Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 553
________________ "४७८ वज्जालग्ग __ अथवा उत्तरार्ध का अर्थ यों करें : यह हमारे पोन पयोधरों का महत्त्व है क्या ? ( अर्थात् उन्हीं का महत्त्व है)। २८४४६-वंकं ताण न कीरइ कि कज्जं जस्स ते वि याणंति । सब्भावेण य छेया पुत्ति देव व्व घेप्पंति ॥ ११ ॥ वक्रं तेषां न क्रियते कि कार्य यस्य तेऽपि जानन्ति सद्भावेन च च्छेकाः पुत्रि देवा इव गृह्यन्ते संस्कृत टीका 'न' को 'जानन्ति' क्रिया से सम्बद्ध करती है : हे पुत्रि, च्छेका ये ते न जानन्ति । जिससे गाथा के अन्तराल तक पहुँचने के लिये कोई भी रन्ध्र नहीं मिलता । श्री पटवर्धन ने 'किं कज्जं जस्स ते वि जाणंति' का निम्नलिखित अर्थ दिया है : "वे यह जान लेते हैं कि एक मनुष्य का क्या कार्य है ।" परन्तु उक्त प्राकृत-वाक्य का सीधा और सरल अर्थ यह है : जिसका क्या कार्य है, वे भी जानते हैं । यहाँ 'जस्स' के लिये 'तस्स' की आकांक्षा स्वाभाविक है। गाथा में कहीं भी 'तस्स' पद नहीं है। समुच्चयार्थक 'वि' से समुच्चित 'ते' किसी अन्य की भी अपेक्षा रखता है, परन्तु उसके साथ अन्य को समुच्चीयमान पद दिखाई नहीं देता। इन विसंगतियों के कारण द्वितीय चरण नितान्त अव्यवस्थित एवं अनर्गल प्रलाप-सा प्रतीत होता है। अतः व्यवस्था के लिये उक्त अंश का पाठ एवं उसकी छाया इस प्रकार होगो किंकज्जं जस्स ते वियाणं ति ( कैङ्कयं यस्य ते विजानन्ति ) अर्थात् जिसकी किंकरता ( सेवा या अनन्याश्रयता ) होती है ( उसे ), विशेषतः जानते हैं। उपर्युक्त पाठ में 'वि' 'जाणंति' क्रिया का उपसर्ग है। 'किं' और 'कज्ज' पृथक् नहीं, एक पद बन गये हैं। अब गाथा का अर्थ स्वतः स्पष्ट है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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