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वज्जालग्ग
वह हिंसा छोड़कर धार्मिक बन गया है। इस सन्दर्भ को ध्यान में रख कर गाथा के पूर्वार्ध की निम्नलिखित वैकल्पिक छाया भी करनी होगी :
ओ स्वपिति विरलानच्छलुलिताधार्मिक कुन्तलकलापः ।
प्राकृत 'अधम्म' ( अधर्म ) शब्द में मतुवर्थक इल्ल प्रत्यय जोड़ने पर 'अधम्मिल्ल' शब्द बनता है। सन्धि में 'लुलिय' के अन्त्य अकार का लोप हो जाने पर 'लुलियधम्मिल्ल' हो जायगा। अर्थ होगा-अधर्मवान् या अधार्मिक । यहाँ 'कुंतलकलाव' का अर्थ भी भिन्न हो जायगा
कुंतल - प्रास कलाव ( कलाप) = तूणीर या बाण ।
'ओ' पश्चत्ताप का द्योतक है ।
समास-(धार्मिक-पक्ष ) लुलिया इतस्ततः विकीर्णाः विल्लरविल्ला किञ्चिन्मलिना अवम्मिल्ला अधर्मवन्तः ( हिंसासाधनत्वात् ) कुन्ताः प्रासाः कलावा ( कलापाः ) तूणीरा या जस्स !
( शृंगार-पक्ष )-विरले कोमले (विलक्षणे वा) स्वच्छे च धम्मिल्ले केशपाशे लुलितो विकीर्णो मिलितो वा कुन्तलानां केशानां कलापः समूहो यस्य ।
मूल में लुलिय का पूर्व निपात हो गया है।
गाथार्थ-( धार्मिक-पक्ष ) ओः जिसके किंचित् अस्वच्छ (प्रयोगाभाव से ) पापपूर्ण ( अधम्मिल्ल ) प्रास और तूणीर इधर-उधर अस्तव्यस्त पड़े हैं, वह मेरा पुत्र सो रहा है। वणिक् अन्यत्र जाओ, मेरे पास मुक्ताफल कहाँ ? यहां अधर्मवान् शस्त्रसमुदाय का अस्तव्यस्त पड़ा रहना-यह सूचित करता है कि आखेटक की उनमें अब रुचि नहीं है । शस्त्रों के प्रति उपेक्षाभाव उसकी धार्मिकता की अभिव्यक्ति करता है । शृंगार-पक्ष-ओः मेरा पुत्र सो रहा है। उसके बालों की लटें प्रिया के कोमल एवं स्वच्छ केश-पाश में मिश्रित हो गई हैं। वणिक् अन्यत्र जाओ, हमारे पास मुक्ताफल कहाँ !
उपर्युक्त अर्थों में एक वाच्य है, दूसरा व्यंग्य ।
२१४४५-अच्छउ ता करिवहणं तुह तणुओ धणुहरं समुल्लिहइ ।
थोर-थिरथणहराणं कि अम्ह माहप्पं ॥१०॥
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