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वज्जालग्ग
उपर्युक्त अनुवाद मूल प्राकृत की 'मुच्चइ' क्रिया का अर्थ 'उच्यते' समझ कर किया गया है और नितान्त अशुद्ध है। इसमें प्रणय और प्राकृत-काव्य की समानताओं को भी स्पष्ट नहीं किया गया है । गाथा का अभिप्राय यह है
जब बहुत कसकर प्रगाढ आलिंगन किया जाता है या जब किसी प्रकार का अधिक दबाव डाला जाता है और जब प्रेमिका को दाँतों से काट लेता है ( चुम्बन के समय ), तब प्रणय का सौन्दर्य ( माधुर्य ) समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार जब कोई अनाड़ी गला दबाकर गाने लगता है या गायक के दाँत खंडित रहते हैं (टूटे रहते हैं ), तब प्राकृत-काव्य श्रीहीन हो जाता है। वास्तव में प्राकृत-काव्य और प्रेम दोनों को खुला छोड़ दिया जाता है ( तभी आनन्द आता है)। शब्दार्थ-चंपियं = दबाया गया। प्रणयपक्ष में आलिंगनातिरेक और काव्यपक्ष
में गला दबा कर गाना अभिप्रेत है । दंतच्छेय = प्रणयपक्ष में दांतों से काटना और काव्यपक्ष में दांतों
का टूटना। मुच्चइ = मुच्यते, छोड़ दिया जाता है। ढलहलयं = उन्मुक्त (खुला, ढीला )
७२४२-अद्दिढे रणरणओ दिटे ईसा अदिट्ठए माणो।
दूरं गए वि दुक्खं पिए जणे सहि सुहं कत्तो ॥ २ ॥ अदृष्टे रणरणको दृष्ट ईर्ष्या अदृष्टे मानः दूरं गतेऽपि दुःखं प्रिये जने सखि सुखं कुतः
-परम्परागत संस्कृत छाया श्री पटवर्धनकृत अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है
"प्रेमी को न देखने पर अशान्ति, देखने पर ईर्ष्या, न देखने पर मान (?) और दूर चले जाने पर दुःख होता है । सखि ! प्रियजन से सुख कहाँ मिलता है ?"
यहाँ 'अद्दिट्टे' और 'अदिट्टए'-इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ देकर अनुवादक ने एक सरस गाथा को पुनरुक्ति-दोष-दुषित कर दिया है । वस्तुतः गाथा में पुनरुक्ति नहीं है। हेमचन्द्र के अनुसार प्राकृत के विभिन्न भेदों का परस्पर व्यत्यय संभव है । एक प्राकृत के लक्षण दूसरी प्राकृत में भी पाये जा सकते हैं।
१. व्यत्ययश्च-प्राकृत व्याकरण, ४।४४७ ।
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