Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 570
________________ वज्जालग्ग ४९५ शब्दार्थ-लंकालएण = अलंकालकेन = १-अत्यधिक भौरों वाले ( अलं = अत्यधिक, कालय = भौरा)' २-अति धूर्त ( रावण ) के द्वारा ( कालय' = धूर्त ) च्युताक्षरा न मानने पर यह व्याख्या होगीलंकालएण = लङ्कालयेन = १–शाखा पर आश्रित ( लंका = शाखा, आलय = आश्रय ) २-लंका में जिसका घर है ( रावण ) रत्तंबरवेसिणा = रक्ताम्बरवेशिना =१-लाल वस्त्रों का वेश धारण करने वाले ( पुष्पोपचय के कारण पलाश वृक्ष रक्त वर्ण हो जाता है) २-अनुरक्त एवं आकाश में प्रवेश ( वेश - प्रवेश ) करने वाले ( आकाशचारी ) रावण के द्वारा ( रक्तश्चासौ अम्बरवेशी, अम्बरमाकाशं विशति प्रविश तीति अम्बरवेशी)। दत्तपुप्फयानेन = १-दत्तपुष्पदानेन = जिसने पुष्प प्रदान किये हैं। २-दत्तपुष्पयानेन = जिसने पुष्पक नामक विमान प्रदान किया है अर्थात् पुष्पक विमान पर बैठा लिया है । पलास = पलाश = १-पलाश नामक वृक्ष २-मांसभक्षी राक्षस अर्थ--अत्यधिक भौरों वाले ( या शाखा पर रहने वाले ) लाल वस्त्र के समान वेश धारण करने वाले ( रक्तपुष्पयुक्त ) और पुष्प प्रदान करने वाले पलाश ने शीत ( ऋतु) का हर प्रकार से हरण (आहरण ) कर लिया है। द्वितीयार्थ--अतिधूर्त ( या लंकावासी) अनुरक्त और आकाशचारी तथा (सीता को) पुष्पकविमान प्रदान करने वाले ( अर्थात् पुष्पकविमान पर बैठा लेने वाले ) मांसभक्षी रावण ने सीता का हरण कर लिया। ६४१ ४ ३--सच्चं चेव पलासो असइ पलं विरहियाण महुमासे । तित्ति अवच्चमाणो जलइ व्व छुहाइ सव्वंगं ॥ २६।। १. पाइयसद्दमहण्णव २. देशीनाममाला, २।२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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