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वज्जालग्ग
मानवती गिरिजा को मनाकर निराश लौटी दूती की उक्ति है। श्री पटवर्धन ने पादटिप्पणी में लिखा है कि टीका-सहित गाथा का अर्थ स्पष्ट नहीं है ।
अंग्रेजी अनुवाद यों है
"यह तुम्हारा दोष नहीं है। यह सौन्दर्य का दोष है जो कष्ट को जन्म देता है। ईर्ष्या करती हुई पार्वती प्रसन्न नहीं हो रही हैं।' संस्कृत-टीका में 'हितक्लेशस्य' की व्याख्या इन शब्दों में की गई है
हितः क्लेशो यस्य असौ हितक्लेशः, तस्य हितक्लेशस्य । टीका का आशय यह है-अनेक अनुनय-विनय के पश्चात् भी पार्वती का मान नहीं टूट रहा है, इसका कारण उनका वह अपरिमित सौन्दर्य है, जिसे क्लेश भोगना और भोगाना ही प्रिय है। यदि वे कुरूप होती तो किस बूते पर इतना कठोर मान करतीं। सुन्दरी का मान शोभा देता है, असुन्दरी का नहीं । सौन्दर्य गर्व का कारण है और गर्व मान का। इस प्रकार मानिनी के लिये विरह-जनित क्लेश अनिवार्य है। अतः 'हितक्लेश' यह सौन्दर्य का विशेषण सार्थक है। अथवा 'हिय किलेसस्स' की छाया 'हृतक्लेशस्य' है। व्याख्या इस प्रकार करें
हृतो दूरीकृतः क्लेशः प्रणयोत्कण्ठाजनितसन्तापः येन । अर्थात् जिसने प्रणयोस्कण्ठा से उत्पन्न कष्ट को दूर कर दिया था। इस आलोक में गाथा का अर्थ यह होगा
हे शिव ! ईर्ष्या करती हुई पार्वती, जो अब तक प्रसन्न नहीं हो रही हैं, यह आपका दोष नहीं है । यह तो उस सौन्दर्य का दोष है, जिसने ( कभी संयोगावस्था में ) आपके प्रणयोत्कण्ठाजनित सन्ताप को हर लिया था । पार्वती के मान न छोड़ने का कारण अनन्त लावण्य और शिव के सतत अनुनय का कारण हृतक्लेशत्व है। 'हिय किलेस' का अन्य अर्थ इस प्रकार भी कर सकते हैं
हितः स्थापितः क्लेशो यस्मिन् ।
४५४ x २-सातम्मि हियय दुलहम्मि माणुसे अलियसंगमासाए ।
हरिणव्व मूढ मयतण्हियाइ दूरं हरिज्जिहिसि ॥ २० ॥ साते हृदय दुर्लभे मनुष्ये अलीकसंगमाशया हरिण इव मूढ मृगतृष्णिकया दूरं हरिष्यसे
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