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वज्जालग्ग
उपमेय - पक्ष - शिशिर वान - लतिका
संस्कृत मोवै ( शोषणे ) धातु से निष्ठान्त वान शब्द निष्पन्न होता है । प्राकृत में निष्ठा के तकार को नकार न होने पर वाय रूप भी बनेगा । वाय का अर्थ है -- शुष्क । हेमचन्द्र के अनुसार ( म्लेर्वा - पव्वायौ, ४।११८ ) म्ले धातु को प्राकृत में वा आदेश हो जाता है- - उसका निष्ठान्त रूप वाय होगा । वररुचि ने भी वा क्रिया को म्लै से ही सम्बद्ध किया है—
म्लै वावाऔ - प्राकृत- प्रकाश, ८२१
महाकवि वाक्पतिराज ने इस क्रिया का शोषण के अर्थ में प्रयोग किया हैजायं तारावणो वायंतमुणालपाडलमऊहं । बिबं अबालजम्बूफल - भंग - पिसंग परिवेसं ॥
- गउडवहो, ११६५
इस प्रकार सिसिरवायलइया ( शिशिरवानलतिका: ) से म्लान या शोषित लतिकायें - शिशिरेण वानाः शोषिताः वा लतिकाः ।
का अर्थ है - शिशिर
उपमान पक्ष - शिशिरवात गृहीताः = शिशिर की हवाओं या ठंडी हवाओं से पीड़ित । गाथा में शिशिर - शोषित लतिकाओं की तुलना दीन पुरुषों से की गई है | कंपन, स्वरूपरहितत्व (अलक्षण ) धूसरत्व, परुषत्व, रूक्षत्व और दुर्भगत्व ऐसे धर्मं हैं जो दोनों में उपलब्ध होते हैं । परन्तु 'अवधूयअलक्खणधूसराउ ' और 'फरुषलुक्खाओ' पदों का स्त्रीलिंग, उनका 'दीणपुरिसा' से अन्वय करने में बाधक है । अतः विशेषणों की उभयपक्षीय संगति के लिये स्त्रीलिंग शब्दों के व्याख्यान में लिंगविपर्यय करना पड़ेगा । यदि अर्थान्तर करते समय उक्त स्त्रीलिंग विशेषणों के अन्तिम उकार और ओकार को पृथक् कर दें तो वे स्वतः पुंलिंग हो जायेंगे ! 'उ' अनुकम्पा या आश्चर्य का बोधक अव्यय है ( देखिये, पाइयसद्द महण्णव ) और 'ओ' सूचना और पश्चात्ताप का । ( ओ सूचनापश्चात्तापे - प्रा० व्या०, २०२०३ ) | अर्थानुरोध से सम्पूर्ण गाथा का अन्वय इस प्रकार है
उय अवधूयअलक्खणधूसराउ फरुसलुक्खाओ सिसिरवायलइया' दीणपुरिसा व्व अलक्खणा दीसंति ।
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१. स्त्रोलिंग में जस् विभक्ति के स्थान पर उत् और ओत् का विधान वैकल्पिक है | अतः वायलइया रूप भी बनता है ।
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-प्राकृत व्याकरण, ८।३।२७
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