तदेव प्ररूपयन् सूत्रद्वयमाह – 'बलियत्तं 'ति बलमस्यास्तीति वलिकस्तद. - भावो बलिकत्व 'दुच्चलियत्तं ति, दुष्ट वलमस्यास्तीति दुर्बलकस्तद्भावो दुर्बलिकत्वं ॥ मूलम् - नेरइयाणं मंते ! कतिवन्ना जाव कतिफासा पत्र 1, गोयमा ! वेडन्वियतेयाई पडुच्च पंचवन्ना पंचरसा दुग्गंधा अटूट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुच्च पचवन्ना पंचरसा दुगंधा चउफासा पण्णत्ता, जीवं पडुच अवन्ना जाव अफासा परणचा, एवं जाव थणिय०, पुढविकाइयपुच्छा, गोयमा ! ओरालियतेय गाई पञ्च पचवन्नी जाव फासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुच्च जहा नेर०, जीवं पडुच्च तहेव एवं जाव चउरिंदि०, नवरं वउिक्काड्या ओरा० वेउ० तेयगाई पच्च पंचवन्ना जाव अहफासा परणचा, सेसं जहा नेरइयाण, पंचिदियतिरिक्खजोगिया जहा बाउक्काइयो, मणुस्माणं पुच्छा ओरालियवेउच्चिय == ܢ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र आहारगतेयगाइ पडुच्च पचवन्ना जाव अट्टफासा पण्णता, कम्मगं जीवं च पडुच्च जहा नेर०, वाणमतरजोइसियवेमाणिया जहा नेर०, धम्मत्थिकाए जाव पोग्गल० एए सव्वे अवन्ना, नवरं पोग्ग० पंचवन्ने पंचरसे दुगंधे अट्ठफाये पण्णते, णाणावरणिज्जे जाव अंतराइए एयाणि चउफासाणि, कण्हलेसा णं भंते ! कइवन्ना० १, पुच्छा दव्वलेसं पडुच्च पचवन्ना जाव अट्ठफासा पण्णचा, भावलेसं पडुच्च अवन्ना ४, एवं जाव सुक्कलेसा, सम्मद्दिदिठ ३ चक्खुद्द मणे ४ आभिणिवोहियणाणे जाव विभंगणाणे आहारसन्ना जाव परिग्गहमन्ना एयाणि कम्मगसरीरे चउफासे, मणजोगे वयजोगे य चउफासे, कायजोगे अट्ठफासे, सागारोवोगे य अणागारोवांगे य अवन्ना। सव्वदव्या णं भते । कतिवन्ना , पुच्छा, गोयमा । अत्थेगतिया सव्वदव्या पचवन्ना जाव अठ्ठफामा पण्णत्ता अत्थेगतिया सव्वदव्या पंचवन्ना चउफासा पराण । अत्थेगतियों सव्वदव्या एगगंधा एगवण्णा एगरसा दुफासा पन्नत्ता अत्थेगतिया सव्वदव्या अवन्ना जाव अफासा पन्नत्ता, एवं Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमा मे स्याद्वाद सव्वपएसावि सव्वपजवावि, तीयद्धा अवन्नो जाव अफासा पण्णत्ता, एव अणागयद्धावि, एवं मव्यद्धावि ।। -श्री भगवती सूत्र १२।५५४५०।। टीका-'वेउब्धियतेयाइ पडुच्चति वैक्रियतैजसशरीरे हि बादरपरिणामपुद्गलरूपे ततो बादरत्वात्तयोनारकाणामष्टस्पर्शत्व, 'कम्मग पडुच्च'त्ति कार्मण हि मूक्ष्मपरिणामपुद्गलरूपमतश्चतु स्पर्श, ते च शीतोष्णस्निग्धरक्षा धम्मित्यिकार, इह यावत्करणादेवं दृश्यम - 'अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए पोग्गलस्थिकाए श्रावलिया मुहुत्ते'इत्यादि, 'दबलेस पडुच्च'त्ति इह द्रव्यलेश्यावर्ण भावलेस पडुच्च भावलेश्या-आन्तर परिणाम , इह च कृष्णलेश्यादीनि परिग्रहसज्ञाऽवसानानि अवर्णादीनि जीवपरिणामत्वात , औदारिकादीनि चत्वारि शरीराणि पंचवर्णादिविशेपणाणि अष्टस्पर्शानि च बादरपरिणामपुद्गलरूपन्चात सर्वत्र च चतु स्पर्शत्वे सूक्ष्मपरिणाम कारणं अपम्पशत्वे च वाढरपरिणाम कारणं वांच्यमिति, 'सव्वदव्य'त्ति मद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि 'अत्थेगइयो सम्बदवा पंचवन्ने' त्यादि वादरपुद्गलद्रव्याणि प्रतीत्योक्त, सर्वव्याणा म-ये कानिचित्पञ्चत्रणांडोनीति भावार्थः 'चउफासा' इनच पुनद्रव्याएयेत्र सम्माणि प्रतोत्योक्त 'पागधे'त्यादि च प मागवादिदव्याणि प्रतीत्योक्त, यहाह परमाणुद्रव्यमाश्रित्य"कारण व तदन्त्य सूमो नित्यश्च भवति परमणु । एकरसवर्णगन्धो हिन्पर्श कार्यलिङ्गश्च ।।१॥ इति, म्पर्शद्वय च सूक्ष्मसम्बन्धिनां Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ श्री भगवती सूत्र चतुर्णा स्पर्शानामन्यतरदविरुद्ध भवति, तथाहि-स्निग्धोःणलक्षण स्निग्धशीतलक्षणं वा रूक्षशीतल्लक्षण रूक्षो णलक्षण वेति 'अवरणे' त्यादि च धर्मास्तिकायादिद्रव्याण्याश्रित्योक्त,द्रव्याश्रितत्वात्प्रदेशपर्यवाणां द्रव्यसूत्रानन्तरं तत्सूत्र, तत्र व प्रदेशा-द्रव्यस्य निर्विभागा अशा पर्यवास्तु धर्मा ते चैवकरणादेव वाच्या --'सव्वपएसा ण भंते । कइवण्णा ? पुच्छा, गोयमा । अत्थेगइया सव्वपएसा पचवन्ना जाव अट्ठफासा'इत्यादि । एव च पर्यवसूत्रमपि, इह च मूर्त्तद्रव्याणा प्रदेशा पर्यवाश्च मूर्त्तद्रव्यवत् पञ्चवर्णादय अमूर्त्तद्रव्याणा चामूर्त्तद्रव्यवदवर्णाढय इति । अतीताद्धादित्रय चामूर्त्तत्वादवर्णादिकम् ।। मूलम्-आयो भंते ! रयणप्पभापुढवी अन्ना रयणप्पभा पुढवी ? गोयमा । रयणप्पभा सिय अोया सिय नो अाया सिय अवत्तव्य आयाति य नो आयाइ य, से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ रयणप्पभापुढवी सिय आया सिय नो आया, सिय अवत्तव्यं प्रातातिय नो आतातिय ?, गोयमा । अप्पणो आदिठे आया, परस्स श्रादिठे नो पाया तदुभयस्स आदिठे अवत्तव्यं, रयणप्पभा पुढवी आयातिय नो आयातिय, से तेणठेण तं चैव जाव नो श्रीयातिय । आया भते । सक्करप्पभा पुढवी जहा रयणप्पभा Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद पुढवी तहा सक्करप्पभाएदि एवं जाव अहे सत्तमा । श्राया भंते ! सोहम्मकप्पे पुच्छा, गोयमा ! सोहम्मे कप्पे सिय आया सिय नो पाया जोव नो आयाति य, से केणटठेणं भंते ! जाच नो छायातिय ?, गोयमा ! अप्पणो आइटठे आया परस्स आइट्टे नो आया तदुभयस्स आइटठे अवत्तव्यं प्राताति य नो प्राताति य, से तेणठेणं तं चेव जाव नो आयाति य, एवं जाव अच्चुए कप्पे । प्राया भते ! गेविजविमाणे अन्ने गविज्जविमाणे एवं जहा रयणप्पभा तहेव, एवं अणुत्तरविमाणावि, एवं ईसिपमाराचि । आया भंते ! परमाणुपोग्गले अन्ने परमाणुपोग्गले ? एवं जहा सोहम्मे कप्पे तहा परमाणुपोग्गलेवि भाणियब्वे ।। आया भंते ! दुपएसिए खंधे अन्ने दुपएसिए खंधे ?, गोयमा! दुपएसिए खंधे सिय आया १ सिय नो पाया २ सिय अव्यत्तव्यं आयाइ य नो आयातिय ३ सिय पाया य नो आया य ४ सिय आया य अवत्तव्यं श्रआयाति य नो आयाति य ५ सिय नो आया य अवत्तचं श्रायाति य नो यायाति य ६, से केणट्टेणं मंते ! एवं तं चेव जाव नो आयाति य अवतचं आयाति Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र य न। आयाति य गोयमा । अप्पणो आदिट्टै आया १ परस्य आदिटठे नो आया २ तदुमय स्स आदिट ठे अवत्त व दुपए सिए खंध अयातिय नो आयाति य ३ देसे आदिठे सभापज्जव देसे आदिठे असभावपज्जवे दुप्पए सिए खंधे आया य नो आया य ४ देसे आदिठे सम्भावपज्जवे देसे आदिठे तदुभयपज्जवे दपएसिए खधे आया य अवत्तव्य आयाइ य नो आयाइ य ५ देसे आदिठे असभाचपज्जवे देसे आदिट्टे तदुभयपज्जवे दुपएमिए खंधे नो आया य अवतव्य ओयाति य नो प्रायोति य ६ से तेणठेण तं चेव जाच नो आयाति य॥ प्राया मंते । तिपमिए खधे अन्ने तिपएसिए खधे ?, गोयमा । तिपए लिए खये सिय प्राया १ सिय नो आया २ सिय अवत्तव्य आयाति य नो आयोति य ३ मिय आया य नो पाया य ४ सिय पायो य ना पायाश्रो य ५ मिय आयाउ य नो आया य ६ सिय आया य अवत्तव्य अायाति य नो आयाति य ७ सिय आयाडय अवतव्याई आयायो य नो भागयो य = मिय आयायो य अवत्तव्यं प्रायाति य नो पायाति यह मिय नो शाया य अवयं प्रायाति य नो अायाति य १० Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैनागमो मे स्याद्वाद सिय आया य अवतव्वाई आयात्रो य नो आयामो य १५ सिय नो अायाश्रा य अवतव्य आयाइ य नो आयाइ य १२ मिय आया य ना आया य अवत्तव्य आयाइ य ना आयाइ य १३ स केणणं भंते ! एव वुच्चइ तिपए सिए खंधे सिय आया एव चेव उच्चारेयव्वं जाव मिय आया य नो आयो य श्रवत्तव्वं आयाति य नो आयाति य?, गोयमा । अप्पणो आइ आया १ परस्प्त आइ नो आया २ तदुभयस्स प्राइडे अवत्तव्यं आयाति य नो अायाति य ३ देसे अाइठे सब्भावपजवे देसे पाइढे अममा वपज्जवे तिपएसिए खधे आया य नो आय। य ४ देसे वाटठे समावपज्जवे देसा आइटठा असमाव पज्जचे तिपएसिए खधे आया य नो आयो य ५ देसा आइटठा समावपज्जवे देसे आदिट्टे असमाव पज्जवे तिपएसिए खधे अ.यायो य ना आया य ६ देसे आदिटे सम्मावपज्जवे देसे आदिटटे तदुभयपज्जवे निपए सिए वंधे आया य अब त्तव्य आयाइ य न अ याड य ७ देसे यादिटटे यभावपज्जवे देसा ग्रादिटठा तदुभयपउजवा तिषण मिए वे पाया य अवतव्याड Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भगवनी सत्र यायाउ य नी पायाउ य ८ मा अदिटठा समावपज्जवा देसे ग्रादिटें नदुमय पज्जवे तिपए मिए ख पायार य अवक्तव्य आयाति य नो अायोति यह एा तिन्नि मंगा, दसे आदिटठे अरमावपज्जवे देगे आदिट्टे तदुभयपज्जव तिपएसिए खंधे ना पाया य अवनव्व आयाड य नो पायाति य १० दसे अादिठे असमावपज्जवे देगा आदिट्टा तदुभयपन्जवा तिपए मिए खधे नो आया य अवतन्याइ आयाउ य नो अायाउ य ११ देसा अादिटठा अममा वपज्जवा देसे अादिठे तदुभयपजवे तिपए रिए सांधे नो अायाउ य अवतव्य यायाति य ना आयाति य १२ दसे श्रादिट्टे यभावपज्ज्वे देसे आविटं असमाव पज्जव से आदिटटे तदुभयज्जवे तिपएमिए खाध याया य नो पाया य अवत्तव्य अायाति य तो आयाइ य १३ से तेणटठेणं गोचमा ! एवं युचइ तिपए लिए ग्वामिय आया त चव जाव न' अायाति य ।। आया भने ! चउपानिए राधे अन्ने० पुन्छा. गोयमा ! चउप्पाएमिए रबंधे गिव आया १ मिय नो प्राता २ पिर अवत्तव्यं यानि य नो अायाति Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद य ३ सिय आया य नो आया य ४ सिय आया य अवतव्य ४ सिय नो आयो य अवतन्यं ४ सिय आया य नो आया य अवत्तव्यं आयाति य आयाति य १६ सिय आग्रा य नो आया य अवतव्वाइं आयाओ य नो आयाओ य १७ सिय आया य नो आयायो य अवत्तव्य आयाति य नो आयाति य १८ सिय आयाओ य नो पाया य अवतव्यं आयाति य नो अायाति य १६ । रो केणहे णं भते । एवं वुच्चइ चउप्पउसिए खंधे सिय आया य ना आया य अवत्तव्वं तं चेव अह पडि. उच्चारेयव्यं १ गोयमा ! अप्पणो आदिटठे आया १ परस्स आदिढे नो पाया २ तदु मयस्स आदिटठे अवत्तव्यं श्रीयाति य नो अायाति य ३ देसे आदिटठे सम्भावपज्जवे देसे आदिठे असम्भाव। पज्जवे च उभंगो, देसे आदिट्टे सब्भावपज्जवे देसे आदिढे असभावपञ्जवे देसे आदिटठे तदुमयपज्जव चउप्पएसिए खधे आया य नो आया य अवनव्यं अायाति य नो आयाति य, देसे दिळे मभावपज्जवे देसे आदिठे असभा वपज्जवे देमा यादिटठा तदुमयपज्जवा चउपमिए खंधे भवइ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सत्र ६७ आया य नो आया य अवत्तव्इ आयाओ य नो आयात्रो य १७ देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देमा आदिट्ठा असभावपज्जवा देसे आदिटें तदुमयपज्जवे चउप्पएसिए खांधे आया य नो आयामो य अवत्तव्यं श्रआयाति य नो आयाति य १८ देसा आइटठा समावपज्जवा देसे अोइठे असम्भवप० देसे प्राइ तदुभयपज्जवे चउप्पएमिए खधे अायायो य नो आया य अवत्तव्यं आयाति य नो श्रायाति य १६ से तेणट्टेणं गायमां। एच बुचड चउप्पएसिए खंधे मिय आया मिय नो आया मिय अवतन्वं निवखेव ते चेव भंगा उच्चारेयच्या जाव नो अायाति य ॥ आया भते ! पंचपएमिए खंधे अन्ने पंचपएमिए खंधे', गोयगा । पंचपएमिए खंधे सिय अायो १ मिय नो अाया २ मिय अवत्तव्य आयाति य नो आयानि य ३ मिय अाया य नो पाया य मिय अनव ४ नो पाया य अवत्तव्येण य ४ तियगमंजोगे एक्को ण पडड. से केणटटेणं भते । तं व परि उच्चारकच्च. गोयमा ! अप्पणो अादिटं आया । परम्म ग्रादिटटे नो अाया २ तदुभयम्प अादिटटे अव Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद तव ३ देसे दिठे सम्भावपज्जवे देसे यदिटठे असन्भावपज्जर्व एव दुयगसंजोगे सव्वळे पडंति तियगसंजोगे एकोण पडड् । छप्पएसियस्स सव्व पडति जहा छप्परसिए एवं जाव तपए सिए । सेव' भंते ! सेव भत्तेत्ति जाव विहरति ॥ - श्री भगवती सूत्र १२|१०|४६६ ॥ | टीका आत्माधिकाराद्रत्नप्रभादिभावानात्मत्वादिभावेन चि - न्तयन्नाह - ' श्राया ते " इत्यादि, अतति - सतत गच्छति तांस्तान् पर्यायानित्यात्मा ततञ्चात्मा - सद्रूपा रत्नप्रभा पृथिवी 'अन्न'त्ति अनात्मा सद्रूपेत्यर्थं 'सिय ाया सिय नो आयत्ति स्यात्सती स्यावसती 'सिय अवत्तव्य'ति श्रात्मत्वेनानात्मत्वेन च व्यपदेष्टमशक्य वम्विति भाव, कथमवक्तव्यम् ? इत्याह- आत्मेति चनो आत्मेति च वक्तुमशक्यमित्यर्थ, 'आपणो श्राइट्ठोत्ति आत्मन म्वम्य रत्नप्रभाया एव वर्णादिपर्यायै 'आदि' हद देशे सति तैर्व्यपदिष्टा सतीत्यर्थ आत्मा भवति, स्वपर्यायपेक्षया सतीत्यर्थ', 'परम्म आइ नो श्रायत्ति परस्य शर्करादिप्रथि - व्यन्तरस्य पर्यायैरादिष्टे - देशे सति तैर्व्यपदिष्टा सतीत्यर्थ, नोव्यात्मा – अनात्मा भवति, परम्णपेक्षयाऽमतीत्यर्थ' ' ' तदुभयम्ल या यवक्तव्य'ति तयो स्वपरयोरुभय तदेव वोभय तदुभयं तम पर्याय दिष्टो - देशे सति तदुभयपर्यायैर्यपदेष्टेत्यर्थ -- Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र ६८ 'अवक्तव्यम' यवाच्य वस्तु स्यात्, तथाहि-न हानी श्रात्मति वक्तु शक्या, पर पर्यायापेक्षयाऽनात्मत्वात्तस्या, नाप्यनात्मति वक्तु शक्या, खपर्यायापेक्षया तस्था श्रात्मत्वादिति श्रव्यक्तव्यत्व चात्मानात्मशब्दापेचयैव नतु सर्वथा, यवक्तव्यशब्देनेव तस्या श्रनभिलाप्यभावानामपि भावपदार्थ व तुप्रभृ उत्त्यमानत्वाद ू सफलम्फ , 'न्या तिशब्दैरनभिलाप्यशन्देन वाऽभिलाप्यत्वादिति । एव परमारगुखत्रमपि ॥ द्विदेशिकसूत्रे पड्भङ्गा, तत्राद्यास्त्रय न्धापेक्षा पूर्वोक्ता एव तदन्ये तु त्रयो देशापेक्षा तत्र च गोयम त्यत श्रारभ्य व्याख्यायते - पण ति स्वम्य पर्या दिट्ठे 'ति श्रादिष्टं - श्रादेशे सति श्रादिष्ठ इत्यर्थ हिन्दशिकव श्रात्मा भवति १ एव परस्य पर्याय राहिनामा २ तनयस्यहिप्रदेशिकस्त्वदन्या मन्धलचणम्य पर्याय रादिवतव्य वस्तु स्यान, कथम ?, श्रात्मनि चानात्मति चेति गया द्विप्रदेशत्त्वात्तस्य देश एक श्रादिष्ट, सद्भावप्रधाना - सानुगता पर्यवा यस्मिनस सद्भावपर्यव अथवा तृतीयाबहुवचनमिदम स्वपर्यवैरित्य, द्वितीयस्तु देश, सद्भाव परपर्याचैरित्यर्थ परपर्यवतीयद्वितीययन्तो वस्वन्तग्नाच विनोदेति तचासीन्नति नो चेति तथा तस्य देश सिरपावसाचा चेतिशे 1 v Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनागमों मे स्याद्वाद ऽसद्भावपर्यवो देशस्तूभयपर्यवस्ततोऽसौ नो आत्मा चावक्तव्यं च म्यादिति ६, सप्तम पुनरात्मा च नो आत्मा चावक्तव्यं चेत्येवंरूपो न भवति द्विप्रदेशिके द्वय शत्वादस्य त्रिप्रदेशिकादौ तु स्यादिति सप्तभङ्गी ॥ त्रिप्रदेशिकस्कन्धे तु त्रयोदशभङ्गास्तत्र पूर्वोक्त पु सप्तस्वाद्या सकलादेश स्त्रयस्तथैव तदन्येषु तु त्रिषु त्रयस्त्रय एकवचनबहुवचनभेदात , सप्तस्त्वेकविध एव स्थापना चेयम -- अव १ Era - । MIRoop । नो १ नो १ । । १ पा आ Momo.innamorror आ १ - यच्चेह प्रदेशद्वयेऽयेकवचनं कचित्तत्तस्य प्रदेशद्वयस्ट कप्रदेशावगाढत्वादि हेतुनैकत्वविवक्षणान् , भेदविवक्षाया च बहुवचनमिति ॥ चतुष्प्रदेशिकऽप्येवं नवरमेकोनविंशतिर्भङ्गा , Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सत्र नत्र त्रय सकनोदशा तथैव शेषेषु चतुर्षु प्रत्येक चत्वारो विकल्पा ने चै चतुर्थादिषु , 707 त्रिपु - | wind 2976 सप्तमस्त्वम् 97% ११५ 636 पञ्चप्रदेशिकेतु द्वाविशतिस्तत्राद्यास्त्रयस्तथैव तदुत्तरेषु च त्रिपु चेक चत्वारो विकल्पान्तथैव, सप्तमे तु सम त्रिकसयोगे किलाप्र भगका भवन्ति तेषु च सप्तैवेह या एकस्तु तेषु न पतत्यइदमेवाह - 'निगमंजोगे 'न्यादि तपा सम्भवात... स्थापना १२२ २१५ cle a २२१ a λ यच न पतति स पुनरयम २०० पट प्रदेशिये त्रयोविशनिरिति ॥ 1 मृलम् - परमाणुपग्गले शां मंते । किं सासर सामए गोयमा सिय नामए मिय यमानए, से केण द भते । च च सिय सामए सिय मान गोवमा ! चट्टयाए नामए वन्नपज्जवं हि जाव फानपज्जव हि समान से गाईशी जाव निय नए नियम ( योगले भने । नमेसन मे " ५१२ ) || परमाणुगोवमा । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनागमों में स्याद्वाद दव्वादेसेणं नो चरिमे अचरिमे, खेचादेसेण सिय चरिमे सिय अचरिमे, कालादेसेणं सिंय चरिमे सिय अचरिमे, भावादेसेण सिय चरिमे सिंय अरिमे || - श्री भगवती सूत्र २४|४|५१३ || टीका- ' परमाणुयोग्गले ति पुगल स्कन्धोऽपि स्यादत परमाणुग्रहणं 'सासर'ति शाश्वद्भवनात् 'शाश्वत" नित्यः अशाश्वतस्त्वनित्य 'सिय सासर'त्ति कथञ्चिच्छाश्वत, दव्व-झ्याए 'न्ति द्रव्यं - उपेक्षितपर्याय वस्तु तदेवार्थो द्रव्यार्थस्तद्भावस्तता ता द्रव्यार्थतया शाश्वत स्कन्धान्तर्भावेऽपि परमाणुत्वस्याविनष्टत्वात् प्रदेशलक्षरणव्यपदे शान्त (व्यपदेश्य त्वात, 'वन्नपज्जवेहिं'ति परि - सामस्त्येनावन्ति - गच्छन्ति ये ते पर्यवा विशेषा वर्मा इत्यनर्थान्तरं ते च वर्णादिभेदादनेकवेत्यतो विशेष्यते -वर्णपर्यावर्णपर्यवा अतस्तै', 'असासपत्ति विनाशी, पर्यवारण पर्यवेत्वेनैव विनश्वरत्वादिति ॥ परमाण्वधिकारादे वेदमाह'परमाणु' इत्यादि, 'चस्मे 'ति य. परमाणुर्यस्माद्विवक्षित भावाच्युतः सन पुनस्तं भाव न प्राप्स्यति स तद्भावापेक्षया चरम .. एतद्विपरीतस्त्वचरम इति, तत्र 'दव्या देसेण'ति आदेश -- प्रकारो द्रव्यरूप श्रादेशो व्यादेशम्तन नो चरम, स हि द्रव्यतः परमाणुत्वाच्च्युत सवातमवाप्यापि ततश्त परमाणुत्वलक्षणं Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवता सूत्र उच्यत्वमवाप्स्यतीति । 'ग्वेचादेनेग्म नि नेत्रविणेपितत्वलनगाप्रकारगण 'म्यान् कदाचिच्चरम, कथम ? यत्र क्षेत्रे कंवली ममुबान गनम्नत्र नेत्र य परमाणुरवगाढोऽमो तत्र क्षेत्रे नेन कंवलिना ममुदघातगतन विरोपितो न कढाचनाप्यवगाह प्रयते फेवलिनो निर्वाणगमनादित्येव नेत्रतश्चरमोऽसाविनि निर्विशेपणाचनापत्नया त्वचरम , तत नेत्रावगाहम्य नेन लप्प्यमानस्वादिति । 'कालादेगे गति कालविशेपित वलनणप्रकारेण मिय चरमे त्ति कश्चित् चरम , कथ ? यत्र काले पूर्वाद्गाटी कंवलिना समुद्घान कृनम्नव य परमाणतया मवृत्त म च न कालविशेष कंवलिन्नमुदघातविशेपित न कदाचनापि प्राप्यति नम्य कलिन मिद्भिगमनेन पुन समुद्घानाभावदिनि नदपेक्षया कालनमोऽमाविनि, निविशेपणकालापेक्षया त्वचग्म रनि । 'भावसंगनि भानो वर्गादिविशेष तपिलनरणप्रकारंग 'भ्याशरम 'पथ चरम. क्य? विवनिनलिममुदघानावर य पुगालो वर्गादिभावविशेष परिगान म विजिनकपलिनमुदघानविपिनवपरिणामापेक्षया चरमो यम्मानत चलिनिर्वाण पुनन्न परिणामनमो न प्रापान, इदन न्यायान गिवारमन मुपजाकर पुननि ॥ मनम् -परमाणुपाम्गले भने । कतिपन्ने बार कनिमागे पन्ननं . गोयमा ' गवन्ने पगगधे एगो दफा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनागमों में स्याद्वाद पन्नते ।। दुपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने पुच्छो गोयमा! मिय एगवन्ने सिय दुवन्ने सिय एगगधे सिय दुगधे सिय एगरसे मिय दुरसे सिय दुफासे सिय तिफासे सिय च उफासे पन्नो, एव तिपएसिएवि, नवर सिय एगवन्ने सिय दुवन्ने सिय तिवन्ने, एवं रसेसुवि, सेसं जहा दुपएसियस्स, एवं चउपएसिएवि नवरं मिय एगवन्ने जाव मिय चउवन्ने, एव रसेसुवि, मेसं तं चेत्र, एवं पचपएनिएवि, नवरं सिय एगवन्ने जाव मिय पंचवन्ने, एवं रसेवि गधफामा नहेब, जहा पचपए सिओ जाव असंखेज्जपएसियो ।। सुहमपरिगए ण भंते ! अणंतपएमिए रखधे कतिवन्ने जहा पंचपएमिए तहेव निरवसेस, बादरपरिणए णं मंते । अणतपएमिए खधे कतिवन्ने पुच्छा, गोयमा ! मिय एगवन्ने जाव मिय पंचवन्ने सिय एगगवे मिय दुगंवे मिय एगग्से जाब मिय पंचरसे मिय चउफासे जाब पिय अटफासे प० । सेव मते ! २चि । --श्री भगवती सूत्र १८६६३१|| टीका ‘परमागुपोग्गल रणमित्यादि, इह च वर्णगावर पञ्च हो पञ्च च विफल्पा 'दुफा ति स्निग्यमनशीतोष्णम्पर्शा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र १०५ नामन्यतराविरुद्धस्पशद्वययुक्त इत्यर्थ इहच चत्वारो विकल्पा शीतस्निग्धयो शीतरूक्षयो उ-रणस्निग्धयो उष्णरूक्षयोश्च सम्बन्धादिति ॥ 'दुपएसिए णमित्यदि, 'सिय एगवन्नेत्ति द्वयोरपि प्रदेशयोरेकवर्णत्वात्, इह च पञ्च ‘विकल्पा , 'सिय दुवन् 'त्ति प्रतिप्रदेश वर्णान्तरभावात् , इह च दश विकल्पा , ग्व गन्धादिध्वपि, 'सिय दुफासे'त्ति प्रदेशद्वयस्यापि शीतस्निग्धत्वादिभावात् , इहापि त एव चत्वारो विकल्या 'सिय तिफासे'।त इह चत्वारो विकल्पास्तत्र प्रदेशद्वयस्यापि शीतभावात् , एकस्य च तत्र स्निग्धभावात् द्वितीयस्य च रूक्षभावादेक , 'धम अनेनैव न्यायेन प्रदेशद्वयस्योष्णभावाद्वितीय , तथा प्रदेशद्वयस्यापि स्निग्धभावात् तत्र चैकस्य शीतभावादेकस्य चोष्णभावात्तृतीय , 'एवम्' अनेनैव न्यायेन प्रदेशद्वयस्य रूक्षभावाच्चतुथ इति, 'सिय चउफासे'त्ति इह 'देसे सिए देसे उसिणे देसे निद्ध देसे लुक्खे'नि वक्ष्यमाणवचनादेक , एव त्रिप्रदेशादेवपि (वयमप्यूह्यम् ।। 'सहुमपरिणए णमित्यादि, अनन्तप्रदे शको बादरपरिणामोऽपि स्कन्धो भवति द्वयणकादिस्तु सूक्ष्मपरिणाम एवेत्यनन्तप्रदेशिकस्कन्ध सूक्ष्मपरिणामत्वेन विरोपितरावाद्याश्चत्वार स्पर्शा सूक्ष्मे बादरेषु चानन्तरदेशित कन्येषु सबन्ति, मृदु-कठिनगुरुल चुस्पर्शास्तु बादरेष्वेवेति ॥ मूनम् -सरिसवा ते भंते । किं मक्खेया अमक्खेया ?, Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनागमों मे स्याद्वाद ! सोमिला । सरिसवा भक्वेयावि अभक्खेयावि, से केटठे ० सरिसवा में भक्यावि अभक्खेयावि ?, से नूणं ते सोमिला । बभनएस नएस दुविहा सरिसवा पन्नत्ता, तंजहा -- मित्तसरिसवा य धन्नसरिसवाय, तत्य गं जे ते मित्रसरिसवा ते तिविहा प०, तं० - सहजायया सहवडियया सहपसुकीलियया, ते ण समणाण निग्गथाणं अभक्खेया, तत्थ ण जे ते धन्नसरिसवा ते दुहि । प० तं० - सत्यपरिहाय असत्यपरिणया य तत्थण जे ते असत्थपरिणया ते णं समयाणं निग्गंथाणं अभक्खेया, तत्थ गं जे से सत्यपरिणया ते दुविहा प० तं०एमणिज्जा यग्रणेम णिज्जा य, तत्थ ण जे ते अणेसणिज्जा ते समणारण निमाथाणं मक्खेया, तत्थ णं जे ते एमणिज्जा ते दुहि । प० त - जाइया य प्रजाइया य, तत्थ गं जे ते अजाइया ते समणारा निग्गंथाणं श्रमक्खेया तत्थ गं जे ते जातिया ते दुबिहा प०, ० -लद्धाय श्रद्धा य, तत्थण ज ते लद्धा तेरा समणाय निग्गथाण अमक्या, तत्थ ण जे ते लद्धा तेणं समयाणं निग्गथा मक्या, से तेराई गं मोमिला ! एवं — Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र १०७ " बुच्चइ जाव अभक्वेयावि । मासा ते भंते । किं भक्खेया अभक्या १, सोमिला ! मासा मे भक्खेयावि अभक्रख्यावि, से केह ण जाव अभक्खयावि, से नूगं ते सोमिला । बभन्नएस नएस दुविहा मासा पं० त० - दव्वमासा य कालमामा च तत्थ गं जे ते कालमासा ते सावणादीया आसाढपज्जवसाणा दुवालस त०-सावणे भद्दवर आसोए कत्तिए मग्गमिरे पोसे माहे फागुणे चिचे वइसाहे जेहा मूले आसाढे, ते समणाशां निग्गथाणं अभक्ख्या, तत्थ णं जे ते दव्वभासा ते दुबिहा प० त० अत्थमासा य धण्णमासा य, तत्थ गं जे ते अत्थमासा ते दुबिहा प० तं - सुवन्नमासा य रुपमासा य, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खया, तत्थ जे ते धन्नमासा ते दुविहा प० ० - सत्यपरिणया सत्यपरिणयाय, एव जहा - धन्नसरिसवा जाव से ते जाव अभक्खयावि । कुलत्था ते भते ! किं मक्खेया अभक्खया ?, सोमिला ! कुलत्था भक्ख्याविभक्वेयावि से केह ेणं जाच श्रमक्खयावि ९, से नूणं सोमिला । ते वमन्नए सु नए दुविहा कुलत्था प०, तं ० - इत्थिकुलत्था य ~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद धन्नकुलत्था य, तत्य णं जे ते इत्थिकुलत्था ते तिविहा प०, तंजहा - कुलकन्नयाइ वा कुलवहयाति वा कुलमाउयाड़ वा, तेण समणाणं निग्गथाणं अभ क्खया, तत्थण जे ते धन्नकुलत्था एवं जहा धन्नसरिसवा से तेराटठे जाव अभक्खयाचि ॥ - श्री भगवती सूत्र १८.१० ६४६ ।। टीका - सरिसव'त्ति एकत्र प्राकृतशैल्या सदृशवयस अन्यत्र सर्पपा – सिद्वार्थका, समानवयस 'दुव्वमास 'त्ति द्रव्यरूपा मासा 'कालमास'त्ति कालरूपा मामा, 'कुलत्थ 'त्ति एकत्र कुले तिष्ठन्तीति कुलस्था -कुलाङ्गना, अन्यत्र कुलत्था धान्यविशेपा सरिसवादि --- पदप्रश्नश्च छलग्रहणेनोपहासथ १०८ कृत इति ॥ मूलम् - एगे भव दुवे भव अक्ख भवं श्रव्व - , व अव लिए भव अगभृयभाव भविए मव ? सोमिला ! एगेवि ग्रह जाव अगभृयभावभविएवि ग्रह से कंणट्ठेण भते । एवं बुच्चड जाव भवियवि ग्रह १, मोमिला । दव्वटठयाय एगे ग्रह नागदमणटठयाए दुवि पसाए ग्रक्वएवि यह ग्रेव्वएवि यहं वदिविग्रह उपयोगट्टयाए योगभूयभावभविएव ग्रह से पटटे जाव भविएवि अहं ॥ - श्री भगवती सूत्र ८१६४७|| --- Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र टोका - एगे भव' मित्यादि, एको भवानित्येकत्वाभ्युपगमे भगवताऽत्मनः कृतं श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवाना चात्मनोऽनेकन्त उपलब्धित एकत्वं दूषयिष्यामीति बुद्ध्या पर्यनुयोग सोमिलभट्टेन कृत, द्धौं भवानिति च द्वित्वाभ्युपगमेऽहमित्येकत्वं. विशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वविरोधेन द्वित्व दूपयिध्यामीति बुद्धया पर्यनुयोगो विहित, 'अक्खर भव' मित्यादिना च पद्मयेण नित्यात्मपक्ष पर्यनुयुक्त, 'अरोगभूयभावभविए भवति श्रनेके भूता - अतीता भावा - सत्तापरिणामा 1 f भव्याश्र्वभाविनो यस्य स तथा अनेन चातीतभवि यत् सत्ताप्रश्नानित्यतापक्ष. पयनुयुक्त, एकवर परियहे तस्यैव दूषरणायेति तत्र च भगवता स्यादवादस्य निखिलदोपगोचराविक्रान्तत्वात्त मवलम्ब्योत्तरंमदायि'एगेवि अहमित्यादि कथमित्येतत् ? इत्यत आह- 'दष्वट्टयाए एनोति जीवद्रव्यस्यैकत्वेनैकोऽह न तु प्रदेशार्थतया, तथा हि अनेकत्वान्ममेत्यवयवादीनामनेकत्वोपलम्भो न धाधक, तथा कश्चित्स्वभावमानित्यैकत्दसख्याविशिष्टस्यापि पदार्थस्यस्वभावान्तर > ܢ १८६ यापेक्षया द्वित्वमपि न विरुद्वमित्यत उक्त – नागसपट्टयार दुवेवि अह'ति, न चैकस्य स्वभावभेदो न दृश्यते, एको हि देवदत्तदि' पुरुष एकदैव ततदपेक्षया पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वभ्रातृव्यत्वादीनने का स्वभावाल्लभत इति, तथा प्रदेशार्थतयाऽसंख्येयप्रदेशवामाश्रित्यानतोऽप्यह सर्वथा प्रदेशांना क्षयाभावात, तथाऽत्र्य Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैनागमों में स्थाद्वाद योप्यह कतिपयानामपि च व्ययाभावात , किमुक्त भवति ?