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वज्जालग्ग
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गाथार्थ-जब प्रिय मन में आते है (या जब मन प्रिय के निकट जाता है) तब उसी मन में उन की जो कुछ भी इच्छा रहती है, मैं पूछ लेती हूँ (ध्वनिपूर्ण कर देती हूँ)। शशक ! (हे प्रियतम या हे मन) तुम द्रुतगामी हो अन्यथा किस ढंग से जीवित रहा जाय ? ( अर्थात् विरह में जीवित रहने का यही ढंग है । यदि तुम द्रुतगामी न होते और उतनी दूर से आकर मेरे मन में बस न जाते तो भला इस प्राणान्तक वियोग में जीवित रहने का अन्य कौन सा उपाय था ? )
गाथा क्रमांक ६३४ संधुक्किज्जइ हियए परिमलआणांदियालिमालहिं । उल्लाहि वि दिसिमणिमंजरीहि लोयस्स मयणग्गी ।। ६३४ ॥ संयुक्ष्यते हृदये परिमलानन्दितालिमालाभिः आर्द्राभिरपि दिङ्मणिमञ्जरीमिर्लोकस्य मदनाग्निः
-रत्नदेवकृत अव्याख्यात संस्कृत छाया 'दिसिमणिमंजरी' ( दिङ्मणिमञ्जरी ) का अर्थ अस्पष्ट बताकर प्रस्तुत गाथा का जो अधूरा अनुवाद किया गया है, वह इस प्रकार है
"लोगों के हृदय में कामाग्नि प्रज्ज्वलित कर दी गई है, फूलों के सौरभ से थानन्दित भ्रमरों की पंक्ति के द्वारा मानों आर्द्र... " । (१० ३६४)
'दिसि' सप्तम्यन्त संस्कृत दिशि शब्द का प्राकृत रूप है, जिसका प्रयोग जात्यालम्बनात्मक एकवचन में किया गया है । 'मणिमंजरी' लाक्षणिक प्रयोग है। इस प्रयोजनवती सारोपा लक्षण में मणि और मंजरी का तादात्म्य मंजरोनिष्ठ कान्तिशालित्वादि धर्मों का अभिव्यंजक है । इस शब्द का अर्थ है-मणियों के समान कान्ति वाली मंजरी ( आम का बौर)। 'दिसिमणिमंजरी' इस संयुक्त पाठ के स्थान पर 'दिसि मणिमंजरी' यह असंयुक्त पाठ स्वीकार करने पर कोई काठिन्य नहीं रह जाता । संस्कृत छाया में 'दिङमणिमञ्जरी' के स्थान पर 'दिशि मणिमञ्जरी' का निवेश करना चाहिये।
अर्थ-दिशाओं में परिजनों से अलिमालाओं को आनन्दित करने वाली ( रस से ) आर्द्र, मणितुल्य मजरियों से भी लोगों के हृदय में मदनाग्नि प्रदोप्त हो उठतो है। 'उल्लाहि' पद विरोधाभास-जनित वैचित्र्य का व्यंजक होने के कारण व्यर्थ नहीं है । 'परिमलानन्दितालिमालाभिः' 'मणिमञ्जरी भिः' का विशेषण है । १. अंग्रेजी टिप्पणी में इस विशेषण की उपयोगिता को अस्पष्ट बताया गया है ।
- वज्जालग्गं ( अंग्रेजी संस्करण ), पृ० ३६४
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