Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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वज्जालग्ग
( अक्षिणी नयने वाष्पाभ्यन्तरे प्रसृताभिः गलन्तीभिश्च बाधाभिः शोभेते अर्थात् अश्रुओं के प्रवाह के भीतर बढ़ी हुई और पिघलती हुई बाबाओं के द्वारा आँखें सुन्दर लगती हैं )
गाथार्थ - प्रगाढ चुम्बन से जिनका घना कृष्ण काजल प्रोञ्छित हो चुका है, वे आँखें अश्रुधारा के भीतर विवर्धमान विरोधों ( बाधाओं ) के विगलित हो जाने के कारण सुन्दर लगती हैं ।
३१२ ×२—सो तन्हाइयपहियव्व दूमिओ तीइ दिट्ठमेत्तेहि । पंथ पवाकलसेहि व थणेहि उम्मंथियमुहेहिं ।। १३ ।। स तृषितपथिक इव दूनस्तस्या दृष्टमात्राभ्याम् । पथि - प्रपाकलशाभ्यामिव स्तनाभ्यां दग्धमुखाभ्याम् ॥
-- उपलब्ध संस्कृत छाया
इस गाथा का अर्थ इस प्रकार दिया गया है:देखते ही ऐसे दुःखी हो गया जैसे कोई दग्धमुख कलशों को देख कर दुःखी हो
"वह उसके कृष्णमुख पयोधरों को तृषित बटोही मार्गस्थ पानीय- शाला में जाता है ।"
संस्कृत टीका में है और 'दिट्ठमेते हि'
गई हैदृष्टा स्तोका मात्रा पानीयलक्षणा येषु ते दृष्टमात्राः । तैर्दृष्टमात्रैः । उन्मथित का अर्थ टीका में नहीं लिखा है । संस्कृतटोकानुसार गाथा का यह अर्थ होना चाहिये:
'उम्मंथिय' का संस्कृत - रूपान्तर 'उन्मथित' दिया गया ( दृष्टमात्रैः ) की व्याख्या उपमान पक्ष में इस प्रकार की
वह ( युवक ) उसके उन्मथित- (?) - मुख पयोधरों को देखते ही दुःखी हो गया, जैसे कोई तृषित पथिक मार्गस्थ पानीयशाला ( प्याऊ ) के उन कलशों को देखकर दुःखी हो जाता है जिनके जल की थोड़ी मात्रा देख ली गई है ।
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यदि उन्मथित का भी अर्थ दिया गया होता तो उपर्युक्त व्याख्या में कोई कमी ही नहीं थी । श्री पटवर्धन ने संस्कृतटीका के 'पथि प्रपाकलशैः ' इस व्याख्या - वचन में अवस्थित पथि शब्द को समस्त पद के रूप में छाया में निविष्ट कर दिया है, जो उचित नहीं है । समास - गत पथ शब्द में सप्तमी निरर्थक है | गाथा का अंग्रेजी अनुवाद, जिसका भावार्थ ऊपर दिया गया है, नितान्त
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