Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 558
________________ वज्जालग्ग ४८३ बालालावण्यनिधिर्नवीनवल्लीव मातुलिङ्गस्य चिञ्चेव दूरपक्वा करोति लालाकुलं हृदयम् -उपलब्ध संस्कृत छाया उपर्यक्त संस्कृत छाया में 'लालाकुलम्' के स्थान पर 'लालायुतम्' होना चाहिये। ३४९४६ अव्वो जाणामि अहं पेम्मं च हवेइ लोयमज्झम्मि । थिरआसाए रइयं न पोडियं नवरि दिव्वेण ॥ १६ ॥ अहो जानाम्यहं प्रेम च भवति लोकमध्ये स्थिराशया रचितं न पीडितं केवलं दैवेन -उपलब्ध संस्कृत छाया श्री पटवर्धन ने इसका यह अनुवाद किया है : "अहो, मैं जानती हूँ कि कैसे इस जगत् में प्रेम सुदृढ आशा के द्वारा रचित होता है परन्तु कैसे यह भाग्य से पीड़ित है ?" ___ उपर्युक्त अनुवाद सन्तोषजनक नहीं है क्योंकि अनुवादक पूर्वार्ध या उत्तराध के किसी वाक्य से 'न' का अन्वय नहीं कर सके हैं। यह किसी ऐसी निराश प्रेमिका की मर्मभेदिनी उक्ति है, जिसने कभी बड़ी ही आशा से प्रणय का सूत्रपात किया था। ___ गाथार्थ-हाय मैं जानती थी कि जगत् में प्रेम सुदृढ आशा से रचित होता है, वह केवल भाग्य से पीडित ( भाग्याधीन या भाग्य से बाधित ) नहीं होता। ( परन्तु खेद है, प्रेम केवल भाग्य के ही अधीन होता है ) इस अर्थ में 'न' को अन्तिम चरण से सम्बद्ध किया गया है। उसे द्वितीय चरण से संयुक्त करके यह अर्थ ले सकते हैं :____ मैं जानती हूँ कि संसार में प्रेम सुदृढ आशा से रचित नहीं होता । वह केवल भाग्य के अधीन रहता है । अथवा यह अर्थ करें : अहो, संसार में प्रेम सुदृढ आशा से निर्मित होता है-यह तो मैं जानती थी परन्तु वह केवल भाग्य से पीडित होता है ( भाग्य ही उसमें बाधक बनता है )-- यह नहीं जानती थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590