अवस्थितोऽप्यह-नित्योऽप्यहं असख्येयप्रदेशिता हि न कदाचनाषि व्यपैति अतो नित्यताऽभ्युपगमेऽपि न दोष., तथा 'उबोगट्टयाए'ति विविधविषयानुपयोगानाश्रित्याने भूतभावभविकोऽप्यहम्, अतीतानागतयोहि कालयोरनेकविषयबोधानामात्मनः कथञ्चिदभिन्नानां भूतत्वाद् भावियाच्चेत्यनित्यपक्षोऽपि न दोषायेति ।। मूलम-केवतिया ण भंते ! असुरकुमारभवणावाससयसह स्सा ५० ?, गोयमा ! चउसटिंट असुरकुमारभवणावाससयसहस्सा ५०, ते ण भंते ! किंमया प० ?, गोयमा ! सबरयणामया अच्छा सएहा जाव पडिरूवा, तत्थ णं वहवे जीवा य पोग्गला य पक्कमंति विउक्कमति चयंति उववन्जति मामया ण ते भवणा दव्वट्ठयाए वन्नपज्जवेहि जाव फासपज्जवेहि असामया, एवं जाव थणियकुमारावासा, केवतियाणं भंते ! वाणमंवरभ मेज्जनगरावाससयसहस्सा ५०, ते णं भंते! फिमया ५०१, सेस तं चेव, फेवतियाण भते ! जोइसियविमाणावामसयमहस्सा ? पुच्छा, गायमा ! असंखेजा जोइसियविमाणावासमयमहरुमा प०. ते ण भंते ! किंमया ५०१, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HI १११ श्री मावती सूत्र गोयमा ! सच्चफनिहरमया अच्छा, सेसं तं चेव, सोहम्मे ण भंते ! कप्पे केवतिया विमाणावाससयसहस्सा प० ?. गोयमा । येतीसं विमाणावासमयसहस्सा, ते ण भते ! किंमया प०१, गोयमा ! सव्वरयणामया अच्छा सेसं तं चेव ‘जोव अनुत्तरविमाशा, नवर जाणेयच्या .जत्थ जया भवणा विमाणो वा । सेवं भंते ! २ त्ति ॥ -श्री भगवती सूत्र १५७६५८।। टीका- 'केवइया ण'मित्यादि, 'भोमेज नगर'त्ति भूमेरन्तरभवानि भौमेयकानि तानि च तानि नगराणि चेति विग्रहः सव्वफालिहामय'त्ति सर्वस्फटिकमया ॥ मूलम्-जीवा ण भते ! पावं कम्म किं समायं पठविंसु समायं निटठविसु १, १ समायं पठविंसु विसमायं निठविसु २ ?, विसमाय पटविसु समाय निट्ठविसु ३ ?, विसमायं पठविंसु विसमाय निठविसु ४ १,. गोयमा ! अत्थेगइया समार पट्टचिंसु समायं निटठविंसु जाव अत्थेगडया विसमायं पठ्ठविसु विममा निठविंसु से केणटठेणं भंते! एव चुचइ अत्थेगइया ममागं पट्टविसु समायं निट्ठविसु ? त चेव, गोयमा ! जीवा चउच्विहा पन्नत्ता, Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ जैनागमों मे स्याद्वाद तंजहा--अस्थेगइया समाउया मनोववन्नमा १ अत्थेगइया समाउयो विसमोववन्नगा २ अत्थेगइया विसमाउया समोववन्नगा ३ अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा ४, तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते णं पावं कम्मं ममाय पठविंसु समाय निटठविसु,नत्य एवं जे ते समाउया विसमोववन्नगा, ते णं पावं कम्मं समायं पठविंसु विममाय निटठविसु, तत्थ णं जे ते विममाउया समोववन्नगा ते णं पाच कम्म विसमायौं पटठविसु समायं निटठविसु, तत्थ णं जे ते विममाउया विसमोववन्नगा ते णं पाव कम्मं विसमायं पठविसु विसमाय णिटठर्षिसु, से तेणठेणं गोयमा ! तं चेव ।। ___-श्री भभवती सूत्र २६॥१॥२२॥ टीका-'जीवा णं भंते । पाव'मित्यादि, 'समाय'ति समक बहवो जीवा युगपदित्यर्थः 'पट्टविसुत्ति प्रस्थापितवन्तः-- प्रथमतया वेदयितुमारब्धवन्त , तना समझमेव 'निढविंसुति 'निष्ठापितवन्त' निष्ठां नीतवन्त. इत्येक , तथा समकं प्रस्थापितवन्त 'विममति विपर्म यया भवति विषमतयेत्यर्थ , निष्ठापितवन्त इति द्वितीय, एखनन्चो हो। 'प्रत्येगझ्या ममाउया इत्यादि, चतमझी, तत्र 'ममाउयत्ति ममायम उल्यापेक्षया ममझाता Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र ११३ > } युष्कोद्रया इत्यर्थ 'समोववन्नगति विवक्षितायुप तये समकमेव भवान्तेर उपपन्ना समोपपन्नका ये चैत्रविधास्ते समकमेव प्रस्थापितवन्त—समकमेव निष्ठापितवन्त, नन्वाय. कमैवमित्यैवमुपपन्न भवति न तु पापं कर्म, तद्धि नायु कोट्यापेक्षं प्रस्थाप्यते चेति, नैव, यतो भवापेक्ष कर्मणामुदय क्षयश्चेप्यते उक्तल - “उदयक्वयक्खोव समे त्यादि अत एवाह - 'तत्थ जे ने समाज्या समोववन्नगा ते गं पाव कन्म समाय पट्टविसु समायं निट्टविंसुति प्रथम तथा 'तत्या जे ते समाज्या विसमोववन्नत्ति समकालायुष्कोदया विपमतया परभवोत्पन्ना मरणकालवैपन्यात 'ते समाय पशुवि' ति आयुष्कवि ऐषोदय सम्पा द्यत्वात्पापकर्मवेदनविशेषस्य 'विसमायं निट्टविंसु'त्ति मरणवैपन्येन पापकर्मवेदनविशेषस्य विनमतया निष्ठासम्भवादिति द्वितीय, तथा 'विसमाज्या समोववन्नग'त्ति विपमकालायु कोदय समकालभवान्तरोत्पत्तय 'ते रण पाव कम्म विसमार्थ पट्टविसु समायं निट्टविंसु 'त्ति तृतीय, चतुर्थ सुज्ञात एवेति इह चेतान भङ्गकान प्राक्तनशनभङ्गकांश्चाश्रित्य वृद्वैरुक्तम् - "पट्टवस , . किगु हु समाउ उववन्नएस चउभगो । किर व समजण गमणिज्जा प्रत्यय भंगा ? ||१|| पट्टणमए भगा पुन्द्राभंगणलोमश्र वच्चा ।" यथा पृच्छाभगा समकप्रस्थापनादयो न वध्यन्ते तथेह समायुष्काढ्य अन्यन्त्रान्यथा व्याख्याता अपि व्याख्येया Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैनागमों में स्याद्वाद इत्यर्थ । “कम्मसमजणसए बाहुल्लाओ समाउज्जा ॥२॥" [प्रस्थापनशते समायुरुत्पन्न षु चतुर्भङ्गी कथं नु कथं वा समर्जनशते भगा अर्थतो गम्या. १ ॥१॥ प्रस्थापनशते भङ्गानां पृच्छा भङ्गानुलोम्यतो वाच्या। कर्मसमर्जनशते बाहुल्यात् समायोजयेत ॥ १॥] इति ।। - Vg" TOL सलमSH SACH MAV WILM Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञाता सूत्र हे शुक । अस्माकं धर्म स्पाद्वाढात्मक सप्तनयाश्रितो पर्तते, अपरे धर्मा. प्रत्येकनयाश्रिमा अन सप्तनयाना स्वरूपं शृणु तथा चोक्तमागमे– 'काविहा गया पण्णत्ता, गोयमा ? सत्तमूलनया पएणत्ता तं० जहाणेगमे १ संगहे २ ववहारे ३ उज्जु सुत्ते ४ सद्दे ५ सममिस्टे ६ एभृत ७ इति ।। नाम इति न एकं नैक प्रभूतानीत्यर्थ , नैकै नैर्महासत्वसामान्यविशेषज्ञानैमिमीते मिनोति इति पा नैंकमसामान्यविशेपो नयरूपज्ञानस्तु मन्यते पष्ठमेकगेदैन न मन्यते इत्यर्थ , न विद्यते एको गमो मार्ग सामान्यलक्षणो विशेषजक्षणो वा यस्य स गमिक एव नय सम्यग द्रष्टिवत सामान्यविशेषाभ्यां वस्तु आनयति तस्मादेषो नय सम्यग द्रष्टिनो भवति इति ॥१|| तथा मगह इति भेटानां सह संगृहणाति भेदान् वा सग्रह , स नय समुच येन Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैनागमों मे स्याद्वाद वस्तु आनयति, यथा कश्चिद् वनं दृष्ट्वा वदत्यग्र वनमस्ति परं विशेषण न वक्ति, पशुपक्षितटाकाकीर्णं वन वर्तते इति न वदति, स कथयति विशेषस्तु सामान्यमध्य एवास्ति इति ॥२॥ व्यवहरणं व्यवहार , येन व्यह्रियते स व्यवहार. स तु विशेषवस्तु मन्यते, स च कथयति सामान्य विशेपा भिन्नन वर्तते, केवलं सामान्यत्वेन लोकव्यवहारो न प्रवर्तते यथा भ्रमरादी सामान्यत्वेन पंचवर्णाः सन्ति, परं कृ-रणवर्णस्य बहुतरत्वेन विशेषेण, येन लोकव्यवहारेण भ्रमर कृष्ण ण्व निगद्यते इति, पुनर्वाह्यस्वरूप दृष्ट्वा भेद विवेक्ति, ये बाह्यदृष्ट्या गुणान् पश्यन्ति तानेव मन्यते नान्तरङ्गत्वेन, रतावताव्यवहारनये आचारक्रिया मुख्या वर्तते अन्तरङ्गपरिणामोपयोगो नास्ति, यतो नेगमसड्मयोजानात्मध्यानस्य परिणमन, तत्र क्रिया मुख्यास्ति व्यवहारनयेन । जीवव्यवस्था नैकधा वर्तते, तत्रनेगमसग्रहाभ्यां सर्वजीवसता एकरूपैव, पां व्यवहारेण जीवो द्विविध --सिद्ध ? संसारी च, तत्र संसारीजीवो द्विविध , प्रयोगी चतुर्दशगुणस्थानवर्ती शैलावस्त्राया वर्तमानो जीय १, सयोगी च २, तत्र सयोगी द्विविध-त्रयोदशगुणस्थानवर्ती केवली–छ मम्थश्च, छमथो द्विविध क्षीणमोहद्वादशगुणस्थानवर्ती माइनीयकम क्षपयति स जीव १, द्वितीय उपशान्तमोहश्च २, उपशान्तमोहस्य द्वा भेटी, अपायी एकादशगुणम्थानवी जीव ? मापायी च, मकपायिणो द्वो भेटी, एकः सूक्ष्मसकपायिदशमगुणस्थानस्थ १, बादरकपायी, बादरकपायी द्विविध श्रेणिप्रतिपन्न श्रेणि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञाता सूत्र ११७ जितश्च श्रेणिवर्जितस्य द्वौ भदौ अप्रमत्त प्रमत्तश्च, प्रमत्तस्य द्वौ भेदौ, सर्वविरति १, देशविरतिश्च २, देशविरतिदिविध -विरतिपरिगणम १ अघि तिपरिणामश्च २, तत्रावि तिर्द्विविध -अविरतिसम्यकत्वी १ मिथ्यात्वी च २ मिथ्यात्विनो द्वौ भेद-भव्य १ अभव्यश्च २, भव्यो द्विविध -ग्रन्थीभेदी १ ग्रन्थ्यभेदी च, एवं यादृशो जीवो दृश्यते त ताशमेव मन्यते स व्यवहारनय ॥३॥ ऋजु-अवक्र श्रुत ज्ञानमस्ति यस्य स ऋजुमूत्र अथवा अतीतानागतरु पवनपरित्यागेन ऋजु - सरल वर्तमानकालमानयति इति ऋजुस् न , तत्रातीतकालस्तु विनष्ट अनागतश्चानुत्पन्नोऽस्ति दृश्यतेऽपि न प्रायःश 'पवत् कालद्वय न मन्तव्यम् , ततो चर्तमानकालेन भावित भ व सूत्रयति इति ऋजुसूत्रं परिणामग्राही वर्तते, यदा यो जीवो गृही वर्तते परमन्त परिणाम साधुतुल्यस्तदा स जीव. साधुरेव कथ्यते, पुनर्यो जीव. साधुवे. पधारी वर्तते पर मनसि विपयाभिलापयुक्ता. परिणामा चर्तन्ते तदा स जीवोऽविरतिमानी च ॥क्षा शप्यत्ते-यानोश्यते, उच्यते वस्तु अनेनेति शद्ध तेनोपचारान्नयोऽपि शब्द एवोच्यते शब्दनयो ऽपि ऋजुसूत्रन्यसदृशो मन्तव्य एपोऽपि प्रत्युत्पन्नग्राही ऋजुशब्द नयो यदि सही तर्हि तयो के प्रतिभेद ? उच्यते ऋजुसूत्रन्यवादी सामान्यगतार्थं गृहणाति , पर लिङ्गवचनभेद किमपि न करोति , यथा तट पुलिङ्ग , ती वा, तट नपुसकं पर Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैनागमो मे स्याद्वाद ऋजुसूत्रनय. केवल तटस्यार्थं गृह्णाति लिङ्गविशेष किमपि न मानयति, शब्दनयवादी तु विशेषपदं गृहणाति शरदाना लिङ्गवचनानां , ये भेदा सन्ति तान् विशेषतः पृ.क २ गृह्णाति तथा सन्यक_ प्रकारेण कार्यसाधकं शब्द मानयति यथ। इन्द्रशब्दं मानयति, यथा इन्द्रशब्दम्य चत्वारो निक्षेना नामादिभेदेन सति, एर शब्दनयवादी वदति नामेन्द्र १ स्थापनेन्द्रद्रव्येन्द्र किमपिकार्यसिद्धिर्न भवति इति यतस्ते नामेन्द्रादय इन्द्र कार्य करणे न समर्था यदा भावेन्द्रो भविष्यति तदा इन्दनाद् इन्द्र. इति शन्द स्वकार्यकारप्यतीति । निक्षेपण विचारो वहुतरोऽस्ति ग्रन्थग,रवभयानाला - तम् इति ॥ ५॥ नानार्थेषु नानामज्ञानामारोहणात् ससभिरूढनय , एप नयो घटकुटादीन भिन्नप्रवृत्तिनिमित्वात भिन्नार्थ गोचरान् मानयति घटपटादिशब्दवत् । तथा घटनाद् घटो विशिष्टचेष्टावान् अर्थो घट इनि तथा बुट कौटिल्ये काटेल्ययो ।त् कुटो घटा ज्य चुटोऽप्यन्य एवेति ६,त्था यम्य पदार्थास्य योऽर्थोऽ स्त तमर्थ कुवन्त प्रभृतं सरत पदार्थ मानयति पुन 'स्वाथम्याक गवैलाया त पदार्थममन्त मानयति स एवभूतनय , यदा स्त्रीमन्तके घटश्चाटिता भवति तदा चेटासहितो घट चेष्टायाम' धातो चेटारूपार्थकरणबेलाया घट प्रति घटं कृत्वा मानयति ||७|| एतपा मध्ये य प्राक्तनास्त्रयो नया द्रव्य मन्यन्ने, तत्र नैगमव्यवहार अशुद्धद्रव्य मन्येते, संग्रहम्नु शुद्वद्रव्य मन्यने, तन कारणा देते त्रयो द्रव्यनया उच्यते । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञाता सूत्र - ११६ उरिपना बारे नया. पर्याय मन्यन्नेऽनाने पर्याय नया · इति । . विशेषविचारस्तु सिद्वासान्त दिवमेय इति ।। , , ., ___ अमानुयोगद्वा नृत्र त् लप्त नयाना दृष्टान्तो लिख्यने-यथा केनचित् पुरुपेण कश्चित् पुन्य पृष्ट भवान् कुत्र वनाते ? तदा - तेना गुद्व गमवा देनैव उक्त तामध्ये व नामि पुन पृट , लोकस्य त्रयो भेदा - उर्ध्वाधस्तिया लोका तत्र करिमल्लो के वमति । तदाऽशुदुनैगमवादिना प्रोत-तियग लोके वसामि पुन पृष्ट तयग लोके असख्यया द्वीपसमुद्राश्च स!न्त तस्मात् कस्मिन द्वीपे तिष्ठत तदाऽविगु द्वनैगमवादिनोक्त , जन्वद्वीपमध्ये तिष्ठ.मि, पुन ___ पृष्ट जम्बूद्वीपे वहनि क्षेत्राणि सन्ति, भवान् कम्मिन क्षेत्रे ष्टिन. तदा तेनाऽविशु दुनैगम पारिणोक्तम्-भारतक्षेत्रे तिष्ठामि, पुन. पृष्ट , भ तस्य पट् खण्डानि, खण्डेपु मध्द खण्ड तम्मिन देशा गराणि ग्रामाश्च बहव सन्त, त्व बुत्र तिष्ठसि ? तदा प्रथमनयवादी वदति-अमुकदेशे नगर ग्राम वा अमुक पाटके वा वसामि । तनत्पर्यन्त नैगमनयो ज्ञेय । अथ समहनयवादी वदात-. स्वशरीरे वमामि । तदा व्यवहारनयवादी वक्ति-स्वसस्तारके वमामि । ऋजस्ववादबटन खम्बभावे ति ठामि । समभिन्ढवा. दिना प्रोक्त । स पुणे तिष्ठामे, एव भूतनयवादिना प्रोक्तमशानदशनगुणे व गामि । इ ते दृष्टान्त सर्वपदार्येपु जेय इनि ।। श्रय सप्त नयधम वय-प्रमनंगमवाटी वदति सई धर्मा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद सन्ति, येन कारणेन सः धर्माः कस्यन्ति, अ नयों शापों धर्मनाम क यति, तदा संग्रहनय ऽवदत्-यैर्वृद्वपुरुषैरावृत्तं तद्धमः कथ्यते, अनाचार सयक्त. पर कु नाचारो धर्म कथित'-तदा व्यवहारनयेन प्रोक्तम् –य सुखहेतु स' धर्म अर्थात् एय-हम-- कारणो धर्म मानितस्तदा ऋतुःसूत्रनयेन प्रोक्तम् – यः उपयोगसत्ववैराग्यरूपपरिणाम स. धर्म कथ्यते; अस्भन्नये यथा प्रवृत्तिकरस्य परिणामप्रमुखा सर्व धर्मा कथिता ते मिथ्याविनोऽपि भवति, तदा शब्दनयोऽवदत – य. सम्यक् वम एव धर्मस्य मूर्त सम्यक्त्वं, तदा समभिरूढनयो वाति -यो जीवाजीवादीन पदानि जानाति जीवसत्तां ध्यायति, अजीयस्य त्याग करोति, इंडशो ज्ञानदर्शनचरित्राणां शुद्वनिश्चयपरिणाम स धर्म । अम्मिन् नये साधमसिद्धपरिणामास्ने वमत्वेन गृहीता , तदा ग्वभूतनयो वक्ति-शुक्जध्यानरूप तीतपरिणामै क्षपकश्रेण्या कर्मक्षयहेतु स धर्म , यो जीवस्यमूलस्वभावोधर्मो मोक्षरूप कार्य करोति, एवं सप्तनयैर्धर्म कथ्यते । सप्तनयानामेकत्रमीलनात सम्यक्त्व वर्तते, सप्तनयग्राही सध्यक्त्व इपुच्यते, य एकनयग्राही म मिश्याइटिमच्यते, एव सप्तनयैर्यत् सिद्व वचनं तत प्रमाणमस्ति । सानयाना मध्ये य काऽप्येक नयमुत्थाप्यते तस्य. वचनमप्रमागा भवेदिति ।। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रायपसेणी सूत्र मूलम् - परमवरवेड्या गं भंते । किं सामया० १, गोयमा । सिय सामया सिय श्रमाया, से केराहणं भंते ! एव बुच्चड मियसामया मिय असामया १, गोवमा । दव्याए सासयो पज्जवेहिं गंधपजदेहिं रसपज्जवेहिं मामया, से तेराहरेश गोयमा ! एवबुच्चति - सिय सामया मिय असामया । परमवर वेया भते ! काल केवचिरं होट, गॉयमा । क्यावियामि कयावि रात्थि न कवाचि न भविस्मर, भुचि हव य भविसय, धुवा डिया माया अवया अव्वा अवट्टिया शिवा पउमव रवेडया | श्री राणी सूत्र विमान व सूत्र ३४ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैनागमों मे स्याद्वाद रण टीका पसव वेइया भंते । किं सासया' इत्यादि, पद्मवरवेदिका'ण' मिति पूर्ववत् किं शाश्वती उताशश्वती, आवन्ततथा सूत्रे निर्देश प्राकृतत्वात्, कि नित्या उतानित्येतिभाव, भगवानाह - गौत्तम । स्यात् श श्रती स्यादशाश्वती, कयचित्रित्या कथचिदनित्या इयर्थ म्याच्छन्दो निपात कथंचिदित्येतदर्थवाची, 'से केणट्ट ' मित्यादि, प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह - गौतम | द्रव्यार्थतया - द्रव्यास्तिकनयमतेन शाश्वती, द्रव्यास्तिकनयो हि द्रव्यमेव तात्त्विकमभिमन्यते न पर्यायान् द्रव्यं- चान्वयि परिणामित्वात्, अन्वयित्वा च सकलकालभावीति भवतिद्रव्यार्थतया शाती, वर्णपर्वायैस्तत्तद्न्यसमुत्पद्यमानवर्ण विशेषरूपै, एव गन्ध पर्यायै सर्शपर्याय उपलक्षणमेतत्, तत्तदन्यपुद्गलविचटनोच्चटच अशाश्वती, पर्यायारणा प्रतक्षणभावतया कियत्कालभावितया विनाशित्वात, 'से एरट्टे' मित्याच पसहारवाक्य सुगम, इह द्रव्यास्तिकनयवादी समतप्रतिष्ठापनार्थमेवमाह -- नात्यन्तासत उत्पादो नापि सतो नाश 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत' इति वचनात्, यौ तु दृश्येते प्रतिवस्तु उत्पादविनाशौ तदा व भवि तिरोभावमात्र, यथा सवस्य उत्फग्रान्वचित्वे, तम्मात् सव वस्तु नित्यमिति, एव च तन्मताच - न्तानामय किंवा या गावी उत सकजकानेक तिन सयानोदार्थ भवन्त भूय पृच्छति - " Page #145 --------------------------------------------------------------------------  Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जीवाभिगम सूत्र मूलम्-इमीसे ण भंते । रयणाप० पु० सव्वजीवा उप चरण पुया' सव्वजोवा उववरणा ?; इमीसे णं रय० पु० सव्वजीवा उववरणपुव्वा नो चेव रणं सव्वजीवा उववरणा, एव जाव अहेसत्तमाए पुढवीए । इमा णं भंते ! रयण पु० सव्वजीवेहि विजहपुव्वा ? सव्यजीवेहिं विजढा ? गोयमा ! इमा णं रयण पु० सयजीवेहि विजपुव्वा नो चेव ण सव्वजीवविजढा, एवं जाव अधेसत्तमा । इसीसे णं मंते । रयण पु० सव्यपोग्गला पविठ्ठपुव्या ? सव्यपं ग्गला पविट्ठा ? गोयगा । इमी से ण रयण पुढवीए सब पोग्गला पविपुन्या नो चेव णं सव्वपग्गला पविट्ठा, एवं जाव अधेसत्तमाय पुढवीए । इमा णं भंते ! रयणप्प?मा पुढवी सव्यपोग्गलेहि Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ थी जीवाभिगम सूत्र विजपुच्चा ' मच्चपोग्गला विजढा ?, गोयमा ! डमा णं रयणप्पभा पु० मव्यपोग्गलेहिं विजढपुवा नो चेच ण मच्चपोग्गलेहिं विजढा, एवं जाच अधेमचमा । ___श्री जीवाभिगम सूत्र प्रतिपत्ति ३ सू. ७७१ ।। टीका-'इससे रणं मंते ! ' इत्यादि. अस्या भदन्त । रत्नप्रभाया पृविच्या सर्वजीवा. सामान्येन उपपन्नपूर्वा इति-उत्पन्नपूर्वा कालक्मेण, तया सर्वजीवा 'उपपन्ना' उत्पन्ना युगपद् ?, भगवानाह-गौतम ! अस्या रत्नप्रभाया पृथिव्या सर्वजीवा साव्यवहारिकजीवराश्यन्तर्गता प्रायोवृत्तिमाश्रित्य सामान्येन 'उपपन्नपूर्वा' उत्पन्नपूर्वा कालकमेण, ससारम्यानादित्वान, न पुन सर्वजीवाः 'उपपन्ना' उत्पन्ना युगपन्, मकलजीवानामेककालं रत्नप्रभापृथिवीत्वेनोत्पादे सकलदेवनारकादि भेदाभावप्रमक्त, न चैतदस्ति, तथाजगत्वाभाव्यान, एवमकन्या पृथिव्याम्तावद्धतव्यं यावदध समन्याः ।। 'इमा ग मते !' इत्यादि इय च भदन्त ! रत्नप्रभाधिर्या ‘सव्वीचे हि विजदपुवा' इति मनावं कालन मेण परित्यक्तपूर्वा, तथा मी गपद 'विजढा' परित्यना ?, भगवानाद-गोतम ' इयं रत्नप्रभा प्रथिवी प्रायोनिमाधित्य मर्दजीव माव्यवहारिक, पालममेण परित्यक्त्या , ननु युगपत्परित्यता, सर्वजीव एपरालपरित्यागन्यामम्भवान् नया Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैनागमों में स्याद्वाद निमित्ताभावात् , एवं तावद्वक्तव्यं यावधः सप्तमी पृथ्वी ॥ 'इमीसे ण' मित्यादि, अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वे पुद्गला लोकोदरविवरवत्तिन कालक्रमेण 'प्रविष्टपूर्वा' तद्भावेन परिणतपूर्वा , तथा सर्वे पुद्गला 'प्रविष्टा' एककालं तद्भावेन परिणता. १, भगवानाह-गौतम । अस्यां रत्तप्रभायां पृथिव्या सर्वे पुद्गला लोकवर्तिन. 'प्रविष्टपूर्वाः' तद्भावेन परिणतपूर्वा , संसारस्यानादित्वात्, न पुनरेककाल सर्वपुद्गला. 'प्रविष्टा' तद्भावेन परिणता. सर्वपुद्गलानां तद्भावेन परिणतौ रत्नप्रभा. व्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्रापि पुद्गलाभावप्रसक्त , न चैतदस्ति, तथाजगत्स्वाभाल्यात् । एवं सर्वासु पृथिवीपु क्रमेण वक्तव्यं यावदध सप्तम्यां पृथिव्यामिति ।। 'इमा णं भंते ।' इत्यादि, इय भदन्त ।। रत्नप्रभा पृथिवी सर्वपुद्गले. कालक्रमेण 'विजढपुव्वा' इति परित्यक्तपूर्वा तथैव सर्वै. पद्गलैरेककाले परित्यक्ता ?, भगवानाहगौतम । इय रत्नप्रभा पृथिवी सर्वपुद्गलै कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, संसारस्यानादित्वात् , न पुन सर्वपद्ले रेककालं परित्यक्ता, सर्वपुद्गलैरेककालपरित्यागे तस्या सर्वथा स्वरूपाभावप्रसक्त', न चैतदस्ति, तथाजगत्स्वाभाव्यत शाश्वतत्वात्, एतच्चा नन्तरमेव वक्ष्यति । एवमेकैका पृथिवी क्रमेण तावद्वाच्या याववध सप्तमी पृथिवी ।। मूलम्-इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं सासया असासया ?, गोयमा ! सिय सासता सिय असा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जीवाभिगम सत्र १७ मया 1 से केपटटेणं भंते । एवं बुच्चइ-मिय सासया मिय असासया १, गोयमा ! चट्ट्याए मामता, वशणपज्जवेहि गधपज्जवेहि रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं अमामता, से तेणटेणं गोयमा ! एव बुञ्चतितं चेव जाब मिय अमासता, एवं जाव अधेसचमा ॥ इमा ण भते । ग्यणप्पभाप० कालतो केवचिरं होड १, गोयमा ! न कयाइ ण आमि ण कयाइ णत्यि ण कयाइ ण भविस्मति ।। भुविं च भवः य भविम्मति य धुवा णियया सामया अक्खया अव्यया अवटिठता णिचा एवं जाव अधे सत्तमा ।। -श्री जीवाभिगम मलयागिरि वृत्ति मतिः सूत्र ८ ॥ टीका-'इमा गणना ' इत्यादि इय भटन्न । रत्नप्रभा पृथिवी कि शाश्वती शाश्वती र, भगवानार.--गौतम ' म्यान्कलिकम्यापि नयस्याभिप्रायेणेत्यर्थ शाश्वती, त्यान-पर्यावदशाश्वती ।। पनदेव सविशेष जिज्ञान पृति-'ने गर्ट का मित्यादि, शोऽधशब्दार्थ म च प्रश्ने, फैन प्रर्थन' फारगेन भदन्त ! पदमुन्यने यथा म्यात् शाश्वती म्पादशाग्याति १, भगवानार-गानम ' दहयाः मन्या द. द्रव्याधनया गान्द. नानि नहर मनापि मामान्यापन. दान-नि नान नान पर्यायान दिगपाणिनि दा हमिनि पाईयमवाय - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैनागमों में स्याद्वाद " तात्त्विक पदार्थो यस्य न तु पर्याया स द्रव्यार्थ -- द्रव्यमात्रास्तित्वप्रतिपादको नयविशेषस्तद्भावो द्रव्यार्थता तया द्रव्यमात्रास्तित्व प्रतिपादकनयाभिप्रायेणेतियावत् शाश्वती, द्रव्यार्थिकनयमतपर्यालोचनाया मेवंविधस्य रत्नप्रभाया पृथिव्या आकारस्य सदा भावात्, 'वर्णपर्याय.' कृष्णादिभि 'गंधपर्यायै ' सुरभ्यादिभि 'रस पर्यायै तिक्तादिभि ' स्पर्शपर्यायै.' कठिनत्वादिभि 'अशाश्वती, अनित्या, तेपा वर्णादीनां प्रतिक्षणं कियत्कालानन्तरं वाऽन्यथा भवनात् अतादवस्थ्यम्य चानित्यत्वात् न चैवमपि भिन्नाधिकरणे नित्यत्वानित्यत्वे, द्रव्यपर्याययोर्भेदाभेदोपगमात्, अन्यथोभयोरप्य सत्त्वापत्ते, तथाहि - शक्यते वक्तु परपरिकल्पित द्रव्यमसत् पर्यायव्यतिरिक्तत्वात्, बालत्वादिपर्यायशून्यवन्ध्या सुतवत् तथा परपरिकल्पिताः पर्याया श्रसन्त द्रव्यव्यतिरिक्तत्वात्, बन्ध्यासुतगतवालत्वादिपर्यायवत्, उक्तञ्च द्रव्यं पर्यायत्रियुतं पर्याग्रा द्रव्यवर्जिता । क कढा केन किंपा-१, छटा मानेन केन वा ॥१॥" इति कृतं प्रसङ्ग ेन विस्तरार्थिना च धर्मसमहरिणटीका निरूपणीया । 'से ते ' मित्याद्यपहारमाह, सेशब्दोऽथशब्दार्थ स चात्र वाक्योपन्या अथ 'एतेन' अनन्तरोदितेन कायेन गोतम । एवमुच्यते - स्यात् शाश्वती स्वाद शान्तवी, एव प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्य यावदध सप्तमी प्रथिवी, इह यद् यावत्सम्भवाम्पद तच्चेन्तावन्त कार्ल शास्वद्भवनि तदा तदपि शाश्वतमुच्यते यथा तन्त्रान्तरेषु • 4 , · Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जीवाभिगम सूत्र १२ "याकप्पट्टाई पुढवी मामया' इत्यादि, तन मगय.-किमेपा रत्नप्रभा पृथवी मफलकालावस्थायितयः शाश्वती उतान्यथा यथा तन्त्रान्तरीयरच्यत इति ?, तनम्नदपनोदार्थ पृन्छति - 'डमा गणं भते' इत्यादि, इय भदन्त । रत्नप्रभा पृथिवी कालत कियन्चिर' कियन्तं काल यावद्भवनि , भगवानाह-गौनम ' न कहाचिन्नामीत् , मदेवासीदिनि भाव , अनादित्वात . तथा न कदाचिन्न भवति, सर्वदेव वर्तमानकालचिन्ताया भवाति भाव , अत्रापि मण्य हेतु , मदा भावादिति, तथा न कदाचिन्न भविष्यनि, भविष्यच्चिन्ताया सर्वदेव भवि याति भाव , 'अपर्यवमिन-वात् । तदेव कालत्रयचिन्ताया नान्तित्वप्रतिवेध विधाय मम्प्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति-'भुवि चे त्यादि, अमन भवनि भवियनि च, एवं विकालभावित्वेन 'ध्रुवा' ध्र वन्वादेव 'नियता' 'नयतापमाना, धस्तिकायादिवत् नियनवादेव च शश्वनी, शबान. प्रलयाभावात् , श-तत्यारेव च मातगमामिन्युप्रदानावपि पापी पाट वायतरपुद्गलबिचट ऽप्यन्यता पचयभावान मारवाद चपला मानपांगराती माद. पा , रब याद बिना वनमा पन्थिना, मटनादिवन विनाऽवमानन चिन्यमाना नियाजीपादन पतिदा । बादर हा पार दिदल्दयामाया मानांक:दिने गुलाटोप " वक का Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद मृतम-सासया णं ते णरगा दव्ययाए वरुणपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासया एव जाव अहे सत्तमाए । --श्री जीवाभिगम सूत्र प्रतिपत्ति ३८५।। टीका शाश्वता णमिती पूर्ववत् ते नरका द्रव्यार्थता तथाविधप्रतिनियतसस्थानादिरूपतया वर्णपर्यायैर्गन्धपर्यायै स्पशपर्याय पुनरशाश्वता , वर्णादीनामन्यथाऽन्यथाभवनात् , एवं प्रतिपृथिवि ताद्वक्तव्य यावदध सप्तमी पृथिवी ।। मूलम्-'पउमवरवेंइया णं भते । किं सासया असासया ? गोयमा । मिय सासया सिय असासया ।। सेकेणटठेण भंते ! एवं बुच्चइ-सिय सासया सिय असासया ?, गोयमा । दव्वट्ठयाए सासया वएणपज्जबहिं गधपज्जवं हि रसपज्जवेहिं फासपज्जब हिं असोसता, से तेणढेणं गायमा ! एवं धुच्चइ-सिय मोमता सिय अमासता ॥ पउमवरवइया णं भते ! कालो कंवचिर होति ?, गोयमा ! ण कयावि णासि ण कयावि णस्थि ण कयावि न भविस्सति ।। भुवि च भवति य मविस्सति य धुवा नियमा सोसता अक्वया अव्यया अवटिटया णिचा परमवर वंदिया" ॥ ~श्री जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३ देवाधिकार उहेश १ सू० १२५।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जीवाभिगम सत्र 737 टीका-पउमवग्वेइया रण मते ' किं नाचया ? इत्यादि. पद्मवरवेदिका गमिति पूर्ववत किं शाश्वती उताशाश्वती ?, श्रावन्ततया सूत्र निर्देश प्राकृतत्वात , कि नित्या उतानिन्वति भाव , भगवानाह गौतम | स्यात् शाश्वनी म्यादशाश्वतीकचिन्निन्या कश्चिदनित्यत्यर्थ . म्यान्छन्दा निपान कयश्चिदित्येतदर्थवाची । 