Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh, Vishwanath Pathak
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 552
________________ वज्जालग्ग ४७७ आस्तां तावत् करिवधनं तव तनुजो धनुर्हरं समुल्लिखति स्थूलस्थिरस्तनभराणां किमस्माकं माहात्म्यम् ---उपलब्ध संस्कृत छाया उपर्युक्त छाया में 'धनुर्हरम्' के स्थान पर 'वनुर्भरम्' होना चाहिये। इस स्थल पर श्रीपटवर्धन यथार्थ से किंचित् दूर हट गये हैं । अतएव उन्हें इस सरस एवं सरल गाथा को भी अस्पष्ट कहना पड़ा । उनको व्याख्या यों है गजों को मारना तो दूर रहा, तुम्हारा पुत्र धनुर्दण्ड ( Bow staff ) को छोलकर हल्का कर रहा है। नहीं तो हमारे स्थूल, सुदृढ़ एवं भारी स्तनों का क्या महत्त्व है ( शक्ति है )। विवेच्य गाथा व्यंग्य प्रधान शैली में लिखी गई है। इसमें सन्निहित ध्वनि तत्त्व को समझने के लिये प्रकरण पर दृष्टि रखनी पड़ेगी। वनवासी बलवान् व्याध प्रतिदिन गुरुभार धनुष को अनायास हाथ में लेकर आखेट के लिये जाया करता था। जब से घर में चन्द्रमुखी नवोढा पत्नी आ गई तब से वह इतना कामुक हो गया है कि अंगों की सारी शक्ति ही समाप्त हो मई है। जिस भारी धनुष को वह कभी पुष्पवत् उठा लेता था, आज उसी को हाथ में लेने पर साँसें फूलने लगती हैं। अतः भार कम करने के लिये उसका दण्ड छील कर हल्का कर रहा है । कामुक व्याध का यह व्यापार देखकर उसकी प्रिया सास से कहती है : हे सास ! हाथियों को मारना तो दूर रहा, तुम्हारा पुत्र भारी धनुष के भार को (धनुर्भर ) छील कर हल्का कर रहा है। हमारे पीन एवं सुदृढ़ पयोधरों को क्या महत्ता रह गई ? तात्पर्य यह है कि हमारे इन पयोधरों का महत्त्व तो तब था जब वह विषय-सेवन के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में रुचि ही न लेता। अभी तो वह आखेट करने की बात भी कभी-कभी सोचता है और उसके लिये भारी धनुष को हल्का करने का प्रयत्न करता है। धिक्कार है, ऐसे विफल स्तनों को जो अपने आकर्षण से प्रणयी को एकनिष्ठ भी नहीं बना सके । अथवा तुम्हारा पुत्र विषय-सेवन-जनित दुर्बलता के कारण भारी धनुर्दण्ड को छील रहा है, यह क्या हमारा माहात्म्य है ? अरे ! यह तो हमारे पुष्ट पयोधरों का प्रभाव है ( अर्थात् हमारे पीनोन्नत पयोधरों के आकर्षणवश विषयी होकर आज इस स्थिति पर पहुँच गया है कि पुराने भारी धनुष को उठाने की शक्ति नहीं रह गई है । हे सास ! मैं निरपराध हूँ। (अपराधी ये दुष्ट पयोधर हैं )। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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