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मुंह झुका लिया है, जो पहले निरन्तर प्रवर्धमान थे वे स्तन, उन स्थानभ्रष्ट राजाओं के समान क्या कर सकते हैं, जो पहले अपना उच्च स्थान बनाने में समर्थ थे, जिन्होंने अपना मुंह ( विनम्रता के कारण ) झुका लिया था और जो पूर्वकाल में निरन्तर ( शक्ति के क्षेत्र में ) प्रवर्धमान थे । "
वज्जालग्ग
उपर्युक्त अनुवाद चमत्कारशून्य है ।
उसमें श्लेष का निर्वाह भी नहीं हो सका है । प्राकृत गाथा की छाया इस प्रकार होनी चाहिये :स्थान चरैरेतैरधोमुखैरनवरतप्रौढैः ।
स्तनैर्नरेन्द्रैरिव किं क्रियते पयोविमुक्तं (पदविमुक्तः) ॥
शब्दार्थ-स्थानचर = १ स्थान से चलित ( चर = चंचल, चलायमान ) = २ ( थाणयर ) - स्थानम् उपशान्ति स्थैर्यं वा चरतीति स्थानचरः, शान्त हो जाने वाले या उद्यमहीन हो जाने वाले । अथवा स्थाने स्वराज्ये चरति भ्राम्यति निरुद्देश्यः स्थानचरः, अपने राज्य में निरुद्देश्य भटकने वाले ।
अधोमुख = १ - जिनका मुख ( वयः परिणति के कारण ) नीचे की ओर हो
गया है ।
=
- २ - जिनका मुँह लज्जा से नीचा हो गया है । अनवरत प्रौढ
=
१ - जो पुराने ( तारुण्य में होने वाले ) संभोगों के कारण परिपक्वता को प्राप्त हो चुके हैं (अनवेन अनूतनेन तारुण्यकालकृतेन रतेन संभोगेन प्रौढैः परिणति गर्तरिति ) । २ – निरन्तर वृद्धा
पयोविमुक्तः = दुग्धहीन
पदविमुक्तः = पदच्युत, जिन्होंने अपना राज्य खो दिया है ।
गाथार्थ - जो स्थान से चलित हो चुके हैं, जो प्रथमावस्था के संभोग से परिणत हो चुके हैं, जिनका मुँह नीचे हो गया है, वे दुग्धहीन स्तन, उन पदच्युत एवं निरन्तर वृद्ध राजाओं के समान क्या कर सकते हैं, जो ( निराश एवं अनुत्साह से ) उद्यमरहित हो चुके हैं और जिनका मुँह ( लज्जा से ) नीचा हो गया है ।
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३१८ × ६ बालालावण्णणिही नवल्लवल्लिव्व माउलिंगस्स । चिचिव्व दूरपक्का करेइ लालाउयं हिययं ।। १५ ।।
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