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गाथा में 'चरंत नो' पद का ठीक-ठीक अर्थ नहीं किया जा सका है । मेरे विचार से यहाँ 'चरंत' 'उवचरंत' के अर्थ में प्रयुक्त है । प्राकृत में 'चर' का प्रयोग सेवा करने के अर्थ में भी होता है ।' 'नो' संस्कृत ना ( नृ= नर ) का प्राकृतरूप है । प्राकृत-ग्रन्थों में इसे देखा जा सकता है । बाहुलकात् 'नो' और 'गो' का अभेद स्वीकार कर 'चरंत नो' का निम्नलिखित अर्थ कर सकते हैं:चरंत = सेवा करता हुआ ।
-
नो ( णो )
= नर
वज्जालग्ग
दोनों शब्दों का समास में 'चरंत नो' रूप हो जायगा । तब उसका अर्थ होगा - सेवा करता हुआ नर या सेवक । इस दृष्टि से गाथा को आर्थिक क्षति इस प्रकार दूर की जा सकती है :
बुद्धि, सत्य, मंत्री, सेवारत सेवक और महाकाव्य - ये सभी आरम्भ में सरल होते हैं, परन्तु पश्चात् इनका निर्वाह करना कठिन हो जाता है ।
आशय यह है कि बुद्धि-वैभव, सत्य, मैत्री तथा महाकाव्य की रचना के समान सेवारत सेवक का कार्य भी आरम्भ में सरल होता है, परन्तु अन्त तक उसका निर्वाह कर ले जाना एक दुखद प्रक्रिया है ।
१६१ × १ – अप्पत्थियं न लब्भइ पत्थिज्जंतो वि कुप्पसि नरिंद |
हद्धी कहं सहिज्जइ कयं तवसहि गए संते ॥ ५ ॥
अप्रार्थितं न लभ्यते प्रार्थ्यमानोऽपि कुप्यसि नरेन्द्र । हा धिक् कथं सहिष्यते कृतान्तवसति गते
सति ॥
श्री पटवर्धन ने शाब्दिक अनुवाद देकर लिखा है कि इसका भाव स्पष्ट नहीं है । प्रस्तुत पद्य अहरह सेवारत किसी अभाव ग्रस्त राज-सेवक को उक्ति है, जिसका
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१. पाइयसद्द महण्णव
२.
इस सन्दर्भ में भद्रसूरि-कृत निम्नलिखित गाथाएँ द्रष्टव्य हैं
णो वावारा भावंमि अण्णहा खंमि चेव उवलद्धी ।
पावइ वेदस्स सदा तहेव अत्था णो वावारे सद्दो सुव्वइ जं तेण
वण्णदव्वाई |
तेण परिणामिताई णिच्चाणिच्चो तओ स भवे ।। १२५६ ॥
- धर्मसंग्रहणी
परिणाणं ।। १२५३ ॥
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