'मे केण?ण भने ।" इत्यादि प्रभत्र सुगम भगवानाह-गौतम । 'द्रव्यार्थतया' द्रव्याम्निफनयमतेन शाश्वनी, दत्र्यान्निकनयो हि द्रव्यमेव तात्विकमभिमन्यते न पर्यायान , द्रव्य चान्वयि परिणामित्वाट, अन्यथा द्रव्यन्वायोगाद, अन्वयित्वाञ्च मकलकालभावीनि भवनि द्रव्यार्थनया भाटवनी, 'वर्गपर्यावं तदन्यममुन्पामानवर्णविशेपम्पैरेव गन्धपर्याच ग्नपर्याय. म्पर्णपयांवः, लक्षणमेननदन्यद्नविचटनोश्टनराशाश्वनी. . पर्यायान्तिकनयमन प्रीयतावान्या प्रनिगा भावितया नि , . . पण ना-मित्यादि . . वाढी बनत मता विनाशा, बनान्, Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनागमों में स्याद्वाद मूलम-सासया ण ते णरगा दव्वयाए वण्णपज्जवेहि गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासया एव जाव अहे समाए ।। __ --श्री जीवाभिगम सूत्र प्रतिपत्ति ३८५।। टीका शाश्वता णमिती पूर्ववत् ते नरका द्रव्यार्थता तथाविधप्रतिनियतसस्थानादिरूपतया वर्णपर्यायैर्गन्धपर्यायै स्पशपर्याय पुनरशाश्वता , वर्णादीनामन्यथाऽन्यथाभवनात् , एवं प्रतिपृथिवि ताद्वक्तव्यं यावदध सप्तमी पृथिवी ।। मूलप्-'पउमवरवेंइया णं भते । किं सासया असासया ? गोयमा ! सिय सासया सिय असासया ।। से केणटठेण भंते ! एवं बुच्चइ-सिय सासया सिय असामया ?, गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासया वएणपज्जवहिं गधपज्जवहि रसपज्जहिं फासपज्जब हिं असोसता, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-सिय गोमता सिय अमासता || पउमवरवइया णं भंते ! कालो कंवचिर होति ?, गोयमा ! ण कयावि णासि ण कयावि णत्थि ण कयावि न भविस्सति ॥ भुवि च भवति य मविस्सति य धुवा नियमा सोसता अस्वया अव्यया अवटिठया णिचा परमवर चदिया" || -श्री जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३ देवाधिकार. उद्देश १ सू० १२५॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जीवाभिगम सूत्र १३१ 1 ་ टीका - परमवरवेइया णं भते । किं सासया 2, इत्यादि, पद्मवरवेदिका समिति पूर्ववत् किं शाश्वती उताशाश्वती ?, आबन्ततया सूत्रे निर्देश प्राकृतत्वात् किं नित्या उता नित्येति भाव, भगवानाह गौतम | स्यात् शाश्वती स्यादशाश्वतीकथञ्चिन्नित्या कथञ्चिदनित्येत्यर्थं . स्याच्छब्दो निपात कथञ्चिदित्येतदर्थवाची ॥ ‘से केणट्ट ेणं भंते ।” इत्यादि प्रश्नसूत्रे सुगम, भगवानाह – गौतम ! 'द्रव्यार्थतया' द्रव्यास्तिकनयमतेन शाश्वती, द्रव्यास्तिकनयो हि द्रव्यमेव तात्विकमभिमन्यते न पर्यायान् द्रव्य चान्वयि परिणामित्वाद्, अन्यथा द्रव्यत्वायोगाद्, अन्वयित्वाच्च सकलकालभावीति भवति द्रव्यार्थतया शाश्वती, 'वर्णपर्यायै ' तदन्यसमुत्पद्यमानवर्णविशेषरूपैरेवं गन्धपर्यायै रसपर्यायै स्पर्शपर्यायै, " उप लक्षणमेतत्तद्न्यपुद्गलविचटनो वटनैश्च शाश्वती, किमुक्त भवति ? पर्यायास्तिकनयमतेन पर्यायप्राधान्यविवक्षायामशाश्वती, पर्यायारणां प्रतिक्षण भावितया कियतकालभावितया वा विनाशित्वात्, 'से एएट्ट े' - मित्यादि उपसहारवाक्य सुगम, इह द्रव्यास्तिकनयवादी स्वमतप्रतिस्थापनार्थमेवमाह - नात्यन्तासत उत्पादो नापि सतो विनाशो, 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत' इति ' वचनात्, यो तु दृश्येते प्रतिवस्तु उत्पादविनाशौ तदाविर्भावतिरो भावमात्र यथा सर्पस्योत्फणत्व विफरणत्वे, तस्मात्सर्वं वस्तु नित्यमिति । एवं च तन्मतचिन्ताया सशय - किं घटादिवद्रव्यार्थ - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैनागमों में स्याद्वाद तया शाश्वती उतसकलकालमेवरूपा इति, तत संशयापनोदार्थ भगवन्तं भूय पृच्छति-'पउमवरवेइया ण' मित्यादि, पद्मवर. वेदिका णमिति पूर्ववद् ‘भदन्त " परमकल्याणयोगिन् । 'कियचिर' कियन्त कालं यावद्भवति ?, एवं रूया कियन्तं कालमवतिष्ठते । इति, भगवानाह-गौतम । न कदाचिन्नासीत्, सर्वदैवासीदिति भाव अनादित्वात् , तथा न कदाचिन्न भविष्यति, किन्तु भविष्यच्चिन्ताया सर्वदैव भविष्यतीति प्रतिपत्त्य, अपर्यवसितत्वात् , तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिपेधं विधाय सम्प्रत्यस्तित्व प्रतिपादयति--'भुवि चे' त्यादि, अभूच्च भवति च भविष्यति चेति, एवं त्रिकालावस्थायित्वाद् 'ध्रुवा मेर्वादिवद् ध्रुवत्वादेव सदैव स्वम्वरूपे नियता, नियतत्वादेव च 'शाश्वती' शश्वद्भवनम्वभावा, शाश्वतत्वादेव च सततगङ्गासिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि पौण्डरीकहद इवानेकपुद्गलविचटनेऽपि तावन्मानान्यपुलोचटनसम्भवाद् 'अक्षया' न विद्यते क्षयो-यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रशो यस्या साऽक्षया, अक्षयत्वादेव 'अव्यया' अव्ययशळवाच्या, मनागपि स्वरूपचलनस्य जातुचिदप्यसम्भवात् , अव्ययत्वादेव स्वप्रमाणेऽवस्थिता मानुपोचरपर्वताद् चहि समुद्रवत्, एव स्वस्वप्रमाणे सदाऽवश्थानेन चिन्त्यमाना नित्या धर्मास्तिकायादिवत् ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 श्री पन्नवरणा/ सूत्र. 搿 सूत्रम् - जीवेण भंते । गतिचरमेण किं चरमे १, गो० ! सिय. चरमे सिय अरमे, नेरइए गं भते ! गतिचरमेणं किं चम्मे चरिमे ?, गो० ! प्रिय चरमे सिय. अचरमे एव निरंतर जाव, वेमाथिए, नेरइया " भते । गतिचरमेण किं चरिमा श्रचरिमा १, गो० । चरिमावि चरिमावि, एवं निरन्तरं जाव वमाणिया । नेरइए ण भते ! ठितीचरमेणं किं चरमें चरमे, ?, गो० ! सिय चरमे सिय श्रचरमे, एव निरंतरं जाव वैमाशिया, नेरइयाणं भंते! ठितीचरमेणं किं चरमा चरमा १, गो० ! चरमावि अचरमावि, एव निरतर जाव वैमाशिया । नेरइये भते ! भवचरमेणं किं चरमे अचरमे १, गो० ! 1 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनागमों में स्याद्वाद सिय चरमे सिय अचरमे, एव निरंतरं जाव वेमाणिया, नेरइया णं भंते ! भवचरमेणं कि चरमा अचरमा ?, गो० ! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भंते ! भामाचरमेणं कि चरमे अचरमे ?, गो०। सिय चरमे सिय अचरमे, एव निरंतरं जाव वेमोणिए, नेरइया णं भंते । भासाचरमेणं किं चरमा अचरमा गो० ! चरमावि अचरमावि, एवं जव एगिदियवज्जा, निरंतरं जाव वेमाणिया । नेरइए ण भंते! आणापाणुचरमेणं किं चरमे अचरमे ?, गो० । सिय चरमे सिय अचरमे. एवं निरंतरं जाव वेमाणिए. नेरइया णं भ ते ! आणापाणु वरमेणं किं चरमा श्रचरमा ?, गो० ! चरमावि, एवं निरंतरं जब माणिया । नेरइए णं भते ! आहारचरमेणं किं चरमे अचरमे १, गो० ! मिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतर जाव वेमाणिए, नेरइया ण भते! किं चरमा अचरमा १, गो० ! चरमावि अचरमावि, एव निरंतर जाच वेमाणिया । नेरहए णं भते! भावचरमेण किं चरमे अचरम ?, गा० । सिय चरम मिय अचरमे. एव निरंतरं जाव वेमाणिया । भाव Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पन्नवणा सूत्र चमेण किं चरमा अचरमा १, गो. !- चरमोवि अचरमावि, एव निरतरं जाव वेमाणिया । नेरइए एवं भंते ! वएण चरमेणं किं चरमे अचग्मे ?, गो० ! मिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जोव वे. मोणिए, नेरइया णं भते ! वरुणचरमणं किं चरमा अचरमा ?, गो० ! चरिमादि अचरिमावि, एवं निरतरं जाव वेमाणिया । नेरइए णं भते। गंधचरमणं किं चरमे अचरमे ?, गो० ! सिय चरमे सिय अचरमे, एव निरंतर जाव वेमाणिए, नेरइया णं भंते । गंधचरमेण किं चरमा अचरमा ?, गो० ! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिया! नेरइए णं भंते ! रमचरमणं किं चरमे अचरमे ?, गो० ! सिय चरमे सिय अवरमे, एवं निरंतरं जाव वम णिए, नेरइयाणं भते! रसचरमणं किं चरमा अचरमो ?, गो० ! चरमावि अचरमावि, एवं निरंतर जाव बेमाणिया। नेरइएणं भंते ! फासचरमेणं किं चरमे अचरमे ?; गो० ! सिय चरमे सिय अचरमे, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए नेरइयाणं भते ! फास चरमेणं किं चरा अचरमा ?, गो० ! चरमावि अचरमावि एवं जाव वेमाणिया । संगहणि Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनागम में स्याद्वाद 'गाहा - "गतिठिइमवेष भामा आापावरमे य बोद्धव्वा । आहारभाव चरम चरणरसे गफासे "ध ॥ १५' १३६ . . - श्री प्रज्ञाप प्रा सूत्र १० १६० ॥ 1 , • मूलम् जीवाणं भतें! किं भासगा अभागा १, गो० । भासगाव भागावि, से काट्ठेां भंते । एवं. वुच्चति जीवा भागावि अभासगाव ?, गो० ! जीवा दुविहा-प०, त त० समीरसभावएगा य श्रमारममाचरणगाय तत्थ शांजे ते संसारसमागतेां मिद्धा सिद्धाणं श्रभासंगा, तत्थ 'शांते' समारमधिगते विहा, तं - सेलेसीपंडवगाय असेलेमी पडिवरणमा य, तत्थ गं 'जे' ते 'सेलेमिप डिना' ते ग श्रमासगा तव्थ, ग जे ते असेले पिडिएगा, तेदुविहा- प०, तंएगिंदियाय अगदिया य तत्थ या जे ते ग्ए गिंदिया तेभागा, तत्थ जे ते अगिं दिल्या ते दुविहा- पं० तं - प्रज्जतगाय पज्जत्तगाग्य, तत्थ णजे ते पागा वेणं अभामगा, तत्थ गं 'जे ते पज्जतगा तेरा मासगा से एएटटेय गी० ! एव बुच्चति- जीवा मागगावि श्रमामगावि । नेरड्या 1 c 17 + १ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पन्नवणा सूत्र १३७ ण भते । किं भासगा अभासगा ?, गोयमा ! नेरइया भोसगावि अभासगावि ?, से केणढेणं भते ! एव वुचति-नेरइया भासगावि अभासगावि ?, गो० ! नेरड्या दुविहा-पं०, त०-पज्जतगा य अपज्जत्तगा य, तल्थ गण जे ते अपज्जत्तगा तेणं अभासगा, तत्थ णं जे ते पज्जतगा ते णं भासगा, से एएणठेणं गो० । एवं वुच्चति-नेरइया भासगावि अभास गावि, एवं एगिदियवज्जाणं निरतर भाणियव्व ॥ . –श्री प्रज्ञापना सूत्र ११११६६ ॥ OUS ome COOO H Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जम्बूद्दीप परणत्ति सूत्र मूलप्-'तीसे णं जगईए उप्पि बहुमज्झदेस भाए एत्थ णं महई एगा परमवरवेझ्या पगणतो, श्रद्धजोयण उड्ढं उच्चनेणं पच धनुसयाइ विक्खंभेण जगई समिया परिवखेवेण सवरयणामई अच्छा जाव पडिरूवा। तीसे णं परमवरवेइयाए अयमेवारूवे वएणावासे पण्णरो, तंजहा-वइरामयाणेमा एवं जहा जीवाभिगामे जाय अहो जाव धुवा णियया सासया जाव णिचा || -श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञाप्ति सूत्र वक्षस्कार १२ सू० ४ ॥ टीका-पनवरवेदिकायाः शाश्वत नामधेयं प्रज्ञप्तमिति, श्रयमपिप्राय प्रस्तुतपुद्गलप्रचयविशेपे पद्मवरवेदिकेति शब्दम्य तिमनि निरपेक्षाऽनाद कालिना रूढि प्रवृत्तिनिमिर्तामति, पउम Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जम्बूद्वीप पण्णत्ति सूत्र १३६ वरवेइया णं भते,'ति पद्मवरवेदिका शाश्वती उताशाश्वती ? प्रत्ययेडी वा (श्री सि० ८-३.३१ इत्यनेन प्राकृत सूत्रेण डीप्रत्ययस्यवैकल्पिकत्त्वेन श्राबत्ततयासूत्रे निर्देश , किं नित्या उत अनित्येतिभाव , भगवानाह-गौतम ! स्याच्छाश्वती स्थादशाश्वती, कथञ्चिनित्या कथञ्चिदनित्या, इत्यर्थ स्याच्छब्दोनिपात' कथश्चिदित्येतदर्थ वाची, एतदेव सविशेष जिज्ञासु पृच्छति “से केणतुण, मित्यादि" से श दोऽथ शब्दार्थ सच प्रश्ने, केनार्थेनकेन कारणेन भदन्त। एवमुच्यते, यथास्यान्छाश्वती स्यादशाश्वतीति भगवानाह-गौतम द्रयार्थतया शाश्वती तत्र द्रव्य सर्वत्रान्वयि सामान्यमुच्यते, द्रवति- गछति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति वा द्रव्यमिति व्युत्पत्ते द्रव्यमेवार्थ -तात्त्विक पदार्थ प्रतिज्ञायां यस्य न तु पर्याया स द्रव्यार्थ' ।। द्रव्यमानास्तित्व प्रतिपादको नयविशेष तद्भावो द्रव्यातया-द्रव्यमात्रास्तित्त्व प्रतिपादक नयाभिप्रायेणेति यावत् शाश्वती, द्रव्यार्थिकनय मत पर्यालोचनाया मुक्त रूपस्य पद्मावरवेदिकाया आकारस्य सदाभावात् ? तथा वर्णपर्यायै कृष्णादिभि गधपर्याथै सुरभ्यादिभि रसपर्यायै तिक्तादिभि स्पर्शपर्यायै कठिनत्वादिभि अशाश्वतीअनित्या तेषा वर्णादीना प्रतिक्षण कियत् कालानन्तरं वाऽन्यथा भावनात् । अतादवस्थ्यस्य चानित्यत्वात् नचैवमपिभिन्नाधि करणे नित्यत्वानित्यत्वेद्रव्यपर्याययोर्मेदाभेदोपगमात , अन्यथोभयो Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनागमों मे स्याद्वाद रप्यसत्वापत्ते तथाहि शक्यते वक्तु परपरिकल्पित द्रव्यमसत्, पर्यायतिरिक्तत्वात् बालत्वादिपर्याय शून्यवन्ध्या सुतवत् , तथा परपरि कल्पिता पर्याया असतोद्रव्यव्यरिरिक्तत्वात् बन्ध्यासुतगत्बालत्वादि पर्यायवत् , उक्तञ्च द्रव्यंपर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिता' क कदा केन कि रूपा दृष्टा मानेन केन वा ।। १ ।। इति कृत प्रमग न “से एण्णठे मित्याद्य पसंहार वाक्य सुगम, इह द्रव्याम्तिकनयवादी स्वमत प्रतिष्ठापनार्थमेवमाह- नात्यन्तासत उत्पादो नापिसतो विद्यते विनाशो वा" नासतोविद्यते भावो नाभावो विद्यते सत', इति वचनात् , यौतुदश्येते प्रतिवस्तु उत्पादविनाशौ तदाविर्भावतिरोभावमात्रं यथा सर्पस्य उत्फणत्वविफणत्त्वे तस्मात् सर्ववस्तुनित्यामिति, एवञ्चतन्मतचिन्तायां संशय - किं घटादिवत् दव्यार्थतया शाश्वती उन् सकलकालमेवं रूपेति ? तत संशयापनोदार्थ भगवन्तं भूय पृच्छति पउमरवेइया ण' मित्यादि, पद्मवरवेदिका रणमिति पूर्ववत् भदन्त परम कल्याणयोगिन्-कियच्चिर -~कियन्त कालं यावद् भवति एवरूपा कियन्तं कालमवतिष्ठते इति भगवानाह - गौतम । न कदाचिन्नासीत् सर्वदैवासीदिति भाव अनादित्वात् , तथा न कदाचिन्न भवति सर्वदेव वर्तमान काल चिन्तायां भवति भाव , सर्वदेव भावात् तथा न कदाचिन्न भविष्यति, किन्तु भविष्यच्चिन्तायां सर्वदेव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यम, अपर्यवमितत्वान् , तदेव कालत्रयचिन्तायां नास्तित्त्व Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जम्बूद्वीप परणत्ति सूत्र १४१ प्रतिषेध विधाय संप्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति “भुवि च इत्यादि अभूच्च भवति च भविष्यतिचेति एवं त्रिकालावस्थायित्वात् ध्रुवा, मेर्वादिवत् ध्रुवत्वादेव सदैव स्वस्वरूपेविनियता, नियतत्वादेव च शाश्वती--शश्वद्भवनस्वभावा शाश्वतत्वादेव च सततगङ्गासिन्धुप्रवाह प्रवृत्तावपि पौण्डरीक (पद्म) हद इवानेक पुद्गल विघटरेऽपि तावन्मात्रान्य पुद्गलोचटन सभवात् , अक्षया न विद्यते क्षयो-यथोक्तस्वरूपाकार परिभ्र शो यस्या सा अक्षयत्वादेवाव्यया -अव्ययशब्दवाच्या, मनागपि स्वरूपचलनस्य जातुचिदप्य सम्भवात् , अव्ययत्वादेव स्वप्रमाणेऽवस्थिता मानुषोत्तरपर्वताविहिः समुद्रचत् , एवं स्वस्वप्रमाणे सदावस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या धर्मास्तिकायादिवत् ।। मूलम्-जम्बुद्दीवे णं भन्ते । दीवे किं सासए असासए ?, गोयमा! सिथ सासए सिअ असासए, से केणठेणं भन्ते ! एच वुचइ सि सासए सिअ असासए ?, गोयमा ! दव्वयाए सासए वणपज्जवेहिं गंध० रस० फासपज्जवेहिं असासए, से तेणठेणं गो० ! एवं वुच्चइ-सिय सासए सि असासए । जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे कालरोकेवचिरहोइ ?, गोयमा ! ण कयावि णासि ण कयाचि णत्थि ण कयावि रण भविस्सइ, भुविं च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे णिइए Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनागमो मे स्याद्वाद मामए अव्वर अवट्टिए णिच्चे जम्बुद्दीवे दीवे पण्णत्ते इति ।। सूत्र १७५ ।। मूलम्-जम्बुद्दीवे णं भन्ते । दीवे किं पुढविपरिणाम आउ परिणामें जोवपरिणामे पोग्गलपरिणामे ?, गोयमा ! पुढविपरिणाम अाउपरिणणामेवि जीवपरिणामेवि पुग्गलपरिणावि । जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे सव्वपाणा सव्वजीवा सभा सव्यत्तसा पुढविकाइ अत्ताए आउकाइअत्ताए तेउकाइअत्ताए वाउकाइअत्ताए वणस्सइकाइअत्ताए उववरणपुव्वा ?, गो० ! असइ अदुवा अणतखत्ता ॥ -श्री जम्बूद्वीप० ब०७ सूत्र १७५-१७६ ॥ टीका अथास्यैवशाश्वतभावादिक प्रनयन्नाह- जम्बूहीवेण" मित्याद, इदञ्च यथा प्राक् पद्मवरवेदिकाधिकारे व्याख्यातं तथाऽत्र जम्बृढीप व्यपदेशेनवोमिति, एवञ्च शाश्वता शाश्वतो बटो निरन्वयविनम्वरो दृष्टः किमसावपि नदवन' उत नेत्याहजम्बावे ण"मित्यादि, इदमपि प्राग् पद्मवत्वेदिकाधिकारे व्याज्यानमिति । अथ किंपरिणामोऽसौढीप इतिपिपृच्छिपुराह-जम्बूदीवे गा भते । इत्यादिजद्दीपोभदन्त द्वीप किं पृथिवीपरिणाम , पृथिवीपिण्डमय किमप्परिणाम जलपिण्डमय , एतादृशोच धाचिनरज म्कन्धादिवत् जीवपरिणामावपि भवत इत्या Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जम्बूद्वीप परणति सूत्र १४३ शंक्याह – किं जीवपरिणाम - जीवमय घटादिरजीव परिणामोऽपि भवनी याशंक्याह — कि पुगल परिणाम - पुद्गलस्वन्धनिष्पन्नः केवल गल पिण्डमय इत्यर्थं तेजसस्त्वेकान्त सुषमादावनुत्पन्नत्वेन 1 > एकान्तदुष्ममादौ तुविध्वस्तत्वेनजम्बुद्वीपेऽस्य परिणामेऽङ्गीक्रियमाणे कादाचित्कत्त्वप्रसङ्ग वायोस्त्वतिचलत्वेन तत्परिणामे द्वीपम्यापि चलत्वापत्तिरिति तयो स्वत एव संदेहाविषयत्वेन न प्रश्नसूत्रे उपन्यास, भगवानाह - गौतम | पृथिवीपरिणामोऽपि पर्वत दिमत्त्वात् अप्परिणामोऽपि नदीहढादिमत्त्वात् — यद्यपि स्वसमये पृथिव्यप् काय परिणामत्वग्रहणेनैव जीवपरिणामित्व सिद्ध तथापि लोकेतयोर्जीवत्वस्याव्यवहारात् पृथग ग्रहण वनस्पत्यादीनां - तु जीवत्व - व्यवहारः स्वपरसम्मत इति, पुद्गलपरिणामोऽपि मूर्त वस्य प्रत्यक्ष सिद्धत्वात्, कोऽर्थ ? जम्बुद्वीपोहि स्कन्धरूप पदार्थ सचावयवै समुदितैरेव भवति, समुदायरूपत्वात् समुदायिन इति यदि चाय जीवपरिणामस्तर्हि सर्वेजीवा अत्रोत्पन्नपूर्वा उतनेत्याशक्याह -- "जम्बुद्वीपे ग भते" इत्यादि, जम्बुद्वीपे भदत | द्वीपे सर्वे प्रारणा द्वित्रिचतुरिन्द्रिया सर्वेजीवा - पञ्चेन्द्रि याः सर्वेभूता तरव सर्वे सत्त्वा पृथिव्यप्तेजोवायुकायिका : अनेन च सा व्यवहारिकराशिविपयकएवाय प्रश्न, अत्रादि निगोदनिर्गतानामेव प्राणजीवादिरूपविशेष पर्यायप्रतिपत्ते, पृथिवीकायिकतयाप कायिकतयाते स्कायिकतया वायुकायिकतया वनस्पति > Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैनागमों मे स्याद्वाद कायिकतया उपपन्नपूर्वा:-उत्पन्नपूर्वा भगवानाह-"त गोयमा' एवं गौतम | यथैवप्रश्नपूर्ऋतथैवप्रत्युच्चारणीयं पृथिवीकायिकतया यावत् वनस्पतिकायिकतया उपपन्नपूर्वा कालक्रमेणसंसारस्यानादित्वात् , न पुन सर्वे प्राणादयो जीवविशेषा युगपदुत्पन्ना सकलजीवानामेककालं जम्बुद्वीपेपृथिव्यादिभावनोत्पादे सकलदेवनारकादि भेदाभावप्रसक्त. नचैतदस्ति तथा जगत्स्वभावादिति, कियतोवारानुत्पन्ना इत्याह-असकृद्-अनेकशः अथवा अनन्तकृत्व- अनन्तवारान् संसारस्यानादित्वात ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तराध्ययन सूत्र मूलम-धम्माधम्मागोमा, तिन्निवि एए अणाड या । अपज्जवसिया चेव, सव्वद्ध तु वियाहिया । ८॥ समए वि संतई पप्प, एवमेव विवाहिए। श्राएसं पप्प साईए, सपज्जवसिएविय ॥६॥ -~~श्री उत्तराध्ययन, वृहवृति, अध्ययन, ३६ सूत्र ५-६ ॥ टीका-धर्मश्चाधर्मश्चाकाशं च धर्माधर्मकाशानि त्रीण्यप्येतानि, न विद्यन्ते आदिर्येषा मेत्यनादिकानि, इत्यत कालात् प्रभृत्य" मूनि प्रवृत्तानीत्यसम्भवात् न पर्यवसितान्यपर्यवसितान्यनन्तानीतियावत् , न हि कुतश्चितकालात् परतएतानि न भविष्यन्तीति सम्भव , चैवौ प्राग्वत् , तथाच 'सर्वाद्धा' सर्वाकालं, कालात्यन्त संयोगे द्वितीया 'तु.' अवधारणेऽत सर्वदा म्वस्वरूपापरित्यागतो नित्यानीतियावत् , 'व्याख्यातानि कथितानि, सर्वत्र लिङ्गव्यत्यय. प्राग्वत , समयोऽपि 'सन्ततिम्' अपरापरोत्पत्तिरूपप्रवाहात्मिकां Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०६ जैनागमों में स्याद्वाद 'प्रा'य' श्राश्रत्य 'एवमेव' अनाद्यपर्यवसितत्वलक्षणेनैव प्रकारेण 'व्याख्यात' प्रहपत , पठन्ति च 'एमेव संतइ पप्प समरविति म्यष्टम , 'आदेश' विशेष प्रतिनियतव्यक्त्यात्मकं 'प्राप्य' अङ्गीकृत्य सादिक सपर्यवसित , 'अपि' समुच्यये 'च' पुनरर्थे भिन्नक्रमश्च देश पुन प्राप्येतिय,ज्य , विशेपापेक्षया ह्यभूत्वाऽय भवति भूत्वा च न भवतीति सादिनिधन उच्यत इति सूत्रद्वयार्थ ॥ मृलम्-सं नई पप्प ते ऽणाई, अप्पज्जवसिप्रावि अ । ठिई पड़च्च माइया, मपज्जवसिावि अ॥ - श्री उत्तराध्ययन, वृहदवृत्ति, अध्ययन, ३६, सू० १२ ।। टीका-'सन्ततिम्' उक्तरूपा 'प्राप्य' आश्रित्य ते' इति म्कन्धा परमाणवश्च अणाइ'त्ति अनादयोऽपर्यवसिता अपिच. नहि ते कदाचितत्प्रवाहतो न भूता न वा भविष्यन्तीति, ‘स्थिती' प्रतिनियतक्षेत्रावस्थानम्पा 'प्रतीत्य' अङ्गीकृत सादिकाः सपर्यवमिता अपि च, तदपेक्षया हि प्रथमतस्तथाऽस्थित्वं वावतिष्ठन्ते अवस्थाय च न पुनर्न तिष्ठ तीत्यभिप्राय ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नन्दी सूत्र , मूलम् - से कि त माइयं सपज्जवसि प्रणाय अपज्जवमिश्र च ?, इच्चेइयं दुबालसंग गणिपिडगं बुच्छितिनयहयाए साइअं मपज्जवसि, अवच्छित्तिनया अणा अपज्जवसि तं समासश्रो चउन्विहं पण्णत्तं, तंजहा - दव्त्रा खित्तो कालो भाव, तत्थ दव्वश्रण सम्मसु एग पुरिसं पड़च साइ सपज्जवसिश्रं, बहवे पुरिसे य पडुच्च अणाइय अपज्जवसिअं, खेचओ ण पच भरहाड़ पचेखयाड पडुच्च साइ सपज्जवसित्र, पंच महाविहाड पडुच्च प्रणाय अपज्जवसि कालओ णं उस्सपिणि सप्पिणि च पडुच्च साइ सपज्जव सि नो उस्मप्पिणिनो श्रसप्पिणिं च पच्च अणाइयं अपज्जवसित्र्त्रं, भावश्रो ण जे जया जिणपन्नत्ता भावा , Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद अाघविजंति पएणविज्जति परूविजंति दसिज्जति निदंसिज्जति उवदंमिज्जति तया ।ते) भावे पडुच्च साइमं सपज्जवसिगं, खाअोवसमिश्रं पुण भावं पडुच्च अणा अपज्जवमिश्र ' अहवा भवसिद्धियस्स सुयं साइयं सपज्जवसिमं च, अभवसिद्धियम्य सुयं णाइयं अपज्जवमिश्र (च) सव्यागासपएसग्गं सव्यागासपए सेहिं अणंतगुणि पज्जवक्खर निष्फ जइ, सव्वजीवाणंपि अ णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्धाडियो, जइ पुण सोऽवि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा, 'सुटठुवि मेहसमुदए होइ पभा चदसूराणं' । से त सोइ सपज्जवसिअं, सेत्तं प्रणाइयं अपज्जवसिय ॥ श्री नन्दी सूत्र ४३ ॥ टीका-अथ किं तत्सादि सपर्यवासितमनादि अपर्यवसितंच ? नत्र सहादिनावर्तते इतिसादि, तथा पर्यवसापर्यवसित, भावे क्तः प्रत्यय , महपर्यवसितेनवर्तते इति सपर्यवसित, आदिरहितमनादि, नपर्यवसितमपयवसित, श्राचार्य आह-इत्येतत् द्वादशागगणिपिटक “वाच्छित्ति नयहार" इत्यादिव्यवच्छित्ति प्रतिपादनपरोनयो व्यवच्छित्तिनय पर्ययास्तिकनय इत्यर्थ तस्यभावो व्यवछिचिनयार्थता तयापायांपेक्षयेत्यर्थ किमित्याह- सादि Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्री नदी सूत्र १४६ गपर्यवसितं नारकादिभव परिणत्यपेक्षया जीव इव, "अवुच्छित्तिनययाति अटर वििा प्रतिपादनपरोनयोऽव्यवच्छित्तिनयार्थोद्रव्यमित्यर्थ । तद भावस्तत्तातया द्रव्यापेक्षया इत्यर्थं , किमित्याह- अनादि अपर्यवसितं त्रिकालावस्थायित्वाज्जीववद अधिकृतमेवार्थ द्रव्यक्षेत्रादिचतुष्टयमविकृत्व प्रतिपादयति --- श्रुतज्ञानं समासत सोपेण चनुर्विधं एनायितं तद्यथा द्रव्यत क्षेत्रत कालत भावतश्च तत्र द्रव्यतो'ण' मितिवाक्यालंकारे सम्यक् श्रुतमेकंपुरुपं प्रतीत्यसादिमपर्यय सत कथमिति चेत , उन्यते, सम्यक्त्वावाप्तौ तन प्रथमपाठतो वा सादि पुमिथ्यात्वप्राप्तौ सति वा सम्यक्त्वे प्रमाद्भावतो महाग्लानत्वभावतो वा सुरलोकगमनसंभवतो बा विस्मृतिभुपागते केवलज्ञानोत्पात्तिभावतो वा , सर्वथा विप्रनण्टे सपयवसितं वहन्पुरुपान कालत्रयवर्तिन पुन प्रतीत्यानाद्यपर्थवसिंत सन्तानेन प्रत्तत्त्वात् कालवत तथा क्षेत्रतो मिति वाक्यालकारे पञ्चभरतानि पञ्चरवतानि प्रतीत्य सादिसपर्यवसान, कथ ? उच्यते, तेषु क्षेत्र ववसर्पिण्यां सुपमदुप्पमापर्यवसाने उत्सर्पिण्यान्तु सुपमा प्रारभे तीर्थ करधर्मसघाना प्रथमतयोत्पत्ते.सादि, एकान्ते दुप्पमादी च काले तदभावात् सपर्यवसित, तथा महाविदेहान् प्रात्यानाद्यपर्यवसित, तत्रप्रवाहापेक्षया तीर्थकरादीनामव्यवच्छेदात , तथा कालतो णमिति वाक्यलकारे, Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद अवसर्पिणीमुत्सर्पिणीं च प्रतत्य सादिसपावसित, तथाहि अवसर्पिण्या तिसृस्वेव समासु सुषमदुष्ष मादुष्मसुपमादु घमापानृत्सर्पिण्यां द्वयोः समयोः दुष्मम पुषमामुपमदुष्माम एयोभवति न परत, तत सादिसपर्यवासितं अत्रचोत्सर्पिण्यव पिरणी स्वरूपज्ञापनार्थं कालचक्र विशतिसागरोपम कोटा कोटीप्रमाण विनेयजनानुग्रहार्थं यथा भूतवृत्तिकृता दर्शितं तथावयमपिदर्शयाम - ' चत्तारि सागरोवमकोडिकोडीय सतईए उ । एगतसुस्समाखलु जिरोहि सव्घेर्हि निधिट्टा ॥ १ ॥ छाया - चतस्र. सागरोपम कोटी कोट्य मतत्यातु । एकान्त सुपमा खलु जिनै सर्वैर्निर्दिष्टा ॥ १ ॥ तीए रिसाणमाऊ तिन्नि ज पलियाई तह पमाणच । तिन्नेव गाउयाई आइपभांति समयन्नु || २ || छाया तस्या पुरुषाणामायु स्त्रीणिच पल्योपमानि तथा प्रमाणञ्च || त्रीण्येव गत्र्यृतानि यादी भांति समयज्ञा ॥ ॥ २ ॥ उपभोग परीभोगा जम्मंतर सुकयवीयजाया उ । कप्यतरूसमूहाओ होंति किलेस विणासि ॥ ३ ॥ छाया उपभोगपरीभोगा जन्मान्तर सुकृतवीजजातास्तु । कल्पतरुसमूहात भवन्तिक्लेशं विनातेपाम || ३ || ते पुग्ण दसप्पयाराकप्पतरू समणममय के ऊहि । वीरेहिविनिहिट्टा मणोरहा पूरा एए ॥ ४ ॥ छाया - ते पुनर्दशप्रकारा कल्पतरव श्रमणसमयकेतुभि. । धीरें विनिर्दिष्टा मनोरथा पूरका एतं || ४ || मत्तगया यभिंगा तुडियगा दी जोइ चित्ता | चित्तरसा मरिणयगा गेहागाग श्रणिय [ग] खाय ॥ ५ ॥ ५५० " Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नन्दी सूत्र १५१ छाया-मत्तागदाश्चभृ गास्त्रटिताङ्गादीपज्योतिश्चिवागा। चित्ररसामण्यङ्ग गृहाकारा अनग्नाश्च ।। शा मत्तंगएसु मज्जमायणाणिभिगेसु । तुडियगेसु य संगयतुडियाणि वहुप्पगाराणि ॥६॥ छाया - मत्तागदेपु मद्य सुखपेयं भाजनानिभृगेषु । त्रुटितागेपुच सगतत्रुटितानि वहुप्रकाराणि ।। ६॥ दीवसिहा जोइसनामया य निन्च करति उज्जोय । चित्तंगेसु यमल्ले चित्तरसा भोयणट्ठार ।।७॥ छाया-दीपशिखा ज्योतिर्नामकाञ्च नित्यकुर्वन्त्युद्योतम् । चित्रागेपु च माल्यचित्ररसाभोजनार्थाय ।।७।। मणियंगेसु य भूसणवराणि भवणारिण भवणरुक्खेसु। आइएणे [अणिगिणे] सु य इच्छियवत्याणि बहुप्पगाराणि ॥ ८॥ छाया--मण्यंगेपुचभूपणवराणि भवनानि भवनवृक्षेषु । प्राकीर्णेषु चेप्सितानि च [प्राथितानि] वस्त्राणि बहुप्रकाराणि ॥ ८ ॥ एरसु य अन्नसु य नरनारिगणाण ताणमुवभोगा भवियपुणब्भवरहिया इय सव्वएणू जिणा वित्ति ।। ६ ॥ छाया-एतेपुचान्येषु च नरनारी गणाना तेषामुपभोगा । भाविपुनर्भवरहिता इति सर्वज्ञाजिना त्रु बते ॥६॥ तोतिषिण सागरोवमकोडाकोडीडवीयरागेहि । सुसमत्ति समक्वाया पवाह स्वेण धीरेहिं ॥ १० ॥ छाया-ततस्तित्र सागरोपमकोटोकाटीमाना वीतरागैः। सुपमेतिलमाख्याता प्रवाहम्पेणधीरे ॥ १० ॥ तोए पुरिसाणमाउं दोनि उ पलियाईतह पमाणंच । दो चेव गाउयाह आइए भवंति ममयन्तु ।। १४॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैनागमों मे स्याद्वाद छाया - तस्यां पुरुषाणामायु द्वेतु पल्योपमे तथा प्रमाणं च । द्वे एव गव्यूते आदौ भणति समयज्ञाः ॥ ११ ॥ उवभोगपरिभोगा तेसिपि य कप्पपायवेहितो । होंति किलेसेण विनापायं पुरणाभावे ।। १२ ।। छाया - उपभोगपरिभोगास्तेपामपि च कल्प पापेभ्य । भवन्तिक्कशेन विना प्राय पुण्यानुभावेन || १२ | तो सुसमदुरयमाए पवाहरूवेण कोडिकोडीओ । अयराण दोत्रि सिट्टा जिरोहि जियरागदो सेहिं ॥ १३ ॥ छाया - तदासुपमदुष्पमायां प्रवाहरूपेण कोटी कोट्यो | अतरयोद्धे शिष्टे जिनैर्जितरागद्वेषै || १३ || तीए पुरिसाएमाउं एग पलिअ तहा पमाणच । एगच गाउय तीए याईए भनि समयन्नु ||१४|| छाया - तस्या पुरुषाण| आयुरेकं पल्योपम तथा प्रमाणं च एकच गव्यूतं तस्यां पुरुषारणा यादीभांति समया | १४|| उवभोगा तेसिपि य कप्पपायवहितो । होति किलेसेराविरा नवर पुरणाणुभावेणं || १५ || छाया उपभोगपरिभोगा स्तेपामपि च कल्पपादपेभ्य । भवन्तिक्लेशेनविना नवरं पुण्यानुभावेन ॥ १५ ॥ सूसमाव से से पढमजिणो धम्मनायो भयव । उपण सुहपुराणो सिप्पकलादंसयो - उमभो ॥ १६ ॥ छाया-सुपमा मावशेष प्रथम जना धर्मनाथको भगवान । उत्पन्न पूर्णशुभ शिल्पकाराकोरम || १६ || तो दुसमणा बागालीसा वन्हिसहिं । सागरकोटाकोडी एमेजोर्हि पग्गुता ॥ १७ ॥ छाया-ना दुःसम सपमा छादिचन्नाग्शिता वर्षसहस्त्र | गोटीकोटी Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नन्दी स्त्र 13 एवमेवजिनै प्रज्ञाप्ता ।। १७ ।। तीएपुरिसाणमा पुव्वपमाणेण नह पयाण च । वणुसंखा निट्टि विसेस सुत्तायो नायव्वं ॥ १८ ॥ छाया-तस्यां पुर पाणामायु पूर्वप्रमाणेण तथा प्रमाण च वनु सरन्यया निर्दिष्ट विशेप सूत्राग ज्ञातव्य ।। ६८ ॥ उब भोगपीभोगा पवरोसहिमाइए हिंविन्नेया । जिण विवासुदेवा सव्येऽवि इमाइ बालिसा । ८ ।। छाया- उपभोगपराभोगा प्रवरौपच्यादिभिर्विज्ञेया । जिनचमिवासुदेवा सर्वेऽग्यम्यां व्यतिक्रान्ता ॥ १६ ॥ इवीमहम्लाइ वालाण दूममा इमी । जीबियमाणुवभोगाइयाइ दीसति हायति ।। .० ॥ छाया-- एकविंशते सदर णिवणापमान्यापार ।। जो वेन नानोपभोगादिकानि दृश्यन्तहीयमानानि । पत्तो य सिनियरा जावपमाणाइगर निहट्ठा । पदमा घो। वाममहापाइ इगवीमा ।। २१ ॥ १० छत हितरा जीवित :माणादिनिर्दिया । अतिनुपनति (माऽति) घोग वर्षसत्त्राणि एकविशति ॥२१॥ पास पार एसोका भागो जित नि । सो शिर पडि गोविन्योन्जापगी वि ॥१॥ - प्रवपिरामेप कालविभागजिननिर्दिष्ट । ब प्रात तोमा विनय उपिण्यामपि ॥ २॥ ग्यनु कान्नचक्क मिसजणागुरमरट्टि (ह) या भाण व तरंबनेण महायो बिपन्न सुतायो नायव्वा ॥॥ तत्तकालच शिप्यजन्तान प्रायणिनम् । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनागमों में स्याद्वाद संक्षेपेण महार्थोधिरोप सूत्राद्ज्ञातव्य ॥ २३ ॥ "नोउसप्पिणी" त्यादि, नोत्सर्पिणीमव सर्पिणी प्रतीत्यानाद्यपर्यवसितं, महाविदेहपुहि नोत्सपिण्यवसप्पिणीरूप काल । तत्र च सदैवावस्थित सम्यक् श्रुतमित्यनाद्यपर्यवसित, तथाभावतो ‘णमितिवाक्यालकारे, 'ये' इत्यानि-र्दिष्टनिर्देशे ये केचन यदा पूर्वाह्नादौ जिन प्रज्ञप्ताजिनप्रज्ञप्ता भावा -पदार्था 'आघविज्जति' ति प्राकृतत्त्वादाख्यायन्ते, सामान्यरूपतया विशेषरूपतया वा कथ्यन्ते इत्यर्थं प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदप्रदर्शनेनाख्ययन्ते, तेषा नामादीना भेदा - प्रदश्यन्ते तत्यर्थ , प्ररूप्पन्ते नामा दभेदस्वरूपकथनेन प्रख्यायते नामाढीना भेदाना स्वरूपमाख्यायते इति भांवाथ , यथा-"पज्जायाणभिधेय ठियमन्नत्थे तदत्यानरवकग्व । जाइच्छियं च नाम जाव दव्य च पारण ।। १ ॥ छाया--पर्यायानभिधेय स्थतमन्यार्थेतदथनिरपेनम । यादृच्छिकंच नाम यावद्रव्यश्च प्रायेण ॥ १ ॥ जापुण तदत्यसन्न तदभियाण तारिसागार | कीरइ व निरागारं इत्तरमियर च मा ठवणा । २॥ छाया--यत्नस्तदथशून्य तदभिप्रायेणताहशाकारम् । क्रियतेवा निराकारमित्वरमित्रञ्च मा स्थापना ।। २ ।।" इत्यादि, तयादश्यन्त - उपमानमात्रोपदर्शनेन प्रकटी क्रियन्ते, यया गारव गवय, इन्यादि, नया निर्यन्ते--हेतुदृष्टान्तापद - नन मटनकि पन्ते, सदश्यते --उपनयनिगमना-या नि शंक शिव्यबुट्टी म्याप्यन्ते, अथवा उपदश्यते--सक जनयाभिप्रायावता Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नन्दी सूत्र ३ रात पटुप्रज्ञशियबुद्धिषु व्यवस्थापन्ते, तान् भावान 'तढा ' तस्मिन् काले तथा ssख्यायमानान् प्रतीत्य सादिसप विसित, एतदुक्तं भवति तस्मिन काले त न प्रज्ञापकोपयोग स्वरविशेष प्रयत्नविशेषनामनाविशेष मङ्गविन्यासादिक च प्रतीत्य सादिसपर्यवमितम्, उपयोगादे प्रतिकालमन्यथाऽन्ययाभवनात उक्त च 'उपयोग परपयत्ता आसणभेयाइया य पइसमयं । भिरणा परणवसा साइयसपज्जतय तम्हा' ॥ १ ॥ क्षायोपशमिकभाव पुन प्रतीत्यानामित प्रवाहरूपेण क्षायोपशमिक भावस्यानाद्यपर्य वमितत्वात् श्रथवाऽत्र चतुर्मंगिका, तद्यथा - सादिसपर्यवसितं १ साद्य पर्यवसित २ मनादिसर्यवसित मनापर्यवसित च ४, तत्र प्रथमभंगप्रदर्शनायाह- 'अथवे' त्यादि, अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने भवसिद्धिको भव्यस्तस्य सम्यक् श्रुत सादि (स) पर्यवसितं, सम्यक त्वलाभे प्रथमतयाभावात् भूयोमिस्यात्प्राप्ती केव जोत्पत्तौ वा विनाशात्, द्वितीयस्तु भंग शून्यो, नहि सम्यक् श्रुत मिथ्याश्रुत वा साठि भूत्वाऽपर्यवसितं सभवति, मिथ्यात्वप्रानी केवजात्पतो ववश्य सम्यक् श्रुतस्य विनाशात्, मिथ्यातस्यापि च सांदेरवश्य कालान्तरे सम्यक्त्वावाप्तावभावातू इति, तृतीयभङ्गकस्नु मिध्याश्रुतापेचयावेदितव्य, तथाहिमैत्रयस्यानादिमिथ्याद्र्ध्टेमिंच्याश्रुतमनादि सम्यकत्वावामौ तयातीति पर्यवसित, चतुर्थभङ्गकं पुनम्पदशयति - श्रभ , } १५५ च Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैनागमो मे स्याद्वाट त्यादि, अभववामिद्विक - अभव्यन्तम्य श्रुत मिथ्याश्रुतमनान्यपर्यवमित, तस्य सदैव सम्यक त्वादिगुणहीनत्वात् , एपा चतुभंगिका यथाश्रुतस्योक्तातथामतेरपिद्रष्टव्या, मतिश्रुतयोरन्योन्यानुगतत्वात् , कंवलमिहश्रुतस्य प्रक्रान्तत्वात्माक्षात्तस्यैव दशिता, अत्राह-ननुतृतीयभगे चतुर्थर गेवा श्रुतम्यानादिभाव उक्त , सच जघन्य उत मध्यम आहोस्विदुष्ट ?, उच्यते, जघन्यो मध्यमोवा न तृतकृष्ठो, यतस्तस्येद मान-'सव्वागास' त्यादि, सर्व च नाकाश च-माकाश. लोकाकोकाकाश मत्यर्थ , तस्य प्रदेशा -निविभागाभागा सर्वाकाशप्रदेशास्तेपामग्र -प्रमाण सर्वाकाशप्रदेशाग्र तत् सर्वाकाशप्रदर्शरनन्तगुणितम्-अनन्तशोगुणितमतककम्मिनाकाशप्रदेशेऽनन्तागुम्लघुपर्यायभावात् , पर्यायाग्रामर निप्पद्यते-पर्यायपरिमाणा नर नि पद्यते, इयमत्र भावना - मयंकाशप्रदेशपरिमाण सर्वाकाशप्रदेशैरनन्तशोगुणित यावत् परिमाण भवनि तावत् प्रमाण सर्वाकाशपर्यायाणाम भवति, एककम्मिन्नाकाशप्रदेश यावन्ता , गुमलघु पर्यायास्त सर्वेऽपि एकत्रपिगिडना एतावन्ना भवन्तीत्यर्थ , एनावत प्रमाण चाचर भवति, इट लोकत्वा मास्तिकायादय साक्षात् सूत्रे नोक्ता , परमार्थतम्तृतऽपि गृहीताद्रष्टव्या , नतोऽयमर्थ-सर्वद्रव्यप्रदेशाग्र मीदव्यप्रदेशग्नन्तगोगुणितं यावन परिमाण भवति तावत सर्वदव्यपर्याय परिमागा,-एतावत् परिमाणं चाक्षरं Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नन्दी सूत्र १५७ " भवति, तदपिचाक्षर द्विवाज्ञानमकारादिवर्णजातय्व, उभयत्रापि नरवृत्ते रूढत्वात् द्विविधमपि चेह गृह्यते, विरोधाभावात् ननु ज्ञानं सर्वद्रव्य पर्याय परिमाणं सम्भवतु, यतो ज्ञानमिहाविशेषोक्तौ सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणतुल्यताऽभिधानात् 'प्रक्रमाद् वा केवलज्ञानं गृही यते, तञ्च सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं घटतएव, तथाहि--यावन्तो जगतिरूपिद्रव्याणां ये गुरुलघुपर्यायां ये च रूपिद्रव्याणामरूपिद्रव्याणां वाऽगुरुलघुपर्यायास्तान सर्वानपि साक्षात् करतलकलित मुक्ताफलमिव केवलालोकेन प्रतिक्षणमवलोकते भगवान, नच येन स्वभावेनैकपर्यायं परिच्छिनन्ति तेनैव स्वभावेन पर्यायान्तरमपि, तयो पर्याययोरेकत्त्वप्रसक्त े, तथाहिघटपर्याय परिच्छेदनस्वभावं यज्ज्ञानं तयदा पट पर्याय परिच्छेत्तु - मलं तदा पटपर्यायणामपि घटपर्यायरूपत्तापत्ति अन्यथा तस्यतत्परिच्छेदकत्त्वानुपपत्ते, तथा रूपस्वभावाभावात्, 'ततो यावन्त' परिच्छेद्या पर्याया स्तावन्त परिच्छेदकास्तस्य केवलन्नानस्य स्वभावा वेदितव्याः, स्वभावाश्च पर्यायास्तत पर्यायानधिकृत्य सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं केवलज्ञानमुपपद्यते, यदकारादिकं वर्णजातं तत् कथ सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं भवितुमर्हति तत्पर्ययराशे सर्वद्रव्यपर्यायाणामनन्ततमे भागे वर्तमानत्वात्, तदयुक्त, कीरादेरपिम्बपरपर्यायभेदभिन्नतया सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणतुल्यत्वात्, ग्राह च भाष्यकृत् – "एक कमक्सरं पुरण मपरजायमेश्रो १ } Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैनागमों में स्याद्वाद भिन्न । तं सब्व दवपन्जायरासिमाण मुणेयव्वं ॥ १ ॥ छायाएकैकमक्षरपुन. स्वपरपर्यायभेदतोभिन्न । तत् सर्वद्रव्यपर्याय. राशिमानं ज्ञातव्यं ॥ १॥" अथकथनपरपायापेक्षया सर्व व्यपर्यायराशितुल्यता ?, उच्यते, इह अ अ अ इत्युदात्तोऽनुदात्त. म्वरितश्च, पुनरप्येकैकोद्विधा-सानुनासिकोनिरनुनासिकश्चेत्यकारस्यपड्भेदा , तांश्चपड्भेदान् प्रकार केवलो लभते, एवककारेणापि संयुक्तो लभते पड्भेदान्वं वकारेण एव यावद्धकारेण, एवमेकैककवलव्यञ्जनसंयोगे यथा पट् २ भेदान् लभते तथा सजातीय विजातीयव्यनजद्विकसंयोगेऽपि, एव स्वरान्तर संयुक्त तत्तद्व्यञ्जनसहितोऽप्पनेकान भेदान लभते, अपिच-एकैकोऽप्युदात्तादिकोभेद' म्बरविशेषादनेकभेदोभवति, वाच्यभेदादपि समानवर्णश्रेणकिम्यापि शब्दस्यभेदो जायते, तथाहि न येनैव स्वभावेन करशद हस्तमाचष्टे तेनैव स्वभावेन किरणमपि, किन्तु म्वभावभेदेन, त ISकारोऽपि तेनतेन ककारादनिा सयुज्यमानस्तं तमर्थ व वारणोभिन्नस्वभावो वेदितव्य , ते च म्वभावा अनन्नानातव्या , वाच्यम्यानन्नत्वान , एते च सर्वेऽपकारस्य म्बपर्याया , शेपास्तु सर्वेऽपि घटादिपर्याया याकारादिपर्यायाध परपर्याया , ते च स्वपर्याये गोऽनन्तगुणा नऽपि चाफारस्य सम्बधिनोद्रष्टव्या., ग्राहच - ये म्वपर्यायाग्ने तस्य मबन्धिना भवन्तु, ये तु परपर्यायाम्न विभिन्नवस्वाश्रयान्वान कथं तम्यमबन्धिनाव्यपदिश्यंत, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नन्दी मूत्र १५६ उच्यते, इहद्विधासम्बन्ध - अस्तित्त्वेन नास्तित्वेन च, तत्रास्तिस्वेन मम्बन्ध म्वपर्यायै यथा घटम्यरूपादिभि नाम्नित्वेन संवन्ध परपर्याय तेपातत्रासभवात् यथा घटावस्थाया मृद पिण्डाकारेण पर्यायेण यतएव च ते तम्य न सन्ति इति नास्तित्त्वसंवन्धन सम्बद्वा अतग्व च ते परपर्याया ग्वतेभवेयु, ननु ये यत्रन विद्यन्ते ने कथं तस्येतिव्यपदिश्यते ?, न खलुधन दरिद्रस्य न विद्यते इति तत्तस्य सवन्धि व्यपदेप्टुम शक्य, मा प्रापत लोकव्यवहारातिकम , तदेतत् महामोहमूढमनम्कतासूचक, यनो यदि नामते नास्तित्वसबन्धमधिकृत्य तम्येति न व्यपदिश्यते तहि सामान्यतो न मन्तीति प्राप्त , तथा च स्वम्पेणापि न भवेयु नचैतदष्टमिण्ट वा, नस्माढवश्यते नास्तित्त्वसंबन्धमङ्गीकृत्य तम्यति व्यवदेठया , धनमपि च नास्तित्त्वसंवैधमधिकृत्य दरिदन्य. ति व्यपदिश्यत ण्व, तथा च लोके वक्तारो-धनमग्यदरिद्रम्य न विगते इति, यदपि चोक्त -'न तत्तस्येति व्यपदेप्टु शक्य मिति तत्रापितदस्तित्त्वेन तन्यति व्यपदेप्टु न शक्य, न पुनर्नास्ति वे. नापि, नतो न कश्चिद्लौकिकन्यवहारातिक्रम , ननु नास्तित्वमभाव. 'प्रभावश्चनुन्छम्प तुन्छत्वेन च सह कथ सबन्ध ? तुम्हस्य मालशफिविक्लनया स्यन्यशक्तरप्यभावात्., 'अन्यन्चयदि परप-याणा तत्र नाम्निर न िनास्तिश्वनामह मवन्याभव . परपीयन मर गय ' न म नु घट पटामान माम Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमो में स्याद्वाद बद्ध पटेनापि सह सम्बद्धो भवितुमर्हति, तथा .प्रतीतेरभावात् , तदेतदसमीचीनं, सम्यक्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् तथाहि- नास्तित्त्वं नाम तेनतेन रूपेणाभवनमिष्यते, तच तेनतेन रूपेणाभवनं वस्तुनो धर्म , ततोनैकान्तेन तत्तुच्छरूपमिति न तेन सह संबन्धाभाव , सदपि च तेनतेन रूपेणाभवनं तंतंपर्यायमपेक्ष्य भवति, नान्यथा, तथाहि-यो यो घटादिगत पर्यायस्तेनतेनरूपेण मया न भवितव्यमिति सामर्थ्यात्तं तं पर्यायमपेक्षते इति सुप्रतीतमेतत्, ततस्तेनतेन पर्यायेणा भवनस्य त त पर्यायमपेक्ष्य सभवात्तेऽपि परपर्यायास्तस्योपयोगिन इति तस्येति व्यपदिश्यन्ते, एवरूपायर्या च विवक्षायां पटोऽपि घटस्य संबन्धीभवत्येव, पटमपेक्ष्यघटेपटरूपेणाभवनस्य भावात् , तथा च लौकिका अपि घटपटादीन परस्परमितरेतराभावमधिकृत्यसम्बद्धान् व्यवहरन्तीत्यविगीतमेतत, इतश्च ते परपर्यायास्तस्येति व्यपदिश्यते-म्बपर्यायविशेषणत्वेन तेपामुपयोगात् , इह ये यम्य वपर्यायविशेषणत्त्वेनोपयुज्यते ते तस्य पर्याया यथा घटस्यरूपादय पर्याया परस्पर विशेषका , उपयुज्यंते चाकारस्य पर्यायाण विशेषकतया घटादिपर्याया , तानन्तरेण नेपा म्बपर्यायव्यपदेशासभवात-तथाहि-यदि ते पर. पर्याया न भवेयु तो कारम्य म्वपर्याया ग्वपर्याया इत्येवं न व्यपदिश्येरन , परापेक्षयाम्वन्यदेशस्यभावात् , सर स्वपर्यायव्ययदेशकारणतयातेऽपिपरपर्यायाप्तम्योपयोगिन इन्तिम्गति व्यपदि. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नन्दी सूत्र १६२ श्यंते, अपिचसर्ववस्तु प्रतिनियतस्वभावं, सा च प्रतिनियतम्बभावता प्रतियोग्यभावात्मक तोपनिवन्धना, ततो यावन्न प्रतियोगिज्ञानं भवति तावन्नाधिकृतं वस्तु तदभावात्मक तत्त्वतो ज्ञातु शक्यते, तथा च सति घटादिपर्याणामपि अकारम्य प्रतिये गित्त्वात्तदपरिज्ञाने नाकारो याथात्म्येनावगतु शक्यते इति घटादिपर्याया अपि अफारस्यपर्याया , तथाचात्र प्रयोग -यदनुपलब्धी यस्यानुपलब्धि स तस्य संवन्धी यथा घटस्य रूपाढय ,घटादिपर्यायानुसजन्य चाकारस्य न यायात्म्येनाप तब्यारेरिति ते तरण संवन्धिन नचायमसिद्धोहेतु , घटादिपर्यायरूपत्तियोग्यज्ञाने तदभावात्मकम्याकारम्य तत्वतोजातत्वायोगादिति, श्राद च भाप्यवृत्"जेसु अनासु तो न नजर नजर य नासु। कह तस्म ते न धम्मा १, घडरसरुवाइधम्मच ॥ १ ॥ छाया ॥ येष्वज्ञातपु म को न जायते ज्ञायते च जाते। तस्य त न धमा घट स्य म्यादि धो इन ॥ १ ॥' तस्माद् घटादिपयांया अपि __ अकारस्य संबन्धिन इति म्वपरपयायापे नयाऽफार मद्रव्यपर्याय परिमाण , एवमाकाण्दयोऽपि वर्णा मर्वे प्रत्येक नद्रव्यपर्यायपरिमाणा वेदितव्या एव घटादिकमपि प्रत्येक मयं वन्तृजातं परिभावीय, न्यायग्य ममानवान , न तदनाप , यत उनमाचाराद्ग--"जे पग जाणड, से मयं जागट, जे मञ्च जागड से एग जाणई" अन्यायमर्य - य एवं वन्नृपजभने सर्वपर्याय Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनागमों में स्याद्वाद स नियमान मर्वमुपलभते, सर्वोपलब्धिमन्तरेण विवक्षितस्यैकस्य ग्वपर पर्यायभेदभिन्नतया सर्वात्मनावगन्मशक्यस्वात , यश्च सर्व सर्वात्मा साक्षादुप तभी स एक स्वपरप योय नेदभिन्न जानाति, तथाऽन्यत्राप्युक्त "एकोभाव सर्वथा येन दृष्ट , सर्वेभावा सर्वथा तेनहा । सर्वेभावा सर्वथा येन दृष्टा , एकोभाव मर्वथा तेन दृष्ट ॥१॥' तदेवमकारादिकमपिवर्णजातं केवलज्ञानमिव सर्वद्रव्यपर्याय परिमाणमिति न क श्चविरोध । अपि च केवल ज्ञानमपि म्वपरपर्यायभेदभिन्न यतस्तदात्मस्वभा. वरूपं न घटादि वस्तु स्वभावात्मक ततो ये घटादिस्वपर्यायाम्ते तस्यपर्याया ये तु परिच्छेद कत्त्वस्वभावास्ते सपर्यायापरपयाया अपि चपूर्वोक्तयुक्त स्तम्यसबन्धिन इति स्वपरपर्यायभेदभिन्न तथा चाह -भा व्यकृत्--वत्थुमहावं पइ तंपि सपरपज्जायभेदभिन्नतु । तं जेण जीयभावो भिन्ना य तो घडाईया ॥ १ ॥ छाया, वस्तुम्वभाव प्रति तदपि स्वपरपर्यायभेदभिन्नतु । तत येन जीवभाव भिन्नाश्च ततो घटादिका. ॥ तत. पर्यायपरिमाणचितायां परमार्थनो न कश्चिदकारादिश्रुत केवलज्ञानयोर्विशेप , अभंतु विशेप - केवल ज्ञानं स्वपर्यायैरपि सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणतुल्यमकारादि क तु म्बपरपर्यायैरेव, तथाहि-यकारभ्य म्वपर्याया सर्वद्रव्यपर्यायाणमनन्ततमभागकल्पा , परपर्यायान्तुम्बपर्यायम्पानन्ततमभागान सबद्रव्यपाया , नन भ्वपरपर्याय व सर्वत्र यपीय Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नन्दी सूत्र १६३ परिमाणमकारादिकभवति, ग्राह च भाप्यन -मय पज्जाएहि उ केवलेण तुल्न न होइ न परेहि । मयपरपजाहिं तु न तुल्ल कंवलेणेव || १ || छाया 11 पर्यायानु केवलेन तुल्यं न भवति न परै । वपर पर्यायग्नु नतुल्य केवलेनैव । १ ॥ यथा चा कारादिक सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाण तथा मत्यादीन्यपि ज्ञानानिद्रव्यानि न्यायम्य ममानवान ॥ इह यापि मर्वज्ञानमविशेपेणानरमुच्यतं सर्वदन्यपर्यायपरिमाणं च भवति तयापिश्रुनाधिकारादिताक्षर श्रुतज्ञानमवसेयं, श्रुतज्ञानञ्चमतिज्ञानाविनाभृनतनो मति.ानमपि नदेव यन श्रुततानमकारादिकं ची कात सर्वव्यपर्यायपरिमाण नन्च मर्वोत्कृष्श्रुनफेवलिनी द्वादश गाविद सगछने न शेपम्य. नतोऽनादिभाव (नग्य जन्तु ।। जघन्योमयमो द्रष्टव्य नतत्कृष्ट इनिस्चितम । अपर श्राइनन्वनादिभाव व श्रुतम्य कथमुपपाते ? यावना यदा प्रबलशुतलानावरगाम्न्यानदि निद्राम प्रदर्शनावरणादय मभवन्ति नदामभारत मायन श्रुतम्यावरण यथाऽवा यादि शानन्य नतोऽका दिजान मवादमदेवयुज्यते धुनमपि नानादिमदिन कथ तृतीयचतुर्थभगमभव ?, ततयार .. 'म-यजीवाप' मावानामपि, गामिनिवाश्यानपारे 'परण्य-अनजानन्य (गुनमतुलिन पंवलायन न भा यपत् ) रन रान च मनितानाविनाभावि ननो मनिजानन्यापि स्पनन्नोभार नियोः पाटिन' मवानाइन नापिन्वयनन्न Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनागमों मे स्याद्वाद तमोभागोऽनेकविध , तत्र सर्वजघन्यश्चैतन्यमानं, तत् पुन सर्वोस्कृष्टतावरणस्त्यानद्धिनिद्रोदय भावेऽपि नावियते ।, तथा जीवस्वाभाव्यात् , तथा चाह-जइ पुण' इत्यादि, यदि पुन सोऽ पि अनन्ततमोभाग आत्रियने तेनतर्हि जीवोऽजीवत्वंप्राप्नुयात् , जीवोहिनाम चैतन्यलक्षणस्ततो यदिप्रबलश्रुतावरणस्त्यानद्धि निद्रोदयभावेचैतन्यमात्रमप्यात्रियेत तर्हि जीवस्यस्वभावपरित्यागादजीवतेत्र सम्पनीपद्यत, नचैतदृष्टमिष्टंवा, सर्वस्य सर्वथा स्वभावानि स्कारात् , अौवदृष्टान्तमाह-'सुट्टवी' त्यादि, सु-ठ्वपि मेघसमुदये भवति प्रभाचन्द्रसूर्ययो., इयमनभावना~यथा निविडनविडतर मेवपटलैराच्छादितयोरपि सूर्याचन्द्रमसन कान्तेन तत् प्रभानाश संपगते, सवस्य सर्वथा स्वभावापनयनस्य कर्तुमशक्यत्वात् , एवमनन्तानन्तैरपि ज्ञानदर्शनावरण कर्मपरमाणुभिरेकेक यात्म शत्याऽऽवेष्टितस्यापि नैकान्तेन चैतन्यमावस्या (प्य) भावोभवति ततो यत्सर्वजघन्यं तन्मतिश्रुतात्मकत सिद्धोऽक्षम्यान तनमाभागानित्योद्घटित , तथाच सति मतिज्ञानस्य श्रतज्ञानम्य चानादिभाव प्रतिपयमानो न विरुध्यते इतिस्थित । 'सत्त' मित्यादि, तदेतत् सादिसायसित मनाद्यपर्यवसितच ॥ इति श्री नन्दीसूत्रेऽक्षरानन्तभागम्य नित्योद्घाटता समाप्ता म नम्-इच्चेडयंमि दुवालमागे गणिपिडगे अणंता भावा आणना अभावा अणताहेऊ श्रणंता कारणा अणंता Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नन्दी मत्र १६५ अकारणा अणंता जीवा अणंता अजीवा अणंतो भवमिद्रिया अणंता अभवमिद्धिया अणंता सिद्धा अणंताअमिद्धा पएणत्ता--'भावममावहिऊमहेऊ कारणमकारणे चेच ' जीवाजीवा भविमभविश्रा सिद्धा असिद्धाय ।। श्रीनन्दीसूत्र, गाथा ८५ ।। टीका-'इम्येतस्मिन द्वादशाग गणिपिटके' पतत्पूर्ववदेचव्यारव्येयं, 'अनन्ता भावा--जीवादय पदार्या , प्रज्ञप्ता इनि योग , तथा 'अनन्ता 'प्रभावा -मर्वभावाना पररूपेणासत्वात् त एवान ता अमावा दृष्टव्या . तथाहि-ग्वपरसत्ताभावाभावात्मक चतुतत्त्व, यथा जीवो जीवात्मना भावम्पो श्रीवात्मना चाभावरप , 'अन्यथाऽजीवत्वप्रमगात् अत्र ववक्तव्य तत्त नोन्यते ग्रन्थगौरवमयादिति तथाऽनन्ना 'हनवो' हिनोति-- गमयनि जिज्ञामितधम्मविशिष्टमर्थमिति हेतु , ते चानन्ता , तथाहिवन्तुनाऽनन्ता धर्माग्ने च तत्प्रतिवधर्मविशिष्टवन्तुगमकाम्नतोऽनन्ता नवो भवन्ति ययोत्तरेनुननिपक्षभूना 'प्रोतव तेsपि पनन्ना. नवा 'अनन्नानि पारस्पानि-पटपटाना निर्वसंपानि म पिटतन्त्वानि अनन्नान्यसरशानि, मपामपि पारगाना कार्यान्तराग पधिपत्यापारणवान् , तथा जीया - प्रा. गिन . "जीदा -परमाणुद्वारगुणदर, भन्या प्रनादिपारिमिमिति मन्योन्यताया. दिपरीनामव्या . निदा Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैनागमों मे स्याद्वाद अपगतकर्समलङ्कारा, असिद्धा,-संसारिण., एते सर्वेऽप्यनन्ता:, प्रज्ञप्ता , इह भव्याभव्यानामानन्त्येऽभिहतेऽपि यत्पुनस्सिद्धा इत्य भिहितं तत् सिद्ध भ्य संसारिणामनन्तगणताख्यापनार्थ ॥ PEDIA Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ वन्देवारम् ।। अथ प्रज्ञापनोपाङ्ग पञ्चमं पर्यायपदम् ဿ मूलम्-कहविहा ण भने । पञ्जवा पन्नत्ता ५, गोयमा ! दुविहा पजवा पन्नत्ता, तंजहा-जीवपजवा य अजीवपञ्जया य | जीवपज्जवा णं भने । किं मखेज्जा थमंग्वेज्जा अणंता . गोयमा । नो मंखेज्जा नो अमंगज्जा अणंता, से केपट्टेण भते ! एवं बुनईजीव पज्जया नो मंग्वेज्जा नो भबिज्जा याना, गोयमा । 'यमंदिजा नेडिया अग्विज्जा असुरकुमाग प्रमंपिज्जा नागकुमाग असन्विज्जा सुनगाणकुमारा 'यमग्विज्जा विज्जुकुमाग अमंन्विज्जा गणिकुमाग मंग्विजा दीपकुमार श्रमविज्जा उदतिकमाग माग्विजा दिनीयुमाग एमन्दिन्जा पाउसमाग पविजा भनिएमा मंग्दिन्जा पृदविकशाया गदिमा भारकाया प्रगग्विजा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैनागमों मे स्याद्वाद तेउकाइया असंखिज्जा वाउकाइया अणंता वणप्फइ काइया अहाँखेज्जा बेइंदिया अखेज्ज ते दिया अलंखेज्जा च उरिंदियाअसंखेज्जा पचिंदियतिरिक्ख जोणिया असंखेज्जामणुस्मा असंखज्जा वाणमतग असंखेज्जा जोइसिया असंखेज्जा वेमाणियो अणंता सिद्धा. से एएणठेण गोयमा ! एवं वुच्चइ तेणं नो खिज्जा नो अग्विज्जा अणंता ।। सूत्र १०३). टीका- काविहा णं भंते ! पज्जवा. पन्नत्ता?' इति, अथ केनाभिप्रायेण गोतमस्वामिना भगवा वं पृष्ट ? उच्यते, उक्तमादौ प्रथमे पदे प्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञता, तद्यथा-जीव प्रज्ञापना अजीवप्रज्ञापना चे.ने, तत्र जीवाश्चाजीश्च द्रव्याणि, द्रव्यलक्षणं चेदम्-- 'गुणपर्यायवद्रव्य' मिति (तत्वा० १०५० ३१) ततो जीवाजीवपर्यायभेदावगमार्थमेव पृथ्वान , तथा च भगवानपि निर्वचनमेवमेवाह-'गोयमा ।' दुविहा पजवा पन्नना, तंजहाजीवपन्जवा य अजीवपज्जवा य इति, तत्र पर्याया गुणाविरोपा धर्मा इत्यनर्थान्तरं, ननु मन्बन्ध प्रतिपादयतदक्त - म्-इह त्वोदयिमादिभावा प्रयपर्याय पारमाणावधा'ण प्रतिपाद्यत, इनि, प्रौढयिकादयश्च भावा जीवाश्रया , ततो जीवपर्याया एव गम्यने अथ चास्मिनिर्वचनमूने हयानामपि पाया उक्त स्तनो न सुन्दर, सम्पन्ध , नदयुक्रम , अभिप्रायापीनानात , श्रीदयि. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाग पञ्चम पर्यायपदम् ___ को हि भाव पुद्र नवृत्तिपि भवनि, नतो जीवाजीव देनॉटयिकभावग्य दृषि यान्न मन्बन्ध रूपननिर्वचनत्र योर्विरोध । मम्प्रति सम्बन्ध ( पर्याय ) परिमारगावगमाय पृ-ति-'जीवपजवा ग मते । किं सब जा' मृत्यादि, दर यम्मानपनिमिद्धवजी सर्व पि नैरयिकाढय प्रन्ये काम, न्येया मनवमन्ययन्त्र मन्छिममनुष्यापेनया वनापनय मिहान प्रमनन्ता नन पर्यायिगाम नन्नार भवन्न्यनन्ना जीवप गंया ॥ नदेव गौतमेन मामान्यना जीव पर्वाचा पृष्टा भगवानपि मामान्चेन निर्वचनगुनगान , इदानी विपविषय प्रश्न गौतम'प्रारमलम-नेरइयागं भंते । केवडयो पजवा पनना , गायमा । अयंतापज्जवा पन्नता. मे रंगटटंग भत ! एव युगा नेग्डयागं अगता पजया पवना, गोयमा । नेडा नेडियम दबयाए तुल्ने पानहयात नुमने गोपाहण्टटा मिव हींग गिय तुल्ने मित्र :गि उर हीरो मानिन्जाभानीने या माग्विज मागही या पनि गुनाशि वापस विसगुनहरा हा दर सभा निजामागमाना या दिनानागा या नविन गमणि का रEिET. वा. रिश चिपियन मिया Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद असंखिजजइभागहीणे वा, संखिज्जइमागहीणे वा संखिज्जगणहीणे वा असंखिज्जगुणहीणे वो अह अमहिए असंखिज्जभागममहिए वा संखिउजभागममहिए चा संखिज्जगुणमन्महिइ वा असंखिज्जगुण मन्महिए वा कालवण एपउजवेहिं मिय हीणे मिय तुल्ले सिय अभहिए, जइहीणे अणंतभागहीण वा असखेज भागहीणे संखेजमागहीणे वा संखेजगुणहीणे वा असंखेजगुणहीणे वा अणंतगुणहीणे वा अह अमहिए अणंतभागमभहिए वा असखे नभागममहिए वा संखेज भागमभहिए वा सखेजगुणमन्भहिय वा अप्सखेज्जगुणमभहिए वा अणंतगुणमाहिए वा, नीलवन्नपजवेहि लाहिय वनपनहिं पोयवनानहिं हालिबन्नपज्जवेहिं सुकिल्लवन्नपजवेहि छहाणव डिए मुभिगधपज्जवेहि दुभिगधपज्जवेहि य छहाणवडिए, नित्तरमपजवेहिं कइयरमपनवेहि कसायरसपनवेहि अविनरमपज्जवेहिं महुररसपज्जवेहिं छहाणवडिए, कराबडफामपजवेहिं मउयफामपनवेहिं गरुयफोसपनवेड लइयफामपनवेहिं सीयफायपज्जवे हिं उमिण फायपजवहिं निद्धफामपज्जवहिं नुक्खफामपनवेहि छहाणवडिए, आभिणिवोटियनाण. