Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

Previous | Next

Page 513
________________ ४३८ वज्जालग्ग उपमेय - पक्ष - शिशिर वान - लतिका संस्कृत मोवै ( शोषणे ) धातु से निष्ठान्त वान शब्द निष्पन्न होता है । प्राकृत में निष्ठा के तकार को नकार न होने पर वाय रूप भी बनेगा । वाय का अर्थ है -- शुष्क । हेमचन्द्र के अनुसार ( म्लेर्वा - पव्वायौ, ४।११८ ) म्ले धातु को प्राकृत में वा आदेश हो जाता है- - उसका निष्ठान्त रूप वाय होगा । वररुचि ने भी वा क्रिया को म्लै से ही सम्बद्ध किया है— म्लै वावाऔ - प्राकृत- प्रकाश, ८२१ महाकवि वाक्पतिराज ने इस क्रिया का शोषण के अर्थ में प्रयोग किया हैजायं तारावणो वायंतमुणालपाडलमऊहं । बिबं अबालजम्बूफल - भंग - पिसंग परिवेसं ॥ - गउडवहो, ११६५ इस प्रकार सिसिरवायलइया ( शिशिरवानलतिका: ) से म्लान या शोषित लतिकायें - शिशिरेण वानाः शोषिताः वा लतिकाः । का अर्थ है - शिशिर उपमान पक्ष - शिशिरवात गृहीताः = शिशिर की हवाओं या ठंडी हवाओं से पीड़ित । गाथा में शिशिर - शोषित लतिकाओं की तुलना दीन पुरुषों से की गई है | कंपन, स्वरूपरहितत्व (अलक्षण ) धूसरत्व, परुषत्व, रूक्षत्व और दुर्भगत्व ऐसे धर्मं हैं जो दोनों में उपलब्ध होते हैं । परन्तु 'अवधूयअलक्खणधूसराउ ' और 'फरुषलुक्खाओ' पदों का स्त्रीलिंग, उनका 'दीणपुरिसा' से अन्वय करने में बाधक है । अतः विशेषणों की उभयपक्षीय संगति के लिये स्त्रीलिंग शब्दों के व्याख्यान में लिंगविपर्यय करना पड़ेगा । यदि अर्थान्तर करते समय उक्त स्त्रीलिंग विशेषणों के अन्तिम उकार और ओकार को पृथक् कर दें तो वे स्वतः पुंलिंग हो जायेंगे ! 'उ' अनुकम्पा या आश्चर्य का बोधक अव्यय है ( देखिये, पाइयसद्द महण्णव ) और 'ओ' सूचना और पश्चात्ताप का । ( ओ सूचनापश्चात्तापे - प्रा० व्या०, २०२०३ ) | अर्थानुरोध से सम्पूर्ण गाथा का अन्वय इस प्रकार है उय अवधूयअलक्खणधूसराउ फरुसलुक्खाओ सिसिरवायलइया' दीणपुरिसा व्व अलक्खणा दीसंति । Jain Education International १. स्त्रोलिंग में जस् विभक्ति के स्थान पर उत् और ओत् का विधान वैकल्पिक है | अतः वायलइया रूप भी बनता है । For Private & Personal Use Only -प्राकृत व्याकरण, ८।३।२७ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590