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वज्जालग्ग
यास-जनित प्रश्वास से प्रतप्त हो रहे थे । संयोग से गात्र- प्रक्षालनार्थ एक साथ शरत्सरोवर पर पहुँचने पर दोनों ने हाथ मिलाये ( अपनी सफलता की प्रसन्नता में) अथवा संयोग से अँधेरे में उन दोनों ने एक दूसरे को हाथ का सहारा दिया ।
मुणिया ॥ २२ ॥
५०७ X १ - सीसेण कह न कीरइ निउंबणं मामि तस्स गणयस्स । असमत्तसुक्कसंकमणवेयणा जेण मह शीर्षेण कथं न क्रियते निकुंबनं ( ? ) सखि तस्य असमाप्त शुक्र संक्रमण वेदना येन मम
गणकस्य ।
की
संस्कृत टीका में 'निउंबणं' की छाया 'निकुंबनम्' ने उसके स्थान पर 'निचुम्बनम्' शब्द रख कर पूर्वार्ध का
-- उपलब्ध संस्कृत छाया
गई है । श्री पटवर्धन यह अर्थ किया है :
ज्ञाता ||
" हे सखि ! उस गणक के चरणों का स्पर्श ( चुम्बन ) अपने शिर से क्यों न करें ।"
इस अर्थ में स्पर्शन क्रिया ( चुम्बन ) के कर्म के रूप में चरणों का बाहर से आक्षेप करना पड़ता है । अतः 'सीसेण' में सप्तम्यर्थक तृतीया मान कर यह अर्थ करना अधिक सरल एवं समीचीन है:
-
हे सखि ! उस गणक का मस्तक क्यों न चूम लें ।
इस अर्थ में चूमना क्रिया मस्तक से सीधे अन्वित हो जाती है ।
५५९ × २—करफंसमलणचुंबणपीलणणिहणाइ हरिसवयणेहिं । अत्ता मायंदणिहीण किंपि कुमरीउ सिक्खवइ ॥ २३ ॥ कर स्पर्शमर्दन चुम्बनपीडन निहननानि हर्षवचनैः । आर्या माकन्दनिधीन् किमपि कुमारी: शिक्षयति ॥
-- उपलब्ध संस्कृत छाया
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संस्कृत टीकाकार ने कूटव के कारण इसकी व्याख्या नहीं की है :-- अस्याः गाथायाः टीका न कृतास्ति । कूटत्वात् ।
श्री पटवर्धन- कृत अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है :--
"प्रौढा स्त्री मुस्कान के साथ तरुणियों को हाथ पकड़ने ( प्रेमी का ), लिपटने, चूमने, दबाने और थपथपाने की क्रियाओं को शिक्षा देती है, जो माधुर्य एवं आकर्षण की निधि है ।"
अर्थ के अन्त में 'मायंदणिहीण' को कोष्ठक के भीतर प्रश्न चिन्ह से इस
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