Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 548
________________ वज्जारग ४७३ संस्कृत-टीकाकार ने 'रयणकोडिगविर' की व्याख्या 'रत्नकोटिगविन्' की है । शेष पदों का अर्थ अंग्रेजी अनुवाद के ही समान है। वस्तुतः उपर्युक्त दोनों व्याख्यायें अपूर्ण हैं। प्रस्तुत गाथा समान विशेषणों-द्वारा गजराज की असेव्यता के साथ-साथ किसी धनी राजा की असेव्यता का भी वर्णन करती है। हम इस वर्णन को समासोक्ति की संज्ञा नहीं दे सकते, विशेष्य 'गइंद' भी श्लिष्ट हैगइंद ( गजेन्द्र, गवेन्द्र ) = १-गजेन्द्र २.-गो + इन्द्र ( गवेन्द्र ) अर्थात् राजा अवादेश के पश्चात् प्राकृत नियमानुसार पूर्णस्वर और वकार का लोप हो जाने पर 'गइंद' शब्द निष्पन्न होगा। गो शब्द पृथ्वी-वाचक है, अतः 'गइंद' का अर्थ है-राजा । अथवा संस्कृत गवेन्द्र शब्द से सीधे ह्रस्वादेश ( ह्रस्वः संयोगे ), वकारलोप तथा अनुस्वार करने पर 'गइंद' सिद्ध हो गया। 'ठोव' को 'ठोर' मानने की आवश्यकता नहीं है। हाथी का संड कुंभ के निकट स्थूल होता है परन्तु उसका निचला भाग, जिससे वह कार्य करता है सम्पूर्ण संहनन की अपेक्षा बहुत छोटा एवं पतला होता है । अन्य श्लिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैंसरला मुहे न जीहा = १- तुम्हारे मुंह में सीधी जिह्वा नहीं है' (गजपक्ष) २-तुम्हारे मुंह से सीधी बात नहीं निकलती है । ( नृपपक्ष ) हत्थ = १-सूड ( गजपक्ष ) २-हाथ ( नृपपक्ष ) मद = १-हाथी के मस्तक से क्षरित होने वाला जल (गजपक्ष) २-गर्व रयणकोडिगन्विर = १-रदनकोटिगविन्, दाँतों के अग्रभाग से गर्वित (गजपक्ष) २-रत्नकोटिगविन्, कोश में स्थित रत्नों की श्रेणियों या कोटि संख्या से गर्वित ( नृपपक्ष ) १. सोऽपूर्वो रसना विपर्यय विधिस्तत् कर्णयोश्चापलं, दृष्टि : सा मद विस्मृतस्वपरदिक् कि भूयसोक्तेन वा । सर्व विस्मृतवानसि भ्रमर हे यद्वारणोऽद्याप्यसौ, अन्तःशुन्यकरो निषेव्यत इति भ्रातः क एष ग्रहः ॥ -काव्यप्रकाश, ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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