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाई पत्रम पर्यायपदम् ? पज हि मुयनाणपज हि अाहिनाग पञ्चवहि महअन्नाणपज्जवहिं मुय ग्रन्नाा पञ्जवहि मिमंगनागपन्नबहिं चक्युटमणपन्नव हिं अचम्युदमणपज हिं योरिटमगपजवहिं छहाणयटिए, से तंगटेण गोयमा ! एव सुबट नेरड्याणं नो मग्ये ना ना श्रमबना अगंना पच्या पन्नत्ता । (मृ. १०४) टीका नेण्यागा भने । वयाप जया पन्नत्ता' अनि, यनाभिप्रागव' गौतम श्वान ? उन्नं पूर्व किल मामान्य प्रश्न पर्यापिणामनन्नन्यार पर्या गणामान यमुत, पत्र पन पर्याधिगागानन्य नाम्नि नत्र समिनि पनि-र प्रयाग प्रत्याधि, नगापि नि चमिटा 'अनन्ना हाल, 'प्रत्रय जाता - प्र. नान - पागल भने ' ल्यादि, 'प्रा - मार्थन--पन कारणेन पन दना भान्न ' पने-ना. विसाला पगम-मनन्नानि "भगवाना गायमा ';.. राम द यादि पाशमान६५ पटोटे ददेव पनामानन्द या . यापन नमानचनार नार र नामा 7 मानवारि दिन माना ག མ་ ,་་་ - , " པུ་པས་ག་པ་་ ་ ས ས ས པས Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनागमों में स्याद्वाद असंखिजइभागहीणे वा, संखिज्जइमागहीणे वा संखिज्जगणहीणे वा असंखिज्जगुणहीणे वो अह अमहिए असखिज्जभागममहिए वा सखिउजभागमठमहिए वा सखिज्जगुणमब्भहिइ वा असंखिजगुण ममहिए वा कालवण एपउजवेहि सिय हीणे मिय तुल्ले सिय अमहिए, जइहीणे अणतभागहीण वा असंखेज भागहीणे सखेजभागहीणे वा संखेज्जगुणहीरो वा असंखेजगुणहीणे वा अणतगुणहीणे वा अह अपहिए अणंतभागमभहिए वा असखेनभागममहिए वा संखेज भागमभहिए. वा सखेजगुणमभहिय वा असखेजगुणमब्दहिए वा अांतगुणममहिए वा, नीलवनपज्जवेहि लाहिय वनप नहिं पोयबन्न पनवेहिं हालिवन्नपनवेहि सुकिल्लवन्नपनवेहि छहाणवडिए मुभिगधपजवेहिं दुभिगधपज्जवेहिं य छहाणवडिए, नित्तरमपनवेहिं कइयरमपजवेहिं कसायरसपनवेहि अविनरसपज्जवेहि महुररमपज्जवेहिं छहाण वडिए, करवड फायपजवेहि मउयफामपनवेहिं गरुयफोसपनवे िलयफामपनवेहि मीयफामपज्जवहिं उमिग फायपनवहिं निफामपज्जवहिं लुक्खफामपनवहि छटाणवडिए, आमिणिवोटियनाण Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग े पञ्चम पर्यायपदम् १७१ पज्जवहिं सुयनाणपज्जवहिं श्रहिनारा पज्जवेहिं मइअन्नाणपज्जवेहिं सुयअन्नाथपज्जवेहिं विभंगनाणपज्ज - वेहिं चक्खुदंसणपज्जवहिं चक्खुद मपज्जवे हिं ओहिदसणपज्जवहिं छट्टा वडिए से ते ठेणं गोयमा ! एव वच्च नेरइयाणं नो संखेजा नो असं - खेज्जा अता पज्जवा पन्नत्ता | ( सू० १०४) टीका - नेरइयारण भंते । केवइयापज्जवा पन्नत्ता' इति, अथ केनाभिप्रायेणैव गौतम पृष्टवान् १, उच्यते, पूर्व किल सामान्यप्रश्ने पर्यायणामनन्तत्वाद पर्यायाणामान त्यमुक्त, यत्र पुन पर्यायिणामानन्त्यं नास्ति तत्र कथमिति पृच्छति – 'नेर इयाण' इत्यादि, तत्रापि निर्वाचनमिदम् 'अनन्ता' इति, श्रव जातसशय - प्रश्नयति-- 'सेकेट्ट े भंते ।" इत्यादि, अथ केनार्थेन - केन कारणेन केन हेतुना भदन्त । एवमुच्यते - नैरयिकारणा पर्याया एवम् - अनन्ता इति ?" भगवानाह गोयमा | नेर- इए नेरइयस्स दव्वट्टयाए तुल्ल े, इत्यादि, अथ पर्यायारणामान - न्त्यं कथ ं घटते इतिपृष्ठे तदेव पर्यायाणामानन्त्यं यथा युक्न्युपपन्न भवति तथा निर्वचनीयं नान्यत् ततः केनाभिप्रायेण भगवतैवनिर्वचनमवाचि - नैरयिको नैरयिकस्यद्रव्यार्थ तया तुल्य इति । उच्येत, एकमपिद्रव्यमनन्तपर्यायमित्यस्य न्यायस्य प्रदर्शनार्थं तत्र यस्मादिदमपि नारक जीवद्रव्यमेकसख्याऽवरुद्ध Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैनागमों मे स्याद्वाद मिति नैरयिको नैरयिकस्यद्रव्यार्थतया तुल्य , द्रव्यमेवाद्रिव्य" तद्भावो द्रव्यार्थता तया द्रव्यार्थतया तुल्य एव तावत्द्रव्या र्थतया तुल्यत्वमभिहित, इदानी प्रदेशार्थतामधिकृत्य हुल्यत्वमाह-'पएसट्टयाए तल्ले' इदमपि नारकजीवद्रव्यं लोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशमितिप्रदेशार्थतयापि नैनयिको नैरयिकस्य तुल्य , प्रदे गाग्वार्थ तद्भाव प्रदेशार्थता तया प्रदेशार्थतया, कस्मादभिहित मिति चेत्उच्यते, द्रव्यद्वैविध्यप्रदर्शनार्थ, तथाहि-द्विविधं द्रव्यं-प्रदेशवत् अप्रदेशवच, तत्र परमाणुरप्रदेश , द्विप्रदेशत्रिप्रदेशादिकं तु प्रदेशवत् , एतच्चद्रव्यद्वैविध्यं पुद्रलास्तिकाय एव भवति, शेपारण तु धर्मास्तिकायादीनि द्रव्याणि नियमात् मप्रदेशानि, 'योगाहणट्टयाए सियहीणे' इत्यादि, नैरयिकोऽसख्यातप्रदेशोऽपरस्य नैरयिकाय तुल्यप्रदेशस्य अवाहनमवगाह शरीरोन्छय अवगाहनमेवार्थोऽवगाहनाधस्तद्भवोऽवगाहनार्थता तया अवगाहनार्थतया 'सिय होणे' इत्यादि, म्याच्छन्द, प्रशमाऽस्तित्वविवादविचारणाऽनेकान्तमशयप्रभादि वर्थेपु, अत्राऽनेकातद्योनकम्य ग्रहणं, म्याहीन अनेकानहीन इत्यर्थ., स्यात्तुल्यः-अनेकान्तेन तुल्य इत्यर्थ , म्यादभ्यधिक - अनेकान्तेना. भ्यधिक इति भाव , कथमिति चेन , उच्यते, यम्माद्वक्ष्यति रत्नप्रभापृथिवीनरयिकाणा भवधारणीयम्यबक्रियशरीरस्य जयन्यनावगाहनाया अग लम्याऽमल्येयो भाग उत्कर्पत मन धन घि Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापने पाङ्ग पञ्चम पर्यायपदम् १७३ त्रयो हस्ता षट् चा लानि, उत्तरोत्तरासु च पृथिवीपु द्विगुणं २ यावत् सप्तम न.कपृथिवीनरयिकाणा'जन्यतोऽव नाहनांगुलस्यासख्येयो भाग उत्कर्षत पञ्चधनु शतानीति, तत्र जइ 'हीणे' इत्यादि, यदि हीनस्ततोऽसंख्येयभागहीनोवा स्यात् सख्येयभागहीनो वा संख्येषगुणहीनो चा स्यात् असंख्ययगुणहीनो वा, अधाम्यधिकस्ततोऽसंख्येयभागाभ्यधिको वा स्यात् सख्येयभागाभ्यधिको वा संख्येयगुणाभ्यधिको वा असंख्येयगुणांभ्यधिको चा, कथमिति चेत् ?, उ यते. एक किल नारक उचैस्त्वेन प्पच धनुशतानि अपरेस्तान्येवाग लाख्येयभागहीनानि, अङ्गलासंख्येयभागश्च पञ्चानी धनु - शतानों असंख्यये भागे वर्त्तते, तेन सोऽङ्ग लासख्येयभागहीन पञ्च धनु शतप्रमाण अपरस्यपरिपूर्णपश्चधनु --- शतप्रमाणस्यापेक्षयाऽसंख्येचभागहीन' इतरस्त्वितरापेक्षयों असख्येयभागभ्यधिक तथा एकः पन्चधनुशतान्युच्चैस्त्वेन अपरस्तान्येव द्वाभ्यां त्रिभिवों 'धनुभिन्यू नानि ते च द्वे त्रीणि चा धनूघि पञ्चानों धनु शताना संख्येयभागें वर्तते ततः सोऽपरस्य परिपूर्णपन्चधर्नु शतप्रमाणस्यापेक्ष्या संख्येयभारहीनः, इतरंस्तु परिपूर्णपञ्चधनु शतप्रमाणस्तदपेक्षया संख्ये. यभागाभ्यधिक', व एक पञ्चविंश धनु शतमुच्चस्त्वेनापर परिपूर्णानिन्चधनुशतानि, पञ्चविंशं च धनु शतं चतुर्भिगुणितं पञ्चधनु शतानि भवन्ति तव पविशत्यधिकधनु शतप्रमालो Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ नागमों में स्याद्वाद म्त्वेऽप्यपरस्य परिपूर्णपञ्चधनु शतप्रमाणस्यापेक्षया स ख्येयगुणहीनो भवति तदपेक्षया त्वितर परिपूर्णपञ्चधनु शनप्रमाणः गंख्येयगुणाभ्यधिक., तथा एकोऽपर्याप्तावस्थायामङ्ग लस्यास स्येयभागावगाहे वळते अन्यस्तु पञ्चधनु शतान्युचस्त्वेन, अङ्ग,लास ख्येयभागश्वास ख्येयेन गुणित सन पञ्चधनु शतप्रमाणोभवति, ततोऽपर्याप्तावस्थायामङ्ग लास ख्येयभागप्रमाणेऽवगाहे वर्त्तमान परिपूर्णपञ्चधनु शतप्रमाणापेक्षया असंख्येयगुहीन, पञ्चचनु शप्रमाणम्तु तदपेक्षयाऽसख्येयगुणाभ्यधिक । 'ठिहीर सिय हीण' इत्यादि, यथाऽवगाहनया हानौ वृद्धौ च चतु. स्थानपतितउ. क्तस्तमा स्थि याऽपि वक्तव्य इति भाव एनदेवाह'जइहीणे' इत्यादि तत्रैकस्य किल ना कस्य त्रयस्त्रिंशत् मागरोपमाणि स्थिति अपरस्य तु तान्येव समयादिन्यूनानि, तत्र य समयादिन्यूनम् त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणस्थितिक स परिपूर्णत्रयस्तिशतमारोपस्थितिकनारका. पत्नयाऽस ख्येयभागहीन परिपूर्णत्रयस्त्रिशसागरोपमस्थितिकस्तु तापक्षयाऽस ख्येयभागा यधिक , समयादे सागरोपमापेक्षयाऽम ययभा मात्रत्वात् , तथाहि-अमस्यै समयरेकाऽऽवलिका स स्यानाभिरावलिकाभिरेक उच्छासनिश्वासकाल सप्तभिमन्छामनिवारक स्तोक मप्तभिः स्तारेकोलव सप्तसप्तत्या लवानामेको मुहर्ताः त्रिशता मुहलरहोरात्र पञ्चदशभिरहोरात्रं पक्ष द्वाभ्या पनाया मास द्वादशभिर्मोम सम्वत्सर श्रम • Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग पञ्चम पर्यायपदम् १७५ ख्येय सम्वत्सरै. पल्योपम मागरापमाणि, समयाऽवलिकोच्छास. मुहूर्त्तदिव नाहोरात्रपक्षमाससवत्सरयुगै हीन परिपूर्णस्थितिकनारकोपेनयाऽस ख्येयभागीनो भवति तदपेक्षयात्वितरोऽसंख्येयभागाभ्यधिक , ता रकस्य त्रयस्त्रिंशत्मागरोपमाणिस्थिति परस्य तान्येव पल्योपमैन्यूनानि, दशभिश्च पल्योपमकोटीकोटीभिरेक सागरोमम निष्पद्यते, तत पल्योपमैन्युनरितिक परिपूर्णस्थितिकनारकापेचया सख्येयभागहीन परिपूर्णस्थितिकन्तु तदपेक्षया सख्येयभागाभ्यधिक तथैकस्य सागरोपममेकं स्थिति अप'स्य परिपूर्णनि त्यस्त्रिंशत् मागरोपमाणि, तत्रैकसागरोपमस्पितिक परिपूर्णस्थितिकनारकापेक्षया संख्येयगुणहीन एकस्य सागरोपमस्य त्रयस्त्रिशता गुणने परिपूर्णस्थि तफत्वप्राप्ते , परि पूर्णस्थितिकस्तु तदपेक्षया सख्येयगुणाभ्यधिक , तथैकस्य दशवर्षसहस्राणि स्थिति अपरस्य त्रयन्त्रिशत्सागरोपमणि, दश वर्षसहरुण्यस ख्येयरूपेण गुणकारेण गुणतानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि भवन्ति, ततो दशवर्षसहस्रस्थितिक त्रयस्त्रिंशसागरोपमस्थितिकनारकापेक्षयाऽस ख्येयगुणहीन तदपेक्षया तु त्रयस्त्रिश सागरोपमस्थिति कोऽन ख्ययगुणाभ्यधिक इति, तदेवमेकस्य नारकम्यापरनारकापेक्षया द्रव्यतो द्रव्यर्थतया प्रदेशार्थतया च तुल्य विमुक्त क्षेत्रतोऽवगर्ने प्रति हीनाधिक्टेन चतु स्थानपर्तितत्वं कालतोऽपि - स्थि ततो हीनाविकत्वेन चतु स्थानपतितत्व इदानी Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनागमो मे स्याद्वाद भावश्रयं हीनाधिकत्वं प्रतिपाद्यते-यत सकल मेव जीवद्रव्यमजीवद्रव्य वा परस्परतोद्रव्यक्षेत्रकालभावविभज्यनेयथा घट, तथाहि-दव्यत एकोमार्तिक' अपरः काञ्चनो राजतादिर्वा क्षेत्रत एक इहत्य अपर पाटलिपुत्रकः कालत एकोऽद्यतन अन्यम्त्यम पननो वा भावत एक' श्याम अपरनु रक्तादि; एवमन्यदपि । तत्र प्रथमतः पद्गलविपाकिनाम कमोदयनिमित्तं जीवीटायकभावाश्रये महीनाधिकन्वमाह -- 'कालबन्नप जहिं मिय हीरो सिय तल्ले सिय अब्भहिए' अम्याक्षरघटनापूर्ववत् , तत्र यथा हीनत्वमभ्यविकत्वं च तथा प्रतिपादयति- 'जइ हीणे' इत्यादि, इइ भावाक्षया हीनयाभ्यधिकत्यचिन्नायां हानौ वृद्धी च प्रत्येकं पटम्थालपतितत्वमवाप्यते, पदस्थान के च यद्यदपेक्षयाऽनन्तभागहीनं तम्य सर्वजीवानन्तकेन भागे हतेयल्लभ्यत तेनानन्नतमेन भागेन हीनं, यच्च यदपेक्षयाऽसंख्येयभागहीन तम्यापेक्षणीयस्यासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेन राशिना भागे हते यल्लभ्यते तावता भागेन न्यून, यच्च यदधिक प मध्ययभागहीनं नम्यापेक्षणीयम्योत्कृष्टम व्ययकन भागे ने यन्तभ्यो । नावना हीनं, गुणनमंन्यायां तु यद्यन. संख्येत्रगुणनवविभूनमुत्कण्टेन संख्ययकनगुमिगत मद्याच भवति तारत्नमाणमव. मानव्यं, यच्च यतोऽसम्यगा नवधिभूतमलोपनाकाकशप्रदेशप्रमाणेन गुग्गकारेगा गुण्यते गुणन मद्याव दवति तावद Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग े पञ्चमं पर्यापदम् ३ / 1 वसेयम्, यच्च यस्मादनन्तगुण - तदव घेभूत सर्वजीवानन्तकरूपेण गुणकारेण गुण्यते गुरेत सद्यावद्भवति तावत्प्रमाण द्रष्टव्य, तथा चैतदेव कर्मप्रकृतितमहिया षट्स्थानकप्ररूपण व सरे भागृहाहगुणकारस्वरूपमुपवर्णित, 'सञ्चजीयाणामसंख लोग संखेजगरस ज़ेस्स । - भागोतिषु गुणणातिसु' इति, सम्प्रत्यधिद्यतसूत्रोक्तषट्स्थानपतितत्व भाव्यते - तत्र दृष्णवर्णपर्यायपरिमाण तत्त्वतोऽनन्त संख्यात्म कमप्य सद्भावम्थापनया किल दशा सहस्राणि १०००० तस्य सर्वजीवानन्त केन शतपरिमाण परिकल्पितेन भागो ह्रियते लब्धं शत १०० तत्रैकस्य कि नारकस्य कृष्णवर्णप र्यायपरिमाणं दश सहस्राणि, अपरस्य तान्येवशेतन हीनानि ६६००, शत च सर्वजीवानन्त भागहारलब्धत्वादनन्ततमो भाग. ततोय यशनेन हीनानि दश सहस्राणि सोऽपरम्य परिपूर्णदशसहस्रप्रमाणकृणव पर्यायस्य नारकस्यापेक्षयाऽनन्तभागहीन तहपेक्षया तु सोऽपर. कृष्णवर्णपयां योऽनन्तभागाभ्यधिक तथा कृष्णवर्णपयायपरिमाणस्य दशसहस्रसंख्याकस्यासख्येयलोकाक्राशप्रदेशप्रमाणपरिकल्पितेन पञ्चाशत्परिमाणेन भागहारण भागो हियते लब्वेद्वे शते एषोऽसंख्येयतमो भाग, तत्रैकस्य किल नारकस्य कृष्णवर्णपर्याया दशसहस्राणि शतद्वयेन हीनानि ६८०० अपरस्य परिपूर्णानि दश सहस्राणि १००००, तत्र य शनद्वयहीन - दशसहस्रप्रमाणकष्णवर्ण पर्याय स परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनार 1 १७७ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैनागमों मे स्याद्वाद कापेक्षया असत्यभागहीन परिपूर्णकृष्णवर्णपर्या पस्तु तदपेक्षयाऽसंख्येयभागाभ्यधिक , तथा तस्यैव कृष्णवर्णपर्यायराशेर्दश. सहनसख्याकस्योस्फरस पेय परिमाण कल्पितेन दशकपरिमान भागहारण भागो ह्रियते तल्लब्ध सहस्रएप किल संख्यात. तमो भागः, तत्रैकम्य नारकस्य किल कृष्णवणपर्यायपरिमाणं नव सहस्राणि ६०००, अपरस्य दशसहस्राणि १००००, नव महस्राणि तु दशमहस्रम्य सहस्रण हीनानि सहस्र च सख्येयतो भाग-इति नवसहस्र माणकृष्णवर्णपर्याय परिपू कृ णवर्गपर्य यनारकापेक्षया सख्यभााहीन तदपेक्षया वितरः सख्येयभाधिक , तथैकस्य नारक य क्रिज कृष्णवर्णस्य यारिमाण मइन अप य दश महस्राणि, तत्र सहस्र दश फेनोत्कृष्टसमपातक कचेन गुणितं दश नहनसंख्याकं भवति इति सहम्रमात्यकृष्णवर्णपर्यायो नारको दश सहस्र वख्याककृणवर्णपर्यायनारकापेक्षया मंध्येयगुणहीन तदपेचया परिपूर्णकृष्णवर्णपर्याय म म्येय गुगाम्यविक तथैकस्य किन नारकाय कणवर्णपर्यायान द्वे शते परस्य परिपूर्णानिदशसहस्राणि, द्वे च शते अपवनोकाक श देशरिमाणप्रकल्पितेन पञ्चरात्परिमणेन नुकरेगा गुगगी दशपदमाग जायन्ने, नतो द्विशतपरिमाण कृष्णवर्णपर्यायो नारक परिपूर्णकष्णवपर्यायपरिमाण शत. मपरन्य दशमहनागिा शतं च सर्वजीवान-तपरिमाणपरिकल्पि Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनपाङ्ग पञ्चमं पर्ययपदम् १७६ तेन (शत) गुणकारेण गुणिले जायन्ते दशसहस्र ण, तत शतप रमाणकृष्णवर्णपर्यायो नारक परिपाक रणव पिर्याय नारक,पेक्षया अनन्तगुणहीन इतरस्तु तदपेक्ष राऽ मन्तगुणाभ्यधिक , यथा कृष्णवर्ण पर्यायानधिकृत्य हानो वृद्धौ च षट् स्थानपतितत्वमुक्तमेवशेषवर्णगन्धरस स्पर्शेरपि प्रत्येक षट्स्थानपतितत्वंभावनीय, । तदेव पुद्गलविपाकिनामकर्मोदय जनितजीवौदयिकभावाश्रयेण षट्स्थानपतितत्वमुपदशितं, इदानीं जीवविपाकिज्ञानावरणीयादिकर्मक्षयोपशमभावाश्रयेण तदुपदर्शयति-'आभिणि बोहिणाणपज्जवेहिं' इत्यादि, पूर्ववत् प्रत्येकमाभिनिबोधिकादिपु षटयानपतितत्त्व भावनीय, इह द्रव्य तस्तुल्यत्व वदता समूछिमसवप्रभेदनिर्भेदबीज मयूराण्डकरसवदनभिव्यक्तदेशकालक्रम प्रत्यवत्रद्धविशेषभेदपरिणतेर्योग्यद्रव्यमित्यावेदितं, अवगाहनया चतु स्थानपतितत्वमभिवदता क्षेत्रत सकोचविकोचधर्मा आत्मा न तु द्रव्यप्रदेशसख्याया इति दर्शित, उक्त चैतदन्यत्रापि-"विकसनसकोचयोनयोर्नस्तो द्रव्यप्रदेशसख्याया । वृद्धिह्रासौ स्त क्षेत्रतस्तु तावात्मनस्तस्मात् ॥ १ ॥" स्थित्या च स्थानपतितत्व वदताऽऽयु कर्मस्थितिनिवर्तकानामध्यवसायस्थानानामुत्कर्षापकर्षवृत्तिरुपदशिता, अन्यथा स्थित्या चतु स्थानपतितत्वायोगात् , आयु कर्मचोपलक्षणं तेन सर्वकर्मस्थितिनिवर्तकेष्वप्यध्यवसायेपूत्कर्षापकर्षवृत्तिरवसातव्या, कृष्णादिपर्यायैः षट्स्थानपतितत्त्व Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैनागमों मे स्याद्वाद मुपदर्शयता एकस्यप नरकस्य पर्याया अनन्ता किं पुन' सर्वेपा नारकाणामिति दर्शितं अथ नारकाणां पर्यायानन्त्यं पृष्टेन भगवता तदेव पर्यायानन्य वक्तव्यं न त्वन्यत् तत किमर्थं द्रव्यक्षेत्रकालभावाभिधानमिति , तदयुक्त, अभिप्रायापरिज्ञानात् , इह न सर्वेषां मर्वे स्वपर्याय समसख्या किं तु पट. स्थानपतिता , एतच्चानन्तरमेव दर्शितं, तच्च षट्स्थापतितत्वंपरिणामित्वमन्तरेण न भवति, तच्च परिणामित्वं यथोक्तलनाम्यद्रव्यत्यति द्रव्यतस्तुल्यत्वमभिहितं, तथा न क णदिपर्यायैरेव पर्यायवान् जीव कि तु तत्तत्क्षेत्रसकोचविकोचधर्मतयाऽपि तथा तत्तदध्यवसायस्थानयुक्ततयाऽपीति ख्यापनार्थ क्षेत्रकालाभ्या चतु स्थानपतितत्वमुक्तमिति कृत प्रसङ्ग न । तदेवमवसित नरयिकाणां पर्यायान त्य, इदानीममुरकुमारेपु पर्याया पिच्छिपुराहमूलम्-असुरकुमाराणं भते ! केवडया पजवा. पन्नच ? गोयमा ! अणंता पनवां पन्नता, से केपट्टेणं मते ! एवं बुचड-असुरकुमाराणां अण ।। पजया पन्नत्ता ?, गोयमा ! असुरकुमारे असुरकुमारस्स दव्यदृयाए तुल्ले पए मट्याएतुल्ले - ओगाहणयाए चउहागाचडिरटिईए चउहाण वडिए कालवन्नपजवेहिं छहाणवडिए एव नीलवन्नपञ्चवहिं लोहियवन्नपनवेहि Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग पञ्चमै पर्यायपदम् १८१ नालिद्दवन्नपज्जवहिं सुक्किल्लवन्नपज्जवेहिं पज्जवहिं सुमिगधप नहिं ... दुब्भिगधपज्जवेहि तित्तरसपज्जवहिं कड्डयरसपज्जवहिं कसायरसपज्जवहिं अविलरमपज्जवहिं महुररसपज्जवहिं कक्खडफासपज्जवेहिं मउयफासपज्जवहिं गरुयफासपज्जवहिं लहुयफासयज्जवहिं सीयफासपज्जवहिं उसिणफासपज्जवहिं निद्धफास पज्जवहिं लुक्खफासपज्जवहिं आभिणियोहियणाणपज्जवे हिं सुयणाणपज्जवहिँ अोहिनाणपज्जवहिं मइअन्नाणपज्जवेंहिं सुयअन्नाणपज्जवहिं विभंगनाणयज्जवेहिं चक्खुदमणपज्जवेहिं अचखुदंसणपज्जवेहि अोहिदसणपज्ज्वहिं छट्ठाणचडिए, से एएण्टठेणं गोयमा ! एच बुच्चइ-असुरकुमाण अणतापज्जवा पन्नचा एवं जहाँ नेरइया, जहा असुरकुमारा तहा नागकुमारावि ज व थणियकुमास (सूत्र १०५) । मूलम्-पुढविकाइयाण मंते ! केवइया पज्जवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अणंता पज्जवा पन्नतो, से कण ठेण भंते ! एव वुच्चइ पुढविकाइयाणं अणता पज्जवा पन्नता ?, गोयमा ! पुढविकोइए पुढविकाइयस्य.- दवयट्ठाए तुल्लो पएसट्टयाए तुल्ले प्रोगाहणट्टयाए सिय हीणे मिय तुल्ले सिय अभिहिए, जइहीणे अस खिज Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैनागम में स्याद्वाद भागहीणे वा स खिज्जभागहीणे वा सं खिज्जगुणहीरो वास खिज्जइगुणहीशो वा अह अभहिए अस खिज्जभागप्रब्भहिए वा संखिज्जइभागान्महिय वा संखिज्जगुणप्रभहिए वा असंखिज्जगुणप्रभहिए वा ठिईए तिठ्ठाणवडिए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय संखिज्जभागहीणे वा संखिज्ज - भहिए, जड़ ही " भागहीणे वा संखिज्जगुणहीणे वा ग्रह अन्भहिए असंखिज्जइभागश्रव्भहिए वा संखिज्जइभागश्रव्भहिए वा बन्नेहि गंधेहिं रसेहिं फासेहिं मन्नाणपज्जवे हि सुयन्नार पज्जवेहिं चक्खु दंमणपज्जवेहिं छठ्ठाएकोइयाशां भते ! केवइया पज्जवा as || पन्नता ? गोयमा ! अता पज्जवा पन्नचा, से केशा , टठे भते ! एवं बुच्च उकाड्याण अता पज्जवा पन्नता १, गोयमा ! ग्राउकाइए ग्राउकाइयस्स ढब्बयोए तुल्ल पएसध्याए तुल्ले गाहाच्याए चाणवडिए टिईए तिहाएवडिए वन्नगंध रस फासमग्रन्नागमुच्चयन्नाण्यचक्बुदंसणपज्जवेहिं छट्टाएचडिए || उकाड्याणं पुच्छा गोयमा ! यता पजवा पन्ना से केण्ट भंते! एवं वृच्चहतेउकाव्याशु यंता पजवा पन्नता ? गोयमा ! तेउ 9 " Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग पञ्चमं पर्यायपदम् १८३ काइए तेउकाइयम्स दमट्टयाए तुल्ल पएसट्टयाए तल्ले प्रोगाहणट्टयाए चउहाणवडिए, ठिईए तिहारणचडिए. वनगंधरसफासमइअन्नाणसुयअन्नाण 'अचक्खदमणपज्जवेहि यछट्ठाणचडिए । चाउकाइयाणं पुच्छो गोयमा । चाउकाइयाणं अण तापञ्जवापन्नत्ता, से केणठेण भंते । एव वुच्चइवाउकाइयाण अणंता पजवा पता ?, गोयमा । बाउकाइए वाउकाइयस्सहयोए तुल्ले पएसट्टाए तुल्ले अगाहणयाए चउ. दव्यहाणवडिए ठिईए तिहाणवडिए वन्नगंधरसफासमइअन्नाणसुयअन्नाणअचक्खुदमणपज्जवेहि छट्ठाणवडिए ।। वणस्मइकाइयाण पुच्छा गोयमा ! अणंता पजवा पन्नत्ता, से केणठेण भत्ते ! एवं वुच्चइ - रणस्सइकाइयाणं अणता पजवा पन्नता ?, गोयमा ! चणस्सडकाइएवणस्सइकाइयस्स दवढ्याए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले अोगाहण याए चउहाणवडिए ठिईए तिहाण वडिए वनगंधरसफासमइअन्नाणसुयभनाणअचक्खुदंसणपञ्जवेहि यछडाणवडिए, से एएणटठेणं गोयमा । एवं बुच्चई-वणस्स इकाइयाणं अणंती पजवा पन्नत्ता ।। (सूत्र १०६) . " मूलम्-वेइंदियाण पुच्छो गोयमा । अणं ती पंजवा पन्नत्ता, से केणठेण यंते ! एवं वुचइ-वेडंदियार्ण अणतो Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ . . जैनागमों मे स्याद्वाद पज्जवो पन्नता, गोयमा ! वेइंदिए वेइंदियस्स दव्वदृयाए तुल्ले पएसड्याए तुल्ले ओगाहणयाए सियहीणे सिय तुल्ले सिय महिए, जइ होणे असांखिउजइभागहीणे वा संखिज्जइभागहीणे वा संखिन्जइगुणहीणे वा असंखिज्जइगुणहीणे वा, अह अब्भहिए अखिज्जभागअन्महिए वा संखिज्जइभागअभहिए वा सांखिज्जगुणमब्भहिए वा असं खिज्जइगुणममहिए बा, ठिईए तिढाणवडिए वन्नगंधरसफास अभिणिवाहियनाणसुयनोण मइअन्नाण सुयअन्नाण अचवखुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाण वडिए, एवं तेइंदियावि, एव चउरिंदियावि नवरं दो दसणी चक्खदसण अचवखुदंसण सूत्र १०७) मृलम्-पचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जवा जहा नेरइयाणं तहा माणियव्या सूत्र १०८) मूलम-मणुम्माणं भते ! केवइया पज्जवा पन्नत्ता १ गोयमा ! अणंता पज्जवा पन्नत्ता, से केणटटेण मंते ! एवं चुच्चइ मगुम्साणं अणता पज्जया पन्नत्ता ?, गोयमा ! मरगूसे मरामस्स दव्वयाए तुझे पए मटठयाप तुल्ले ओगाहणट्याए चउहाणयडिए टिईए चदागवडिए वनगा रसफ सआभिणिवोहियनाणमुयनाणोटिनाणमण पनव Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाग पञ्चमं पर्यायपदम् १८५० नाणकेवलनाणपज्जवेहिं तुल्ले तिहिं दंसोहिं छहा वडिए केव सदसणपज्जवेहिं तुल्ले (सूत्र १०६) मूलम् - बारामतरा ओगाहणहयाए ठिईए चउहाणवडिया वएश,ईहिं छहाणवडिया जोइसिया वेमाणियावि एव चेव नवर ठिईए तिहाणवडिया (सूत्र ११० ।। टीका-'असुरकुमाराण भते । केवइया पन्जवा यन्नता ?' इत्यादि, उक्त एवार्थं प्राय सर्वेऽवग्यसुरकुमारादिषु, तत सकलमपि चतुर्वे रातेदाड कसूत्र प्राबद भवनीय, यस्तु विरोष स उप दय॑ते, तत्र यत्पृथिवीकायिकादीनामवगाहनया अङ्ग लास ख्येयभागप्रमाणपा अपि चतु स्थान तेतत्वं तदङ्ग लासंख्येभागप्रमाणस्य स ख्येय भेदभिन्न चादव सेय, स्थित्या हीनत्वमभ्यधिकत्व च त्रिस्थानपतित न चतु स्थानपतित, अस ख्येयगुणवृद्धिहा योरस भवात् , कथ तयोरस भव इति चेत् , उच्यते, इइ पृथिव्यादीना सर्वजघन्यमायु क्षुल्लकभवग्रहण, क्षुल्तकभवग्रहणस्य च परिमाणमालिकानां वे शते पट पचाशदधिके, मुहूर्ते च द्विघटिकाप्रमाणे सत्रसख्यया क्षुल्लकभवग्रहणाना पञ्चपष्टि सहस्राणि पञ्चशतानि पत्रिंशद धिकानि ६५५३६, उक्त च- 'दोन्निलयाइ नियमा छप्पन्नाइ पमाणो हुँति । श्रावलियपमाणेण खुड्डागभवगहणमेयं ॥ १ ॥ पन्नट्टिमहस्साई पचे सयाइ तह य छत्तीसा। खुड्डागभवगण भवंति एते Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद मुहुत्तण ॥ २ ॥ पृथिव्यादीना च स्थिति हकपतोऽपि संख्येयवर्पप्रमाणा ततो नासख्योयगुणवृद्धिहान्यो. संभव , शेषवृद्धिहानित्रिकभावनात्वेव एकस्य किज पृथिवीकायस्य स्थिति परिपू निद्वाविश तेवपसहस्राणि अपरस्य तान्येवसमयन्यूनानि तत मामयन्यूनद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिक परिपूर्ण द्वाविंशतिवपसहस्रस्थितिकापेक्षयाऽसर ये पभागहीन तदपेक्षया वितरोऽसंख्येयभागाधिक , तथैकाय परिपूर्णानि द्वाविशतिवः सहस्राणि स्थितिरपरस्य तान्येवान्तर्मुहू दिनोनानि, अन्तमुहूर्नादिक (च) द्वाविंशतिवर्षसहस्राणा स ख्ययतमो भाग , ततोऽन्तरमहूर्नादिन्यूनद्वाविंश नवर्षसहनस्थितिक परिपूर्ण द्वाविश तेवर्पसहस्रस्थितिकापेनया मख्ययभागहीन तदपेक्षया परिपूर्ण द्वाविशतिवर्षसहस्रस्थितिक संख्यभागाभ्यधिक , तथैकस्य द्वावितिवर्पसहस्राणि थिनिरपरन्यान्तमुहर्श मासो वष वर्पमहस्र वा, अन्तर्मुहूर्तादिक (च) नियतपरिमाणया सल्यया गुणितद्वाविशतिवर्षसहसप्रमाण भवन्ति तेनान्नमुहर्त्तादिप्रमाणस्थितिक परिपूर्ण द्वावि. शनिवपमहन्त्रस्थिनिकापेक्षया सरन्ययगुणहीन तदपेक्षया तु परिपूर्ण द्वाविंशनिवर्ष सान्त्रस्थिनिक म व्ययगुणाभ्यधिक., एवमप्कायिकीनामपि च तरिन्दियपर्याप्तानां बम्वोत्कृष्टस्थित्यनुमारेगा स्थिन्या विमानपतनवं भावनीयम् । निर्यनचेन्द्रियाणा मनुन्याग, च च त्यान पनि तन्यं, नेपा कर्पत णिवल्योपमानि Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्गे पञ्चम पर्यायपदम् १८७ स्थितिः, पल्योपमं चासख्येयवर्षसहस्रप्रमाणमतोऽसख्येयगुणवृद्धिहान्योरपिसभवादुपपद्यते चतु स्थानपतितत्व, एव व्यान्तराणामपि तेपा जघन्यतो दशवर्षसहस्रस्थितिकत्वादुत्कषत पल्योपमस्थि त (ते), ज्योतिष्कवैमानिकाना पुन स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं, यतो ज्यो तष्काणा जघन्यमायु पल्योपमाष्टभाग उत्कृष्ट वर्षलक्षाधिक पल्योपमं, वैमानिकाना जघन्यं पल्योपममउत्कृष्ट त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, दशकोटीकोटीसर ययपल्योपमप्रमाणं च सागरोपममतस्तेपामप्यसख्येयगुणवृद्धिहान्यसभावात् स्थिति स्त्र थानपतिता, शेषसूत्रभावना तु सुगमत्वात् स्वय भावनीया ॥ तदेवं सामान्यतो नैरयिकादीना प्रत्येकं पर्यायानन्त्य प्रतिपादितं, इदानी जघन्याद्यवाहनाधिकृत्य तेषामेव प्रत्येक पर्यायान प्रतिपिपादयिषुराहमुलम-जहन्नोगाहणापण भंते ! नेरइयाण केवइया पन्नवा पन्नत्ता ?, गोयमा ? अणता पज्जवा पन्नत्ता, से केणठेण भते ! एवं वुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नोगोहणए नेरइए जहन्नागाहणस्स नेरइयस्स दव ठ्याए तुल्ले पएसठ्याए तुल्ले ओगाहणटठयाए तुल्ले ठिईए चउठाणवडिए वन्नगंधरसफासपज्जवेहि निहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छटठाणवडिए उक्कोसोगाहणगाण भते ! नेरइयाणं केवड्या Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमो मे स्याद्वाद पज्जवा पन्नत्ता ?, गोयमा । अणता पज्जत्रा पन्ना , से केणटेण' भते । एवं बुच्चइ उवकोसोगाहणयाणं नेरइयाणं अणता पजवा पन्नत्ता ?, गायमा ! उक्कोसोगाहणए नेरइए उक्कोसोगाहणस्स नेरड्यस्स दयटठयाए तुल्ले पएसट्ठयोए तुल्ले अोगाहणटयाए तुल्ले, ठिईए सिय हीणे सियतुल्ले सिय अमहिए, जड़ हीणे असंखिजभोगहीणे वा संखिजभागहीणे वा अह अमहिए असखिजभागअब्भहिए वा मखिजभागप्रमहिए चा, वन्नगंधरसफामपञ्जवेहिं तिहिं नाणेहि तिहिं अन्नाणेहि निर्हि दसणेहि छट्ठाणव डिए, अजहन्नमणुक्कामोगाहणाणं नेरइयाण केवइया पजवा पन्नत्ता ?, गोयमा !, अणंता पज्जवा पन्नता, से केणटेण मते ! एव बुच्चइ अजहन्नमणुक्कोसोगाहणाण अता पजवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अजहन्नमणुक्कोगांगाहणाए नेरइए अजहन्नमणुक्कोमोगाहरणम्स नेरइयस्स दबटठयाए तल्ने पएमट्टयाए तल्ने प्रांगाहणट्टयाए सियहीणे मिय तन्न मिय अमहिए जड़ हीणे असखिजभागहीणे वा मग्विज मागहीरो वा सखिनगुणहीण वा अमखिनगुणहीग वा ग्रह अमहिए असंखिनभाग Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग े पञ्चमं पर्यायपदम् १८६ こ अन्नहिए वा संखिज्जभागश्रन्नहिए वा संखिज्ज संखिज्जगुण अन्भहिए वो, गुणमहिए वा लिईए सिय हीणे सियतुल्ले सिया भहिए, जइहीणे खिज्जभागहीरो वा संखिज्जभागहीणे वा संखिज्जगुणहीणे वा असंखिज्जगुणही वा ग्रह 1 महिए असं खिज्जभाग महिए वा संखिज्ज - भागय महिए वा संखिज्जगुरु अम्महिए वा असंखिज्जगुण अन्भहिए वा वन्नगधरस फासपज्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दसणेहिं छट्ठाण वडिए से एएटठेणं गोयमा !, एवं चुच्चड़ -- जहन्नमखुत्रको सो गाहणारां नेरइयाणं श्रता पज्जवा पन्नचा । जहन्नठियाणं भते ! नेरड्या के नइया पज्जवा पन्नचा १, गोयसा । अरांता पउवा पन्नत्ता, से केाटणं भते ! एच बुचड़ जहन्नठियाण नेरड्याणं प्रणता पज्जवा पन्नत्ता १, गोमी ! जहन्नठिए नेग्ड्ए- जहन्नटिइयस्स नेरइयस्स दव्टयाए तुल्लेपएसटठ्याए तुल्ले श्रोगाहण्टयाए चउटठाणवठिए ठिईए तुल्ले' वन्नगध रफ सपज्जवेहि तिहिं नायेहिं तिहिं अन्ना रोहिं विहिं I दंसणेहिं छठाणवडिए एवं उक्कोसठिइएवि, 2 ५ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैनागमों में स्याद्वाद अजहन्नमणुक्कोसठिइएवि, नवरं सट्ठानेच उट्ठाणवडिए । जहन्नगुणकालगोणं भंते ! नेरइयाणं केवइया पज्जवा पन्नता ?, गोयमा ! अणता पज्जवा पन्नत्ता, से केणठेणं भंते! एवं बुच्चइजहन्नगुणकालगाणं नेरइयाणं अर्णता पज्जवा पना ?, गोयमो ! जहनगुणकालए नेरइए जहन्नगुणकालगस्स नेरइयस्स दबयाए तुल्ले पएसहयाए तुल्ले ओगाहणहयोए चउहाणवडिए ठिइए चउहाणवडिए कालवन्नपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं वनगंधरसफासपजवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दमणेहिं छटाणवडिए, से एएणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ बहन्नगुणकालगाणं नेरड्याण अणता पज्जवा पन्नत्ता, एवं उचक्कोसगुणकालएवि, अजहन्नमणुक्कोसगुणकालएवि एवं चेव नवरं कालवन्नपजवेहिं छट्ठाणवडिए, एवं अवसेसा चत्तारि बन्ना दो गंधा पचरमा अफासा भाणियव्वा । जहन्नाभिरिणवोहियनाणीणं भंते ! नेरझ्याणं केवड्या पजवा पन्नता ?, गोयमा ! नहन्नाभिणिवोहियनाणीणं- नेरइयाणं अणंता पञ्जवा पन्नत्ता, से कंपटेणं भंते ! एवं बुधइ जहन्नाभिणिवोहियनाणीणं नेरइयाणं अणंता Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्गे पञ्चमं पर्यायपदम् १६१ पजवा पन्नत्ता ?; गोयमा ! जहन्नाभिणियोहियनाणी नेरइए जहन्नाभिणिवोहियस्स नाणिस्स नेरइयस्सदवट्ठयाए तुब्ले पएसटठयाए तुल्ले ओगाहणठ्याए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउठाणवडिए वन्नगंधरसफास पजवेहिं छटठोणवडिए आभिणिबोहिमनाणपज्जवेहि तुल्ले सुयनाण० श्रोहिनाणपज्जवेहिं छाणवडिए तिहिं दसणेहिं छठाणवहिए, एवं उक्कोसाभिणिवोहियनाणीवि, अजहन्नमणुक्कोसभिरि बोहियनाणीवि एवं चेव, णवरं अभिणिनोहियनाणपज्जवेहिं सट्ठाणे छाणवडिए, एवं सुयनाणी अहिनाणीवि, नवरं जस्स नाणातस्स अन्नाणा नत्थि, जहा नाणा तहा अन्नाणावि भाणियव्वा, नवरं जस्स अन्नाणा तस्स नाणा न भवंति। जहन्नचक्खुदंसणीणं भंते ! नेरइयाणं केवइया पज्जवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अणंता पज्जवा पन्नत्ता, से केपटठेणं भंते ! एवं बुच्चइ जहन्नचक्खुदसणीण नेरइयाणं अणंतो पज्जवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नचक्खुदंसणीणं नेरइए जहन्नचक्खुदंसणिस्स नेरइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसठ्ठयाए तुल्ले ओगाहणठ्याए च उट्ठाण Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनागमों में स्याद्वाद वडिए ठिईए चउढाणवडिए-बन्नगंधरसफास पज्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं छटाणवडिए चक्खुदंसबापज्जवेहिं तुल्ले अचवखदसणापज्जवेहि अोहिदंसगपज्जवेहिं छटाणवडिए, एवं उक्कोसचक्खुदंसणीवि, अजहन्नमणुक्कोसचक्खुदमणीवि एवं चेव, नवरं सहायो छडाणवडिए, एवं, अचक्खुदसणीवि ओहिदसणीवि । (सूत्र ५११) । टीका-जहन्नोगाहणाणं भते !' इत्यादि, सुगमं नवर 'टिईए चउट्ठाणवडिए' इति जघन्यावगाहनो हि दशवर्पसहस्रस्थितिकोऽपि भवति रत्नप्रभायां उत्कृष्टस्थितिकोऽपि सप्तमनरकपृथिव्यां, तत उत्पद्यने स्थित्या चतु स्थानंपतितता, 'तिहिं नाणेहि तिहिं अन्नाणेहि'ति इह यदा गर्भव्युत्क्रान्तिकसंजियचेद्रियो नरकेपूत्पद्यते तदा म नारकायु संवेदनप्रथमसमय एवं पूर्वगृहीतोदारिकशरीरपरिशाटं करोति तम्मिन्नेव समये सम्यग्दष्टेस्त्रीणि नानानि मिथ्याप्टेम्बीएयनानानि समुत्पद्यन्ते, ततोऽविग्रहेण विग्रहेण वा गया बैंक्रियशरीरमंबातं करोति, यस्तु समूच्छिमासंजिप चेन्द्रियो नरकेपुत्पद्यत तम्य नदानी विभगनानं नास्तीति जघन्यावगाहनम्यान्यानानानि भजन याद्रष्टव्यानि द्वे त्रीणि वेति, उत्कृष्टावगाहनमृत्रस्थित्या हानी वृद्धी च द्विस्थानपतिनत्वं तद्यथा--यसंख्येयभागहीनत्यं वा मंग्येयभागहीनत्वं वा, नया असम्ययभागाधिक Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग पञ्चमं पर्यायपदम् १६३ त्वं वा सख्येयभागाधिकत्वं वा न तु सख्येयासख्येगुणवृद्धिहानी, कस्मादिति चेन, उच्यते, उत्कृष्टावगाहना हि नैरयिका पञ्चधनु - शतप्रमाणा , ते च सप्तमनरक थव्या, तत्र जघन्या स्थिति द्वाविंशति सागरोपमाणि उत्कृष्टा त्रयस्त्रिशत्सागरोपमारिण, ततोऽसंख्येयसंख्ययभागहानिवृद्धी एव घटेते न त्वसख्येयसख्येयगुणहानिवृद्धी, तेपा चोत्पृष्टावगाहनाना त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि वा नियमाद्वेदितव्यानि, न भजनया, भजनाहेतो समूच्छिमासंनिपञ्चेन्द्रियोत्पादस्य तेपामसभवात, अजघन्योत्कृष्टावगाहनसूत्रे यदवगाहनया चतु स्थानपतितत्व तदेव-अजघन्योस्कृष्टावगाहनो हि सर्वज चन्याङ्ग लासंख्येयभागात्परतो मनाक वृहत्तराङ्ग लस्या संख्येयभागादाश्रय यावदङ्ग लासख्येयभागन्यूनानि पञ्चधनु शतानि तावदवसेय , तत सामान्यनैरयिकसूत्रे इवात्राप्युपपद्यते अवगाहनातश्चतु स्थानपतितता स्थित्या चतु स्थानपतितता सुप्रतीता, दशवषसहस्र भ्य. श्रारभ्योत्कपंतस्त्रयस्त्रिंशतसागरोपमाणामपि तस्या लभ्यमानत्वात् . जघन्यस्थितिसूत्रे अवगाहनया चतुःस्थानपतितत्व तस्यामवगाहनाया जघन्यतोऽङ्ग लासंख्येयभागादारभ्योत्कर्षत सप्तानांयनुपामवाप्यमानत्वात् . अत्रापि त्रीण्यज्ञानानि केपाचित्कादाचितक्तया द्रष्टव्यानि. संमूच्छिमासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेभ्यउत्पन्नानामपर्याप्तावस्थाया विभङ्गस्याभावात् , उत्कृष्टस्थितिचिन्तायामवगाहनया चतु स्थानपतितत्वमुत्कृष्टस्थिविकस्यावगाह Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनागमों में स्याद्वाद नाया जघन्यतोऽङ्ग लासंख्येयभागादारभ्योत्कर्षत पञ्चानां धनु - शतानामवाप्यमानत्वात् , 'अजहन्नुक्कोसठिइएवि एव चेव' इत्यादि, अजघन्योत्कृष्टस्थितावपि तया वक्तव्यं यथा जघन्यस्थितिसूत्र उत्कृष्ठस्थिति सूत्रे च नवरमय विरोप -जघन्यस्थितिसूत्रे उत्वृष्टस्थितिसूत्रे च स्थित्या तुल्यत्वमभिहित अत्र तु स्वस्थानेऽपि' स्थितावपि चतु स्थानपतित इति वक्तव्यं, समयाधिकदशवर्षसहस्रभ्य प्रारभ्योत्कर्पत समयानत्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणामवाप्यमानत्वात् , जघन्यगुणकाल कादिमूत्राणि सुप्रतीतानि नवरं 'जम्स नाणा तस्स अन्नाणा नत्यि'सि यस्य ज्ञानानि तल्या ज्ञानानि न संभवन्तीति यत सम्यगहाटे नानि मिथ्यादृष्टेरज्ञानानि, सम्यगदृष्टित्वं च मिथ्याष्टित्वोपमर्देन भवति मिथ्यादृष्टित्वमपि सम्यग्दृष्टित्वोपमर्दैन भवति, ततो ज्ञानसद्भावेऽज्ञानाभाव एवमजानसद्भावे नानाभाव , तत उक्त –'जहा नाणा तहा अन्नाणावि भाणियव्या, नवर जस्स अन्नाणा तम्म अन्नाणा न सभवति' इतिशेष पाठ सिद्ध । मृलम्-जहन्नोगाह णगााणं भते ! असुरकुमाण केवइया पज्जवा पन्नता ?, गायमा ! अणंता पज्जवा पन्नत्ता, से केपटटेग मवे। एव बुचई जहन्नोगाहरणगाणा अमुरकुमाराणं अणंता पज्जवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नागाहगए असुरकुमार जहन्नागाह Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाझं पञ्चम पर्यायपदम् १६५ रणस्स असुरकुमारस्म दबट्ट्याए तुल्ल पएस याए तल्ल ओगाहण याए तल्ल ठिईए चउहाणवडिए वणाईहिं छहारणवहिए आमिणियोहियनाण० सुयनाण. अहिनाणपञ्जवेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं य छडाणवडिए, एव उक्कोसोगाहणएवि, एवं अजह नमणुक्कोसोगाहएवि, नवर उक्कोसोगाहणएदि अतुगकुमारे ठिईए चउट्ठाणवडिए, एव जाव थणिय कुमारा । सूत्र ११२) लम्-जहन्नोगाहणाणं भंते । पुढविकाइयाणं केवइया पउजवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अता पज्जवा पन्नता, से वे पट्टेण भंते ! एवं वुछइ जहन्नोगाहणार पुढविकाइयाणं अता पज्जवा पन्नचा ?, गायमा ! जहानागाहणए पुढविकाइए जहन्न गाहणस्स पुढविकाइयस्स दबट्याए तुल्ल पएसहयाए तुल्ल श्रोगाहणटठयाए तुल्ले ठिईए तिठाण वडिए वन्नगधग्मफासपज्जवेहिं दोहि अनाणेहिं अचक्खदंसणपज्जवेहिं य छटठाणवडिए, एवं उक्कोसोगाहणएवि, अजहन्नमणुक्कोसोगाहणएवि एव चेव, नवरं मटठाणे चउटठाणवडिए, जहन्नठिडयाण पुढविकाइयाण पुच्छा गोयमा । अणंता पज्जवा पन्नत्ता, Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १६६ जैनागमों में स्याद्वाद सेकेणटणं भते ! एवं वृचड़ जहन्नठिझ्याणं पुढविकाइया ना पजवा पत्ता १, गोयमा ! जहन ठिse पुढविकाइए जहन्नठिइयस्स पुढविकाइयस्स दवटयाए तुल्ले पसट्टयाए तुल्ले ओगाहट्टयाए चउडाणवडिए ठिईए तुल्ले वन्नगंधरसफास पजवेहि मतिअन्नाण० सुयअन्नाण० अचक्खुद सण पज्जवेहि छट्टा वडिए एव उक्कासटिइएवि अजहन्नम णुक्कोठिएवि एव चैव नवर सट्टा तिहाणवडिए, जहन्नगुणकालयाण मंते ! पुढविकाइयाण पुच्छा गोयमा ! तो पउजवा पन्नता से कंश टटे भते ! एवं बुच्चड़ जहन्नगुणकालयाण पुढविकाइयाणं अता पज्जवपन्नता, गोयमा ! जहन्नगुणकालए पुढविकाइए जहन्नगुणकालगस्स पुढविकाइयम्स दव्वट्ट्याए तुल्ले पएनट्याए तुल्ले श्रोगाहटठयाए चहाणवडिए टिईए तिद्वाणवडिए कालवनपज्जवेहि तुल्ले वसेसेहिं वनगंवर फासपज्जवेहिं छट्टाएव डिए दोहिं अन्नाहि यचक्खुमा पज्जवेहिं य छट्टाबडिए, एव उक्कोमगुणकालएव श्रजहन्नमरणुक्कामगुणकालएव एव चैव, नवरं सहा लहाण व डिए, एव पत्र बना दो गधा पच रसा हकमा माणि , Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दचटया जहन्नमति जहन्नमाला चहाणवाहिए पिएमट्टयाए तल पुढविकायम श्री प्रज्ञापगोपाङ्ग पञ्चमं पर्यायपदम् १६७ यव्वा । जहन्नमतिअन्नाणीणं भते ! पुढविकाडय ण पुच्छा गोयमा । अणता पञ्जया पन्नत्ता, से केपटटेण भते । एव वुच्चइ जहन्नमतिअन्नाणीण पुढविकाइकाणं अणंता पज्जया पनत्ता १, गोयमा ! जहन्नमतिअन्नाणी पुढविकाइए जहन्नमतिअन्नाणिस्स पुढविकायस्म दव्वटठयाए तुल्ले पाएमट्टयाए तुल्ले श्रागाहण हयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए तिट्ठाण वडिए नन्नगधरसफास पज्जवेहि छटाणवडिय मडअन्नाणपज्जवेहि तुन्ले सुयअन्नाणपज्जवेहि अचखदसणपजवेहि छहाणवडिए, एव उक्कोसमडअन्नाणीवि, अजहन्नमणुकोसमइअन्नोणीवि एव चेव, नवर सट्टाणे छाणवडिए, एव सुयअन्नाणीवि अचक्खदसणीवि एव चेव जार वणप्फइकाइया । ।सूत्र ११३) । मूलम्-जहन्नोगाहणगाणं मत । वेइंदियाणं पुच्छ। गोयमा ! अणता पज्जवा पन्नता, से केपटठेण भते । एवं बुच्चड जहन्नागाणगाणं वेइदियाण अणता पज्जवा पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नोगाहणाए वेइदिए जहन्नोगाहर सप वेइंदियस्म दबयाए तुल्ले पएमटठयाए तुल्ले योगाहण्टठयाए तुलं टिडए तिहाण वडिए वनगंधग्मफाम पज्जवेहिं दोहिं नाणेटिं दोहिं अन्ना नोगाहर मामा ! जहन्नोगाहणाणता पज्जया Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैनागमों मे स्याद्वाद , रोहिं चक्खु दंसणपज्जवेहिं य छट्टा वडिए एवं उक्को मोगाह एवि, वरं - खाणा यत्थि, अजहन्नमरणुक्क सांगाहणए जहा जहन्नों गाहणए, वरं महाणे अं गाहणाए चउडाणवडिए, जहन्नठिड्याणं मते ! वेद्रियाणं पुच्छा गोयमा ! अांता पजजवा पन्नत्ता, से कंटठे भंते ! एव बुच्च जहन्नठियाण इंद्रियाणं अता पज्जवा पन्नत्ता ?, गायमा ! जहन्नटिइए वेइंदिए जहन्नटिइयस्स वेइंदियस्स दव्वट्ट्याए तुल्ले ओगाहट्टयाए चउद्वाणवडिए ठितीए तुल्ले बन्नगंधरसफासपज्जवंहिं दोहिं अन्नारोहिं चक्खुण पज्जवेहिं य छट्टाणवडिए, एव उक्लोटिडव नवर दो गाया अमहिया, श्रजहन्नमरणुक्कोसटिइए जहां उक्कोसटिडए गवर टिइए तिहाणवडिए । जहन्नगुणकालगाण वेइ दियाथ पुच्छा गोयमा ! अणता पज्जत्रा पन्नचा, से केणटटे मते । एवं बुच्चइ - जहन्नगु कालगाणं बेहदियां अपना पज्जना पन्नत्ता १, गोयमा ! जहन्न गुणकालए दिए जहन्नगुणकालगम्य वेइंद्रियस्म दातु परसटटया तुलने ग्रागाहटटयाए लहानप्रिएटिईए तिहावडिए कानवन्नपज्जव हिं • Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग पञ्चमं पर्यायपदम १६६ तुल्ले अबसे रोहिं वन्नगंधरसफामपज्जवहिं दोहिं नाणेहिं दोहि अन्नाणेहि अचक्खदमणाजवेोहि य छट्ठाए बडिए एच उक्कोसगुणकालएवि, अजन्नमणुक्कोमगुणकालएवि, एवं चेव, एवरं महाणे छट्ठाणचडिए, एवं पच बन्ना दो गंधापचरसा अफासा भाणियचा, जहन्नभिणिवाहियनाणीणं भंते ! बेडदियाण केवडा पज्जया पन्नत्ता, गोयमा! अणता पज्जचा पत्ता, से केपटटेणं भते! एव वुच्चइ-~जहन्नामिणिवाहियनार्णाण वडंदियाग अणता पज्जया पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नाभिणियायिणाणी वइंदिए जहन्ननिरिणबोहियणाणिस्स बेडंदियस्स दबटठयाए तुलेने पएमठ्याए तुल्ले योगाहणयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए तिहाणवडिए वनगंधरसफामपज्जवहिं छहागावडिए प्रामिणीवोहियणाणपज्जवहिं तल्ले सुयणाणपज्जवहिं छटाणवडिए अचक्खुदंसणपज्जवेहि छहाण वडिए, एवं उक्कोमाभिणिवाहियनाणीवि अजनमणुक्कोमभिणियोहियणाणीवि एव चेव नवर गट्टाणे छट्टापायडिए, एवं सुयनाणीवि सुयअन्नाशीवि अचखदसणीवि, णवरं जत्थ गाणा तन्थ अन्नाणा नत्थि जत्य अन्नाणा तत्य गाणा नत्थि. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैनागमों मे स्याद्वद जत्थ ईसण तत्थ णणावि अन्नाणावि, एव तेइंदियाणवि, चउरिदियाणवि एवं चेव णवरं चक्खदसणं अमहियं (सू० ११४ ।। सूलम्-जहन्नोगाहणगाणं भंते ! पचिंदियतिरिक्खजोणिकाणं केवड्या पज्जवा पन्नत्ता, गोयमा ! अणंता पज्जवी पन्नत्ता, से से केणठेणं भते ! एवं बुच्चइ-अहन्नोगाहणगो पचिंयितिरिक्खजाणियाण अणंता पज्जवा पन्नत्ता', गोयमा । जहन्नो गाहणाए पचिंदियतिरिक्खजागिए जहन्नोगाहणयस्स पचिदियतिरिक्खजाणियस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणटठयाए तुल्ले टिईए तिहाणवडिए बन्नगधफासपज्जवहिं दाहिं नाणेहिं दोहि अन्नाहिं दोहिं दसणेहिं छट्ठाणवडिए, उकासेगाहणएवि एव चेव रणवर तिहि नाहिं तिहिं दसणहिं छटठाणवडिए, जहा उक्कोसेोगाहणए तहा अजहन्नमणुक्कोसेगिहगाएवि, णवरं गाहणठ्याए चउहाण वडिए, जयन्नटिझ्याण मते ! पंपिदियतिरिक्खजोणियाण कंवच्या पज्जवा पन्नता ?, गोयमा ! अर्णता पज्जवा पन्नता, से कणर्टेगा मते । एव बुच्चह जहन्नटिइयाण Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग पञ्चम पर्यायपदम् २०१ पचिंदियतिरिक्वजोणियाणं अणंता पज्जवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नठिइए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहन्नठिइयस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दव्य. हयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणयाए चउहाणवडिए ठिईए तुल्ले वन्नगंधरसफामपञ्जवेहि दोहिं अन्नाणेहिं दोहिं दसणेहिं छटाणवडिए उक्कामठिइएवि एवं चेव णवरं दो नाणादोअन्नाणा दो दंगणा, अजहन्नमणुक्कोसठिइएवि, एवं चेव, नवरं ठिडए चउट्टाणवहिए तिन्नि णाणा तिन्नि अन्नाणा तिन्नि दसणा । जहन्नगुणकाल गाणं भंते । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! अन्नन्ता पजवा पन्नत्ता, से केपटटेण भंते । एवं वुचइ ?, गोयमा ! जहन्नगुणकालए पंचिंदियतिरिक्खजाणिए जहन्नगुणकालगम्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्म दव्वळ्याए तुल्ले पएमठ्याए तुल्ले ओगाहणटठयाए चउटठाए वडिए ठिईए चउहाण वडिए कालवन्नपजवेहिं तुल्ले अरसेसेहिं वनगधरमफामपञ्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दमणेहिं छहाणपटिए, एवं उक्कामगुणकालएवि अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि. एवं चेव नवर मटाणे छटारण Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद वडिए, एवं पंच बना दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा, जहन्नभिणि वोहियणाणीणं भंते । पंचिदियतिरिक्खजोशियाण केवइया पंज्जवा पन्नत्ता ?, गायमा ! अणंता पज्जयां पन्नता, से केणटठेणं भते! एवं बुच्चइ ? गोयमा ! जहन्नाभिणिवोहियणाणिस्स पंचिं. दियतिरिक्खजोणियस्स दव्वटठयाए तुल्लै पए सटठ याए तुल्ले अ.गाहणटट्याएं चउहाण वडिए वन्नगंधरसफासपज्जवेहि छहाण चडिए आभिणियोहियनोणपज्जवेहिं तुल्ले सुयनाणपज्ज वेहिं छहाणवडिए चक्खुदसणपज्जवेहिं छहाणवडिए अचक्खुदंसणपज्जवहिं छठाणवडिए, एवं उक्कोसाभिणि वोहियनाणीवि, णवरं टिईए तिहाण वडिए, तिन्नि नाणी तिन्नि दंसणा सट्टाणे तुल्ले सेसेसु छट्ठाणवडिए, अजहन्नमणुकोमाभिणिव हिय नाणी जहा उक्कोमामिणिवोहियनाणी णवरं ठिईए चउहाण वडिए, सहाणे छट्टाणवडिए, एवं सुयनाणीवि, जहन्नोहिनाणीणं भंते ! पचिंदियतिग्विखजोणियाण पुच्छा गोयमा ! अणता परजवा पन्नत्ता, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गायमा ! जहन्नोहिनाणी पचिदितिरिक्खजाणिए जहन्नाहिनाणिस्स पंचिदियवि Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग पझम पर्यायपदम २०३ रिक्वजोणियस्म दव्वटठयाए तुल्ले पएसटठयाए तुल्ले श्रोगाहणठयाए चउट्टाणवठिए ठिईए तिहारणवडिए पन्नगंधरग्यफ सपज्जवेहिं श्राभिणिवाहियनासुयनाणपज्जवेहिं छडाणवडिए अोहिनाण पज्जवे ितुल्ले, अन्नाणा नत्थि, चक्खुदयण पवाह अचवखुदंगण पज्जवेहिं य अोहिदमणपज्जवेडिं छहाणबडिए, एव उक्कोलोहिनाणीवि अजहन्नोकोमोहिनाणीवि एव चेव, णवरं महाणे छट्टाणपाहिए, जमा आभिणिवालियनाणी नहा मायन्नागो सुयअन्नाणी य जहा ओहिनाणी तहा विभंगनाशीवि, चक्खदंमणी अचकवदं ,णी य जहा ग्राभिणिवोहियनाणी, आहिदमणी जहा अंहिनाणी. जत्य नाणा तत्यअन्नाशा नात्य जत्य अन्लाणा नत्थनाणा नत्थि. जत्य दंगणा तत्थरणारणावि अन्ना गाचि अस्थित्ति भाणियध्वं . १९५) नम्-जहन्नोगाहणगाणं मते । मणुपाणं कंदडया पज्ज वा पन्नता ?, गोयमा ! अर्थता पज्जवा पन्नगा. से केण्टटेण भते ! एवं बुचह-जहन्नीगाहरणगाणं मणुस्साणं भएता पज्जवा पन्नत्ता ?, गोवमा ! सहन्नीगाहणए मरणले जान्न गाहमाम मणूमरस Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनागमो मे स्याद्वाद दव्वट्याए तुल्ले पएसट्ठयाए तुल्ले ओगाहणठ्याए तुल्ले ठिईए तिहाणवडिए वन्नगधरसफासपज्जवहिं तिहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं तिहिं दसणहिं छट्ठाणवडिए, उक्कोसोगाहणएवि एवं चेव, नवरं ठिईए सिय तुल्ले मिय अमिहिए, जइ हीणे असंखिजइ भागहीणे अह अमहिए असंखेज्जइभागअभहिए. दो नाणा दो अन्नाणा दो दंसणा, अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि एवं चेव, णवरं प्रोगाहणटठयाए चउट्टाणवडिए, ठिईए चउहागवडिए आइल्ल हिं चउहि नाणोहिं छहाण वडिए, केवलनाणएपन्जवेहि तुल्ले, तिहि अन्नाणेहि तिहिं दसणेहिं छहाणवडिए, केकलदसणपज्जवेहिं तुल्ले, जहन्नठिइयाण भते ! मणुस्माण केवया पज्जवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अणंता पज्जवा पन्नता, से कंणठेणं मंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नटिइए मणुस्से जहन्नटिझ्यस्स मणुस्सस्स दव्य टयाए, तुल्ले पएसटट्याए तुल्ले योगाहणट ट्याए चउहाणवडिए टिईतल्ले बन्नगंधरसफासपज्जवेहिं दोहिं अन्नाण हिं दोहिं दंनोहिं छट्ठाणावडिए, एवं उक्कोसठिडएचि, नवरं दो नारणा दो अन्नाणा ढो दंगणा, अजहन्न Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्री प्रज्ञापनोपाग पञ्चम पर्यायपदम २०६ इन्नुमणुस्फोमीगाहरणा जहा जहन्नोगाहणए'इति, तथा जघन्यस्थिति सूत्र द्वे अनाने एव वक्तव्ये न तु नाने, यन सर्वजयन्यस्थितिको लब्ध्यपर्याप्तको भवति नच लब्ध्यपर्याप्तकेषु मध्ये मारवादनमभ्यगाष्टिमत्पाते, किं कारणमिति चेन , उच्यते, लन्ध्यपर्याप्तको हि सर्वमकिष्ट मास्वादनसम्यगदष्टिश्च मनाक् शुभपरिणामरतत. स नेषु मध्ये नोन्पद्यते तेनानाने एव लभ्यते न नाने, उत्कृष्ठस्थितिषु पुनमध्ये मासादनमम्यक्त्वमहितोऽप्युत्पयते इति तन्मूत्रे नाने अज्ञाने च वक्तव्ये, तयाचाह-'एव उकामठिडरवि, नवरं दो नाणा अमहिया' इति, एवमेवाजघन्योत्कृष्टस्थितिमूत्रमपि वक्तव्य, भावमृत्राणि पाठसिद्धानि, एव त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया अपि वक्तव्या , नवर चतुरिन्द्रियाणा चतुर्दर्शन मधिकं अन्यथा चतुरिन्द्रयत्वायोगादिति । तेपा चक्षुर्दर्शनविषयमपि सूत्र वक्तव्य, जघन्यावगा नतिर्यवपञ्चेन्द्रिय मूत्र 'ठिईट तिट्राणवडिर' एति, सह निर्यकपचेन्द्रिय नयेयवाक एव जपन्यागारनो भवनि, नामरव्यवीप., कि कार मति चेन . उच्चा, असन्यवायुपी हि महाशगरा का नियरिणामत्वात् पुष्टागरा प्रबनधानृग्या ततम्रा भूयान रनिको भव ते तुमनकामारंग चनियंगमनु पारणा मिडवानेनि न तंपा जपन्यावगाहना नया मिस वर्षापा. मसापांपा वित्या निन्यानपतिना, एनच भाविन पाद , नन स्थित्या निदानपानना वक्तव्य, उपन्या यत्वायोगादिति तेपा च चतुर्दर्शन मधिक Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद इति, 'दोहिं नाणेहि दोहि अन्नाणेहिं' इति जघन्यावगाहनोहि तिर्यक्पञ्चेन्द्रिय संख्येयवर्पायुष्कोऽपर्याप्तो भवति सोऽपि चाल्पकायेषु मध्ये समुत्पद्यमानस्ततस्तस्यावधिविभंगज्ञानासंभवात् द्वे ज्ञाने द्वे अज्ञाने उक्त , यस्तु विभंगज्ञानसहितो नरकादु द्वृत्य संख्ये. यवायु के तिय सञ्चेद्रियेपु मध्येसमुत्पद्यमानो वक्ष्यते स महाकायेपूत्पद्यमानो द्रष्टव्य नाल्पकाये पु, तथास्वाभाव्यात् , अन्यथाऽधिकृत पूत्रविरोध उत्कृष्टावगाहनतिर्थक्पचेन्द्रियसूत्रे ‘तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहि' इति, बिमिर्जानै स्त्रि भरज्ञानैश्च पट् स्थानपतिताः, तत्र त्रीणि अज्ञानानि कथमिति चेत् , उच्यते, इह यस्य योजन__ महरनं शरीरावगाइना स उत्कृष्टाव शाहन, स च सख्येयवर्पायुष्कः ग्ब भवति पर्याप्त च, तेन तम्य त्रीणि ज्ञानानि वीण्यज्ञानानि च सम्भवन्ति, स्थित्याऽपि चासावुत्कृष्टावगाहन त्रिस्थानपतितः, संग्येयवपायुकत्वात् , अजघन्योत्कृष्टावगाहनसूत्रे स्थित्या च स्था. नपतित., यतोऽजवन्योत्कृष्टावगाहनोऽसंख्येयवर्पायुष्कोऽपि लभ्यते, नवोपपद्यते प्रागुक्तयुक्त या चतु स्थानपतितत्वं, जघन्यस्थितिकतियाचेन्द्रियपत्र द्रु अनाने ग्य बकाये न तु ज्ञाने, यतोऽसौ जयन्यस्थितिको लम्बपर्यातक एव भवति नव तन्मध्यसा सादनमम्घकनटसाद दान, उन्हाटस्थितिको हि तिर्यकपचेन्द्रिय सूत्रे 'दो नागा दो अन्नाणा' इनि उत्कृष्टम्पिनिको हि तिर्यकपञ्चेन्द्रिय Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ श्री प्रज्ञापनोपाग पञ्चम पर्यायपदम् स्त्रिपल्यौपमस्थितिको भवनि, नस्य च दे॒ अनारे तावन्नियमेन यदा पुन. पण्मासावशेषायुर्वमानिकयु बद्धायुप्को भतति तदा तस्य द्वे ज्ञाने लभ्येते श्रत उक्त ज्ञाने द्वे अजाने इति, अजघन्योन्कृष्टमितिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमृत्र 'ठिडा चट्टाणवडिए'इति, अजधन्योत्कृष्टस्थितिको हि तिर्यपचेन्द्रिय संख्येयवर्पायु कोऽपि लभ्यते, असग्येयवर्पायुप्फोऽपि समयोनत्रिपल्योपमस्थितिक नतश्चतु भानपतित , जघन्याभिनिवोधितिर्यरूपंचेन्द्रियसूत्रे ठिटाए चउटाएवडिग'इति, असंख्येयवर्पायुषोऽपि हि तिर्यपचेन्द्रियस्य म्वभूमिकानुसारेण जघन्य अभिनिवोधिकश्रुतताने लभ्येने तत. संख्येयवर्पायुपोऽसख्येयवायुपत्र जयन्याभिनिवाधिकश्रुत मानसम्भवाद् भवन्ति स्थित्या चतु म्यानपनिता , उत्कृष्टाभिनियोधिरुशनसूत्र स्थित्या च त्रिस्थानपतिता वक्तव्या , यन इद यस्योत्कृष्ट "याभिनियोधिपश्रुतज्ञाने म नियमान सग्येयवायु क मन्ययवर्षायुप्फन स्थित्याऽपि विधानपतिन एव यथोत्त प्राक् , अवधिसूत्र विभागसूत्रेऽपि न्धित्या त्रिस्थानपतित , किं पारणमिति चेन उन्यते, पसंख्येयवर्षायुपोऽवधिविभंगारंभपात , श्राह चमृलीकाकार 'योहि विभगेपु नियमा निहाराटिए, रि दारण', भन्ना, प्रारिदिभाता अमन-वामाध्यन्न नयिनि, जपन्यावगानमनुष्याने टिदा तिट्टालरिए इति, निर पन्द्रियवन मनुष्योऽपि जपन्यानो निदमान मंचमाटर . मस्य Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैनागमों मे स्याद्वाद वर्षायुष्कश्च स्थित्या त्रिस्थानपतित एवेति 'तिहिं नाणेहिं' इति, यदा कश्चित् तीर्थकरोऽनुत्तरोपपातिकदेवो वा अप्रतिपतितेनावधि. ज्ञानेन जघन्यायामवगाहनायामुत्पद्यते तदाऽवधिज्ञानमपि लभ्यते इतीह त्रिभिज्ञानैरित्युक्त, विभङ्गज्ञानसहितस्तु नरकादुद्वृत्तो जघन्यायामवगाहनायां नोत्पद्यते तथास्वाभाव्यात् अत्तो विभङ्गज्ञानं न लभ्यते इति द्वाभ्यामज्ञानाभ्यामित्युक्त, उत्कृष्टावगाहनमनुष्यसूत्रे' ठिईए मिय हीणे पियतुल्ले सिय अभहिए जइ हीणे असंखेज्जभागहीणे जड अभहिए असंखेज्जभागअन्भहिए' इति उत्कृष्ट.