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वज्जालग्ग
आगे चलकर उसका पूर्ण होना कठिन हो जाता है।"
प्राकृत गाथा का सीधा और सरल अर्थ यह है
कार्य ही प्रमाण कैसे हो सकता है ? जो लोग काकतालीय न्याय से ( संयोग से ) किसी कार्य में सफल हो जाते हैं, वे यदि उस अवसर ( संयोग या यदृच्छ ) की उपेक्षा कर दें तो फिर कभी भी वह कार्य नहीं कर सकते हैं ।
तात्पर्य यह है कि संयोगवश तुच्छ व्यक्ति भी असाध्य एवं कठिन कार्य कर डालता है, अतः कार्य को पूर्णता को ही योग्यता या सामर्थ्य का प्रमाण नहीं मान सकते । कार्य को पूर्णता, योग्यता ही नहीं, कभी-कभी यदृच्छा पर भी निर्भर रहती है । संयोगवश किसी कठिन कार्य को कर डालने वाले व्यक्ति जब उक्त अवसर की अवहेलना कर देते हैं, तब फिर कभी भी उसे नहीं कर पाते ।
संस्कृत-टीकाकार ने मूल में 'तं' को 'कज्ज' से अन्वित किया है परन्तु यह अस्विति पूर्वार्ध में प्रतिपादित तथ्य के अनुकूल नहीं है। ९० x १२- बुद्धी सच्चं मित्तं चरंत नो महाकव्वं ।
पुव्वं सव्वं पि सुहं पच्छा दुक्खेण निव्वहइ ॥ ४॥ बुद्धिः सत्यं मित्रं" (?) नो महाकाव्यम् पूर्वं सर्वमपि सुखं पश्चाद् दुःखेन निर्वहति
-उपलब्ध अपूर्ण छाया यह गाथा छन्द की दृष्टि से अशुद्ध है। संस्कृत टीका ने 'सुगमा' कह कर इसकी व्याख्या ही नहीं की है। उपर्युक्त अधूरी छाया पर अवलम्बित अधूरा अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है
"बुद्धि, सत्य, मैत्री...''महाकाव्य-ये सब प्रारम्भ में सरल होते हैं, परन्तु पश्चात् इनका निर्वाह कठिन हो जाता है।" १. Discharging ( with determination and tenacity) a work
undertaken is the most important thing in the case of those who are engaged in accomplishing great tasks. How possibly can random and casual efforts (TATTOT) avail ? If It is ignored ( neglected ) ( in the beginning) later on it becomes difficult to accomplish.
९१-३९२।
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