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वज्जालग्ग
होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में उन पुंश्चलियों के दुष्कृत्य में गोपनीयता कहाँ रह गई ? आप्लवन से आलोडित, कल-कल-छल-छल करते जलाशय में यदि उनके हाथ परस्पर छू गये तो उसे संयोग कैसे कहा जा सकता है। अन्धकार में कोई भी आप्लवनकारी जलरव से सतर्क होकर रहस्य की रक्षा के लिये अपनी गति की दिशा बदल सकता है । अतः उक्त अर्थ नितान्त असंगत है । संस्कृत टीका 'सरद्दह' को 'सारद्रह' मानती है और श्री पटवर्धन उसे water reservoir लिखते हैं । सार शब्द जलवाचक है__ सारं तु द्रविणन्याय वारिषु ।
-अनेकार्थसंग्रह अतः 'सर' को 'सार' मानकर व्याख्या करना बहुत उचित नहीं है । स्वरूप से जल प्रत्यायक दह ( सरोवर ) के साथ उसका प्रयोग निरर्थक' है । मुल में 'सासुसुण्हाणं' पद विशेष महत्त्व का है। संस्कृत-टीकाकार ने उसका अर्थ 'श्वाससोष्णयो.' लिखकर यद्यपि ठीक दिशा का संकेत किया है परन्तु 'दोण्ह' की व्याख्या 'द्वाभ्याम्' पाठकों को पुनः निविड अन्धकार में भटकने के लिये अकेला छोड़ देतो है। मेरे विचार से 'सासुसुण्हाणं' का संस्कृतरूपान्तर 'श्वाससोष्णयोः' की अपेक्षा साश्रुसोष्णयोः करना अधिक प्रासंगिक है। हेमचन्द्रकृत प्राकृत व्याकरण के लुप्तयरवशषसां शषसां दीर्घः ११४३-इस सूत्र से रेफ का लोप हो जाने पर पूर्वस्थित स्वर दीर्घ हो जायगा और साथ शब्द ( जिसे मस्सु होना चाहिये ) सासु का रूप धारण कर लेगा । 'सासु' का अर्थ है-आँसुओं के सहित ( अश्रुभिः सहितः )। 'सोण्ह' का अर्थ है-गर्मी से युक्त ( उण्हेण तावेण सहिया मुण्हा ) 'सासुसोण्ह' शब्द अध्यवसान के द्वारा अर्थ-युगल का अवबोधक है, अतः श्री पटवर्धन के द्वारा स्वीकृत अर्थ भी संग्रहणीय है। मूल प्राकृत की संस्कृत छाया इस प्रकार होनी चाहिये
बहले तमोऽन्धकारे रमितप्रमुक्तयोः श्वभूस्नुषयोः ( माश्रुसोष्णयोः) ।
सममेव संगती द्वयोरपि शरद्व्हे (सारदहे ) हस्ती ।। प्रमुख पदों के अर्थ इस प्रकार हैं
रमियपमक्काण = रमितप्रमुक्तयोः = रमिता युक्ता प्रमुक्ता परित्यक्ता च तयोः रमित प्रमुक्तयोः । १. सार शब्द को सरोवर की जल शून्यता का व्यावर्तक मान लेने पर वह
सार्थक है।
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