Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 540
________________ वज्जालग्ग गाथा क्रमांक ७८७ हिट्टओवि सुहवो तह वि हु नयणाण होइ दुप्पेच्छो । पेच्छह विहिणा न कया मह हियए जालयगवक्खा || ७८७ ॥ रत्नदेव ने समानार्थक 'जालय' ( जालक ) और 'गवक्ख' ( गवाक्ष ) शब्दों के सह-प्रयोग से सम्भावित पुनरुक्ति की आशंका का मार्जन इन शब्दों में किया है विरहिणी प्रलापत्वात् न शब्दपौनरुक्त्यम् अर्थात् एक ही अर्थ में जालक और गवाक्ष शब्दों का प्रयोग होने पर भी पुनरुक्ति नहीं है, क्योंकि यह एक विरहिणी - प्रलाप है । श्री पटवर्धन ने भी पृष्ठ ६२ पर इस कथन को प्रमाण के रूप में उद्धृत कर गाथा में पुनरुक्ति दोष स्वीकार किया है । मैं समझता हूँ, पुनरुक्ति को आशंका हो यहाँ व्यर्थ है । दोनों शब्दों में एक विशेषण है, दूसरा विशेष्य । अनेकार्थक जालय ( जाल + स्वार्थिक क ) शब्द का अर्थ झरोखा नहीं, जाली है । 'जालय - गवक्खा' का अर्थ है - जालीदार झरोखा | ४६५ गाथा क्रमांक ७८९ माणविहूणं रुंदीइ छोडय सिलधोयगयछायं । जं वसणं न सुहावइ मुय दूरं नम्मयाडे तं ॥ ७८९ ॥ इसकी छाया ' विस्तारेण त्यक्तम्' ठीक नहीं है । अंग्रेजी में 'छोडय' को छोडिये के अर्थ में प्रयुक्त बताया गया है, परन्तु प्राकृत 'छोडय' शब्द का अर्थ हैछोटा । ' रुंदीइ छोडयं' का संस्कृत अनुवाद ' विस्तारे लघु' है । 'रु' दीइ' तृतीयान्त नहीं, सप्तम्यन्तपद है । अतिरिक्त गाथाएँ ३१ × ७- - अइचंपियं विणस्सइ दंतच्छेएण होइ विच्छायं । ढलहलयं चिय मुच्चइ पाइयकव्वं च पेम्मं च ॥ १ ॥ Jain Education International संस्कृत टीका में प्राकृतपदों के संस्कृतरूप मात्र दिये गये हैं । अंग्रेजी अनुवाद केवल शाब्दिक है " प्राकृत काव्य और प्रेम बहुत दबाये जाने पर नष्ट हो जाते हैं । दाँत से काटने पर वे अपने सौन्दर्य को खो देते हैं । इस लिये दोनों को सुकुमार बताया गया है ।" ३० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590