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वज्जालन्ग
यहां यह बता देना आवश्यक है कि पलाशमुकुल का वर्ण श्याम होता है ।
गाथा क्रमांक ७४१ दठूण किंसुया साहा तं बालाइ कीस वेलविओ। अहवा न तुज्झ दोसो को न हु छलिओ पलासेहिं ॥ ७४१ ।। दृष्ट्वा किंशुक शाखास्त्वं बालया कस्माद् वञ्चितः
अथवा न तव दोषः को न खलु च्छलितः पलाशैः श्रीपटवर्धन ने इस गाथा की जटिलता का उल्लेख किया है (पृ० ५८९ )। उनका अंग्रेजी अनुवाद केवल शाब्दिक है और उपर्युक्त संस्कृत छाया पर अवलम्बित है । उक्त अनुवाद का हिन्दी-रूप इस प्रकार है
__ "हे किंशुक ( पलाश )! तुम्हारी शाखा को देखकर तरुणी ने तुम्हें क्यों ठग लिया ? अथवा तुम्हारा दोष नहीं है, पलाशों ( राक्षसों और पलाश-वृक्षों) ने किसे नहीं छला ।"
तरुणी का पलाश-वृक्ष को ठगना समझ में नहीं आता है। रत्नदेव-कृत व्याख्या इस प्रकार है
दृष्ट्वा हा इति खेदे । त्वं बालया किमिति प्रतारितः । अथवा न तव दोषः को नाम न च्छलितः पलाशैः ।
परन्तु इस टीका का अभिप्राय स्पष्ट नहीं है ।
विवेच्य गाथा की व्याख्या के पूर्व कुछ पदों के सम्बन्ध में विचार कर लेना आवश्यक है। 'किसुया' लुप्तविभक्तिक द्वितोयान्त पद है जो 'किसुयं' (किंशुक) का अर्थ देता है। स्यादौ दीर्घह्रस्वी-इस हैम सूत्र से अन्त्यवर्ण दीर्घ हो गया है। ‘साहा' लुप्त विभक्तिक तृतीयान्त पद है और 'साहाइ' (शाखया) के अर्थ में है । इस प्रकार तृतीया का लोप वज्जालग्ग की अनेक गाथाओं में दिखाई देता है (देखिये, ३७३, ४९० और ७२६वीं गाथायें, जहाँ गयवईए के लिये गयवइ, कज्जलेण के लिये कज्जल और मगमासाए के लिये संगमासा का प्रयोग है।) 'तंबालाइ'-यह असंयुक्त नहीं, संयुक्तपद है। तंब (ताम्र = लाल) में मतुअर्थक आल' प्रत्यय जोड़ने पर स्त्रोलिंग में तंबाला शब्द बनेगा जो विभक्ति
१. आल्विल्लोल्लालवन्तेन्ता मतुपः
-प्राकृतप्रकाश, ४।२५
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