Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 560
________________ वज्जालग ४८५ गाथा और संस्कृत टीका के सम्बन्ध में यह पाद टिप्पणी है : The sense of the Gatha and that of the commentary are obscure. संस्कृत-टीका के निम्नलिखित वाक्य से गाथा के अर्थ पर कुछ भी प्रकाश नहीं पड़ता : यः शीतवीर्येण दग्धो भवति स शीतत्वे न उपशमनं प्राप्नोति । क्योंकि पूर्वार्ध-वर्णित वह्रि में शीतवीर्यता की कल्पना लोकविरुद्ध है। श्री पटवर्धन ने गाथा का यह अर्थ किया है : "सखि, मैं समझती हूँ, पुष्प-समूह के नीचे से उठी (उत्पन्न) आग के द्वारा जला हुआ कामदेव (वर्मेषण) बुझा नहीं, तभी तो मुझे सतत जला रहा है।" उपर्युक्त अर्थ अपूर्ण है । इसमें 'हारेण' पद को बिल्कुल छोड़ दिया गया है। 'कुसुमच्छडायलुप्पन्नचिचिणा' 'हारेण' का विशेषण है। अर्थ में उसे विशेषणवत् ही रखना होगा । गाथा का अर्थ इस प्रकार होगा :___ सखि, जिसके पुष्प-समूह के नीचे से अग्नि उत्पन्न हो गई थी, उस हार के द्वारा दग्ध होकर कामदेव, मैं समझती हूँ, बुझा नहीं। तभी तो मुझे जला रहा है। यह वर्णन किसी वियोगिनी का है । उस बेचारी को शीतल पुष्पहार भी दाहक प्रतीत हो रहा था । अतः वह सोचती थी कि पुष्पहार की इस असह्य ज्वाला से हृदय में अवस्थित उत्पीडक कामदेव अवश्य जलकर राख हो जायगा और मेरी यह विरह-व्यथा दूर हो जायगी। परन्तु मनोरथ अपूर्ण ही रह गया । काष्ठ अग्नि में दग्ध हो जाने पर भी तब तक लोगों को जलाता रहता है जब तक उसका अंगार बुझकर राख नही हो जाता। इसी प्रकार यद्यपि कामदेव स्वयं जल तो गया है परन्तु अभी जलते हुये अंगार के रूप में है, बुझा नहीं है । अतः विरहिणो को जला रहा है । पुष्पहार को दाहकता का अत्युक्तिपूर्ण वर्णन है । ४२१४१-अहवा तुज्झ न दोसो तस्स उरूवस्स हियकिलेसस्स । अज्जावि न पसीयइ ईसायंति व्व गिरितणया ॥ १९ ॥ अथवा तव न दोषस्तस्य तु रूपस्य हितक्लेशस्य अद्यापि न प्रसीदति ईर्ष्यायमाणेव गिरितनया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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