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वज्जालन्ग
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यहाँ महाराष्ट्री में शौरसेनी की विशेषता आ गई है। 'अदिट्टए' का अर्थ हैअति इष्ट या अधिक प्रिय ( अति + इष्ट+क)। शौरसेनी की प्रकृति के अनुमार अति के त का द हो जाने' के अनन्तर पूर्व स्वर का लोप हो गया है। इस दृष्टि से संस्कृत छाया के द्वितीय पाद का परिमार्जित पाठ यह है
अतीष्टके मानः । ___ गाथार्थ-प्रिय के न देखने पर औत्सुक्य, देखने पर ईर्ष्या, उनसे अधिक प्रेम होने पर मान और दूर चले जाने पर दुःख होता है । सखि ! प्रियजन से सुख कहाँ मिलता है ?
९०४६-कज्जं एव्व पमाणं कह व तुलग्गेण कज्जइत्ताणं ।
जइ तं अवहेरिज्जइ पच्छा उण दुल्लहं होइ ॥ ३ ॥ कार्यमेव प्रमाणं कथं वा तुलाग्रेण कार्यकर्तृणाम्
यदि तदवहेल्यते पश्चात् पुनर्दुर्लभं भवति इसकी टीका यों की गई है ---
कार्यकर्तृणां पुरुषाणां कथं वा कार्यमेतत् यत् तुलावत् प्रमाणं कार्यकृत्सु आस्थीयते । नो वा । यदि तत् कार्य अवहेरिज्जइ अवहेल्यते पश्चात् तत् कार्य दुर्लभं भवति । अर्थात् कार्य करने वाले पुरुषों का कार्य तुला के समान कर्मठ पुरुषों में प्रमाण स्वरूप कैसे हो सकता है ? अथवा नहीं। यदि उसकी उपेक्षा होती है तो पुनः वह कार्य दुर्लभ हो जाता है ( नहीं हो पाता है)। टीकाकार ने 'तुलग्ग' को संस्कृत तुला से सम्बद्ध किया है। परन्तु वह देशी शब्द है. जिसका अर्थ हैकाकतालीय न्याय २ ( संयोग से होना ।
निम्नलिखित अंग्रेजी अनुवाद संस्कृत-टीका से तो सर्वथा भिन्न हो है, मूल प्राकृत गाथा को पदावली से भी बहुत दूर है
"जो लोग किसी महत्कार्य को पूर्ण करने में लगे हैं, उनके लिये एक प्रारब्ध कार्य का ( दृढता एवं निश्चयपूर्वक ) करना, बहुत महत्त्वपूर्ण वस्तु है। दैविक एवं सांयोगिक व्यापार कैसे काम आ सकते हैं ? यदि उपेक्षा हुई ( प्रारंभ में ) तो
१. अनादावयूजोस्तथयोदधौ-प्राकृत-प्रकाश, १२।३ । २. तुलग्गं कागतालीए-देशीनाममाला, ५।१५ ।
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