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वज्जालग्ग
गाथा क्रमांक ६४१ मा रज्ज सुहंजणए सोहंजणए य दिट्ठमत्तम्मि । भज्जिहिसिय साहसिया सा हसिया सव्वलोएण ।। ६४१ ॥ मा रज्य शुभंजनके शोभाञ्जनके च दृष्टमात्रे । भक्ष्यस इति साहसिका मा हसिता सर्वलोकेन ।
--- रत्नदेवसम्मत संस्कृत छाया
अंग्रेजी अनुवाद यों किया गया है
"शुभजनक सहिजन को देखते ही अनुरक्त मत हो जाओ, तुम टूट जाओगी"इस प्रकार साहसिक युवती लोगों के द्वारा हँसी गई।
टिप्पणी में गाथा के अर्थ की अस्पष्टता के साथ-साथ उपर्युक्त अंग्रेजी अनुवाद के प्रति असन्तोष प्रकट किया गया है। अतएव उसकी उपयुक्तता का विवेचन अनावश्यक है। गाथा के तृतीय पाद में अवस्थित 'साहसिया' शब्द का अर्थ टीकाकारों ने 'साहसिका' किया है परन्तु प्रथम एवं द्वितीय पाद में जो वर्णन आया है, उससे किसी महिला को साहसिकता नहीं प्रकट होती है। किसी प्रियदर्शन तरुण को देखते ही अनुरक्त हो जाना कठिन साहम नहीं, एक सरल एवं स्वाभाविक व्यापार है। अतः उक्त अर्थ, प्रकरण के अनुकूल नहीं लगता है। ‘साहसिया' संस्कृत शाखाश्रिता का अपभ्रशरूप है, जिसमें पूर्वपद ह्रस्व हो गया है। इसका अर्थ है-शाखा पर आश्रित ( साहं सिया = शाखां श्रिता)। रत्नदेव ने 'सुहजणय' का अर्थ शुभजनक लिखा है परन्तु यह शब्द संस्कृत व्याकरणानुमोदित नहीं है। संस्कृत में खश् या खच् प्रत्यय उपस्थित होने पर सोपपद धातु में मुमागम का विधान है । इस गाथा से पता चलता है कि प्राकृत में ण्वुल् प्रत्यय के योग में भी मुमागम होने लगा था । वज्जालग्ग की निम्नलिखित गाथा में ऐसे कई शब्दों का एक साथ प्रयोग दिखाई देता है
सुहियाण सुहंजणया दुक्खंजणया य दुक्खियजणस्स ।
एए सुहंजणया सोहंजणया वसंतस्स ॥ ६४१ X ४ ।। अतः वह अथ अग्राह्य तो नहीं है परन्तु यहाँ संस्कृत व्याकरण का भी अनुरोध स्वीकार कर लेने में क्या क्षति है ? मेरे विचार से निम्नलिखित व्याख्या अधिक संस्कृत है
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