वगाहना हि मनुष्यास्त्रिगव्युतोच्छ्रया. त्रिगव्युतानां च स्थितिर्ज पन्यतः पल्योपमासख्धेयभागहीनानि त्रीणि पल्यापमानि उत्कर्पतस्तान्येव परिपूर्णान त्रीणि पल्पोपमानि उक्त च जीवाभिगमे-'उत्तरकुरुदेवकुराएमणुस्साणं भंते । केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा। जहन्नेणं तिन्नि पलियोवमाई' पज़ियाबमम्स सखिन्न भागहीणाई उक्कोसेणं तिन्नि पलिअोवमाई' विपल्यापमासंख्येयभागश्च त्रयाणां पल्योपमानामसंख्येयतमो भाग इति पल्यापमासंग्न्ययभागहीनपल्योपमत्रयस्थितिकः परिपर्णपल्योपमत्रयाितकापेक्षयाऽसंन्येभागहीन , इतरस्तु तदपेक्षया ऽमन्ययभागाधिक शेषा वृद्विहानयोन लभ्यन्ते , 'दो नाणा दो अन्नागा' टनि, उत्कुष्टावगाहना दि ग्रन्येवर्षायुपः संग्यायपो चावधिर्धावभंगासभय , तथाखाभत्र्यात् अती द्वे वजनेदं अज्ञाने इनि, तथा ऽजयन्योत्कृष्टावगाहन संन्येयवर्षा Page #235 --------------------------------------------------------------------------  Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागों में स्याद्वाद जहन्नाभिणियोहियणाणी मणूसे जहन्नाभिणिबोहिया-: णाणिस्स मणुस्सस्स दव्यटठयाए तुल्ले पएसटठयाए तुल्ले ओगाहणटठयाए चउटठाणवडिए ठिईए चउट्ठाण वडिए वन्नगंधरसफासपज्जवेहि छटाणवडिए आभिणिवोहियनाणपज्जवेहिं तुल्ले सुयनाणपज्जवेहिं दोहिं दंसणेहिं छट्ठाण वडिए, एवं उक्कोसाभिणिवोहियनाणीवि नवरं आभिणिवोहियनाणपज्जवेहिं तुल्ले ठिईए तिहाणवडिए तिहिं नाणेहिं तिहिं दंसणेहि छहाणवडिए , अजहन्नमणुकोसामिणिबोहियनाणी जहा उक्कोसाभिणिवोहियनाणी, नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए सहाणे छट्टाणवडिए, एव सुयनाणीवि, जहन्नोहिनाणीणं भते ! मणुस्माणं केवइया पज्जवा पन्नत्ता ?, गोयमा! अणंता पज्जवा पन्नचा, से केणटटेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नोहि. नाणी मगुस्से जहन्नोहिनाणिम्स मरणमस्स दव्वटठयाए तुल्ल पएमट्ट्याए तुल्ले योगाहणट्ठयाए तिहारणवडिए ठिईए तिहारगवडिए बन्नगंधरसफासपउजवेहिं दोहिं नाणंहिं छट्टाणवडिए मोहिनाणपज्जवेहिं तुल्ले मग्णनाणपज्जवेहि छटाणवडिए तिहिं दमरोहिं छटाणवडिए, एवं उकोमाहिनाणावि, अजहन्न Page #237 --------------------------------------------------------------------------  Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८. जैनागमों मे स्याद्वाद मूलप्-वाणमंतरो जहा असुरकुमारा । एवं जोइभियवमा णिया, नवरं सट्ठाणे ठिइए तिहाावडिए भाणियव्ये, सेत्तं जीवपज्जवा (सूत्र ११७) । टीका-एवममुरकुमारादिसूत्राण्यपि भावनीयानि प्राय समानगमत्वात्, जघन्यावगाहनादिपृथिव्यादि सूत्रे स्थित्या त्रिन्थानपतितत्वं संख्येयवर्पायुष्कत्वात् , एतच्च प्रागेव सामान्यपृथिवीकायिकसूत्रे भावितं, पर्यायचिन्तायामज्ञाने एव मत्यज्ञानश्रुताज्ञानलक्षणे वक्तव्ये न तु ज्ञाने, तेषां सम्यक्त्वस्य तेपु मध्ये सम्यक्स्वमहितम्य चोत्पादासंभवात् 'उभयाभावो पुढवाइएसु' इति वचनाद् अत एवंतवाक्तमत्र 'टोहि अन्नाणहि इति जघन्यावगाहनहीन्द्रिय मूत्रे दाहिं नाणेहि दोहिं अन्नाणेहिं' इति द्वीन्द्रियाणां हि केपांचिदपर्याप्तावस्थाया मास्वादनसम्यक्त्वमवाप्यते सम्यगश्च ज्ञाने इनि दे ना लभ्येने पागणामनाने तत उक्त द्वाभ्यां नानाभ्यां द्वाभ्यामनानाभ्यामिति, उत्कृष्टावगाहनायां त्वपर्याप्तावस्थाया अभावान् सान्वादनसम्यक्त नावाप्यते ततस्तत्र नाने न वनये, नयाचाह--'उक्कोमिनोगाहगार वि नवरं नाणा नमित्ति, तथा ऽजयन्या वाहना किल प्र,मममयादूर्घ भवति-इत्यपयापावन्यायापि, तम्या मम्भवान् साम्बादन सम्यक्त्ववतां जाने अन्यंपा चालान नि जान चान्नान च वय तथाचाह--'अज Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रापनापाग पछमं पर्यावपदम २१ युगकोऽपिमान ग्रामर येयवाय कोऽपि भवनि. प्रसत्येयवाको. ऽपि गव्यताहितीय तनाऽवगाहनतयाऽपि चतु म्धानपनितत्य न्यन्याऽपि तधा, 'पा अभिमान वावधिमन पर्यायापनि पट्टाधानपतिता , नपा चनुगामपि तानाना तत्तपदव्याहिनापचनया घरोपशम चियतन्तारतम्यभावान , वलसानप यातुल्यता, निम्बावरणचयन प्रारभू नव वेचन सामन्य जगाया , पनाम जयन्तिकमना पत्र दामिना निद्वाभ्यामताना चामत्यानयनातानम्पाभ्यां पटयानपनिनना काल्या , न तु ाना या सम्मादिति चन , जप धनिया मनु या मार्गानमा , मानिमन मात्र नियमनी मिवार, मनानघामाने, वन मानन्याधिनिस्मन याने दीनाला दी मागाति, वृधिनिकाह मनुचारित्रोपमाप , नेपाल नावदाराने निधनमाज पानावशेषता युपानमा नाकामा गान गाने की मामी कामयापन नि नि मानिनोग. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैनागमों में स्याद्वाद तत शेपज्ञानदर्शनास भवादाभिनिवोधिक ज्ञानपर्यवैस्तुल्य श्रुतज्ञानपर्ययैर्द्वाभ्यां दशनाभ्या च पदस्थानपतितोक्ता, उत्कृष्टाभिनिवोधिकसूत्रे 'ठिईए तिट्ठा वडिए' इति उत्कृष्ट्राभिनिबोधिकोहि नियमात् संख्येयवर्षायु असंख्येयवर्षायुष तथाभवस्वाभाव्यात् सर्वोत्कृष्टाभिनिवोधिकज्ञानासंभवात्, संख्येयवर्षायुषश्च प्रागुक्तयुक्त े स्थित्या त्रिस्थानपतिता इति, जघन्यावधिसूत्रे उत्कृष्टावधिसूत्रे चावगाहनया त्रिस्थानपतितो वक्तव्य, यत सर्वजधन्योऽवधिर्यथोक्तस्वरूपो मनुष्याणा पारभविको न भवति, किन्तु तद्भवभावी, सोऽपि च पर्याप्तावस्तयां, अपर्याप्तावस्थायां तद्योग्यविशुद्धयभावात् उत्कृष्टोऽप्यवधिर्भावितश्चारित्रिण, ततो जपन्यावधिरुपृष्टावधिर्वाऽवगाहनयात्रिस्थानपतितः, अजघन्योत्कृष्टस्त्ववधि पारभविकोऽपि संभवति ततोऽपर्याप्तावस्थायामपि तस्य संभवात् श्रजघन्योत्कृष्टावधिखगाहनया चतु स्थानपतित, स्थित्या तु जघन्यावधिरुत्कृष्टावधिरजयन्योत्कृष्टावधि त्रिस्थानपतित, असंख्येयवर्षायुपामवघेरसभवान, सख्येयवर्घायुपा च त्रिस्थानपतितत्वात् जघन्यमनः पर्यवज्ञानी उत्कृन्नमन पर्यवज्ञानी अजघन्योत्कृष्टमन पर्यवज्ञानी च स्थित्या त्रियानपतित, चारिविणामेव मन पर्याय ज्ञानमद्भावात्, चारित्रिया च सम्ययवर्षायुष्कत्वात्, केवलज्ञानसूत्रे तु 'ग्रोगाहा चट्टा वडिए' इति केवलसमुहातं प्रतीत्य, तथाहिमुहानगन केवली शेपके वलिभ्योऽसंख्येयगुणाधिकाय 7 > Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग पञ्चम पर्यायपदम् २१५ गाहन , तदपेक्षया शेपा केवलिनोऽसख्येयगुणहीनावगाहना , स्वस्थाने तु शेपा केवजिनस्त्रिस्थानपतिता इति स्थित्या त्रिस्थानपतित, सख्येयवर्पायुष्कत्वात् ।। व्यन्तरा यथाऽसुरकुमारा , ज्योतिष्कवैमानिका अपि तथैव, नवर ते स्थित्यात्रिस्थानपतिता वक्तव्या , एतच्च प्रागेव भावितं । उपसहारमाह-ग्रन्थान ५०००] 'सेत्त जीवपज्जवा' एते जीवपर्याया । मम्प्रत्यजीवपर्यायान् पृच्छति-- मूलम्-अजीवपज्जवा णं भंते । काविहा पहला ?, गोयमा । दुविहा पन्नता , तं जहा-रूविअजीवपज्जवा य अरूविअजीवपज्जवा य, अरूविअजीव पज्जवा णं भंते । काविहा पन्नत्ता १, गोयमा ! दशविहा पत्ता, तनहा-धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थि कायस्सपएसा अहम्मत्थिकाए अहम्मत्थिकायस्स देसे अहम्मत्थिकायस्स पएसा छोगासत्थिकाए आगासत्थिकोयस्स देसे आगासस्थिकायस्स पएसा अद्धासमए सूत्र ११८) मूलम्-रूविअजीवपजवा णं भंते! कइविहा पन्नत्ता १, गोयमा। चउविही पन्नत्ता, तंजहा-खंधा खंधदेसा खंधपएसा परमाणुपुरंगला, तेणं संते ! कि सांखेजा असंखेजा अणता ?, गोयमा! नो संखेज्जा नो Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमा मे स्याद्वाद माखेज्जा नो अगखेज्जा अणंता, से केणटठेण भते ! एव बुच्चइ-नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणता ?, गोयमा । अणता परमाणुपुग्गला अणता दुपएसियो खंधा जाव अणता दसपएसिया खंधा अणंता संखिज्जपएमिया खधा अणंता असंखिज्जपएसिया खं वा अणता अणंतपएसिया खंधा, से तेणठेणं गोयमा । एवं बुच्चइ ते णं नो खिज्जा नो असं खिज्जो अणंता । सूत्र ११६) लम् पवाणुयोगलाणं मते ! केवइया पज्जवा पन्नत्ता ?, गोयमा! परमाणुपोग्गलाणं अणंता पज्जवा पन्नाचा, से केपटटेण भंते । एवं बुच्चइ-परमाणुपुग्गलाणं अणंता पज्जवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! परमाणुपुग्गले परमाणुपोग्गलस्म दबयाए तुल्ले पएसहयाए तुल्ले आगाहणट्टयाए तुल्ल ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले मिय अमहिए जइ हीणे असंखिज्जइभागहीणे बा मंग्विजइभागहीणे वा संखिन्जइगुणहीणे वा अखिनडगुणहीणे वा अह अमहिए असंखिज्जइभागप्रमाहिए वा माखिज्जहमागअमहिए वा संग्विजडमागमहिए वा मंखिज्जइगुणमहिए वा यमग्निजगुग्गअमहिए बा, कालबन्नपउजवेहि मिय Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग पञ्चमं पर्यायपदम् ०१७ हीणे सिय तुल्ले सिय अभहिए जइ होणे अणंतभागहीण वा असंखिज्जइभागहीणे वा सखिज्जइ. भागहोणे वा सखिज्जगुणहीण वा असखिज्जगुणहीण वा अगतगुणहीणे वा अह अमहिए अणतभागअमहिए वा असखिज्जइभागमहिए वा संखिज्जभागअन्महिए वा अणतगुणममहिए वा एवं अवसेसवन्नगधरसफामपज्जवेहि छट्ठाणवडिए फासाण सियउसिण निद्धलु खेहिं छहाणव डिए, से तेणठूर्ण गोयमा । एवं बुच्चइ-परमाणुपागलाण अणता पज्जचा पन्नत्ता दुपएमियाण पुच्छा गोयमा । अणता पज्जवा पन्नत्ता ?, से केणद्वेण भते ! एव वुचइ १, गोयम ! दुपए सिए दुपएमियस्स दवयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए सिय हीणो सिय तुल्ले सिय अमहिए जइ हीरों पए सहीरो अह अभहिए पए समन्महिए ठिईए चउट्ठाण वडिए वन्नाईहिं उवरितलेहिं चउफासेहिं य छटार वडिए, एवं तिपएसेवि, नवरं ओगाहणब्यांए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अमहिए जइ ही पएसहीणो वा दुपएसोहीणे वा, अह अमहिए पएसमभहिए वा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैनागमो मे स्याद्वाद दुपएस मन्महिए वा, एवं जाव दसपएसिए, नवरं अोगाहणाए पएमपरिवुड्ढी कायव्वा जाव दसपएमिए, णवरं नवपएसहीणत्ति, संखेज्जपएसियार्ण पुच्छा, गोयमा ! अता पज्जया पन्नत्ता, से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-गोयमा ! संखेज्जपएसिए संखेज्जपएसियस दव्वठ्ठयाए तुल्ले पए सट्टयाए सिय हीणे गिय तुल्ले सिय अन्महिए, जइ हीणे सखेज्जभागहीणे वा संखिज्जगुण हीणे वा अह अब्भहिए एवं चेव ओगाहणयाए वि दुट्ठाणवडिए ठिईए चट्टाणबडिए वरणाड उवरिल्लचउफासपज्जवेहि य छठाण वडिए, असखिज्जपएसियाण पुच्छा गोयमा ! अणता पज्जवा पन्नत्ता, से केणटठेणं भंते ! एवं बुच्चड-गोयमा । असंखिज्जपएसिए खंधे असंखिज्जपएमियम्स खंधम्म दवट्टयाए तुल्ले पएसहयोए चउट्राणवडिए प्रोगाहणयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउहाण वडिए वरणाइउवरिल्ल चउफासेहि य छटाणवडिए, अणंतपएमियाणं पुच्छा गोयमा ! अणंता पज्जवा पन्नगा, से केणटटेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गायमा ! अगतपएमिए खंधे अणंतपए मियस्स खध Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग े पञ्चम पर्यायपदम् २१६ स्स दव्वझ्याए तुल्ल पएसझ्याए छट्ठाणवडिए योगाहट्टयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउट्टागवडिए वन्नगंधरसफासपज्जवेहि छट्टावडिए || एगपएसेोगाहाण पोग्गलाख पुच्छा, गोयमा ! अणता पज्जवा पन्नत्ता, से कटठे भते १ एव बुच्चइ १, गोयमा । ए गए सोगाढे पोग्गले एगपएस गाढस्स पोगलस्स दवडयातले परमया छठ्ठाणवडिए श्रोगाहण ट्याए तुल्ले ठिईए चउटठाणवडिए वरणाइउवरिल्लचउफासेहिं छट्टाणवडिए, एवं दुपए सोगा हेवि, संखिज्जपएमोंगाढाणं पुच्छा गोयमा । अणता पजवा पन्नत्ता, ऐ के ठेणं भंते । एवं वुच्चइ १, गोयमा ! सखेज्ज एसो गाढे पोग्गले संखिज्जपएसोगाढस्स पोग्गलस्स दव्वट्टयाए तुल्ले पएसट्ट्याए छट्ठाणचडिए आगाहट्टयाए कुटठाणवडिए ठिईए चउहाणase वरणाइवरिल्लच उफासेहि य छठाणचडिए, सखे परसोगाद्वाणं पुच्छा, गोयमा ! श्रणंता पञ्जवा पन्नत्ता से केटठेण भते ! एवं वृच्चड़ १, गोयमा । संखेज एसोगा ढे पोग्गले असंखेजपए सोगादस्स पोग्गलस्स दव्वट्ट्याए तुल्ल पएसट्ठ याए छटठाणवडिए योगाहट्ट्याए चउठाव हि Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में स्याद्वाद ठिईए चउटठाणबडिए वण्णाइअफासेहिं छट्ठाणवडिए । एगसमयठियाणं पुच्छा गोयमा । अणंता पज्जवा पन्नत्ता, से केणटेण भंते ! एव चुच्चइ ?, गोयमा । एगममयठिइए पोग्गले एगपमयठियम्स पोग्गलस्म दबठ्याए तुल्ले पएमटठयाए छटठाणवडिए योगाहणटठयाए चउठाणवडितेठितीए तुल्ले वएणाइअटफासेहिं छटठाणवडिए एवं जाव दसममयठिइए , खेज्जयमय ठिइयाणं एवं चेव, ण वरं ठिईए दुट्टाणवडिए, अखेज्जयमयटिइयाणं एवं चेव, नवरं ठिईर चउटठोणवडिए, एकगुणकोलगाण पुच्छा, गोयमा । अणंता पन्जवा पन्नत्ता, से केणटटेणं भंते ! एवं बुच्चइ १, गोयमा ! एकगुणकालए पोग्गले एकगुणकालगम्म पोगालस्स दबयाए तुल्ल पए सट्टयाए छटटाणवडिए योगाहणट्ट्याए चउ ढोणवडिए टिईए चउट्टाणवडिए कालवन्नपज्जवहिं तुल्ले अवसेसेहिं वन्नगंधरमफासपज्जवेहि छटठागावटिए अटटफासेहिं छट्ठाण वडिए, एवं जाव दसगुणकालए, मंग्वजगुग्णकालगवि एवं चेव, नवरं सट्टाणे दुट्टाणबटिग, एवं असग्विजगुणकालएवि नवरं सट्टाणे च उट्टागणवडिए, एवं गणंतगुणकालरात्रि नवरं Page #247 --------------------------------------------------------------------------  Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैनागमों मे स्याद्वाद पुच्छा. गोयमा ! जहा जहनोगाहणए दुपए सिए तहा जहन्नो गाहाए चउप्पएसिए एवं जहा उक्कोसोगाहए दुपसिए तहा उकोसोगोहणए चउप्पएसिएवि एवं जहन्नमणुक्को सो गाहणएत्रि चउप्पएसिए, वरं गाहट्ठाए सिय हीणे सिय तुल्ले सियमम्भहिए जड़ हीणे पएसहीणे अह अभ हिए पएस अन्भहिए एवं जाव दसपएसिए णेयव्यं, वरं जहन्नमरणुक्को सोगाहणए पएसपरिवुडढी कायन्वा जोव दगपएसियस्स सच परसा परिवडिढ़ज्जति, जहन्नो गाहणगाणं भंते! संखिज्जपए पए सियाणं पुच्छा, गोयमा । ग्रता पज्जवा पन्नता, से कंटणं भंते । एवं बुच्चइ १. गोयमा ! जहन्नोग्रहणए संखेज्जपए सिए जहन्नीगाहणगस्स संखिज्जपए मियस्सं दव्वट्ट्याए तुल्ले पएमटठयाए विडिए श्रोगाहट्टयाए तुल्ले टिईए चउट्ठाण - चडिए वरणाइचउफासपज्जवेहि य छट्टा वडिए एव उक्को सो गाहणए वि, जहन्नमणुकको सो गोहणएवि एवं चैव वरं सट्टा बुट्टा बडिए, जहन्नो गाहगाणं ते! असंखिज्जपए सियाण पुच्छा, गोयमा ! श्राता पज्जवा पन्नत्ता, से केाणं मते ! एवं . • Page #249 --------------------------------------------------------------------------  Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ जैनागमों में स्याद्वाद पएसियस्स खंधस्स दव्वट्ट्याए तुल्ले पए सट्ट्याए छट्टाशावडिए श्रोगाहण्टयाए चउट्ठाण्वडिए ठिईए चट्टा वडिए चरणो अट्ठफासेहिं छडारण वडिए, जहन्नठिड्याणं भंते । परमाणुपुग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! अता पज्जवा पन्नत्ता से केण्ठे " मंवे ! एव बुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नठिइए परमाणुपोग्गले जहन्नठियस्स परमाणुपोग्गलस्स दव्चट्टयाए तुल्ले पएसट्ट्याए तुल्ले श्रोगाहण्ठयाए तुल्ने टिईए तुल्ले वरणाइ दुफासेहि य छट्ठाण व डिए, एव उक्कोसठिएवि, श्रजहन्नम युवकोसटिइए वि एव चैत्र नवरं टिईए उाणवडिए, जहन्नठिड्या दुपए मित्राण पुच्छा, । " गोयमा । अणता पज्जवा पन्नता से कॅण्टे मंते । एवं बुच्चड़ १, गोयमा । जहन ठिए दुपए लिए जहन्नठिइयस्स दुपए सियस्स दव्वट्ट्याए तुल्ने पए मटठयाए तुल्ले यो गाहरणउठाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्महिए जड़ ही परमही ग्रह अन्भहिए पएसयन्महिए टिईए तुल्ले चरा चउफासहि यछ वडिए - एवं उक्कोमटिङपनि जहन्नमरणुक्को सठिएवि एवं चैव, Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग पञ्चम पर्यायपदम् २२५ नवर ठिईए चउहाणवडिए, एवं जाव दसपए सिए, नवरं पएसपरिवुडही कायव्वा, ओगाहणयाए तिसुवि गमएसु जाव दसपएसिए एवं पएसा परिवढिज्जति, जहन्नाठियाण भते ! सखिज्जपएसियाणं पुच्छा, गोयमा । अणंता पज्जवा पन्नत्ता, से केणठेण मंते ! एवं बुच्चइ १, गोयमा । जहन्नठिइए संखिज्जपएसिए खधे जहन्नठिइयम्स संखिन्जपएसियस्य खधस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए दुहाणवडिए अोगाहणटठयाए दुटठाणवडिए ठिईए तुल्ले वएणाइ चउफासेहि य छटठाणवडिए, एव उकोसठिइएवि, अजहन्नमणुकोमठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईए चउट्टार वडिए, जहन्नठिड्याणं असरिख. जपएमियाण पुच्छा, गोयमा ! अणंता पउजवा पन्नता, से केणठेण भते । एव वुच्चड़ ?. गोयमा । जहन्नठिए अमग्विजपएमिए जहन्नठिइयम्म असखिजपएसियस्म दबटठयाए तुल्ले पाएमटटयाए चउहाणवडिए योगाहणल्याए चउट्टाणवडिप टिईए तुल्ले वरणाइ वरिलचरफासेदि य छटाणवाडिए. एव उनामटि-एवि जहन्नमणुक्कामटिडएवि. एच चव नवर टिईए चहारावटिए, Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैनागमों मे स्याद्वाद जहन्नठिइयाणं अणं तपएमियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणं त पज्जवा पन्नता, से केणठेणं भंते । एवं बुच्चइ ?, गोयमा । जहन्नठिइए अणंतपए सिए जहन्नठिइयस्स अणंतपएसियस्स दबटठयाए तुल्ले पएसट्टयाए छटाणवडिए अोगाहणटठयाए चउहाणवडिए ठिईए तुल्ले वएणाइ अटठफासे हि य छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोम विठइएवि, अजहन्नमणुक्कोसठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईए चउहाणवडिए जहन्नगुणकालयाण परमाणुपुग्गलाणं पुच्छा, गोयमा!, अणंत पज्जवा पन्नचा, से केणठेणं भंते ! एवं बुचइ १, गोयमा ! जहन्नगुणकालए परमाणुपुग्गने जहन्नगुणकालगस्स परमाणुपुग्गलस्स दबटठयाए तुल्ले पए मटठयाए तुल्ले आगाहणटठयाए तुल्ले ठिईए चउहाण वडिए कालबन्नवजवेहिं तुल्ले अवसमाहि वएणा नत्थि, गवरमदुफामपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए, एव उक्कामगुणकालएवि, एवमजहन्नमणुक्कोसगुणकालए वि, णवरं सहाणेछट्ठाण वडिए, जहन्नगुणकालयाणं मते ! दुपएसियाण पुच्छा, गोयमा ! अणंता पज्जया पन्नत्ता, से केणटण भते! एव Page #253 --------------------------------------------------------------------------  Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद भंते ! असांखिज्जपएमियाणं पुच्छो, गोयमा ! अणंता पज्जया पन्नत्ता, से केण्टठेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नगुणकालए असखिज्जपएसिए जहन्नगणकालगस्स असंखिज्जपएमियम्स दव्वट्ठयाए तुल्ले पए सट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए चउडाए - वडिए कालवन्नपज्जवेहि तुल्ले अवसेसेहिं वण्णादिउवरिल्लचउफासेहि य छहाणवडिए, अागाहणट्ठयाए चउट्टापावडिए, एवं उक्कोसगुणकालएवि, अजहन्नमणुक्कोमगणकालएवि एव चेव, नवर सट्ठाणे छहारणवाडिए, जहन्नगणकालयाण मते! असंतपएमियाणं पुच्छा, गोयमा । अग्णता पज्जवा पन्नत्तो से केटटेणं भंते । एव बुचड १, गोयमा! जहन्नगणकालए अणतपएमिए जहन्नगणकालयस्स अणंतपएमियम्म दबट्टयाए तुल्ले पएमटटयाए छहाणबडिए प्रागाहणटठयाए चट्टाणवडिए ठिईए चउ. टाग्णवडिा. कालबन्नपज्जवेहि तुल्ले अवसंसेहिं वन्नादि अटठफासेहि य छटाणवडिर, एवं उकोमगुणकालपवि अजहन्नमणुक्कोमगणकालावि, रख चैव, नवर माणे छट्टागवडिा व नीललोहियहानिमुक्यिल्लमुभिगंधदुन्भिगधतित्तकडकमायअविलमहुगरम पज्ज Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग पञ्चम पर्यायपढम् २२६ वेहि य वत्तव्य र माणियव्वा, नवर परमाणुपोग्गलस्स दुभिगधस्स दुभिगंधो न भएणइ दुभिगधस्स सुमिगधो न भएणड तित्तस्स अवसेसे न भएणति एवं कडुयादीणवि, अवसेसं त चेव, जहन्नगुणकक्खडाणं अण तपएसियाण खंबोणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणणं भंते ! एवं बुच्चद् ?, गायमा ! जहन्नगुणकवडे अणंतपएसिए जहन्नगुणकरखडस्म अणतपएसियस्स दबयाए तुल्ले पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए अोगाहणठ्याए चउट्टार वडिए टिईए चउट्टाणवडिए वन्नगंधरसेहि छट्टाणवडिए काखडफासपजवेहिं तुल्ले अवसेसेहि सत्तफामपज्जवेहिं छटाणवहिए, एवं उदोसगुणकक्वडेवि, जहन्नमणुकोमगुणकवडेवि एवं चेव, नवरं सहारपे छटाण वडिए, एव महयगुरुपलहुएवि माणियचे, जहन्नगु सीयाणं भंते । परमाणुपागलाएं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पजवा पन्नचा, से पेशस्टेण भते । एवं चुनइ ?, गोयमा ! जहन्नगुरानीय परमाणुपोग्गले जहन्नगुणसीतम्म परमाणुपुग्गलस्म दव्वद्र्याए तुल्ले पएमट्टयाए तुल्टे श्रोगाहपटठ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद याए तुल्ले ठिईए चउहाणवडिए वन्गंधरसेहिं छहारणवडिए सीयफासपजवेहि य तुल्ल उसिणफासों न भणचि निद्धलक्खफासपज्जवेहि य छहाणवडिए एव चेव, नवरं सट्ठाणे छठ्ठाणवडिए, जहन्नगुणसीताणं दुपदेसियाणं पुच्छा, गोयमा! अणता पज्जवा पन्नत्ता, से केणटठेण भंते ! एवं वुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नगणसीते दुपएसिए जहन्नगुणसीतस्स दुपदेसियस्स दव्वयाए तुल्ले पएसठ्ठयाएतुल्लागाहण ट्ठयोए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अमहिए जइ हीणे पएसहीणे (ग्रह) अहिए पएसअमहिए टिईए चउट्ठाणवडिए वन्नगधरसपज्जवेहिं छहाणवडिए, सीयफासपज्जवेहिं तुल्ले उसिणनिद्ध लुक्खफासपज्जवेहिं छटाणवडिए, एव उकोसगुणसीतेवि, अजहन्नमणुक्कोसगुणसीतेवि एवं चेव, नवरं सट्ठाण छट्ठाण चडिए, एवं जाव दसपए मिए, णवरं अोगाहणटठयाए पएसपरिखुड्ढी कायव्या, नात्र दसपएसियस्स नवपएसा बुढिज्जंति, जहन्नगुणमीयाणं संखेज्जपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पज्जवा पन्नत्ता, से केणट्टेणं मंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमो! जहन्नगुणसीते मंखिज्जपएसिग जहन्नगुणसीतस्स मंखि Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री प्रज्ञापनोपाने पञ्चम पर्यायपदम उजपएसियम्म दबटटयाए तुल्ले पाएमटठाए दुट्टाणवटिए योगाहबाटठयाए दुहाणवडिए टिईए च उहाणवडिए वरणादीहिं छहाण वडिा मीयफाय पज्जवहि तुल्ले उमिखनिद्धलर खेहि छह वारा एव उद्योगगुगामीतेवि, अजहन्नमणुक्कोनगणमानाव एव चेव, नवर सट्टार्ण छहण वडिए, जनगणना याण अग्विज्जपए मियाण पुच्छा गोयमा । अणंना पज्जवा पन्नत्ता. से कणट टेण भते । एव चट '. गोयमा ! जहन्गुणीत अग्विजपए लिए जहन्नगुणसीयस्म अमखिज्जपणपियन्स ढव्य व्याग तुल्ले पएमियाए चउट्टाणवडिर ग्रागाहण्टटयाए चरटागवहिए टिईए चउहाण व टिए बगाट पज्जवहिं. छटागावटिए नीयफासपनवेहिं तुल्ले उनि निद्धलवरवफामपज्जवहिं छहारावटिए, ए उस्कोरगुग. सीतेवि, अजहन्नमाक्सोलापमीनधि एवं चय. न. वरं सहाणं छट्टापायटिए जहन्न गगनीनार मनपएनियाण पृच्छा. गोयमा ' ना! पन्जया पन्ना . पंकटटेण मने ' एव वृक्ष:. गायमा : जहनगरमीने एनएनिए लगतान मन पामियम दरवाए तुल्ने पामटयार छह Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैनागमों मे स्याद्वाद याए तुल्ले ठिईए चउट्ठाण वडिए वन्गंधरसेहि छटाणवडिए सीयफासपञ्जवेहि य तुल्ले उसिण फामों न भणति निद्धलक्खफासपज्जवेहि य छटाणवडिए एव चेव, नवरं सट्ठाण छठ्ठाणवडिए, जहन्नगुणसीताणं दुपदेसियाणं पुच्छा, गोयमा। अणता पउजवा पन्नत्ता, से केणटठेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नगणसीते दुपएसिए जहन्नगुणसीतस्स दुपदेसियस्स दवयाए तुल्ले पएसठ्ठयाएतुल्ल गाहण ट्ठयोए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अमहिए जइ हीणे पएसहीणे (अह) अहिए पएसअन्महिए टिईए चउढाणवडिए वनगंधरसपज्जवेहिं छहाणवडिए, मीयफासपज्जवेहिं तुल्ल उसिणनिद्धलक्खफासपज्जवेहि छटाणवडिए, एवं उक्कोसगुणसीतेवि, अजहन्नमणुकोसगुणसीतेवि एवं चेव, नवरं सट्ठाण छट्ठाण वडिए, एवं जाव दसपए सिए, णवरं ओगाहणटठयाए पएसपरिघुडढी कायव्या, जात्र दसपएसियस्स नवपएसा बुढिज्जति, जहन्नगुणमीयाणं संखेज्जपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पज्जवा पन्नत्ता, से केणढेणं मंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नगुगामीने संखिज्जपए सिए जहन्नगणसीतस्स मंखि Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पन्ना श्री प्रज्ञापनोपान पञ्चम पर्यायपदन ज्जर एसियम्स दव्चटट्याए तुल्ले पाण्स्टटयाग दुडाणवडिए श्रोगाहटट्याए दुाणवडिए टिईए उडिएवरणादीहिं छाडिए सीयकासपज्जवेहि तुल्लं उमिशानिज्लव खेहि छटाचहिए एवं उक्कोनमीतेवि, जहन्नम को गणतीच एव चैव, नवर सहाणे छट्टाटिए, जनगणकी या श्रमं विज्जपए मियाण पुच्छा गोयमा ना पज्जवा पन्नत्ता से कंटटे भते । गोमा ! जन्गुणमति श्रमविएमए जहन्न गुणी श्रमविज्जपण मिचम्म दव्वध्याए तुल्ल एनियाए चट्टावडर हटाए चहाएव चट", चटिए टिईए चउट्टारावटिए चएगाट पज्जदेहिं छहारि नीयफानपज्जचे तुलं उनिपद्रि लक्खफागपज्जवहिं छटावडिए एवं उपकार सीव. जहन्नमवगुणतिथि एवं चैव न वर सहारा छट्टाएपटिए जहन्नगासीनान पनियानं पृच्छा. गोवमा ' पन्ना से गटटे भने ' एव युगमा : जमीन चन्ना ! पनवा २३/ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागमों में न्याहाट चटिए योगाहगट्टयाए चउट्टाणवडिए टिटा चउटागावटिए बागाह पज्ज वेहि उहागावटिा मीयफाय पज्जवहि तुल्ले अबसेसेहि गचाफामपन्जहि छहाग्गवडिग, एवं उक्कोसगणमीनेवि अजहन्नमणुककोसगणमीनेवि एवं चेव, नवरं गदाग लागवटिए, एवं उमिणनिद्धलक्खे जहाँ सीते परमागुपोग्गनग्म नहेव पडिबक्खो सब्वेसि न भरणइ नि मागियच्वं ॥ मत्र १२०) लम् -- साम्प्रन मामान्यमूत्रमारभ्यते) जहन्नपए सियाणं भने । ग्वधाण पुच्छा, गोयमा ! अणंता, से केण्टठेणं भने ! एवं यह १, गोयमा! जहन्नपएमिए खधे जहन्नपए मियरम खंधम्म दबट्ट्याए तुतले पएसटठया तुलो प्रागाहगटटयाए सिय हीणे सिय तुरते गिग अन्महिए जइ हीणे पाएमहोणे अह अमहिए पएमममहिए टिईए चउठाणबडिए वन्नगधरस- रिक्तचचउफामपन्जवाहे छट्ठाणघडिए उक्कोममिया भंते ! ख वाग्ग पुच्छा, गोयमा ! अणंता, कंगठेग भते ! एवं बुचड़ ?, गोयमा ! कोम परमिए खचे उक्कोमपएमियम खंथस्स Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लम्भ श्रीमनापनोपान े पञ्चम पर्यापदम् २३३ दन्वट्टयाए तुल्ले पएसइयाए तुल्ल योगाहट्टयाए च उट्टावटिए टिईए चउट्टा वडिए चराट् ग्रफानपज्जवेहिय छट्टाणवडिए, जहन्नमणुको सपए मियाणं भंते । खंधाणं केवड्या पजचा पत्ता, गोयमा ! श्रता०, से कॅण्टटेण० १, गोयमा । जहन्नमरणुकोसएमए खधे जहन्नमरणुकः । सपएसियन खस्स दव्चयाए, तुल्ल पएमट्टयाए छट्टाटिए योगाहण्टयाए चाणवडिए टिईए चउट्टाटिए चरण घट्टफासपज्जवेहि य उडाणवडिए ! जहन्नीगाहणगाण भंते! पोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! यता, सेकेण्टटे ० १, गांवमा खाए पागले जहन्ना गणगस्त्र पोग्गलम् दव्यटठया तुल्ले पएसटटयाए छाडिए प्रोगाहणटयाए तुल्ले टिईए चाहिए वह उच 1 जहद्रोगाहरिसेट टिए उपयोगाह एवं चैन. नवर टिईए तुल्ले, जनमक्कोनीगाह 1 गाणं भने ! पोग्गलान पृच्छा. गोवमा ०. से फेटे, गोमाजरी गाट रायपोगले गोग पातुष्ट छा Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैनागमों मे स्याद्वाद वडिए श्रोगाहण्ठयाए चउट्टा व डिए ठिईए चउडा डिए वरणाइ अटठफासपज्जवेहि यछणवडिए, जहन्नठियाणं भते । पोगग्गलाख पुच्छा, गोयमा ! प्रांता०, से केपटा गोयमा । जहन्नठिहए पोग्गले जहन्नठिइयस्स पोगालस्स दव्वट्ट्याए तुल्लें पएसटठ्याए छट्ठाण व डिए ग्रोगाहण्ठयाए चउट्ठा वडिए ठिईए तुल्ले वाई फासपजवेहिय छट्ठाणचडिए, एव उक्कोसटि इवि, जहन्नमरणुक्कोस ठिइएवि एवं चेच, नवर ठिइएचि चउट्ठार. वडिए, जहन्नगुणकालयाणं भते ! पोग्गलाण केवइया पज्जवो पन्नत्ता १, गोयमा ! अता, सेकेट्टेणं १, गोयमा ! जहन्नगुणकालए पोंगले जहन्नगुणकालयस्स पोग्गलस्स दव्वटठयाए तुल्ले पएसट्ट्याए छट्टा वडिए श्रोगाहट्ट्याए चाणवडिए टिईए चउट्टारा वडिए कालवन्नपज वेहि तुले अवसेसेहिं वनगंधरस फासपज्जवेहिय छठ्ठाश वडिए, से तेराटटेश गोयमा ! एव बुचड़-जहन्नगुण कालयाणं पोग्गलाण प्रांता पजवा पत्ता, ए उनको सगुणकालएव अजहन्नम शुक्कोसगुए कालय विएव चैव, नवरं महाणे लट्टाणवडिए, एवं ज Page #263 --------------------------------------------------------------------------  Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैनागमों मे स्याद्वाद ___ 'ते णं भंते । किं संखेज्जा' इत्यादि, ते स्कन्धादयः प्रत्येक कि संख्येया असंख्येया अनन्ता भगवानाह-अन-ताः, एतदेव भावयति–' केणढणं ते | इत्यादि पाठसिद्ध। सम्प्रतिदण्डकक्रमेण परमाणुपुद्गलादीनां पर्यायाश्चिन्तनीयाः, दण्डकक्रमश्चायप्रथमत सामान्येन परमाण्वादयश्चिन्तनीया. तदनन्तर ते एव एकप्रदेशाद्यवगाढा तत एक समयादिस्थितिका तदनन्तरमेकमेकगुणकालकादय ततो जघन्याद्यवगाहनाप्रकारेण तदनन्तरं जघन्य स्थित्यादिभेदेन ततो जघन्यगुणकालकादिक्रमेण तदनन्तर जघन्य प्रदेशादिना भेदेनेति, उक्त च-- 'अणुमाइअोहियाणं खेत्तादिपरससंगयाणं च जहन्नावगाहणाइण चेव जहन्नादिदेसाण ॥१॥" अस्याक्षरगमनिका-प्रथमतोऽण्वादीनां-- परमारवादीनां चिन्ता कर्तव्या, तदनन्तर क्षेत्रादिप्रदेशमङ्गतानां, अत्रादिशब्दातकालभाव' परिग्रह , ततोऽयमर्थ -प्रथमत क्षेत्रप्रदेशैरेकादिभि संगतानां चिन्ता कर्नव्या तदनन्तर कालप्रदेशै -एकादिसमयैस्ततो भावप्रदेश -एकगुणकालकादिभिरिति, तदनन्तर जघन्यावगाहनादीनामिति, अत्रादिशब्देन मध्योत्कृष्टावगाहनाजघन्यमध्यमोत्कृष्ट स्थितिजघन्यमव्योत्कृष्गुणकालकादिवर्णपरिग्रहः, ततो जघन्यादिप्रदेशांन । -- जघन्यप्रदेशानामुत्कृष्टप्रदेशानामजघन्योत्कृष्टप्रदेशानामि ति । बत्र प्रथमत क्रमेण परमाशवादीनां चिन्तां कुर्वन्नाह-'परमागगुपागालाग भने ' दन्यादि, स्थित्या चतु म्यानयतितत्व, परमाणा Page #265 --------------------------------------------------------------------------  Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैनागमो में स्याद्वाद 1 शावगाढो वा द्विप्रदेशावगाढो वा अपरस्तु द्विप्रदेशावगाढ एक प्रदेशावगाढो वा तदा द्विप्रदेशावगाढैकदेशाशावगाढौ यथाक्रम त्रिप्रदेशावगाढद्विप्रदेशावगाढापेक्षया एक प्रदेशहीनौ त्रिप्रदेशावाद्विदेश वाढौ तु तदपेक्षया एक प्रदेशाभ्यधि कौ, यदात्वेकस्त्रिप्रदेशावगाढोऽपर एक देशावास्तदा एकप्रदेशावगाढस्वि देशावगाढापेक्षया द्विप्रदेशहीन त्रिप्रदेशावगाढस्तु तदपेक्षया द्विप्रदेशाभ्यधिक, एम मे कैकप्रदेशपरिवृद्धया चतु प्रदेशादिपु स्कन्धेवाहनाविक्रुत्यहानिबृद्धिर्वा तावद् वक्तव्या यावद् दश प्रदेश स्कन्ध तस्मिंश्रवरान देश के एव वक्तव्य 'जइ होणे पएसही वा दुपटी वा जाव नवपण्महीणे वा ग्रह अभहिए पहिए वा दुपएसममहिए वा जाव नवपएसमव्भहिए वा ' इति भावना पूर्वोक्तानुसारेण स्वयं कर्तव्या, सरुयातप्रादेशिकस्कन्ध नृत्रे 'श्रोगाहट्ट्या" दृट्टा वडिल' इति सव्ययभागेन सख्येयगुणेन चेति श्रमख्या प्रदेशकस्कन्धे 'श्रोताहरपट्याए चउट्टारणबडि इति श्रमख्यानभागेन संख्यातभागेन संख्यातगुणेना सख्यात प्रदेश कन्वेयवगाहनार्थतया चतु स्थानपतिता, , गुनि, अनन्त प्रदेशावगाहनाया श्रमभवनोऽनन्तागानन्तगुणाभ्यां वृद्धि - Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ परिशिष्टो भागः॥ । मन-सिद्धिः स्याद वादात !! ११०॥ __ ग्यारव्ययरान्तमानप, नन स्याहादोऽनगन्नवाट यानित्या पचनशक्लरववार समम इति न्यायव मन मिद्धिनपानामा प्रारजानां प्रदाना पेपिता, दाद हन्द झापतिविधवाऽनेर कारसमनिरात नामानाधिकार विपरा विशेयभावाट पा. म्यादवाटमन्न गनापपान्ने, मपापंदायर शदानुगामनार मपामगरमादाममायापति मागीय । न.पोलानुर:-योमर राय . या मरमात भवादा निदानपान पनि र ५. पता मया ।। १ नया-नयानमार पा मिपावसा या नरपदी मात माRite" || दादा , ! in " in 2 महा मार. R. द Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद नीयम सुगमतारा नवरमन तप्रदेशोत्कृष्ठावगाहनाचिन्तायां' टिईवि तुल्ले इन उत्कष्टावगाहन किलानन्तप्रदेशक स्कन्ध स पुच्यते य समस्तलाकव्यापी स चाचित्तमहास्कन्ध केवलिसमुद्घातकर्मकन्यो वा तयाश्चोभयोरपि दण्डकपाटमन्थान्तरपूरणलक्षण चतु ममयप्रमाणतेति तुल्यकालता शेष सूत्रमापदपरिसमाप्त प्रागुक्तभावनाऽनुमारेण स्वयमुपयुज्य परिभावनीयं सुगमत्वात् , नवर जघन्यप्रदेशका कन्धा द्विप्रदेशका उत्कृष्टप्रदेशका सर्वो. स्कृष्टानन्तप्रदेशा ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचिताया प्रज्ञापनाटीकाया बिगेपारव्य पद ममाप्तम ॥ - NAMOB - - - Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. , या पानी و रम 'अथ परिशिष्ट भागः ॥ मन-विद्धिः स्वाद चादाव | १|४|| स्यादित्यत्ययमेनैवान्नीन नन म्याद्वाशेऽनेन "नत्यानित्याद्य यमेन नेमिन नियों प्रारूनाना शन्दान पेटिना, ए मापदिविषयोऽनेन पापमनिशत समय विशेष दिने प्रभावाट पा शदानुगायनम्व nadismg'ay-arissavefy cute z वादाननदीपनि प q ri s ܘ & ؟ सात साइट F_7_ २ 2 समय सद ܕ ܐܐܦ 127 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद २४: नवरमनन्तप्रदेशोत्कृावगाहना चिन्तायां' नीयम सुगमतात् दिईएवि तुल्ले' इति उत्कृष्टावगाहन किलानन्तप्रदेशक' स्कन्ध स उच्यते समस्त लोकव्यापी स चाचित्तमहास्कन्ध केवलसमुद्चातकर्मस्कन्धो वा तयोश्रो भयोरपि दण्डकपाट मन्थान्तरपूरणलक्षण चतु समयप्रमाणतेति तुल्यकालता शेष सूत्रमापदपरिसमाप्तं प्रागुक्तभावनाऽनुसारेण स्वयमुपयुज्य परिभावनीयं सुगमत्वात्, नवर जघन्यप्रदेशका स्रुत्वा द्विप्रदेशका उत्कृष्टप्रदेशका सर्वोत्कृष्टान्तप्रदेशा ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकाया विरोपारव्य पद समाप्तन ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ परिशिष्टो भागः॥ मूला-सिद्धिः स्याद वादात् ।। १११.२॥ स्यादित्यव्ययमेनेकान्तद्योत्तक, तत स्याद्वादोऽनेकान्तवाद. नित्यानित्याद्य कधर्मशवलैकवस्त्वम्युपगम इति यावत् तत सिद्धिनिप्पत्तिईप्तिर्वा प्राकृताना शब्दानां चेदितव्या, एकस्यैवहि ह्रस्वदीर्घादिविधयोऽनेककारकसनिपात सामानाधिकरण्यं विशेषणविशेष्यभावादयश्च, स्यावादमन्तरेणनोपपद्यन्ते, सर्वपार्षदत्वाच, शब्दानुशासनस्य सकलदश नसमूहात्मकस्यादवादसमाश्रयणमतिरमणीयम् । यदचोचामस्तुतिपु-अन्योऽज्यपक्षप्रतिपक्षभावाद् , यथा गरेमत्सरिण प्रवादा । नयानशेषानविशेषमिच्छन् न पक्ष। पाती समयस्तयाते ।। स्तुतिकारोऽप्याह-"नयास्तवस्यात्पदजान्छना इमे रसोपविद्धा इवलोहधातव । भवत्यभिप्रेतफलायतस्ततो भवतमार्या प्रणताहितैषिणः ॥ १॥ इते, अथवा वादात् विविक्तशब्दप्रयोगात् सिद्धि सम्यगज्ञानतद्वारेण च नि श्रेयस स्याद् भवेदिति शब्दानुशासनमिदमारभ्यत इत्यभिध्येय प्रयोजनपरतयापीदे च्याख्येयम् ॥२॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों मे स्याद्वाद न्यासः-सिद्धि स्यावादात् ॥ दशधा सूत्राणि-संज्ञा । परिभापा २ अधिकार, ३ विधि, ४ प्रतिषेध ५ नियम ६ विकल्प ७ समुच्चय ८ अतिदेश ६ अनुवाद १० रूपाणि तत्र औदन्ता ग्वरा" इति १" "प्रत्यय प्रकृत्यादे ' इति २ । 'घुटि". इति ३ । नाम्यन्तस्था कवर्गात्-इति ४ "न स्तं मत्वर्थ", इति ५ "नाम सिदय व्यञ्जने” इति ६ । 'सोनवेतौ'इति ७ । 'शमोऽना इति ८, 'ईदितो वा, इति : । 'तयो. समूहवञ्च बहुपु' १० इत्यादीनि मूत्राणि प्रत्यकं ज्ञातव्यानि, एतेषां मध्ये इदमधिकारसूत्रमाशास्त्रपरिसमाप्त ॥ स्यादित्यव्ययमिति विभक्त यन्ताभत्वेन स्वरादिवाद्वाऽनेकान्तद्योतयति वाचकत्वेनेत्यनेकान्तद्योतकम् । अनेकान्तयाद इति, अमति गच्छति धर्मिणमिति 'दम्यमि" इति तेऽन्तो धर्म । न एकोऽनेक । अनेकोऽन्तोऽभ्यासावनेकान्त तस्य वदनं याथातथ्येन प्रतिपादनम् तचाभ्युपगत वभवति इति, नित्यानिन्यादीति । श्रादिशब्दात् मदमदात्मकत्वसामान्यविशेषात्मकत्वाभि लाग्यानभिलाप्यत्वग्रह ‘ने, वे" इति यांच, नित्यमुभयाद्यन्ता__ परिच्छिन्नमत्ताकं वस्नु। तविपरीतमनिन्यम । श्रादीयते-गृह्यते दिति' उपमर्गाद द.कि इति को याद । धरन्नि-धर्मिणो मिनि धर्मा वग्नुपर्याया ने च महभुव मामान्यादय नव पुगरणादय पर्याया । धर्ममन्तग्गाधर्मिण म्वरूपशाम्यति-विन्द यम युगपत् परिगति मुपयाति "शम च' Page #273 --------------------------------------------------------------------------  Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैनागमाँ मे स्याद्वाद तमन्तरेण सामानाधिकरण्य विशेपणविशेष्यभावोऽपि नोपपद्यते तथाहि-भित्रप्रवृत्तिनिमित्तयो शब्दयो रेकत्रार्थे वृत्ति सामानाधिकरण्यम् । तयोश्चात्यन्त भेदे घटपटयोरिव नैकत्रवृत्ति नाप्यत्यन्ताभेदे, भेदनिवन्धनत्वात्तस्य । नहि भवतिनीलं नीलमिति । किञ्च नीलशब्दादेव तदर्थप्रतिपत्ती उत्पलशब्दानर्थक्यपसङ्ग ॥ तथैकवस्तु मदेवेतिनियम्यम,ने विशेपणविशेष्यभावाभाव । क्योपणाविशेष्यं कथंचिदर्थान्तरभूतमवगन्तव्यम् , अस्तित्व चेहविरों पणम । तम्यविशे व्यवस्तु तदेव वास्यादन्यदेववानतावत्तदेव । नहितदेव तम्य विशेषणं, भवितुमर्हति असति च विशेष्ये विशेषणत्वमपि न स्यात् । विशेष्यं-विशि यते येन तद् विशेपणमितिव्युत्पत्तो । प्रथा न्यनहि अन्यत्वाविशेषात् सर्व सर्वस्यविशेपणंस्यात् । समवानात प्रतिनियतो विशेषणविशेष्य भाव इतिचेत् , न सोऽपि अविष्वग्न भावलक्षण वैष्य. । रूपान्तरपरिकल्पनायामनवस्थाप्रसग । अतो नासावत्यन्तं भेदेऽभेदेवासभवनीतिभेदाभेदलक्षणः स्यादवादोऽकामेनापि, अभ्युपगन्तव्यइति, आदिवहरणात् स्थान्यादेशनिमिननिमित्ति प्रकृतिविकारभावादिग्रह । किञ्च शब्दानुशासनामद ?, * निविप्रतिपद्यते, नित्य इत्येक अनित्य इत्यपरे नित्यानित्य माय । तत्र नित्यत्वानित्यत्वयोरन्यवरपक्षपरिग्रहे सर्वोपादेय4., भ्यादित्याह-सर्वपापदत्याच्चनि । म्वेन रूपेण व्यवस्थित ल तवं पृगानि-पालयतानि "प्र मट" इति मदि पर्पद नत्र माधु Page #275 --------------------------------------------------------------------------  Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनागमा में म्याद्वाद २४६ मत्मराभाव ॥ पग्पातु विपर्ययान् तन्मभाव , इति मम्यगेतिगन्छनि शन्दोऽथम ने नि "उन्नानि" इति घे समय संकेत । यद्वामन्यगयान्न गच्छन्ति जीवादय पदार्था स्वस्मिनरूपे प्रतिष्ठांप्राप्नुवत्यम्मतिति समय पागम । मत्मरित्वस्यविधेयत्वादनेनेवनन गवन्धत , पनपातिशब्देन वसव धात् प्रक्रमभेदाभाव । परोक्त. नापि बढय त-नया इत्यादि । नीयन्ते प्राप्यन्ते जीवादयोऽथी एकदेशविशिया एभिरिति नया निरवधारणाअभिप्रायविशेषा । मादधारणम्यदुनयन्वात ममस्तार्थप्राप्तेस्तु प्रमाणाधीनत्वात- ते च नगमाढय मत नवध्यात्पदेन चिन्हिता अभिप्रेत फलन्ति लिहायच श्रभिप्रेत फन येय इ.ते बाहेक ॥ प्रणा इते। प्रणमारग्धपात । हितपिण इनि । विशेषणद्वारण हेतु हितैपित्वादित्यर्थ । अारादूगन्तिकयो , सभ्यगज्ञानाद्यात्मकमाक्षमार्गस्यारात् , समीपंयाता प्राप्ता , दुरं वा पापक्रियाभ्यो याता इत्यार्या. । ननु अर यत्तियुक्त म्यादवाद तदर्धानत्वान्छन्दसिट्ठः, तथापि अनभि हेनाभिन्येय प्रयोजनवान् कयमिदं प्रेक्षावत् प्रवृत्तिविपर्यामन्या---अयवति, विविक्तानामयाधुत्वविमुक्तानां शदानां प्रयुक्त स्पामिट्टि माधुशब्दाचावाभिवेया । यमर्थमधिकृत्य प्रयोजनमिति मभ्यग नानमनन्तरं प्रयोजन नवारणतु परमिति । यत "ह ब्रामगी वदितव्ये शब्द ब्रह्म परं शब्दब्रह्म रेग निष्णात परब्रह्माधिगच्छति ॥ ॥ व्याकरण Page #277 --------------------------------------------------------------------------  Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगम मे स्याद्वाद 1 कापि भवति । तेनानित्यशः कृतकत्वादित्यादि सिद्धम् । उत्तरसूकशाचाचापोधिकार ( १ ) इति वक्ष्यति । सस्थानक्रिय स्वमिति एतन्च वस्तुता साधन्यवैधम्र्म्यात्मकेऽनेकान्ते सत्युपपद्यते । तथाहि काराकारयो searीर्घका भेदेन वैधर्येऽपि तुल्यस्थानकारणपेन साधर्म्यमती, तस्वसज्ञाव्यवहार सिद्वयति । यदि हि साधर्म्यमेवस्यात् तदाम्तित्वेनेवान्यैरपि धर्म साधये सर्वमेक प्रसज्येत । यदि च वेवमेव तदा कस्यचिदस्तित्वमपरस्य नास्तित्वमन्यस्य चान्यत । अनुमृदिति श्रन्वयव्यतिरेकाभ्यामथवच्छ रूप मृत्सञ्ज्ञकमनेकान्तात् सिद्धयति । तयादि विभक्तयन्तम्य च शब्दस्य प्रयोगदर्थे ज्ञान. मुत्पद्यत इति माता श्रन्तो दृष्टा । तदवयवानामप्यन्वयव्यतिरेवाभ्यामर्थवत्ता जायते । वृक्षावित्यत्र विसर्जनीयाभावादेकत्वार्थो निवृत्त । श्रकारभावाद् द्वित्त्वं जातम् | अकारान्तवृक्षशब्दान्वयाजातिरन्ययिनी प्रतीयते । श्रन्वयव्यातिरेको च भावावेकान्तत्रादेनस्त । नथायपाये ध्रुवमपादानमित्यादि पट्कारकी नित्यक्षरिकपक्ष व्यपायोव्याचभावात् । उक्तश्च - इदं फलमिय क्रया : क्रमों, व्ययोऽयमनुपद्मजं फलमिदं दरोयं मम । श्रय' उपत् प्रयनदेशकालाविमाविति प्रतिवितर्कयन प्रयतते बुधो (विनेन्द्रव्याकरणम्- महावृत्ति ) १८ · . Page #279 --------------------------------------------------------------------------  Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमो मे स्यद्वाद नित्यतया परैरङ्गीकृतस्य प्रदीपस्य तावन्नित्यानित्यत्व व्यवस्थापने दिड्मात्रमुच्यते, तथाहि-प्रदीपपर्यायापन्नास्तैजसा परमाणव स्वरसतस्तैलक्षयात वाताभिघाताद् वा ज्योतिषपर्यायं परित्यज्य तमोरूप पर्यायान्तरमाश्रयन्तोऽपि नैकान्तेनानित्या पुद्गल द्रव्यरूपतयावस्थितत्वात् तेपाम् । नह्य तावतैवानित्यत्वं यावतापूर्वपर्यायस्यविनाश , उत्तरपर्यायस्यचोत्पाद । न खलु मृद्रव्यस्थासककोश कुशूलशिवकघटाद्यवस्थान्तराण्यापद्यमानमध्येकान्ततो विनष्टम् , तेपु मृद्रव्यानुगमस्याबालगोपालंप्रतीतत्वात् । न च तमस. पौगलिकत्वमसिद्ध चाक्षुपत्वान्यथानुपपत्ते प्रदापालोकवत् ।। अथ यञ्चानुपतत्सर्वं स्वप्रतिभासे आलोकमपेक्षते । नचैव तम । तत् कथं चाक्षुपं । नैवम । उलूकादीनामालोकमन्तरेणापि तत् प्रनिभासात् । यस्त्वस्मदादिभिरन्यञ्चाक्षुपं घटादिकमालोक विनानापलभ्यते तैरपितिमिरमालोकयिष्यते, विचित्रत्वाद भावानाम । कथमन्यथा पीतश्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलामा श्रालोकापेसदशना प्रदीपचन्द्रादयस्तु प्रकाशान्तरनिरपेक्षा । इतिसिद्ध तमश्चातुपम ।। रूपवत्त्वाचस्पर्शवत्वमपि प्रतीयत, शीतम्पशप्रत्ययजनकत्वात् । यानि निविडावयवत्वमप्रतिघातित्वमनुदभूतम्पविशेपत्वमप्रतीयमानग्यगटावयविद्रव्यप्रविमागत्वमित्यादीनि तमस पोदनिकचनिष वाय परं माधनान्युपन्यम्तानि तानिप्रदीप प्रभादृष्टान्तनंब प्रनिय यानि, नुल्ययागनमन्वान । नच वा य नजमा परमा Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W अथ परिशिष्टो भाग रणव कथंतमस्त्वेन परिणमन्त इति । पुद्गलाना तत्तत्त्सामग्रीसहवृताना विसदृशकार्योत्पादकत्वस्यापिदर्शनात् । दृष्टो ह्याईन्धनसयोगवशाद् भास्वररूपम्याप वन्हेरभास्वररूपध्मकार्योत्पाद । इति सिद्धोनित्यानित्य प्रदीप यदापि निर्वाणादर्वाग् देदीप्यमानादीपस्तदापि नव नव पर्यायोत्पादविनाशभाक्त्वात् प्रदीपान्वयाच नित्यानित्य एव ।। एव व्यामापि उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वानित्यानित्यमेव । तथाहि-अवगाहकाना जीव पुद्गलानामवगाहदानोपग्रहएवतल्लक्षणम । 'अवकाशदमाकाशम ॥ इतिव वनात् । यदाचावगाहका जीवपुद्गला प्रयोगतो विनसातो वा एकम्मान्नभ देशात् प्रदेशान्तरमुपसर्पन्ति तदा तम्य व्योम्नम्तैरवगाहकै सममेकस्मिन प्रदेशे विभाग उत्तरस्मिंश्च प्रदेणे सयोग । सयोगविभागौच परस्पर विरुद्धौ धौं । तद्भेदे चावश्यर्धामणोभेद । तयाचाहु - "अयमेवहिभेदो भेदहेतुर्वा, यद विरुद्धधर्माध्याम कारण भेदश्चेति ॥ ततश्च तदाकाश पूर्व संयोगविनाश ननाणपरिणाम पत्या विनष्टम , उत्तरसयोगोत्पादोख्य परिणामानुभवाच्चीत्पन्नम् । उभयत्राकाशद्रव्यस्यानगतत्वान्चोत्पादव्यययारेकाधिकरणत्वम् ॥ तयाच यद् "अप्रच्युतानुत्पन्नम्धिरै कम्पनित्यम' इति नित्यलक्षणमाचक्षते । तदपास्तम । एवविधग्य कम्यचिद वस्नुनोऽभावात् । "तदभावाव्यय नित्यम" । इति तु मन्य नित्य लक्षणम उत्पाद विनाशयो सद्भावेऽपि तदभावाद अन्वयिम्पाद यन्नति Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ जैनागों मे स्याद्वाद तन्नित्यमिनि नदयन्त्र घटमानत्वात् यदि हि अप्रच्युतादिलक्षणनियमिप्यते तदोन्पाढव्यययोनिराधारवप्रसङ्ग । नच तयोर्योगेनित्यत्यहानि। "द्रव्य पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिता. क कटाकन किरपा प्रामानकेनवा ॥ इतिवचनात् । लौकिकानामपिवटाकाश पटाकाशमिनि व्यवहारप्रमिडेराकाशस्य नित्यानिन्यन्त्रम । घटाकागमपि हि यदा घटापगमे, पेटनाक्रान्तं तदा पटाकाशमिति व्यवहार । नचायौपचारिकत्वादप्रमाणमेव । उपचारन्यापि किञ्चित् साध मंद्वारेण मुख्याधापशित्वात् । नभ सोहि यत् किन्न मर्वव्यापकत्र मुग्यं परिमाण नन तदाधेय वटपटादिसम्बन्धि नियतपरिमागगवशान कल्पितभेद मन्प्रनिनियतदेश व्यापितया ज्यवाहियमाग पटाकाशरटाकाशादि तत्तव्यपदशनिववन भवति । ननदघटादिमम्बन्धेच व्यापकन्वेनावस्थितन्य व्योन्नोऽवम्यान्तगपति , तनवावम्बामदेऽवर यावनोऽपिट । तासाततोऽविष्वगभावान इतिमिद्र निन्यानित्यत्व व्यान्न | बायभुवा-यपि हि नित्यानित्यम्ब बन्प्रान्ना । नयाचाहन्नत्रिविध यन्वयमिण परिणामा वमलनगावस्याम्प । नवा वाम । नन्य वर्भपरिगामी बर्वमानाचकादि । वन्य तु ल नगरिगामाऽनागत वादि यहा सवय हमकग व नानक नया चकतारच नि नहा वर्षमानकी वर्तमानताल नाहिन्या अतीतना ननामापते । नच कस्तु गनन, मादित्रा बननानतान्त नानापाते। वन मानाना. Page #283 --------------------------------------------------------------------------  Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ayu जैनागमो मे स्याद्वाद युक्त या प्रतिपन्नमेव । तथा च एवाह-शब्दकारणत्ववचनात् सयोगविभागो" इति नित्यानित्यपक्षयो सवलितत्वम । एतच्चलेशतोभावितमेवेति ॥ प्रलापप्रायत्व च परवचनानामित्थ समर्थनीयम् । वस्तुनम्तावदर्थक्रियाकारित्वलक्षणम् । तन्चैकान्तनित्यानित्यपक्षयो न घटते । अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपोहि नित्य , सच क्रमेणार्थक्रिया कुर्वीत अक्रमेणवा | अन्योऽन्यव्यवच्छेदम्पारणा प्रकारान्तगसभवात् । तत्र नतावत् क्रमेण, म हि कालान्तर भाविनी क्रिया 'प्रथमक्रियाकाल एव प्रमा कुर्यात् समर्थन्य कालक्षेपायोगात् कालनेपिणो वा श्रमामर्यप्राप्ने समर्थोऽपि तत्तत् सहकारिसमवधाने न तमर्थ करोतीति चेत् , न तर्हि तस्य सामर्थ्यम् , अपर. सहकारिमापेक्षवृतित्त्वात् । "सापेचमममर्थम" इति न्यायात् ॥ न तेनप्तहकारिणोऽक्ष्यन्ते अपितु कार्यमेवसहकारिष्वसम्वभवन तानपेक्षते इतिचेत तत् किं स भावोऽसमर्थो समर्थो वा,समर्थश्चेत् , किंमहकारिमुग्ब प्रक्षणदीनानि तान्युपेक्षते न पुनझटिति घटयति । ननु समर्शमपिवीज मिनाजलानिलादि सहकारिमहितमेवांकुरंकरोति नान्यया । तत् किं तम्य महकारिभि किञ्चिदुपक्रियेत नवा यदि नापकियेन नदा महकारिमन्निधानान् प्रागिव, किन तदाप्यशक्रियायामुढाने उपति इति चेन स नहितम्पकारोऽभिन्नाभिन्नोवा .प्रियते इतिवान् यत्र । यदे स एव क्रियते । इति लाभमिच्छता मलननिगयानाकृतमधेन तम्यानित्यत्वापत्ते । भेदे तु कयं तम्या Page #285 --------------------------------------------------------------------------  Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५३ जैनागमो में न्याबाट म्यासंभव । यवस्थितम्यैव हि नानादेशकालव्याप्ति. देश-म कालक्रमचाभिधीयते न कान्तविनाशिनिसास्तियदाहु - यायवेवमनव वो यव तव म । न देशकालयोाप्ति भावानामिहविद्यते ।। नच सतानापचया पूर्वोत्तरजणानांक्रम. संभवति, सतानन्यावस्तुत्वान, वस्तुन्वेऽपि तम्य यदि क्षणिकस्वं, न तर्हि क्षणेभ्य कश्चिद विशेष. अथाणिकत्वहि समाप्त. क्षणभंगवाद ॥ नाप्यकमेगावक्रियानाग के सभवति । सहयको बीजपूरादिक्षणो युगपबनेकान रमादिक्षगान जनयन एकेनम्वभावेन जनयेत् , नानास्वभाबर्वा ? यद्यफनतदातपारमादिक्षणानामेकत्वं स्यात् एकस्वभावजन्यन्वात । अथ नानाम्वभावै जनयनि किम्चिद् म्पादिकमुपादानभावेन, किञ्चिद्रसाटिक सहकारित्वेन, इतिचेत तहि ते स्वभावा म्तम्यान्मभूता अनात्मभूता वा ! अनात्मभूताश्चत् स्वभावत्वहानि , यद्यात्मभृता तर्हितम्यानेकत्वम् । अनेकम्वभावत्वात्, स्वभावाना वा कन्व प्रमध्यंत नदव्यतिरिक्तत्वात् तेपां तस्यचैकत्वात् ।। अयय एव एकत्रीपादानभाव स एवान्यन्न महकारिभाव इति न म्वभावभन्ददायते । तर्हि नित्यस्य॑कम्पम्यापिक्रमेण नानाकार्यकारिग स्वभावभेद कार्यमाकर्यरत्र कथमिप्यते क्षणिकवादिना । श्रय निन्यमेकम्पत्वादक्रम, अक्रमाय मिग्णां नानाकार्याणां कथमुपांत्त इनिचेत , ग्रहो म्वपत्नपानी देवानांप्रिय यः ग्यतु मेकम्माद निरशाद म्पादिनगल नरगान कारणाद् युगपद Page #287 --------------------------------------------------------------------------  Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की अन्य रचनाएं cOOOO0000 १ श्री उत्तराध्ययन सूत्र १३. आवश्यक सूत्र तीनो भाग १४. तत्वार्थ सूत्र २. श्री दशाश्रुत-स्कन्ध सत्र (जैनागम सम३. श्री अनुत्तरोपपातिक सूत्र १५. तत्वार्थ सूत्र (भापाट 2. श्री दशकालिक सत्र १६ वीर तथुई ५. श्री अनुयोगद्वार सूत्र १७ जीवकर्भ-संवाद ६. श्री अन्तगढ सूत्र अप्रकाशित) १८. जीव-शब्द-सम्बाद श्री स्थानांग सूत्र " १६. विभनि सम्बाद ८ श्री प्राचाराग नृत्र 10. जैनधर्म शिक्षावली श्री समवायाग सूत्र (आठ भाग १. श्री नन्दी सूत्र १. जैन-सिद्धान्त (अप्राप्य ११ श्री बृहत्कल्प सूत्र , २२. कर्म पुरुपार्थ निर्णय(श्रा २. निरयावलिका मूत्र , आदि आदि प्रामियान-- जैन-शास्त्रमाला-कार्यालय जैन स्थानक, लुधियाना Page #289 -------------------------------------------------------------------------- _