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वज्जालग्ग
'जाणामि' का भूतकालिक अर्थ हेमचन्द्र के 'व्यत्ययश्च', ४/४४७ – इस सूत्र से समर्थित है । इस अर्थ में जानामि क्रिया को प्रमुखता दी गई है । अथवा इसका निम्नलिखित अर्थ समझें :
अहो, संसार में प्रेम सुदृढ आशा से निर्मित नहीं होता है और भाग्य से पीडित होता है - इसे मैं जानती थी ( या जानती हूँ ! ।
इस प्रकार 'न' निषेध और 'जानाति' क्रिया के अन्वय-भेद से विवेच्य गाथा के कई अर्थ संभव हैं ।
३४९ x १० सो को वि न दीसइ सामलंगि जो घडइ विघडियं पेम्मं । घडकप्परं च भग्गं न एइ तेहि चिय
सलेहिं ॥ १७ ॥
स कोऽपि न दृश्यते श्यामलाङ्गि यो घटयति घटकर्परं च भग्नं नैति तैरेव
विघटितं प्रेम
(?)
- उपलब्ध अपूर्ण छाया
संस्कृत छाया का चतुर्थ चरण खण्डित है । 'सलेहि' है । संस्कृत टीका के अनुसार 'सलेहि' की छाया का चाहिये | श्री पटवर्धन 'संचैः' का अर्थ नहीं समझ सके । को प्रश्नांकित किया है । इस शब्द का अर्थ है - साँचा | 'सल' शब्द देशी प्रतीत होता है. परन्तु देशीनाममाला आदि कोशों में संगृहीत नहीं है । उसके अर्थ का आधार केवल निम्नलिखित टीका है :
तैरेव सलैः संचैः न एति नागच्छति ।
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पद को छोड़ दिया गया अनुवाद 'संचैः' होना उन्होंने टीका के इस पद
गाथार्थ - अयि श्यामलांगि, ऐसा कोई भी नहीं दिखाई देता जो टूटे प्रेम को जोड़ सके । फूटा घड़ा उन्हीं साँचों में नहीं आता ( अर्थात् उसका आकार पूर्ववत् नहीं हो सकता या साँचे में पुनः उसी रूप में नहीं बनाया जा सकता ) ।
३९७ × २ -- हारेण मामि कुसुमच्छडायलुप्पन्नचिच्चिणा दड्ढो । वम्मीसणो न मन्नइ उलूविओ तेण मं डहइ || १८ || हारेण सखि कुसुमच्छटातलोत्पन्न वह्निना दग्धः वर्मेषणो न मन्यते विध्यापितः तेन मां दहति
- उपलब्ध संस्कृत छाया
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