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वज्जालन्ग
की उक्ति भी इसलिये सार्थक है कि जब अपना ही द्रव्य दूसरे को दान-रूप में न देने पर यमलोक में भयंकर परिणाम भुगतने पड़ते हैं तब भला अपने सेवकों का अजित धन हजम कर जाने वाला नराधम यमयातना से कैसे मुक्त हो सकता है ?
१९९४२-दंतुल्लिहणं सव्वंगमज्जणं हत्थचल्लणायासं ।
पोढगइंदाण मयं पुणो वि जइ णम्मया सहइ ॥ ६ ॥ संस्कृत टीकाकार ने इसका रूपान्तर इस प्रकार किया है :
दन्तोल्लिखनं सर्वाङ्गमज्जनं हस्तचालनायासम् ।
प्रौढ गजेन्द्राणां मदं पुनरपि यदि नर्मदा सहते ॥ अंग्रेजी अनुवाद यों है
'यह नर्मदा ही है जो प्रौढ गजेन्द्रों की प्रमत्तता की स्थिति में दाँतों से तटों का खोदना, सम्पूर्ण शरीर को जल में डुबो देना और सूड-संचालन का आयास ( कष्ट ) सहन कर लेती है।"
सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उपयुक्त अर्थ कुछ अधूरा-सा लगता है। गाथा केवल गजेन्द्रों की जल-क्रीड़ा का वर्णन कर वहीं विप्रान्त नहीं हो जाती है। वह शब्दशक्ति के प्रभाव से शृङ्गारिक व्यापार की भी अभिव्यंजना करती है। टीकाकारों का ध्यान निगूढ़ ध्वनि तत्त्व की ओर गया ही नहीं, इसी से वे स्थूल अर्थ देकर मौन हो गये । श्लिष्ट पदों के अर्थ ये हैं :दंतुल्लिहणं ( दन्तोल्लेखनम् ) = १-दांतों से तटों का खोदना या
गिराना।
२-दन्तक्षत (प्रणय-पक्ष ) मव्वंगमज्जणं ( सर्वाङ्गमज्जनम् ) = १–सम्पूर्ण अंग ( शरीर ) को डुबो
देना। २-सर्वस्याङ्गस्य लिङ्गस्य मज्जनं भगे
प्रवेशः अर्थात् सम्पूर्ण लिंग का भग
में प्रवेश (प्रणय-पक्ष )। हत्थचल्लणायासं ( हस्तचालनायासम् ) = १-शुण्डाघात का कष्ट ।
२-कुचादि पर हाथ चलाने का कष्ट । (प्रणय-पक्ष )
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