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वज्जालग्ग
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९०. *गुप्तधर्म, प्रकटपराक्रम, परस्त्रो-त्याग और निष्कलंक जन्मये भव्यात्माओं को ही प्राप्त होते हैं ।। १०॥
९. धोर-वज्जा (धीर-पद्धति) ९१. अपने प्राणों की चिन्ता विना छोड़े (अर्थात् स्वयं कष्ट न उठाते हुए), जो लोग दुर्गम (दुःसाध्य) कार्य प्रारम्भ कर देते हैं, उन दूसरों का मुँह जोहने वालों को लक्ष्मी कैसे प्राप्त हो सकती है ? ॥ १॥
९२. कार्य का आरम्भ शीघ्र करो, प्रारब्ध (अर्थात् प्रारम्भ किए हए) कार्य में किसी भी प्रकार की शिथिलता मत करो। प्रारम्भ किए हुए कार्यों में शिथिलता आ जाने पर वे पुनः पूर्ण नहीं होते हैं ॥ २ ॥
९३. प्रारब्ध (प्रारम्भ किए हुए) कार्य को छोड़ते समय अन्य लोग तो दूर रहें , अपने ही शरीर में जो पंचभूत हैं, उन्हीं से लाज लगती है ।। ३।।
९४. सूजन धनहीन होने पर भी अरण्य का सेवन करता है अर्थात् वन में चला जाता है। किन्तु अन्य से याचना नहीं करता। वह मर जाने पर भी स्वाभिमान-रूपी अमूल्य माणिक्य को नहीं बेचता ॥ ४ ॥
९५. हे मानिनि ! जगत् में मानोन्नत (स्वाभिमानी) पुरुषों के दो मार्ग हैं-या तो लक्ष्मी प्राप्त करते हैं या परिभ्रमण करते हुए समाप्त हो जाते हैं (अथवा अपने को समर्पित कर देते हैं) ॥ ५ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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