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________________ (१०) ही लोक व्यवहार सधता है, और पारस्परिक शाति स्थायी रह सकती है अस्तु । पृथिवी, अप्, तेजस्, वायु और आकाश किसीभी पदार्थ के सभी अशों पर किये गये विचार को ही स्याद्वाद या अनेकान्तवाद कहा जाता है, इसी स्याद्वाद की दिव्य औषधी ने उस समय राष्ट्र के अन्तर स्वास्थ्य को सुरक्षित रखा । स्याद्वाद एक अमर विभूति है, जो सन्देश वाहिका है, तथा प्रेम और शान्ति है । स्वाद-वादी कभी किसी दर्शन से घृणा नहीं करेगा, यदि संसार के समस्त दार्शनिक अपने एकान्त ग्रह को त्यागकर अनेकान्त से काम लेने लगे तो दर्शन - जीवन के सभी प्रश्न सहज मे ही निपट सकते है । स्यादवाद की समन्वय-दृष्टि बडी विलक्षण है। जिस प्रकार जन्म के अन्धे कई मनुष्य किसी हाथी के भिन्न २ अवयवों को ही पूर्ण हाथी समझ कर परस्पर लड़ते हैं । पूंछ पकड़ने वाला कहता है- हाथी तो मोटे रस्से जैसा होता है। सूड पकड़ने वाला कहता है झूठ कहते हो, हाथी तो मूसल जैसा होता है । कान पकड़ने वाला कहता है अरे भाई । यदि आखें नहीं, हाथ तो हैं ही, हाथी तो छाज जैसा होता है। पेट को छूने वाले अन्ध-देवता बोले- तुम सब झूठे हो, बकवादी हो, व्यर्थ की गप्पे हांकने वाले हो, हाथी को तो मैंने समझा है, हाथी तो अनाज भरने वाली कोठी जैसा होता है । मतलब यह है प्रत्येक अन्धा अपने २ पकडे हुए हाथी के एकर अंग को हाथी समझता है एक दूसरे को झूठा कहता है, तथा एक दूसरे से लड़ने मरन के लिये तैयार हो जाता है । सद् भाग्य से वहा कोई शांतिप्रिय, श्राखों वाला अज्जन अमरत्व की की जनिका
SR No.010345
Book TitleJainagamo me Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalaya Ludhiyana
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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