Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 549
________________ ४७४ वज्जालग्ग न सेवणिज्जो सि = १-न चढने योग्य हो ( गज-पक्ष ) २--सेवा न करने योग्य हो ( नृप-पक्ष ) गाथार्थ-( गज-पक्ष ) मुंह में सीधी जिह्वा नहीं है, सूड स्वल्पाकृति है, दृष्टि मद से भयानक हो गई है, अरे दांतों की कोरों पर गर्वशील गजेन्द्र, तुम आरोहणयोग्य नहीं हो। (नृप-पक्ष ) सीधे मुंह बात नहीं करते हो, हाथ छोटा है ( और छोटे हाथ से थोड़ा दान ही संभव है ), दृष्टि गर्व से भयानक बन गई है, अरे करोड़ों रत्नों पर गर्वित ( या रत्नों को श्रेणियों पर गर्वित ) नरेन्द्र ! तुम सेवा करने योग्य नहीं हो ( क्योंकि धनी होने पर भी तुम्हारी सेवा करके कोई कुछ पा नहीं सकता )। १९९४५-कुंजर मइंद दंसणविमुक्कपुक्कारमय पसंगेण । न हु नवरि तए अप्पा वि सो वि लहुयत्तणं पत्तो ।। ८ ॥ कुञ्जर मृगेन्द्रदर्शनविमुक्तपूत्कारमदप्रसंगेन । न खलु केवलं त्वया आत्मापि सोऽपि लघुत्वं नीतः -उपलब्ध संस्कृत छाया संस्कृत टीका में 'पत्तो' की छाया 'प्रापितः' दी गई है, 'प्राप्तः' होना चाहिये । नीतः भावार्थ है, छाया नहीं। उत्तरार्ध का अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है "तुमने अपने आप को घटा कर बहुत निम्न स्तर पर पहुँचा दिया है।" उपर्युक्त अनुवाद अशुद्ध है । उसमें 'नवरि' ( केवल ) और 'सोवि' ( सोऽपि ) पदों की उपेक्षा कर दी गई है । गाया का अर्थ इस प्रकार होना चाहिए - अरे कुञ्जर, जब मृगेन्द्र को देखते ही मद छोड़ कर चीत्कार करने लगे तब तुमने अपनी श्रेष्ठ आत्मा को ही नहीं, उस दुर्धर्ष आक्रामक सिंह को भी लघु बना दिया। ___'आत्मापि' से गजेन्द्र को श्रेष्ठता और 'सोऽपि' से आक्रामक सिंह की दुर्धर्षता के साथ-साथ यह ध्वनित होता है कि ऐसे होनसत्त्व शत्रु पर शौर्य प्रदर्शनकारी सिंह भी कलंकित हो गया । २१४४ १-ओ सुयइ विल्लरविल्ललुलियधम्मिल्लकुंतलकलावो । अन्नत्थ वच्च वाणिय अम्हं मुत्ताहलं कत्तो ॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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