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वज्जालग्ग
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असंगत है। कृष्णमुख पयोधरों को देखते ही किसी भी मनचले युवक के मन में स्वभावतः आनन्द ही होता है, दुःख नहीं। विलास-प्रिय नवयुवक का संगमोत्कण्ठा से दुःखी होना भी संभव है, परन्तु तषित-पथिक का, पानीयशाला के कलशों को देखकर, दुःखी होना समझ में नहीं आता है। उसे तो आनन्दविभोर हो जाना चाहिये था। कलशों की दग्धमुखता में दुःख उत्पन्न करने को क्षमता नहीं है । संस्कृतटोका के अनुसार तुषित पथिक के दुःख का कारण पानी की स्वल्प मात्रा है, जिससे तृषा-निवृत्ति किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है।
प्राकृत शब्द 'ओमंथिय' ओकार की ह्रस्वता के कारण 'उम्मंथिय' ( अव+ मस्तिक ) हो गया है। 'ओमथिय' का अर्थ है-अधोमुख या नत ।' लटकते हुए ( अत्रीमुख ) पयोवरों को देखकर विलास-प्रिय तरुण ही नहीं दुःखी होते हैं, पानीयशाला के औंधे कलशों को देखकर तृषित बटोहा भी व्यथित हो उठते हैं । गाथा का अर्थ इस प्रकार होगा
वह ( तरुण ) उस ( महिला) के नतमुख ( लटकते हुए ) पयोधरों को देखते ही दुःखी हो गया, जैसे कोई तुषित पथिक पानीयशाला के उन घड़ों को देखकर दुःखी हो उठता है, जिनके भीतर पानी की थोड़ी मात्रा देख ली गई है।
३१२४ ११-ठाणयरेहि एहि अहोमुहेहिं अणवरयपोढेहिं ।
सिहिणेहि नरिंदेहि व कि किज्जइ पयविमुक्केहिं ॥ १४ ॥ स्थानकराभ्यामाभ्यामधोमुखाभ्यामनवरतप्रौढाभ्याम् स्तनाभ्यां नरेन्द्राभ्यामिव कि क्रियते पदविमुक्ताभ्याम्
--उपलब्ध संस्कृत छाया इसमें पयोधरों और राजाओं का औपम्य वर्णित है। वर्णन श्लिष्ट है परन्तु संस्कृत-टीका प्राकृत शब्दों का संस्कृत रूपान्तर देकर ही मौन हो गई है। केवल 'पयविमुक्क' को व्याख्या इन शब्दों में की गई है
___ पदविमुक्ताभ्यां स्थानच्युताभ्याम् । अंग्रेजी अनुवाद का भावार्थ इस प्रकार है
"जो अपने स्थान से च्युत हो चुके हैं, जो पूर्वकाल में अपनी स्थिति ( Position ) बनाने में समर्थ थे, जिन्होंने (परिपुष्टता के कारण) अपना
१. पाइयसद्दमहण्णव
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