________________ क्रियाओं से सम्बन्धित छ: अध्ययन इस सूत्र में हैं। मूलपाठ का परिमाण 100 श्लोक प्रमाण है तथा इसमें 91 गद्य सूत्र हैं और 9 पद्यसूत्र हैं। आन्तरिक दोषों की शुद्धि एवं गुणों की वृद्धि करने में उक्त छ: 'आवश्यक' क्रियाएं कार्यकारी हैं। इनसे आध्यात्मिक विशुद्धि तो होती ही है, साथ ही व्यावहारिक जीवन में, समत्व, विनय, क्षमाभाव आदि प्रशस्त गुण संवर्द्धित होते हैं, फलस्वरूप साधक के मानसिक धरातल से आनन्द की निर्मल धारा प्रकट होती है। 'सामायिक' नामक प्रथम अध्ययन में समत्वसाधना का निरूपण है। इसे 'सावध विरति' नाम से भी अभिहित किया जाता है। श्रमण जीवन में अनुष्ठित की जाने वाली समता एक उत्कृष्ट साधना है। वस्तुतः समत्व ही श्रामण्य का मूल आधार है। 'समता' तभी पूर्णतया अनुष्ठित हो पाती है जब सावध योग से विरति हो (द्र. उत्तरा. 29/9), तथा षट्काय जीवों के प्रति संयत भाव तथा मन-वचन-काय की एकाग्रता के माध्यम से स्वस्वरूप में रमण हो। समस्त अन्य साधनाएं 'सामायिक' के बिना निर्मूल ही हैं। निःसन्देह समस्त जिनवाणी का सार 'सामायिक' ही है। दूसरे अध्ययन की विषयवस्तु चतुर्विंशति स्तव आवश्यक है। इसका दूसरा नाम ‘उत्कीर्तन' भी है। तीर्थंकरों की स्तुति सामायिक साधना का आलम्बन है। तीर्थंकर-स्तव का अर्थ है- उनके सद्गुणों को स्व में मूर्त रूप देना- प्रकट करना। इससे साधक की दर्शन-ज्ञान विशुद्धि (द्र. उत्तरा. 29/10) तथा उस में आन्तरिक निरभिमानता, पवित्रता व स्फूर्ति संचारित होती हैं। तीसरा अध्ययन 'वंदन' आवश्यक है। वंदन का अर्थ है- सद्गुरु देव के प्रति बहुमान व भक्तिभाव प्रकट करना। वंदन को ही चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म आदि नामों से भी अभिहित किया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि त्याग व वैराग्य की मूर्ति, निर्मलचारित्रसम्पन्न व्यक्तित्व ही वंदनीय होता है। यह वंदन द्रव्य व भाव- दोनों रूपों में करणीय होता है। वंदन से उच्चगोत्रबन्ध व दाक्षिण्य भाव आदि की प्राप्ति होती है (द्र. उत्तरा. 29/11) / चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण आवश्यक है। अशुभ योगों में प्रवृत्त आत्मा को पुनः शुभ योगों में लौटाना -यही प्रतिक्रमण है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय व अशुभ योग - इनसे निवृत्त होना, तथा उत्तरोत्तर शुभ योगों में बढ़ते जाना -यही प्रतिक्रमण का सार है। साधक द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप से किसी की विराधना हुई हो, किसी को दुःख पहुंचाया गया हो, स्वाध्यायादि में प्रमाद हुआ हो, उसके लिए साधक 'मिच्छा मि दुक्कडं' (मेरे दुष्कृत मिथ्या-निस्सार हों) -इस भावना के साथ स्वयं को शुभ योग में संस्थापित करता है। इस प्रकार प्रत्याख्यान साधक की संयम-स्थिति में साधन होता है (द्र. उत्तरा. 29/12) / देवसिय, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक व सांवत्सरिक -ये प्रतिक्रमण के भेद हैं जो कालविशेष की अपेक्षा से किये गये हैं। - . 1. द्र. विशेषा. गाथा- 902. RO@RO0BKe0ROR [31] ROORoneROWORB0R