Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 559
________________ ४८४ वज्जालग्ग 'जाणामि' का भूतकालिक अर्थ हेमचन्द्र के 'व्यत्ययश्च', ४/४४७ – इस सूत्र से समर्थित है । इस अर्थ में जानामि क्रिया को प्रमुखता दी गई है । अथवा इसका निम्नलिखित अर्थ समझें : अहो, संसार में प्रेम सुदृढ आशा से निर्मित नहीं होता है और भाग्य से पीडित होता है - इसे मैं जानती थी ( या जानती हूँ ! । इस प्रकार 'न' निषेध और 'जानाति' क्रिया के अन्वय-भेद से विवेच्य गाथा के कई अर्थ संभव हैं । ३४९ x १० सो को वि न दीसइ सामलंगि जो घडइ विघडियं पेम्मं । घडकप्परं च भग्गं न एइ तेहि चिय सलेहिं ॥ १७ ॥ स कोऽपि न दृश्यते श्यामलाङ्गि यो घटयति घटकर्परं च भग्नं नैति तैरेव विघटितं प्रेम (?) - उपलब्ध अपूर्ण छाया संस्कृत छाया का चतुर्थ चरण खण्डित है । 'सलेहि' है । संस्कृत टीका के अनुसार 'सलेहि' की छाया का चाहिये | श्री पटवर्धन 'संचैः' का अर्थ नहीं समझ सके । को प्रश्नांकित किया है । इस शब्द का अर्थ है - साँचा | 'सल' शब्द देशी प्रतीत होता है. परन्तु देशीनाममाला आदि कोशों में संगृहीत नहीं है । उसके अर्थ का आधार केवल निम्नलिखित टीका है : तैरेव सलैः संचैः न एति नागच्छति । Jain Education International पद को छोड़ दिया गया अनुवाद 'संचैः' होना उन्होंने टीका के इस पद गाथार्थ - अयि श्यामलांगि, ऐसा कोई भी नहीं दिखाई देता जो टूटे प्रेम को जोड़ सके । फूटा घड़ा उन्हीं साँचों में नहीं आता ( अर्थात् उसका आकार पूर्ववत् नहीं हो सकता या साँचे में पुनः उसी रूप में नहीं बनाया जा सकता ) । ३९७ × २ -- हारेण मामि कुसुमच्छडायलुप्पन्नचिच्चिणा दड्ढो । वम्मीसणो न मन्नइ उलूविओ तेण मं डहइ || १८ || हारेण सखि कुसुमच्छटातलोत्पन्न वह्निना दग्धः वर्मेषणो न मन्यते विध्यापितः तेन मां दहति - उपलब्ध संस्कृत छाया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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